NCERT Solution of Class 10 Hindi क्षितिज भाग 2 नौबतखाने में इबादत पाठ का सार for Various Board Students such as CBSE, HBSE, Mp Board, Up Board, RBSE and Some other state Boards. We also Provides पाठ का सार और महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर for score Higher in Exams.
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NCERT Solution of Class 10th Hindi Kshitij bhag 2/ क्षितिज भाग 2 Nobatkhane Mein Ibadat / नौबतखाने में इबादत Summary / पाठ का सार Solution.
नौबतखाने में इबादत Class 10 Hindi पाठ का सार ( Summary )
‘नौबतखाने में इबादत’ यतींद्र मिश्र द्वारा रचित सुप्रसिद्ध शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के जीवन के विभिन्न पक्षों को उजागर करने वाला व्यक्ति-चित्र है। सन् 1916 से 1922 के आसपास की काशी में छह वर्ष का अमीरुद्दीन अपने नौ साल के बड़े भाई शम्सुद्दीन के साथ अपने मामाओं सादिक हुसैन और अलीबख्श के पास रहने आ जाते हैं। इनके दोनों मामा देश के प्रसिद्ध शहनाईवादक हैं। वे दिन की शुरुआत पंचगंगा घाट स्थित बालाजी मंदिर की ड्योढ़ी पर शहनाई बजा कर करते हैं। अमीरुद्दीन ही उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का बचपन का नाम है। इनका जन्म बिहार के डुमराव नामक गाँव में हुआ था। डुमराँव में सोन नदी के किनारे पाई जाने वाली नरकट नामक घास से शहनाई की रीड बनाई जाती है जिससे शहनाई बजती है। इनके परदादा उस्ताद सलार हुसैन खां और पिता उस्ताद पैगंबर बख्श खां थे। इनकी माता का नाम मिट्ठन था।
अमीरुद्दीन अथवा बिस्मिल्ला खाँ चौदह वर्ष की उम्र में बालाजी के मंदिर में जाते समय रसूलनबाई और बतूलन बाई के घर के रास्ते से हो कर जाते थे। इन दोनों बहनों के गाए हुए ठुमरी, टप्पे, दादरा के बोल इन्हें बहुत अच्छे लगते थे। इन्होंने स्वयं माना है कि उन्हें अपने जीवन के प्रारंभिक दिनों में संगीत के प्रति लगाव इन दोनों बहनों के कारण ही हुआ था। वैदिक साहित्य में शहनाई का कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता है। शहनाई को ‘मुंह से फूंककर बजाए जाने वाले वाद्यों से निकलने वाली ध्वनि’ के वाद्यों में गिना जाता है ज़िसे ‘सुषिरवाद्य’ कहते हैं। शहनाई को ‘शाहेनय’ कह कर ‘सुषिर वाद्यों में शाह’ माना जाता है सोलहवीं शताब्दी के अंत में तानसेन द्वारा रचित राग कल्पद्रुम की बंदिश में शहनाई, मुरली, वंशी, भंगी और मुरछंग का वर्णन मिलता है अवधी के लोकगीतों में भी शहनाई का उल्लेख प्राप्त होता है। मांगलिक अवसरों पर शहनाई का प्रयोग किया जाता है। दक्षिण भारत के मंगलवाद्य ‘नागस्वरम्’ के समान शहनाई भी प्रभाती की मंगल ध्वनि का प्रतीक है।
अस्सी वर्ष के हो कर भी उस्ताद बिस्मिल्ला खां परमात्मा से सदा ‘सुर में तासीर’ पैदा करने की दुआ मांगते रहते हैं। उन्हें लगता है कि वे अभी तक सातों सुरों का ढंग से प्रयोग करना नहीं सीख पाए हैं। बिस्मिल्ला खां मुहर्रम के दिनों की आठवीं तारीख को खड़े हो कर शहनाई बजाते हैं और दालमंडी में फातमान के करीब आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल ही रोते हुए नौहा बजाते हुए जाते हैं। उनकी आंखें इमाम हुसैन और उनके परिवारवालों के बलिदान की स्मृति में भीगी रहती हैं।
अपने खाली समय में वे जवानी के उन दिनों को याद करते हैं जब रियाज से अधिक उन पर कुलसुम हलवाइन की दुकान की कचौड़ियां खाने, गीताबाली और सुलोचना की फ़िल्में देखने का जुनून सवार रहता था। वे बचपन में मामू, मौसी और नानी से दो-दो पैसे लेकर छह पैसे का टिकट लेकर थर्ड क्लास में फ़िल्म देखने जाते थे। जब बालाजी मंदिर पर शहनाई बजाने के बदले अठन्नी मिलती थी तो उसे भी वे कचौड़ी खाने और सुलोचना की फिल्म देखने में खर्च कर देते थे। उन्हें कुलसुम की कड़ाई में कचौड़ी डाल कर तलते-समय उत्पन्न होने वाली छन्न की ध्वनि में संगीत सुनाई देता था।
विगत कई वर्षों से काशी में संगीत का आयोजन संकट मोचन मंदिर में होता है। हनुमान जयंती के अवसर पर यहां पांच दिनों तक शास्त्रीय एवं उपशास्त्रीय संगीत सम्मेलन होता है। इसमें बिस्मिल्ला खां अवश्य ही रहते हैं। उन्हें काशी विश्वनाथ के प्रति भी अपार श्रद्धा है। वे जब भी काशी से बाहर होते हैं तो विश्वनाथ एवं बालाजी मंदिर की ओर मुंह कर के थोड़ी देर के लिए शहनाई अवश्य ही बजाते हैं। उन्हें काशी से बहुत मोह है। वे गंगा, विश्वनाथ, बालाजी की काशी को छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहते। उन्हें इस धरती पर काशी और शहनाई से बढ़कर कहीं भी स्वर्ग नहीं दिखाई देता। काशी की अपनी ही संस्कृति है।
बिस्मिल्ला खाँ का पर्याय उनकी शहनाई है। यही नहीं शहनाई का पर्याय ही बिस्मिल्ला खां हो गए हैं। इनकी फूंक से शहनाई में जादुई ध्वनि उत्पन्न हो जाती है। एक दिन इनकी एक शिष्या ने इन्हें कहा कि आप को भारत रत्न मिल चुका है। आप फटी हुई तहमद न पहना करें। इस पर इनका उत्तर था कि भारत रत्न उनको शहनाई पर मिला है न कि तहमद पर। हम तो मालिक से यही दुआ करते हैं कि फटा सुर न दे, तहमद चाहे फटा रहे। सन् 2000 की वात स्मरण करते हुए लेखक कहता है कि उन्हें इस बात की कमी खलती थी कि पक्का महाल क्षेत्र में मलाई बरफ़ बेचने वाले चले गए हैं। देशी घी की कचौड़ी-जलेबी भी पहले जैसी नहीं बनती। संगीत, साहित्य और अदब की प्राचीन परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं।
काशी में आज भी संगत के स्वर गूंजते हैं। यहां का मरण मंगलमय माना जाता है। काशी आनंद मानन है। यहां बिस्मिल्ला खां और विश्वनाथ एक दूसरे के पूरक रहे हैं। यहां की गंगा-जमुनी संस्कृति का अपना ही महत्त्व है। भारत रल तथा अनेक उपाधियों, पुरस्कारों, सम्मानों आदि से सम्मानित विस्मिल्ला खां सदा संगीत के अजेय नायक बने रहेंगे। नब्बे वर्ष की आयु में दिनांक 21 अगस्त, सन् 2006 को यह संगीत की दुनिया का अनमोल साधक संगीत प्रेमियों के संसार से विदा हो गया।