16 महाजनपद Class 6 इतिहास Chapter 4 Notes – हमारा भारत I HBSE Solution

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16 महाजनपद Class 6 इतिहास Chapter 4 Notes


जनपद एवं महाजनपद का उदय

समाज की आरंभिक इकाई परिवार था। परिवार से ग्राम, ग्राम से जन, जन से जनपद तथा जनपद से महाजनपद का निर्माण हुआ। परिवार के लोग प्राय: एक ही पूर्वज की सन्तान होते थे। अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए एक साथ रहते थे।

एक ही पूर्वज से रिश्ता रखने वाले परिवारों के समूह को ‘जन’ कहा जाने लगा। जन के मुखिया को ‘राजन’ कहा जाने लगा। वह जन की सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाता था। राजन की सहायता के लिए सेनानी, पुरोहित और ग्रामीणी आदि अधिकारी होते थे। राजन की सैन्य सहायता के लिए सेनानी होता था। पुरोहित राजन को धर्म के पालन की शिक्षा देता था। उस युग में गाय जन के लोगों की मुख्य सम्पत्ति होती थी। राजन का मुख्य कार्य जन के लोगों के गोधन की सुरक्षा करना भी होता था।

ग्रामीणी ग्राम का मुखिया होता था। एक जन के क्षेत्र में कई ग्राम शामिल होते थे। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी। जन के क्षेत्र को धीरे-धीरे ‘जनपद’ कहा जाने लगा। एक जनपद में शुरुआत में एक ही जन के लोग रहते थे। आगे चलकर दूसरे जनों के लोग भी जनपद में आकर रहने लगे। समय के साथ इनके बीच सांस्कृतिक रिश्ते स्थापित हो गए। एक जनपद में नगर और ग्राम दोनों शामिल होते थे। जीवन में स्थिरता आने और जनसंख्या बढ़ने के साथ जनपदों का आकार भी बढ़ने लगा। छोटे जनपद बड़े-बड़े जनपदों में बदलने लगे। इनके क्षेत्रफल में भी बढ़ोतरी होने लगी। अब इन्हें महाजनपद कहा जाने लगा। इसी युग को भारत का महाजनपद काल कहा जाता है। वैदिक युग के जन अब 16 बड़े महाजनपदों में बदल गए। सभी महाजनपद गांधार (अफगानिस्तान) से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में दक्कन के पठार तक फैले हुए थे।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व तक भारत में केन्द्रीय सत्ता के संगठन की कमी थी। सारा राष्ट्र अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभाजित था जिन्हें महाजनपद कहा जाता था। बौद्ध ग्रन्थ ‘अंगुत्तर निकाय’ व ‘महावस्तु’ तथा जैन ग्रन्थ ‘भगवती सूत्र’ में महाजनपदों की संख्या 16 दी गई है। सम्भवतः इनकी वास्तविक संख्या कहीं अधिक थी। इन महाजनपदों में से कुछ राजतन्त्रीय तथा कुछ गणतन्त्रीय प्रशासनिक ढांचा अपनाए हुए थे।

  • राजतन्त्र : किसी भी राज्य का शासन एक राजा व उसके वंश के उत्तराधिकारियों द्वारा चलाया जाता है।
  • गणतन्त्र : किसी भी राज्य में शासन लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है।

महाजनपद व्यवस्था के विकास की कहानी

प्राचीन भारतीय राज्य-व्यवस्था के बारे में जानकारी वैदिक साहित्य से प्राप्त होती है। वेद व ब्राह्मण ग्रंथ भी भारतीय राज्य व्यवस्था की व्यापक जानकारी देते हैं। महाभारत और कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की गहरी जानकारी प्रदान करते हैं। भारत में सभा और समिति लोकतंत्र की प्राचीन संस्थाएं थीं। प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल का कथन है कि ‘सभा और समिति का जन्म ऋग्वैदिक युग में हुआ। सभा और समिति राजा की शक्ति पर अंकुश लगाने का कार्य करती थी। ये संस्थाएं भारत में लोकतंत्रीय मूल्यों के विकास को दिखाती हैं।” ऋग्वैदिक जनपद समय के साथ महाजनपदों में बदल गए। महाजनपद राजतंत्रीय एवं गणतंत्रीय व्यवस्था अपनाए हुए थे। राजतंत्रीय व्यवस्था में राजा का पद वंशानुगत होता था जबकि गणतंत्रीय व्यवस्था में राजा का चुनाव होता था। आगे चलकर महाजनपद काल में साम्राज्यवाद का दौर शुरू हो गया और इस दौर में मगध महाजनपद सबसे आगे निकल गया और मगध एक विशाल साम्राज्य के रूप में स्थापित हो गया।

कुछ प्रमुख महाजनपद एवं उनकी राजधानियां

  • कुरु – इंद्रप्रस्थ
  • अवंति – उज्जयिनी और महिष्मति
  • शूरसेन – मथुरा
  • पांचाल – अहिच्छत्र और कापिल्य
  • अंग – चम्पा
  • मगध – राजगृह और पाटलिपुत्र
  • काशी – वाराणसी
  • कौशल – श्रावस्ती
  • वज्जि – वैशाली
  • मल्ल – कुशीनगर और पावापुरी
  • चेदि – शक्तिमती
  • वत्स – कौशांबी
  • मत्स्य – विराटनगर
  • अश्मक – पाटेली (पाटेन)
  • कंबोज – हाटक या राजपुर
  • गांधार – तक्षशिला

इन सोलह महाजनपदों में प्रत्येक महाजनपद एक-दूसरे से संघर्षरत था। शक्तिशाली महाजनपद अवसर मिलते ही कमजोर को हड़पने की कोशिश करते था और छोटे-छोटे जनपदों को अपनी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता था। समय के साथ-साथ गणतन्त्रीय शासन की अपेक्षा राजतन्त्र की प्रवृत्ति बढ़ रही थी।

उस समय गणराज्यों को भी आवश्यकतानुसार संघ – राज्यों का निर्माण करना पड़ा था। विभिन्न महाजनपद खुद को शक्तिशाली बनाने के लिए विवाह संबंधों की मदद लेते थे।

 

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जैसे कौशल के राजा ने अपनी पुत्री महाकौशला का विवाह मगध के राजा बिम्बिसार से तथा प्रसेनजित ने अपनी पुत्री वजीरा का विवाह बिम्बिसार के पुत्र अजातशत्रु के साथ किया। उसने शाक्यों के साथ भी विवाह सम्बंध स्थापित किए। वत्स के राजा ने विदेह की राजकुमारी से विवाह किया। अतः विवाह संबंधों से राज्यों में मित्रता स्थापित हो जाती थी। ??????

भारत में गणतंत्रीय शासन की परम्परा

महाजनपद युग में भारत में एक प्रकार की शासन पद्धति नहीं थी। कहीं राजतंत्रीय शासन प्रणाली थी तो कहीं गणतंत्रीय शासन प्रणाली थी। कहीं-कहीं दोनों प्रकार की शासन प्रणालियों का समन्वय था । गणतंत्रीय शासन प्रणाली में गण का मुखिया निर्वाचित शासक होता था । मल्ल व वज्जि गणतंत्रीय शासन प्रणाली पर आधारित थे। गणतंत्रीय शासन प्रणाली में जनों को समान अधिकार प्राप्त थे। सभी गणतंत्रीय राज्यों में समान शासन व्यवस्था नहीं थी। गणतंत्रीय शासन प्रणाली में नागरिकों की स्वतंत्रता व समानता को महत्व दिया जाता था। इस व्यवस्था में शासन और सत्ता के अधिकार किसी व्यक्ति विशेष के हाथों में न होकर गण अथवा विभिन्न व्यक्तियों के हाथों में होते थे। गणराज्य का सर्वोच्च अधिकारी नायक, प्रधान या राष्ट्रपति होता था। यह गण या संघ की सभा द्वारा सामान्यतः जीवन-काल के लिए निर्वाचित होता था। कभी-कभी गण के मुखिया वंशानुगत भी होते थे।

गणतन्त्रीय शासन प्रणाली में राजा एक प्रतिनिधि परिषद् की अध्यक्षता करता था और गणराज्यों का शासन एक सर्वोच्च परिषद् के हाथ में होता था। इस परिषद् में युवा और वृद्ध दोनों शामिल होते थे। इन सभाओं में वाद-विवाद होता था। इन राज्यों का लम्बे समय तक अस्तित्व बना रहा। लोग गणतंत्र की तुलना मे राजतन्त्रात्मक शासन प्रणाली को अच्छा मानने लगे थे। ऐसी परिस्थितियों में मगध के नेतृत्व में शक्तिशाली राजतंत्र का उदय हुआ।

मगध महाजनपद का एक विशाल साम्राज्य के रूप में उदय

  • मगध के शासक बहुत योग्य व साहसी थे। बिम्बिसार, अजातशत्रु, उदयन, शिशुनाग एवं महापद्मनन्द जैसे शक्तिशाली शासकों ने मगध का दूर-दूर तक विस्तार किया।
  • उन्होंने एक विशाल सेना तैयार की। जिसमें पैदल, रथ, घुड़सवार और हाथी सम्मिलित थे।
  • इस क्षेत्र में हाथी प्राकृतिक रूप से बहुतायत में थे। मगध राज्य के उदय में वहां की भौगोलिक स्थिति ने भी अहम योगदान दिया।
  • यहां की नदियां गंगा, सोन तथा चम्पा कृषि तथा यातायात को सुदृढ़ आधार प्रदान कर रही थीं।
  • मगध में लोहे की बड़ी-बड़ी खदानें थी ।
  • मगध क्षेत्र की भूमि काफी उपजाऊ थी और इस क्षेत्र में पानी भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था।
  • नए नगरों के उदय एवं धातु के सिक्कों के प्रचलन ने भी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया। यहां साम्राज्य को व्यापारिक उत्पादनों पर चुंगी लगाकर खूब कर प्राप्त होता था ।
  • इस साम्राज्य का वातावरण अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक स्वतन्त्र था।

मगध के प्रमुख राजवंश

हर्यकवंश

  1. बिम्बिसार : इस वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक बिम्बिसार था जिसने 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक शासन किया। वह साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक था। बिम्बिसार ने अंग राज्य को विजित कर मगध का विस्तार शुरू किया। उन्होंने अपने पुत्र अजातशत्रु को अंग का शासक नियुक्त किया । मगध की आरम्भिक राजधानी गिरिव्रज (राजगृह) थी।

  2. अजातशत्रु : अजातशत्रु 492 ई.पू. में अपने पिता बिम्बिसार के बाद मगध का शासक बना। वह इतिहास में कुणिक नाम से भी चर्चित है। अजातशत्रु ने दीर्घकालीन संघर्ष के उपरान्त काशी व वज्जि संघ को जीत कर मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। अजातशत्रु के शासन काल में राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में प्रथम बौद्ध सभा (483 ई.पू.) का आयोजन हुआ। अजातशत्रु की 460 ई.पू. में उसके पुत्र उदयन द्वारा हत्या कर दी गई।

  3. उदयन : उदयन ने 460 ई.पू. से 445 ई.पू. तक शासन किया। उसने गंगा व सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र (कुसुमपुरा) नामक नगर की स्थापना की व उसे अपनी राजधानी बनाया। वे जैन धर्म के अनुयायी थे। वे अपने पूर्वजों की तरह राष्ट्रवादी शासक थे। हर्यक वंश का अन्तिम शासक नागदशक था, जिसे शिशुनाग नामक अमात्य (मंत्री) ने 412 ई.पू. में समाप्त कर मगध पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर शिशुनाग वंश की स्थापना की।

शिशुनाग वंश ( 412 ई.पू.-344 ई.पू.)

इस वंश के संस्थापक एवं शासक शिशुनाग ने अवन्ति तथा वत्स राज्यों को अपने अधिकार में लेकर मगध साम्राज्य का और विस्तार किया। शिशुनाग ने वज्जियों को नियन्त्रण में रखने हेतु पाटलिपुत्र के अतिरिक्त वैशाली को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। शिशुनाग ने 394 ई.पू. तक शासन किया। उसके बाद उसके पुत्र कालाशोक (काकवर्ण) ने 366 ई.पू. तक शासन किया। उसके शासन काल में 383 ई. पू. वैशाली में दूसरी बौद्ध सभा का आयोजन हुआ। महानन्दिन (नन्दिवर्धन) शिशुनाग वंश का अन्तिम शासक था। उसने 344 ई.पू. तक शासन किया। महापद्मनन्द ने शिशुनाग वंश को उखाड़ फेंका और नए राजवंश की स्थापना की जो नंद वंश के नाम से जाना गया।

नंदवंश (344 ई.पू. – 322 ई.पू.)

महापद्मनन्द इस वंश के संस्थापक थे। उसने विशाल सेना बनाई और इसके प्रभाव से इक्ष्वाकु, कुरु, शूरसेन, मथुरा, कलिंग आदि राज्यों पर विजय प्राप्त की। महापद्मनन्द ने साम्राज्य को स्थिरता प्रदान की। महापद्मनन्द की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र पण्डुक शासक बना लेकिन वह अयोग्य था। इनके बाद कई शासक थोड़े-थोड़े समय के लिए गद्दी पर बैठे और अन्त में इस वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक धनानन्द बना। यह सिकन्दर का समकालीन था। उसके पास 2 लाख पैदल, 20 हजार घुड़सवार, 2000 रथ और तीन हजार हाथियों की बहुत बड़ी सेना थी परंतु वह प्रजा में अलोकप्रिय था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस स्थिति का लाभ उठाया। उसने कौटिल्य की सहायता से 322 ई.पू. मगध पर आक्रमण कर दिया और धनानन्द को हराकर नंद वंश के साम्राज्य को समाप्त कर दिया और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।

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