1857 ई. की महान क्रांति Class 8 इतिहास Chapter 9 Notes – हमारा भारत III HBSE Solution

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1857 ई. की महान क्रांति Class 8 इतिहास Chapter 9 Notes


मई 1857 ई. की महान क्रान्ति भारतवर्ष के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस वर्ष भारतीयों ने ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के विरुद्ध ‘स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई’ लड़ी। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना 1600 ई. में हुई थी। कम्पनी का मुख्य उद्देश्य व्यापार करना था। 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई एवं 1764 ई. में बक्सर की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी के स्थान पर राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर कर सामने आई। अंग्रेज़ों ने 1757 ई. से 1857 ई. तक भारत में जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक नीतियां अपनाई, उनसे भारतीय जनता में असंतोष फैल गया, जिसके फलस्वरूप भारतीयों ने 1857 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा लिए। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर सावरकर ने इस संघर्ष को ‘भारतीय स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम’ की संज्ञा दी है। ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ बेंजामिन डिज़ैरैली और लार्ड एलनबैरो ने इसे महान विपत्ति एवं राष्ट्रीय विद्रोह माना है।

विनायक दामोदर सावरकर पहले ऐसे भारतीय थे, जिन्होंने 1857 ई. की क्रान्ति का इतिहास लेखन किया है। वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक ‘द इण्डियन वार ऑफ इण्डिपेण्डेंस’ में 1857 ई. की क्रान्ति को भारतीयों की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध पहली लड़ाई बताया है।

राजनीतिक कारण : ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासकों की साम्राज्यवादी नीति की परिणति 1857 ई. की क्रान्ति थी। रॉर्बट क्लाईव, लार्ड वेलेजली एवं लार्ड डलहौजी , जैसे गर्वनर-जनरलों ने छल एवं बल से अनेक भारतीय रियासतों/राज्यों का कम्पनी साम्राज्य में विलय किया। वेलेजली ने सहायक सन्धि और डलहौजी ने ‘लैप्स की नीति’ के तहत कई भारतीय रियासतों को हड़पा। लैप्स की नीति के तहत नागपुर, झांसी, जैतपुर, संभलपुर व सतारा आदि राज्यों को कम्पनी ने अपने अधीन कर लिया।

कम्पनी ने सिक्कों पर मुगल बादशाह का नाम अंकित करना बन्द कर दिया। डलहौजी ने घोषणा की कि बहादुरशाह जफर अन्तिम मुगल सम्राट होंगे एवं मुगलों को लाल किला छोड़ने का आदेश दे दिया। कम्पनी के इस निर्णय से अंग्रेज़ों के प्रति भारतीय जनता में असंतोष एवं घृणा फैल गई। अंग्रेज़ों ने मराठों के अन्तिम पेशवा द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहेब को भी उत्तराधिकारी मानने से इन्कार करते हुए उनकी पेंशन बन्द कर दी। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का राज्य भी उसके पति की मृत्यु के बाद छीन लिया गया। अवध के नवाब वाजिद अलीशाह पर कुप्रबन्धन का आरोप लगाकर अवध को अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय कर लिया गया। कम्पनी की इस नीति से असंख्य भारतीय सैनिक बेरोजगार हो गये।

सहायक सन्धि के अन्तर्गत आने वाले राज्यों को अपने दरबार में एक अंग्रेज़ रेजिडेन्ट व अंग्रेज़ी सेना रखनी पड़ती थी, जिसका खर्च राजा वहन करता था। ये सेना कम्पनी के , नियन्त्रण में रहती थी।

  • अंग्रेज़ों द्वारा मुगल सम्राट बहादुरशाह ज़फर को लाल किला छोड़ने के आदेश देना।
  • मुगल सम्राट का सिक्कों पर नाम अंकित न किया जाना।
  • नाना साहब की पैंशन बंद करना।
  • झांसी का अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय करना।
  • अवध पर कुप्रबंधन का आरोप लगाकर अंग्रेज़ी साम्राज्य में विलय करना।

लैप्स की नीति के अनुसार यदि कोई राजा निःसन्तान मर जाता था तो उसका राज्य कम्पनी के साम्राज्य में मिला लिया जाता था।

धार्मिक-सामाजिक कारण : अंग्रेज़ों ने भारतीय धर्म एवं संस्कृति को भी विखण्डित करने का कुप्रयास किया। अंग्रेज़ पादरियों व ईसाई मिशनरियों ने भारतीयों को बल एवं प्रलोभन से ईसाई बनाना आरम्भ कर दिया। लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति का मूल उद्देश्य भी ईसाई धर्म का प्रचार करना था। ईसाई पादरी भारतीय देवी-देवताओं का उपहास उड़ाते थे। सरकारी स्कूलों में बाईबिल पढ़ाई जाने लगी। सरकारी नौकरियों में अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान एवं ईसाई मत को प्राथमिकता दी जाने लगी। 1850 ई. में ‘धार्मिक अयोग्यता अधिनियम’ द्वारा ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले भारतीय को ही उसके पिता की सम्पत्ति में हिस्सा दिये जाने से भी ईसाई धर्म का प्रचार हुआ। अंग्रेज़ों ने भारतीय जनता से दुर्व्यवहार किया। वे भारतीयों को ‘काले बाबू’ कहकर पुकारते थे। उनके द्वारा भारत में बने सरकारी होटलों एवं दफ्तरों के बाहर सूचनापट्ट पर ‘कुत्तों एवं भारतीयों का प्रवेश निषिद्ध है’ भी अंकित करवा दिया गया था।

  • भारतीयों को बलपूर्वक ईसाई बनाना।
  • मैकाले द्वारा शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बनाना ।
  • सरकारी स्कूलों में बाईबल का अध्ययन अनिवार्य करना।
  • रंग एवं नस्ल के आधार पर भारतीयों का अपमान करना।
  • सामाजिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजों में अनुचित हस्तक्षेप करना।

आर्थिक कारण : अंग्रेज़ों ने 100 वर्षों के शासनकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया। दूषित भू-राजस्व व्यवस्थाओं से किसानों की दशा दयनीय हो गई। छोटी श्रेणी के किसान मजदूर बनकर रह गये। कम्पनी के लगान की बढ़ती मांग एवं ‘सूर्यास्त कानून’ से परम्परागत जमींदार भूमिहीन हो गये। लार्ड विलियम बैंटिक ने लगान मुक्त भूमि का सर्वेक्षण करवाया। भूमि के निश्चित प्रमाण-पत्र प्रस्तुत न करने वालों की जागीरें छीन ली गई। 1852 ई. में लार्ड डलहौजी ने ‘इनाम कमीशन’ के तहत लगभग 21 हजार जागीरें जब्त कर ली।

‘मुक्त व्यापार नीति’ के कारण लघु एवं कुटीर उद्योग तबाह हो गये। अंग्रेज़ों ने भारत से सस्ते दामों पर कच्चा माल खरीदकर इंग्लैंड भेजा और वहां पर तैयार माल महंगे दामों पर भारत की मण्डियों में बेचना शुरू किया। इग्लैंड के तैयार माल से भारतीय बाजार लबालब हो गये और भारतीय माल लगभग अदृश्य हो गया। सदियों से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारत में निर्मित सूती, रेशमी एवं ऊनी वस्त्रों का एकाधिकार था, जो अंग्रेज़ों की दूषित उद्योगनीति की भेंट चढ़ गया। कुशल भारतीय कारीगर अंग्रेज़ी कारखानों में मजदूरी करने लगे। उपर्युक्त कारणों से भारतीय जमींदार, उद्योगपति, किसान एवं मजदूर कम्पनी के विरुद्ध हो गये।

सूर्यास्त कानून : 1793 ई. के बंगाल से स्थाई बन्दोबस्त के आधार पर 1794 ई. में लागू किये गये सूर्यास्त कानून के तहत यदि एक निश्चित तिथि को सूर्यास्त होने तक जमींदार जिला कलैक्टर के पास भू-राजस्व की रकम जमा नहीं करता था, तो उसकी पूरी जमींदारी नीलाम हो जाती थी।

सैनिक कारण : 1854 ई. में कम्पनी की सेना में लगभग 350000 भारतीय सैनिक और 51000 यूरोपियन सैनिक थे। सरकार व सैनिक के मध्य प्रमुख सम्बन्ध वेतन का था। परन्तु सेना के कुल व्यय का आधे से अधिक भाग यूरोपियन सैनिकों पर खर्च किया जाता था। भारतीय सैनिकों को वेतन व भत्ता बहुत कम दिया जाता था। 1844, 1849 एवं 1852 ई. में विभिन्न सैनिक टुकड़ियों ने वेतन वृद्धि के लिए कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह किये, लेकिन उन्हें कठोरता से दबा दिया गया।  1856 ई. में पारित ‘सामान्य सेवा भर्ती अधिनियम’ के अन्तर्गत भारतीय सैनिकों को विदेश में भी भेजा जाने लगा जबकि भारतीय सैनिक समुद्र पार जाना धर्म के विरुद्ध मानते थे। अंग्रेज अधिकारी भारतीय सैनिकों से गाली-गलौच करते थे और अपने से हीन समझते थे, जिसकी वजह से भारतीय सैनिकों में रोष था।

  • भारतीय सैनिकों को कम वेतन देना।
  • भारतीय सैनिकों के योग्य होने के बावजूद भी सेना में उच्च पदों से वंचित रखना।
  • अंग्रेजी साम्राज्य में विलय किये गये राज्यों के सैनिकों का बेरोजगार होना।
  • भारतीय सैनिकों को समुद्र पार भेजना।
  • चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग अनिवार्य करना।
  • मंगल पांडे को फांसी देना।

तात्कालिक कारण : भारतीय जनमानस में अंग्रेज़ों के विरुद्ध असंतोष बढ़ रहा था। इसी बीच 1856 ई. में कम्पनी सरकार ने सेना में पुरानी बन्दूकों (ब्राऊन बेस) के स्थान पर नवीन बन्दूकें (एनफील्ड राइफल) सैनिकों को दे दी। इन बन्दूकों में प्रयुक्त होने वाले कारतूसों को मुंह से छीलना पड़ता था। इन कारतूसों को चिकना करने के लिए गाय व सूअर की चर्बी का प्रयोग किया जाता था। यह सूचना जब भारतीय सैनिकों को ज्ञात हुई तो वे क्रोधित हो गये, क्योंकि गाय प्रत्येक हिन्दू सिपाही के लिए पवित्र पशु हैं और मुसलमान सुअर को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। अत: चर्बी वाले कारतूस 1857 ई. की महान क्रान्ति का तात्कालिक कारण बने।

क्रान्ति की घटनाएं —

मंगल पाण्डेय, बैरकपुर, अम्बाला एवं मेरठ : 1857 ई. की महान क्रांति का श्रीगणेश बैरकपुर से हुआ। 29 मार्च, 1857 ई. को जब 34वीं रेजिमेन्ट की परेड़ होने लगी तो इस रेजिमेन्ट के एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पाण्डेय ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। इसी समय उसने दो अंग्रेज़ अधिकारियों सार्जेंट मेजर ह्रासन व लेफ्टिनैंट बॉब को गोली से उड़ा दिया। उसने अंग्रेज़ी सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति के लिए उत्साहित किया। उसे घायल अवस्था में पकड़ लिया गया। 8 अप्रैल, 1857 ई. को मंगल पाण्डेय को फाँसी की सजा दे दी गई। जनरल हेअरसें ने 34वीं रेजीमेन्ट को भंग कर दिया। बैरकपुर की इस घटना से क्रान्तिकारियों द्वारा तय तिथि 31 मई से पूर्व ही क्रान्ति आरम्भ हो गई। 1857 ई. क्रान्ति के प्रतीक के रूप में कमल का फूल और रोटी को चुना गया। कमल का फूल सभी सैन्य टुकड़ियों तक पहुंचाया गया, जिन्हें महान क्रान्ति में शामिल होना था। रोटी को एक गाँव से दूसरे गाँव तक पहुंचाया गया था।

9 मई 1857 ई. को मेरठ में 85 सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। उन पर सैनिक मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें 10 साल की सजा सुनाई गई और उन्हें अन्य सैनिकों के सामने निर्वस्त्र कर दिया। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा की गई इस कार्यवाही से क्षुब्ध होकर उनके साथियों नें 10 मई को, रविवार के दिन महान क्रान्ति की शुरुआत कर दी। यूरोपियन अफसरों की हत्या कर दी गई व बन्दी भारतीय सैनिकों को मुक्त करवाया। वे ‘हर-हर महादेव’ एवं ‘मारो फिरंगी को’ नारे लगाते हुए दिल्ली की ओर कूच कर गये। मेरठ क्रान्ति से लगभग 9 घंटे पूर्व अम्बाला में क्रांति की शुरुआत हो गई थी। क्रांति के समय अंबाला की छावनी भी अंग्रेज़ों की महत्वपूर्ण सैनिक छावनियों में से एक थी । चर्बी वाले कारतूसों एवं मंगल पाण्डेय की फांसी की सजा की सूचना से यहां के सैनिकों में असंतोष फैल गया। कुछ सैनिक अंग्रेज अधिकारियों के पास गये और चर्बी वाले कारतूस वापिस लेने के लिए निवेदन किया। परन्तु अंग्रेज अधिकारियों का सकारात्मक जवाब न मिलने के कारण भारतीय सैनिकों ने योजना बनाई कि वे 10 मई, 1857 ई. को रविवार के दिन जब अंग्रेज़ गिरजाघर में प्रार्थना के लिये जांएंगे तो वे सैनिक शस्त्रागार पर अधिकार कर लेंगे। परन्तु एक देशद्रोही जासूस शामसिंह ने अंग्रेज़ों को इस योजना की सूचना दे दी और अंग्रेज़ सतर्क हो गये।

10 मई को अम्बाला में 60वीं एवं 5वीं पलटनों ने निर्धारित योजना के अनुसार अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की परन्तु सचेत अंग्रेज़ी सेना ने क्रांतिकारी सैनिकों को तोपों एवं टैंको से घेर लिया। क्रांतिकारी सैनिकों ने भी 50 अंग्रेज अफसरों को बंधक बनाकर अपनी ढाल बना लिया। ऐसी परिस्थितियों में अंग्रेजों ने क्रांतिकारी सैनिकों की मांगों पर सकारात्मक विचार करने एवं सम्मान के साथ उन्हें सेवा में रखे जाने का प्रस्ताव रखा। क्रांतिकारियों ने भी अंग्रेज़ों का यह प्रस्ताव मान लिया। इस प्रकार एक देशद्रोही के कारण अंबाला में क्रांति की ज्वाला को दबा दिया गया।

दिल्ली : 11 मई, 1857 ई. को ये सभी स्वतन्त्रता सेनानी जनरल बख्तखान के नेतृत्व में दिल्ली पहुँचे। मुगल सम्राट बहादुरशाह जफ़र द्वितीय को पुनः भारत का बादशाह घोषित किया गया। बहादुरशाह जफर ने पड़ोसी राज्यों से अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित होने का आह्वान किया। दिल्ली पर भारतीयों के आधिपत्य का समाचार आस-पास के क्षेत्रों में तेजी से फैलने लगा। जगह-जगह पर अंग्रेज़ों का विरोध बढ़ने लगा। दिल्ली पर अधिकार होने के बाद भारतीय सैनिकों ने गुड़गाँव के कलेक्टर फोर्ड को खदेड़कर गुडगाँव पर अधिकार कर लिया। राव तुलाराम ने रिवाड़ी में, लाला हुकमचन्द जैन ने हाँसी में मुहम्मद शहजादा आज ने हिसार में, नूरसमदखान ने रानियां में, अबुदर्रहमान एवं उसके दामाद समदखान ने झज्जर में, बाबा शाहमल तोमर ने बड़ौत (मेरठ) में एवं राजा नाहर सिंह ने बल्लभगढ़ में क्रान्ति का बिगुल बजाया। सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने कड़े संघर्ष के बाद दिल्ली पर पुनः अधिकार किया। बहादुरशाह जफ़र को हुमायूं के मकबरे से बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहां पर 1863 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

कानपुर, बनारस एवं इलाहाबाद : पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र ‘नाना साहिब’ ने जून 1857 ई. में अपने आपको ‘पेशवा’ घोषित किया। जनरल नील ने इलाहाबाद एवं बनारस में भारतीय जनता पर अत्यधिक अत्याचार किये। नील के अत्याचारों से क्रोधित होकर कानपुर में ‘सतीचौरा घाट’ पर भारतीय सैनिकों ने अनेक अंग्रेज़ों को मौत के घाट उतार दिया। जनरल हैवलॉक ने 17 जुलाई, 1857 ई. को कानपुर पर अधिकार किया, लेकिन शीघ्र ही नाना साहिब एवं तांत्या टोपे ने अंग्रेजी सेना को पराजित करके कानपुर पर पुनः अधिकार किया। कोलिन कैपबल ने नाना साहिब को कानपुर में हराया। नाना साहिब नेपाल की ओर चले गये और तांत्या टोपे रानी लक्ष्मीबाई से जा मिला।

लखनऊ : 1857 ई. के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में लखनऊ में वाजिद अलीशाह की बेगम हजरतमहल ने क्रान्ति का झण्डा बुलन्द किया। 10 दिन तक चले संघर्ष में स्वतन्त्रता सेनानियों ने लखनऊ पर अधिकार कर लिया। बेगम हजरत महल ने वाजिद अलीशाह के पुत्र बिरजिस कादिर को नवाब घोषित किया। लखनऊ पर अधिकार करने की लड़ाई में इलाहाबाद व बनारस में निर्दोष पुरुषों, महिलाओं एवं बच्चों की हत्या करने वाला ‘क्रूर नील’ लखनऊ की गलियों में मारा गया। नवम्बर 1857 में जनरल हैवलॉक एवं कैम्पबैल की सयुंक्त सेना ने लखनऊ पर आक्रमण किया। भीषणयुद्ध में हैवलॉक मारा गया। मार्च 1858 ई. तक लखनऊ पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया।

झाँसी : झाँसी में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में स्वतन्त्रता सेनानियों का नेतृत्व रानी लक्ष्मीबाई ने किया। जून 1857 ई. में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज़ों को झाँसी से खदेड़कर अपना स्वतन्त्र शासन स्थापित किया। 3 अप्रैल 1858 ई. को अंग्रेज़ी कमाण्डर सर ह्यूरोज ने झाँसी पर आक्रमण किया। कड़े संघर्ष के बाद अंग्रेज़ी सेना किले में प्रवेश करने में सफल हुई। रानी झाँसी छोड़कर काल्पी की ओर चली गई। काल्पी में भी रानी व तांत्या टोपे ने युद्ध के आरम्भ में सर ह्युरोज की सेना को अत्यधिक हानि पहुँचाई। 24 मई को अंग्रेजों का काल्पी पर भी अधिकार हो गया। रानी व तात्यां टोपे ने काल्पी से निकलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। ग्वालियर का शासक सिन्धियां अंग्रेज़ों की शरण में चला गया। 7 दिन के लम्बे संघर्ष के बाद 18 जून 1858 ई. को अंग्रेज़ी सेना ने ग्वालियर को अपने अधिकार में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेज़ी सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुई और तात्या टोपे अप्रैल 1859 ई. तक अंग्रेजों से संघर्ष करता रहा। देशद्रोही मानसिंह ने अलवर के जंगलों में सोते हुए तांत्या टोपे को पकड़वा दिया। 18 अप्रैल 1859 ई. को उसे फांसी दे दी गई।

जगदीशपुर : जगदीशपुर में 80 वर्षीय राजा कुँवर सिंह ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रान्ति का झण्डा बुलन्द किया। उसने अंग्रेज़ों को अनेक युद्धों में पराजित करके स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। अप्रैल 1858 ई. में वह अंग्रेज़ी सेना से लोहा लेते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी मृत्यु के बाद उसके भाई अमरसिंह ने क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया।

दक्षिण भारत : 1857 ई. की क्रान्ति एक व्यापक क्रान्ति थी। इसका विस्तार दक्षिण भारत में भी देखने को मिला। महाराष्ट्र के सतारा में इसका नेतृत्व रंगा बापू गुप्ते ने किया। बम्बई में कम्पनी की सेना में क्रान्ति की योजना बनाने वाले सैयद हुसैन व मंगल को तोप से उड़ा दिया। लगभग पूरे दक्षिण भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति फैली हुई थी।

क्रान्ति का स्वरूप –

1857 ई. की महान क्रान्ति गौरवमयी थी। ब्रिटिश अधिकारियों व साम्राज्यवादी लेखकों ने इसे निजी कारणों से सैनिक विद्रोह, मुस्लिम षड्यन्त्र, ईसाई विरोधी विद्रोह एवं सामन्तवादी प्रतिक्रिया सिद्ध करने का असफल कुप्रयास किया है। परन्तु ब्रिटेन के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ डिज़रैली ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह कहा है, कई अन्य विदेशी लेखकों ने भी इसे ऐसा जनविद्रोह कहा, जिसमें अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने का सामूहिक प्रयास किया गया। इस संघर्ष में लाखों जानें गई। यह इतना व्यापक था कि उत्तर एवं मध्य भारत के साथ-साथ दक्षिण, पूर्व एवं पश्चिम भारत में भी फैला। सैनिकों के अतिरिक्त सजा पाने वालों में नागरिक अधिक थे। सभी धर्मों एवं वर्गों के लोगों ने इसमें भाग लिया। इसी के आधार पर सर्वप्रथम विनायक दामोदर राव सावरकर ने 1908 ई. में 1857 ई. के महान संघर्ष को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा है।

क्रान्ति का महत्व –

यद्यपि भारतीयों का अंग्रेज़ों को भारत से बाहर निकालने का प्रथम संगठित सामूहिक प्रयास असफल रहा, क्योंकि उस समय अग्रेंज़ एक बड़ी सामुद्रिक शक्ति थे। क्रान्ति की तिथि 31 मई 1857 ई. निश्चित की गई थी, लेकिन चर्बी वाले कारतूसों की घटना के कारण यह 10 मई को ही शुरू हो गई। मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर क्रान्ति के केन्द्रीय नेतृत्व की कमजोर कड़ी साबित हुए। यातायात एवं संचार के साधनों पर अंग्रेज़ों का आधिपत्य था। इसकी वजह से वे इस महान क्रांति का दमन करने में सफल रहे। परन्तु इस महान संघर्ष ने कम्पनी साम्राज्य की जड़े हिला दी। 1858 ई. में इग्लैण्ड की संसद में पारित एक्ट के अनुसार कम्पनी राज का अन्त करके भारत को इंग्लैंड के अधीन कर दिया। इग्लैण्ड सरकार ने घोषणा की कि अब किसी भी भारतीय राजा का राज्य नहीं छीना जाएगा। उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा। उन्हें पुत्र गोद लेने व उसे उत्तराधिकार मनोनीत करने का अधिकार दे दिया गया, लेकिन उनको इंग्लैण्ड के शासन के अधीन माना गया। सैन्य प्रशासन में भी अनेक बदलाव किए गए। सेना में यूरोपियन सैनिकों की संख्या बढ़ा दी गई। सेना का तोपखाना व गोलाबारूद यूरोपीयन सैनिकों के अधीन रखने का निश्चय किया गया। सेना का इस प्रकार पुनर्गठन किया गया कि उनमें एकता की भावना पैदा न हो सके। सेना का आधार जातीय रखा गया।

इस क्रांति से भारतीय स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ और 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

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