अपने मित्र बने, शत्रु नहीं Class 9 नैतिक शिक्षा Chapter 18 Explain HBSE Solution

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अपने मित्र बने, शत्रु नहीं Class 9 Naitik Siksha Chapter 18 Explain


उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।। गीता 6/5

अर्थ : अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे, क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।

भावानुवाद :

उद्धार अपना करो आप ही, पतन में न गिरने दो खुद को कभी। 
कि है आप ही मित्र अपना भी यह नहीं और, शत्रु भी खुद अपना ।।

अर्थात् हमें कुछ बनना है, बिगड़ना नहीं; जीवन की ऊँचाइयों को छूना है, पतन की गर्त में नहीं गिरना! अच्छी पढ़ाई अच्छे जीवन को सिद्ध करने के रूप में अपना मित्र बनना है, बुरी आदतों में लगकर अपने ही साथ शत्रुता नहीं करनी!

‘अच्छी पढ़ाई-अच्छा जीवन-इस आदर्श वाक्य को साथ लेकर आगे बढ़ने में गीता प्रेरणा अनुपम और अचूक मार्गदर्शक सिद्ध हो सकती है। पढ़ाई के समय में वस्तुतः ये दोनों स्थितियाँ साथ-ही-साथ आवश्यक भी हैं। गीता के इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण श्लोक को ध्यान से देखें ! कितना सीधा स्पष्ट भाव-अपने आपको उत्थान अथवा ऊँचाई की ओर ले जाओ, पतन की गर्त में नहीं गिरने दो। अपने मित्र बनो, शत्रु नहीं ।

बच्चो! सबसे पहले तो स्वयं निर्णय करो-हमें कुछ बनकर ऊँचाइयों को छूना है अथवा बिगड़कर पतन की खाई में गिरना है? सोचो, अच्छी तरह सोचो! स्वयं से पूछो ! अपने से ही उत्तर जानो! इस श्लोक के माध्यम से गीता हमें आत्म विश्लेषण और आत्म निरीक्षण का पूरा-पूरा अवसर दे रही है। यदि आप खुले मन से आत्मनिरीक्षणपूर्वक अपने से उत्तर ढूँढ़ेंगे तो उत्तर यही मिलेगा – मुझे कुछ बनना है, बिगड़ना नहीं।

भारत के नौनिहाल ! यह भी विश्वास रखो कि ऐसी सोच बनते या स्वयं अपने में से ऐसा उत्तर मिलते ही आपके उत्थान का मार्ग अपने आप खुलने लगेगा। यह श्लोक जहाँ ऊँचाइयों की ओर आगे बढ़ने में आपका उत्साह बढ़ाएगा, वहीं कभी भी कहीं किसी पतन में गिरने की आशंका से सावधान भी करेगा। यह भी उदारतापूर्वक सोचो कि गीता के ऐसे प्रेरक भाव क्या किसी जाति, वर्ग, स्थान, समय तक सिमटे हुए रह सकते हैं या रहने चाहिए? उत्थान-पतन बनने-बिगड़ने की स्थिति को क्या किसी संकीर्णता के तराजू में तोला जा सकता है?

इस बात को भी अवश्य सामने रखो कि हमारी भारतीय संस्कृति में केवल बाह्य बड़प्पन, सौन्दर्य या ऊँचे पद से ही कोई ऊँचा नहीं हो जाता। व्यक्तित्व के विकास का आधार तो अच्छे कर्म, अच्छी आदतें और चरित्र है । सोचो-कंस, दुर्योधन ने अन्याय-अनीति से ऊँचा पद तो पा लिया; लेकिन क्या वे समाज में अपना ऊँचा स्थान बना पाए ? दूसरी ओर उसी समय में अर्जुन, सुदामा आदि के जीवन में बाह्यरूप में विपरीत स्थितियाँ रही; लेकिन उनके विचार, व्यवहार, चरित्र बहुत ऊँचे रहे- आज भी उनका स्थान बहुत ऊँचा है। ऐसे ही और भी बहुत उदाहरण हैं। इनसे प्रेरणा लें!

एक और स्पष्टीकरण यहाँ आवश्यक है। कुछ बच्चे ऐसा सोचते हैं कि जीवन में ईश्वर की क्या उपयोगिता है? क्यों ईश्वर को स्वीकारा जाए ? ईश्वर ‘सत्’ सत्ता है। नाम कोई भी हो, उसमें कोई कठिनाई या आपत्ति नहीं। सत् को स्वीकार करोगे तो बुद्धि-सदबुद्धि, विचार- सद्विचार, कर्म-सत्कर्म ऐसे ही सद्भाव, सदाचार, सद्प्रेरणाएँ एवं हर वस्तु का सदुपयोग-अच्छी दिशा में ही जीवन आगे बढ़ेगा। यही जीवन का वास्तविक उत्थान भी है।

इसलिए बच्चो ! कुछ मिनट अपने-अपने भाव एवं पूजा पद्धति के अनुसार ईश्वर के ध्यान एवं प्रार्थना के लिए अवश्य निकालो। सत् परमात्मा से जुड़ने का अर्थ है- सन्मार्ग पर आगे बढ़ना ! इससे आपका बौद्धिक विकास होगा, मानसिक एकाग्रता और मनोबल बढ़ेगा, स्मरण शक्ति अच्छी बनेगी तथा आत्मविश्वास के साथ जीवन को ऊँचाइयों की ओर ले जाने में सहायता मिलेगी।

इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में बहुत ही उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण संकेत है। हम आप ही अपने मित्र हैं तथा आप ही अपने शत्रु भी।

यदि संगति अच्छी है तो हम अपने साथ मित्रता कर रहे हैं। कुसंग में पड़ गए. बुरी संगति हो गई तो अपने साथ स्वयं ही शत्रुता कर रहे हैं; क्योंकि बुरी संगति से ही पतन का मार्ग खुलता है। अच्छा निश्चय, अच्छी आदतें, नियम-संयम अपने साथ मित्रता है। जबकि नशा, बुरी आदतें, चरित्रहीनता आदि अपने ही साथ शत्रुता ।

आशा एवं उत्साह से भरपूर सकारात्मक सोच, उदार शीतल स्वभाव अपने साथ मित्रता है, जबकि निराशावादी, उत्साहहीन, नकारात्मक सोच, हठी, जिद्दी, क्रोधी, अहंकारी, संकीर्ण स्वभाव अपना नुकसान करता है। इसलिए यह अपने साथ ही शत्रुता है।

सार रूप में अच्छी पढाई, अच्छी संगति, अच्छा स्वभाव, अच्छी आदतें-अच्छा जीवन यही है जीवन का उत्थान एवं यही है शिक्षा का सही स्वरूप।


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