अठारहवीं सदी का भारत Class 8 इतिहास Chapter 6 Notes – हमारा भारत III HBSE Solution

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अठारहवीं सदी का भारत Class 8 इतिहास Chapter 6 Notes


अठारहवीं शताब्दी के दौरान भारत में उच्च कोटि का सूती एवं रेशमी कपड़ा, मसाले, नील, शक्कर, औषधियाँ एवं बहुमूल्य रत्न विश्व भर में प्रसिद्ध थे। अठारहवीं शताब्दी को कुछ विदेशी इतिहासकार ‘अन्धकार काल’ का नाम देते हैं परन्तु यह भारत की आर्थिक उन्नति का काल भी कहा जाता है।

  • 1674 ई. में छत्रपति शिवाजी ने मराठा साम्राज्य की नींव रखी और रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ।

अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत में मुगल साम्राज्य बिखर चुका था। मुगल शासकों ने जिस कूटनीति का सहारा लेकर जो साम्राज्य संगठित किया था, उसका शाहजहाँ और औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीति एवं गैर-मुस्लिमों पर अत्याचार के कारण पतन शुरू हुआ। परिणामस्वरूप मुगल साम्राज्य के अवशेषों पर अनेक स्वतंत्र राज्यों का निर्माण शुरू हुआ। ये राज्य थे- बंगाल, अवध, हैदराबाद, कर्नाटक, केरल, रूहेलखण्ड, बुंदेलखण्ड, राजपूताना, मराठा एवं पंजाब में सिक्ख आदि। इन राज्यों की जानकारी इस प्रकार से है :

1. मराठा-शक्ति का उत्कर्ष : औरंगज़ेब के शासनकाल में छत्रपति शिवाजी ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। 1689 ई. में शम्भाजी को अपने परिवार के साथ मुगल सेनाओं द्वारा पकड़ा गया। शम्भाजी का कत्ल कर दिया गया और उसके पुत्र शाहू को बन्दी बना लिया गया। शम्भाजी की मृत्यु के पश्चात् ‘राजाराम’ (1689-1700 ई.) मराठों का राजा बना और उसके नेतृत्व में मराठों ने अपना संघर्ष जारी रखा। राजाराम की 1700 ई. में मृत्यु हो गई।

राजाराम की मृत्यु के उपरान्त उसकी विधवा पत्नी ताराबाई ने मुगलों के विरुद्ध शक्तिशाली संघर्ष जारी रखा। उसने अपने चार वर्षीय पुत्र को गद्दी पर बिठाया, जो शिवाजी द्वितीय के नाम से सिंहासन पर बैठा। मराठों से संघर्ष करते हुए 2 मार्च 1707 ई. को औरंगज़ेब की मृत्यु हो गयी। उस समय शाहू औरंगज़ेब के पुत्र आज़मशाह की कैद में था । आज़मशाह ने मराठों में फूट डलवाने के लिए शम्भाजी के पुत्र शाहू को जेल से मुक्त कर दिया। अनेक मराठा सामन्तों ने महाराष्ट्र पहुँचने पर शाहू का स्वागत किया परन्तु ‘ताराबाई’ ने शाहू से किसी भी प्रकार का समझौता करने से इन्कार कर दिया। मराठे दो भागों में बँट गये, प्रमुख मराठा सामन्त शाहू के खेमे में आने लगे। 01 जनवरी, 1707 ई. को शाहू ने सतारा पर अधिकार करके 12 जनवरी, 1708 ई. को सतारा में अपना राज्याभिषेक कराया। शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को अपना पेशवा नियुक्त किया। 15 दिसम्बर, 1749 ई. को छत्रपति शाहूजी का देहांत हो गया।

शाहू के शासनकाल में मराठा शक्ति न केवल दक्षिण भारत में श्रेष्ठ बनी बल्कि उत्तर भारत में भी मराठा शक्ति का लोहा माना जाने लगा। बालाजी विश्वनाथ एवं बाजीराव महान पेशवा थे। बालाजी ने मराठा-संघ की नींव डाली। 1719 ई. की संधि के अनुसार मराठों को छह मुगल सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार मिला था, लेकिन बालाजी ने उसे भी विभिन्न मराठा सरदारों में जागीर के रूप में बाँट दिया। 1752 ई. में सम्राट और पेशवा के मध्य एक सन्धि हुई जिसके अनुसार सम्राट ने मराठों को मुगलों के अधीन क्षेत्र जैसे पंजाब, राजपूताना, सिंध मुल्तान आदि से चौथ लेने का अधिकार दे दिया तथा इसके बदले में मराठों ने मुगलों की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया। दिल्ली-दरबार में हिन्दुस्तानी अमीर और तूरानी अमीरों के दो दल थे। ये दोनों दल एक-दूसरे के विरोधी थे। मराठों ने हिन्दुस्तानी अमीर वर्ग का समर्थन किया। मराठे इस वर्ग के साथ मिलकर सम्राटों को गद्दी पर बैठाने और उतारने लगे। तूरानी दल ने अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।

पानीपत का तीसरा युद्ध (1761 ई.) : पेशवा बालाजी बाजीराव ने अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध एक विशाल सेना भेजी। 14 जनवरी 1761 ई. को मराठों और अब्दाली के बीच पानीपत का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में मराठे पराजित हुए और अनेक मराठा सरदार युद्ध क्षेत्र में मारे गये। इस युद्ध में मराठों की अपार जन-हानि हुई। पेशवा की शक्ति कमजोर हो गई और मराठा साम्राज्य उत्तर भारत से पीछे हट गया।

2. बंगाल : 1717 ई. में मुर्शिद कुली खाँ की बंगाल के मुगल सूबेदार के रूप में नियुक्ति हुई। उन्होंने मुगल साम्राज्य की पतनावस्था से लाभ उठाकर स्वतंत्र शासक के रूप में कार्य प्रारम्भ कर दिया। 1727 ई. में मुर्शिद कुली खाँ की मृत्यु के बाद उसका दामाद शुजाउद्दीन बंगाल का शासक बना। 1739 ई. में उसका अयोग्य पुत्र सरफराज खाँ बंगाल का शासक बना, जिसे हटाकर अलीवर्दी खाँ ने बंगाल की नवाबी प्राप्त की और 1740 ई. में स्वयं को बंगाल का स्वतंत्र शासक घोषित किया। उसके शासन काल में ‘यूरोपीय कम्पनियों’ ने बंगाल में अपने व्यापार का प्रसार किया। उसने अपने शासन काल में अंग्रेज़ों और फ्रांसीसियों को अपने नियंत्रण में रखा और अंग्रेज़ों को कलकत्ता और फ्रांसीसियों को चन्द्रनगर में अपनी कोठियों की किलेबन्दी करने की आज्ञा नहीं दी। उसकी मृत्यु के उपरान्त सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना। अलीवर्दी खाँ ने अपने उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला को अंग्रेज़ों के प्रति सावधान रहने का परामर्श भी दिया। सिराजुद्दौला अनुभवहीन था। उसका अंग्रेज़ों से संघर्ष हो गया। नवाब के द्वारा अंग्रेज़ों की किलेबंदी करने पर नवाब ने अंग्रेज़ों के कासिम बाजार की फैक्टरी पर अधिकार कर लिया व अंग्रेज़ों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया। षड्यंत्रों के द्वारा अंग्रेज़ों ने नवाब को अपदस्थ करने की योजना बनाई। इस योजना में नवाब के सेनापति एवं बंगाल के कुछ प्रमुख व्यक्तियों को लालच देकर खरीद लिया गया जिसके कारण 1757 ई. में प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय हुई। उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा और मीर जाफर बंगाल का नवाब बना। कुछ वर्षों बाद मीर जाफर को हटाकर मीर कासिम को नवाब बनाया गया। मीर कासिम बंगाल की स्थिति को सुधारना चाहता था लेकिन अंग्रेज़ों से अनबन होने के कारण उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सहायता की प्रार्थना की। उस समय मुगल सम्राट शाह आलम भी वहीं था। अत: इन तीनों ने मिलकर अंग्रेज़ों को सबक सिखाने की योजना बनाई और 1764 ई. में बक्सर का युद्ध हुआ। युद्ध में तीनों की संयुक्त सेना हार गई। इसके फलस्वरूप बंगाल कंपनी के शासन की बेड़ियों में जकड़ गया।

  • भारत में अंग्रेज़ी राज्य की औपचारिक नींव 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई के साथ ही रखी गई थी ।

3. अवध : अवध के स्वतंत्र राज्य की स्थापना ‘सआदत खाँ बुरहान-उल-मुल्क’ ने की। उसकी नियुक्ति 1722 ई. में अवध के मुगल सूबेदार के रूप में हुई थी। उसने विद्रोही ज़मींदारों को दबाया, उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की और उन्हें भू-राजस्व देने पर विवश किया। उन्होंने प्रशासन एवं सेना को श्रेष्ठ बनाने का प्रयास किया। उसने अवध के किसानों की दशा सुधारने का प्रयास किया और ज़मींदारों के अत्याचारों से उनकी रक्षा की। उसकी 1739 ई. में मृत्यु के पश्चात् उसका भतीजा सफदरजंग अवध का शासक बना। उसने रूहेलों और पठानों के विरुद्ध संघर्ष किया। उन्होंने मराठों और जाटों के प्रति मित्रता की नीति अपनाई और रूहेलों तथा पठानों के विरुद्ध उनकी सहायता प्राप्त की। सफदरजंग ने 1754 ई. तक शासन किया। 1764 ई. में बक्सर के युद्ध में यहाँ का नवाब शुजाउद्दौला अंग्रेजों से हार गया।

4. राजपूत राज्य : राजपूताना के प्रमुख राजपूत राज्यों ने मुगल साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। उन्होंने अपनी शक्ति का पुनः विकास किया।

क) आमेर : आमेर के शासक सवाई जयसिंह (1681-1743 ई.) ने राजपूत राजाओं में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की। उन्होंने 1708 ई. में अपने पूरे राज्य पर अधिकार कर किया। उसने जयपुर नगर की स्थापना की। उसने कला और विज्ञान में बड़ी रुचि ली। वह अपने युग का एक महान् खगोलशास्त्री था। उसने जयपुर, दिल्ली, मथुरा और उज्जैन में वेधशालाएँ बनवाई।

ख) मारवाड़ : यहाँ भी औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद राजा अजीत सिंह ने स्वतंत्रता की घोषणा की। मारवाड़ को अधीन रखने के लिए मुगल शासकों ने प्रयास किए लेकिन वे असफल रहे और राजा अजीत सिंह ने अपने पूर्वजों के राज्य को पुनः प्राप्त कर लिया।

ग) बून्दी : इस समय यहाँ राव सुरजन हाडा के वंशज बुद्ध सिंह ने भी स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया जिसे आगे चलकर मुगल शासक फर्रुखसियर ने मान्यता दी। इस वंश ने यहाँ विशिष्ट चित्रकला शैली का विकास भी किया।

5. सिक्ख राज्य : अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में गुरु गोबिन्द सिंह की मृत्यु के बाद इसका नेतृत्व बंदा बहादुर ने किया। बंदा बहादुर ने लौहगढ़ को प्रथम सिक्ख राज्य की राजधानी बनाया। उस समय मुगल शासक फर्रुखसियर ने सिक्खों के विरुद्ध सेना भेजी। बंदाबहादुर बन्दी बना लिए गए। 1716 ई. में बंदा बहादुर का निर्दयता से वध कर दिया गया। सिक्खों को अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण भी झेलने पड़े। सिक्खों ने बिना विचलित हुए गुरिल्ला युद्ध प्रणाली से अब्दाली को खदेड़ दिया। कालान्तर में पंजाब में 12 मिसलें अस्तित्व में आई। राजा रणजीत सिंह की सुकरचकिया मिसल प्रमुख थी, जिसने अफगानिस्तान तक के क्षेत्र को जीतकर सिक्ख साम्राज्य का विस्तार किया। रणजीत सिंह ने अपनी सेना का यूरोपीय ढंग से गठन किया।

6. हैदराबाद : दक्षिण भारत में एक स्वतंत्र राज्य हैदराबाद की स्थापना निजाम-उल-मुल्क आसफजाह 1724 ई. में की। उसने सैय्यद बंधुओं के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, जिसके इनाम के तौर पर मुगल शासक ने उसे दक्षिण की सूबेदारी दी। मुगल सम्राट की निर्बलता का लाभ उठाकर उसने मुगलों की अधीनता मानने से इन्कार कर दिया। उसने मुगल शासक की अनुमति के बिना युद्ध और सन्धियाँ की। वह अपने राज्य का विस्तार करने लगा। इसी के परिणामस्वरूप बाजीराव ने 1728 ई. में पालखेत के युद्ध में उसे हराया, जिसके कारण उन्होनें मराठा संघ को चौथ व सरदेशमुख देना भी स्वीकारा। 1748 ई. में निजाम की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र नासिरजंग और पोते मुज्जफरजंग में हैदराबाद के सिंहासन के लिए युद्ध प्रारम्भ हो गया । इस युद्ध में फ्रांसीसियों ने मुज्जफरजंग का व अंग्रेज़ों ने नासिरजंग का पक्ष लिया। फ्रांसीसियों ने एक षडयंत्र से नासिरजंग का वध करवा दिया व मुज्जफरजंग को गद्दी पर बैठाया। आगे के शासक कमजोर सिद्ध हुए जिससे हैदराबाद राज्य की स्थिति कमजोर होती चली गई। 1798 ई. में निजामअली ने अंग्रेज़ों से सहायक सन्धि कर ली और हैदराबाद अंग्रेज़ों पर आश्रित हो गया।

7. कर्नाटक : मुगल साम्राज्य की कमजोरी का लाभ उठाकर कर्नाटक के नायब सूबेदार सआदत उल्ला खाँ ने भी स्वतंत्र व्यवहार करना शुरू कर दिया। सआदतअली खान यहाँ का नवाब बना लेकिन हैदराबाद की तरह कर्नाटक में भी उत्तराधिकार के लिए युद्ध शुरू हो गया। दोस्तअली खान की मृत्यु के बाद अनवरउद्दीन नवाब बना तो उनके दामाद चन्दा साहब ने कर्नाटक की गद्दी पर अपना दावा पेश किया और गद्दी प्राप्त करने में सहायता देने के लिए फ्रांसीसियों की शरण ली। फ्रांसीसियों की सहायता से चन्दा साहब ने कर्नाटक पर आक्रमण करके अनवरउद्दीन को पराजित किया। चन्दा साहब कर्नाटक का नवाब बन गया लेकिन अंग्रेज़ उसे पसंद नहीं करते थे। अंग्रेज़ों ने चन्दा साहब की राजधानी अर्काट पर आक्रमण करके उसकी हत्या कर दी। कर्नाटक अब अंग्रेज़ों के प्रभाव में आ गया। हैदराबाद व कर्नाटक की राजनीतिक स्थिति के कारण अंग्रेज़ और फ्रांसीसियों के मध्य कर्नाटक के तीन युद्ध हुए।

8. जाट राज्य : मुगल सम्राट औरंगज़ेब की आर्थिक एवं धार्मिक नीतियों से परेशान होकर मथुरा तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों में गोकुल के नेतृत्व में जाटों ने भी अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया। यद्यपि संघर्ष को कुचलने के बाद भी जाट नेता राजाराम तथा चूड़ामन के नेतृत्व में संघर्ष जारी रहा। बहादुर शाह प्रथम ने संघर्ष को कम करने के लिए जाटों से समझौता करके चूड़ामन को मुगल दरबार में पंद्रह सौ जात तथा पाँच सौ सवार का मनसबदार बना दिया। फिर भी चूड़ामन ने मुगल सम्राट की दुर्बलता का लाभ उठाकर शक्तिशाली बनने का प्रयास किया।

चूड़ामन की मृत्यु के पश्चात् बदन सिंह व उसके पुत्र सूरजमल ने दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया। सूरजमल एक चतुर एवं योग्य नेता था। उन्होनें अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों का भी सामना किया।

9. रूहेलखण्ड : रूहेलखण्ड तथा बंगश पठानों के राज्यों की स्थापना, सत्रहवीं सदी के अफगानों के विस्थापन का परिणाम थी। अफगानिस्तान में अठारहवीं सदी के मध्य में राजनैतिक तथा आर्थिक अस्थिरता पैदा हो जाने के कारण बहुत बड़ी संख्या में अफगानी रोह घाटी में विस्थापित होकर आए। कुछ समय के पश्चात् अवध के शासक ने अंग्रेज़ों के सहयोग से इन्हें समाप्त कर दिया। नादिरशाह के आक्रमण के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई। इसका लाभ उठाते हुए मुहम्मद खाँ ने रूहेलखण्ड के एक छोटे राज्य की स्थापना की। यह क्षेत्र हिमालय की तलहटी के उत्तर में कुमायूं पहाड़ियों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित था। इस राज्य को आगे चलकर जाटों और अवध के शासकों तथा बाद में मराठों एवं अंग्रेज़ों के हाथों पराजित होना पड़ा।

दिल्ली से पूरब की ओर फरुर्खाबाद में एक अफगान सरदार मोहम्मद खान बंगश ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। इसने भी कमजोर होती मुगल सत्ता का लाभ उठाते हुए अलीगढ़ व कानपुर के महत्वपूर्ण भू-भाग पर स्वतंत्र राज्य कायम किया।

10. बुंदेलखण्ड : बुंदेलखण्ड भारत के मध्य में स्थित महत्वपूर्ण क्षेत्र था। यहाँ महाराजा छत्रसाल के द्वारा विशाल साम्राज्य स्थापित किया गया। 1728 ई. में जब मुहम्मद खाँ बंगश ने यहाँ आक्रमण किया तो पेशवा बाजीराव ने सहायता की और बंगश को पराजित किया। आगे चलकर यह राज्य मराठों के संरक्षण में चला गया।

अठारहवीं सदी में भारतीय समाज एवं अर्थव्यवस्था –

  1. कृषि आधारित परम्परागत अर्थ व्यवस्था का होना।
  2. ग्रामीण सामाजिक संरचना का आत्मनिर्भर होना।
  3. प्रकृति पर निर्भर संसाधनों का होना।
  4. संयुक्त परिवार प्रणाली एवं पुरुष प्रधान समाज का होना।
  5. भारतीय समाज में मध्य वर्ग का उदय होना।

भारतीय समाज आर्थिक दृष्टि से विषमताओं से भरा हुआ था यहाँ स्वावलंबन व आत्मनिर्भरता थी। अधिकतर लोग कृषि व्यवसाय से जुड़े हुए थे। समाज में जहाँ एक ओर अमीर वर्ग विलासितापूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा था तो दूसरी ओर निर्धन किसान, काश्तकार, मजदूर आदि जनसाधारण कष्ट में था। भारत का सूती वस्त्र उद्योग, पटसन उद्योग, धातु-बर्तन उद्योग, आभूषण उद्योग आदि उच्च कोटि के थे। विदेशी आक्रमणों ने भारत की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया था।

अठारहवीं सदी में भारत की राजनैतिक स्थिति अराजकतापूर्ण ही रही। आपसी संघर्ष एवं विदेशी आक्रमणों ने भारत की राजनैतिक व आर्थिक स्थिति को पूरी तरह से डावांडोल कर दिया था। इसके अतिरिक्त संपूर्ण भारत छोटे-छोटे स्वतंत्र तथा अर्द्धस्वतंत्र राज्यों में विभाजित हो गया था। इस स्थिति का लाभ पुर्तगालियों, डचों, फ्रांसीसियों व अंग्रेज़ों नें उठाया परिणामस्वरूप अंग्रेज़ों ने भारत की सार्वभौम सत्ता पर अधिकार करके अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर ली।

भारत में यूरोपीय शक्तियाँ –

यूरोपीय शक्तियों के लगभग एक साथ भारत में प्रवेश से इन शक्तियों के परस्पर संघर्ष का जन्म हुआ तथा अन्त में अंग्रेज़ इसमें सफल हुए। व्यापार के लिए भारत में यूरोप से कई कम्पनियाँ आई जैसे: पुर्तगाली, डच, अंग्रेज़, फ्रांसीसी, डेनिश आदि, जिन्होंने व्यापार हेतु भारत में अपने पैर फैलाए। इनमें अंग्रेज़ सामान्यतया पूरे भारत में अपना राजनैतिक आधिपत्य जमाने में सफल रहे और 1947 ई. तक भारत को अपने अधीन बनाए रखा। भारत में अंगेज़ों ने व्यापार को उत्तरोत्तर सुदृढ़ एवं विकसित किया। उन्होंने 18वीं शताब्दी के द्वितीय दशक में सम्राट फर्रूखसियर से व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त करके व्यापार को और अधिक फैलाया। इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ों के द्वारा षड्यंत्रों से समृद्ध प्रान्त बंगाल में भी अपना आधिपत्य जमा लिया व हैदाराबाद और मैसूर में भी आपस में भारतीय शक्तियों को आपस में लड़वाकर अपना प्रभुत्व बनाया। 1757 ई. में प्लासी का षड्यन्त्रकारी युद्ध तथा 1764 ई. में बक्सर का युद्ध तथा मैसूर एवं कर्नाटक भारतीय शक्तियों को आपस में लड़ाकर अपना प्रभुत्व जमाया।

पाठ का सार ( महत्वपूर्ण बिंदु )

  • 1717 ई. में मुगल सम्राट फर्रुखसियर ने ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अनेक रियायतें दी।
  • भारत का उच्च कोटि का सूती एवं रेशमी कपड़ा, मसाले, नील, शक्कर, औषधियां एवं बहुमूल्य रत्न किसी भी राष्ट्र को लालायित करने के लिए काफी थे।
  • दिल्ली दरबार में गुटबंदी होने व मुगल सम्राट की निर्बलता का लाभ उठाकर स्वतंत्र राज्य हैदराबाद की स्थापना निजाम-उल मुल्क आसफजाह ने 1724 ई. में की।
  • पंजाब में सुकरचकिया मिसल के शासक रणजीत सिंह महान शासक थे।

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