बोध कथाएं Class 9 नैतिक शिक्षा Chapter 15 Explain HBSE Solution

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HBSE Class 9 Naitik Siksha Chapter 15 बोध कथाएं / Bodh Kathayen Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 9th Book Solution.

बोध कथाएं Class 9 Naitik Siksha Chapter 15 Explain


महात्मा बुद्ध ने लगभग अढाई हजार वर्ष पहले ज्ञान प्राप्त किया और लोगों को दुःखों से छुटकारा पाने का उपाय बताया। उनके द्वारा बताया गया ज्ञानमार्ग आज भी प्रासंगिक है। हम चाहे जो भी हों अथवा जहाँ भी रहें, हम सभी सुख चाहते हैं, दुःख नहीं। बुद्ध ने सुझाया कि दुःख को दूर करने के लिए हमें यथासम्भव दूसरों की सहायता करनी चाहिए और यदि हम सहायता नहीं कर सकते तो कम से कम किसी को हानि भी न पहुँचाएँ। बौद्ध धर्म का उद्देश्य मनुष्य सहित सभी प्राणियों की सेवा करना है। बुद्ध ने निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा कर हमारे समक्ष सन्तोष और सहिष्णुता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया है।

आज मानव को हिंसा, शत्रुता, द्वेष, लोभ आदि कुप्रवृत्तियों से मुक्ति के लिए बौद्ध दर्शन से प्रेरणा ग्रहण करने की आवश्यकता है। आपसी शत्रुता के बारे में बुद्ध ने कहा था, “वैर से वैर शान्त नहीं होता । अवैर से ही वैर शान्त होता है।” यह सुनहरा सूत्र सर्वदा सार्थक है। डॉ. अम्बेडकर ने भी कहा था कि हिंसा द्वारा प्राप्त की गई जीत स्थायी नहीं होती क्योंकि उसे प्रतिहिंसा द्वारा हमेशा पलटे जाने का डर रहता है। अतः वैर को जन्म देने वाले कारकों को बुद्ध ने पहचानकर उनको दूर करने का मार्ग बहुत पहले ही प्रशस्त किया था। उन्होंने मानव मात्र के दुःखों को कम करने के लिए पंचशील और अष्टांगिक मार्ग के जीवन दर्शन का प्रतिपादन किया था।

महात्मा बुद्ध को अहिंसावाद का प्रबल पक्षधर माना जाता है। सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य हिंसा की निन्दा करता है। अपने उपदेशों में बुद्ध कहते हैं कि सभी को अपने जैसा समझो। यह कथन मानवतावाद का सबसे बड़ा उद्घोष है। बौद्ध कथाओं से समाज को शील, सदाचार, नैतिकता, मानव-कल्याण और सभी प्राणियों के प्रति प्रेम, संयम, दया, मित्रता, करुणा, सहयोग, सेवा, आदि की शिक्षा मिलती है।

कथा-1 सुख का असली रहस्य

अधेड़ अवस्था पार कर चुका एक किसान एक बौद्ध मठ के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। जब भिक्षुओं ने मठ का द्वार खोला तो उस किसान ने अपना परिचय कुछ इस प्रकार दिया, ‘भिक्षु मित्रो! मैं अज्ञानी हूँ लेकिन परिश्रम कर सकता हूँ। मैं आप लोगों से ज्ञान प्राप्त कर आगे बढ़ना चाहता हूँ। किसान से और अधिक बातचीत करने के बाद भिक्षु इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि किसान में समझदारी का अभाव है और वह व्यवहारकुशल भी नहीं है। अतः ज्ञान प्राप्त करना उसके बस की बात नहीं है और आत्मविकास के विषय में समझ पाना तो उसके लिए असम्भव-सा लगता है किन्तु वह आशा और विश्वास से परिपूर्ण है। भिक्षुओं ने उससे कहा, ‘भले आदमी! तुम्हें इस मठ की सफाई की सम्पूर्ण जिम्मेदारी सौंपी जाती है। तुमने इस मठ को पूरी तरह से साफ रखना है। इसके बदले तुम्हें यहाँ रहने और खाने-पीने की सुविधा प्रदान की जाएगी।’

कुछ माह पश्चात् उस मठ के भिक्षुओं ने पाया कि किसान अब अधिक समझदार व व्यवहारकुशल हो गया है। अब उसके चेहरे पर हर समय एक मुस्कान फैली रहती है और उसकी आँखों में एक अभूतपूर्व चमक दिखाई देती है। वह सुखी, सन्तुष्ट, सन्तुलित और शान्त भी दिखाई देता है। भिक्षुओं से रहा न गया तो अन्ततः उन्होंने किसान से पूछ ही लिया, ‘भले आदमी, जबसे तुम यहाँ आए हो, तुम्हारे भीतर एक अभूतपूर्व आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ है। क्या तुम किसी विशेष नियम या ध्यान का पालन कर रहे हो, जिससे यह सम्भव हो पाया?’

किसान ने उत्तर दिया, ‘नियम या ध्यान तो मैं जानता नहीं लेकिन मेरे भाइयो! मैं पूरी लगन, मेहनत और प्रेम से अपने लक्ष्य को पूर्ण करने में लगा रहता हूँ। मेरा लक्ष्य है इस मठ को स्वच्छ रखना । जैसे-जैसे मैं इस मठ के कूड़े-कर्कट को साफ करता हूँ वैसे-वैसे मेरा मन भी कुण्ठाओं और बुराइयों से साफ होता जा रहा है। इस बात से मैं पहले से अधिक सुखी भी हूँ।’

कथा – 2 दान की महिमा

जब महात्मा बुद्ध का पाटलिपुत्र में शुभागमन हुआ तो हर व्यक्ति अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार उन्हें उपहार देने की योजना बनाने लगा। राजा बिम्बिसार ने भी कीमती हीरे, मोती और रत्न उन्हें पेश किए। बुद्ध ने सबको एक हाथ से सहर्ष स्वीकार किया।

इसके बाद मन्त्रियों, सेठों, साहूकारों ने अपने-अपने उपहार उन्हें अर्पित किए और बुद्ध ने उन सबको भी एक हाथ से स्वीकार किया।

इतने में लाठी टेकती हुई एक बुढ़िया वहाँ आई महात्मा बुद्ध को प्रणाम कर वह बोली, ‘भगवन्! जिस समय आपके आने का समाचार मुझे मिला, उस समय मैं यह अनार खा रही थी। मेरे पास कोई दूसरी चीज़ न होने के कारण मैं इस अधखाए फल को ही ले आई हूँ। यदि आप मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार करें, तो मैं इसे अपना अहोभाग्य समझँगी।’

भगवान बुद्ध ने दोनों हाथ सामने कर वह फल ग्रहण किया। राजा बिम्बिसार ने जब यह देखा तो उन्होंने बुद्धदेव से कहा, ‘भगवन्, क्षमा करें! एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। हम सबने आपको कीमती और बड़े-बड़े उपहार दिए, जिन्हें आपने एक ही हाथ से ग्रहण किया लेकिन इस बुढ़िया द्वारा दिए गए छोटे एवं जूठे फल को आपने दोनों हाथों से ग्रहण किया, ऐसा क्यों?’

यह सुनकर बुद्ध मुस्कराए और बोले, “राजन्! आप सबने बहुमूल्य उपहार अवश्य दिए हैं किन्तु यह सब आपकी सम्पत्ति का दसवाँ हिस्सा भी नहीं है। आपने यह दान दीनों और गरीबों की भलाई के लिए नहीं किया इसलिए आपका यह दान ‘सात्त्विक दान’ की श्रेणी में नहीं आ सकता। इसके विपरीत इस बुढ़िया ने अपने मुँह का कौर ही मुझे दे डाला है। भले ही यह बुढ़िया निर्धन है लेकिन इसे सम्पत्ति की कोई लालसा नहीं है। यही कारण है कि इसका दान मैंने खुले हृदय से, दोनों हाथों से स्वीकार किया है।”


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