Class 8 इतिहास BSEH Solution for chapter 4 छत्रपति शिवाजी एवं पेशवा notes for Haryana board. CCL Chapter Provide Class 1th to 12th all Subjects Solution With Notes, Question Answer, Summary and Important Questions. Class 8 History mcq, summary, Important Question Answer, Textual Question Answer in hindi are available of हमारा भारत III Book for HBSE.
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HBSE Class 8 इतिहास / History in hindi छत्रपति शिवाजी एवं पेशवा / Chhatrapati Shivaji avam peshwa notes for Haryana Board of chapter 4 in Hamara Bharat III Solution.
छत्रपति शिवाजी एवं पेशवा Class 8 इतिहास Chapter 4 Notes
सत्रहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में मराठों ने शिवाजी के नेतृत्व में शक्तिशाली मराठा राज्य की स्थापना की। छत्रपति शिवाजी महाराज गुलामी की जंज़ीर तोड़ने वाले, मुगल शासन की जड़ें हिलाने वाले, भारत को विदेशी एवम् आततायी सत्ता से मुक्त कराने वाले व जन-जन में स्वराज्य की भावना जगाने वाले कुशल प्रशासक, दृढ निश्चयी व योग्य रणनीतिकार थे। उन्होंने वर्षों तक औरंगज़ेब के साथ संघर्ष किया तथा अपने अदम्य साहस व पराक्रम के बल पर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना की। शिवाजी ने अपनी अनुशासित सेना एवम् सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों की सहायता से एक योग्य एवम् प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने छापामार युद्ध की नई शैली विकसित की। प्राचीन भारतीय राजनैतिक प्रथाओं व दरबारी शिष्टाचारों को पुनः जीवित करके फारसी के स्थान पर मराठी व संस्कृत को राजभाषा बनाया। शिवाजी को महान शिवाजी बनाने में उनके गुरु ‘समर्थ रामदास’ व उस समय के संतों तुकाराम, नामदेव आदि के विचारों का योगदान रहा।
आरंभिक जीवन –
शिवाजी का जन्म 19 फरवरी 1630 ई. को पूना के प्रसिद्ध शिवनेरी किले में हुआ था। किले की अधिष्ठात्री देवी के नाम पर इनका नाम शिवा रखा गया। इनके पिताजी का नाम शाहजी भोंसले था, जो मराठा सरदार थे एवम् अहमदनगर के निजामशाही राज्य में एक प्रतिष्ठित पद पर थे। इनकी माता का नाम जीजाबाई था।
शिवाजी का बचपन माता जीजाबाई के मार्गदर्शन में बीता। शिवाजी के चरित्र पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। जीजाबाई शिवा को बाल्यकाल में रामायण, महाभारत एवं भारतीय वीरात्माओं की कहानियाँ सुनाती थी, जिसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने शिवाजी को धर्म, संस्कृति एवं राजनीति की शिक्षा भी प्रदान की। दादा कोंडदेव ने घुड़सवारी, तलवारबाजी व निशानेबाज़ी की शिक्षा दी। बचपन से ही वे उस युग की घटनाओं को समझने लगे थे तथा मुगलों के अत्याचारों की कहानी सुनकर वे बैचेन हो जाते थे। उम्र बढ़ने के साथ-साथ मुगल शासन की बेड़ियाँ तोड़ फेंकने के विचार उनके मन में उठने आरम्भ हो गये थे।
महादेव गोविंद रानाडे की प्रसिद्ध कृति “राइज आफ द मराठा पावर” है, जो मराठों के उत्थान से संबंधित इतिहास का वर्णन करती है।
शिवाजी का प्रारंभिक संघर्ष –
उन्नीस वर्ष की आयु में शिवाजी ने अपना विजय अभियान आरम्भ किया। उन्होंने आस-पास के किलों पर कब्जा करने के लिए सभी जाति के लोगों को संगठित किया। युवकों के सहयोग से दुर्ग-विजय का कार्य आरम्भ किया। उस समय दक्षिणी राज्य आपसी संघर्ष से परेशान थे। 1643 ई. में शिवाजी ने सर्वप्रथम सिंहगढ़ का किला जीता। इसके बाद शिवाजी ने 1646 ई. में तोरण दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। तोरण दुर्ग पर अधिकार करने के बाद धीरे-धीरे रायगढ़ के किले को भी शिवाजी ने के अपने अधिकार में ले लिया जो बाद में शिवाजी के राज्य की राजधानी बनी। शिवाजी की इस साम्राज्य विस्तार नीति से बीजापुर का शासक आदिलशाह बहुत क्षुब्ध हुआ। उसने शिवाजी के पिता शाहजी को कैद कर लिया। लेकिन शिवाजी ने बड़ी युक्ति व बुद्धिमता से पिता को कैद से मुक्त करा लिया। रायगढ़ के बाद उन्होंने 1647 ई. में चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। चाकन दुर्ग के बाद कोंडना किले पर कब्जा कर लिया। शिवाजी ने 1654 ई. में पुरन्दर के किले को भी जीत लिया। इन किलों को जीतने के बाद शिवाजी ने मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करने की योजना बनाई तथा अपनी अश्वारोही सेना के बल पर कोंकण सहित नौ किलों पर अधिकार कर लिया।
अफज़ल खाँ का वध – 1659 ई. में बीजापुर के सुल्तान ने अपने सेनापति अफज़ल खाँ को अनेक प्रलोभन देकर शिवाजी के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया। वह बीजापुर के सर्वोत्तम सेनापतियों की बड़ी सेना लेकर गया। अफज़ल खाँ युद्ध किए बिना ही शिवाजी को छल से मारना चाहता था। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक कर अपने दूत कृष्णजी भास्कर को भेजकर शिवाजी को संधि प्रस्ताव भिजवाया। कृष्णजी भास्कर ने शिवाजी को अफज़ल खाँ की शिवाजी को मारने की योजना के बारे में बता दिया। अतः शिवाजी इस सन्धि के लिए तैयार हो गए। प्रतापगढ़ के किले के पास दोनों के मिलने का स्थान निश्चित किया गया। शिवाजी जैसे ही पहुँचे अफज़ल खाँ ने गले मिलने के बहाने से अपने दोनों हाथ फैला कर कटार से वार करने की कोशिश की तो शिवाजी ने बाघ नख से अफजल खाँ को मार गिराया। यह एक ऐतिहासिक घटना थी। इस घटना के बाद शिवाजी की गणना श्रेष्ठ योद्धाओं में की जाने लगी।
शाइस्ता खाँ को हराना : शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से मुगल शासक औरंगज़ेब बहुत चिंतित था। वह बीजापुर की सहायता से शिवाजी को हराना चाहता था, इसलिए औरंगज़ेब ने शाइस्ता खाँ को दक्षिण का गवर्नर बनाकर आदेश दिया कि मराठों के विरुद्ध आक्रामक नीति अपनाओ, उनके किले नष्ट कर धूल में मिला दो । शाइस्ता खाँ ने पूना के पूर्वी क्षेत्र में आक्रमण कर शिवाजी के किले जीतने प्रारम्भ किए। शिवाजी ने 15 अप्रैल 1663 ई. को पूना के किले पर आक्रमण किया। शाइस्ता खाँ ने खिड़की से भागकर जान बचाई, परन्तु उसका पुत्र फतेह खाँ मारा गया। शिवाजी के अचानक हुए इस हमले में शाइस्ता खाँ की उंगलियाँ कट गई।
पुरन्दर की सन्धि ( 22 जून 1665 ई.) : 1664 ई. में औरंगज़ेब ने अपने राज्य के योग्य व अनुभवी मिर्ज़ा राजा जयसिंह को शिवाजी के विरुद्ध अभियान के लिए नियुक्त किया। मिर्ज़ा राजा जयसिंह महान सेनानायक के साथ-साथ कूटनीतिज्ञ भी था। उसने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियों और छोटे-छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर पुरंदर पर आक्रमण कर दिया। मिर्ज़ा राजा जयसिंह ने बड़ी ही चतुराई से पुरंदर के किले पर घेरा डाला। जब किले को बचाने में शिवाजी की कोई युक्ति काम नहीं आई तो शिवाजी ने मिर्ज़ा राजा जयसिंह के साथ वार्ता आरंभ की। शिवाजी व जयसिंह में सन्धि वार्ता हुई। संधि की शर्तें इस प्रकार थी:
- शिवाजी अपने 35 किलों में से 23 किले मुगलों को दे देंगे।
- शिवाजी दक्षिण भारत में मुगलों की तरफ से युद्ध में भाग लेंगे तथा उनके प्रति वफादार रहेंगे।
- शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में 5000 का मनसब दिया जाएगा।
जयसिंह के आग्रह पर पुरंदर की सन्धि के तहत शिवाजी 12 मई 1666 ई. औरंगज़ेब से मिलने आगरा पहुँचे। शिवाजी को औरंगज़ेब के दरबार में जैसे सम्मान व व्यवहार की अपेक्षा थी, उसके विपरीत व्यवहार देखकर शिवाजी ने औरंगज़ेब को विश्वासघाती कह दिया। इससे नाराज होकर औरंगज़ेब ने शिवाजी को नज़रबन्द कर दिया। अपने बेजोड़ साहस व युक्ति के साथ मदारी मेहतर के सहयोग से वे वहाँ से निकल गये तथा बनारस, प्रयाग, पुरी होते हुए रायगढ़ पहुँचे। इससे मराठों को नवजीवन मिल गया।
हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना –
पश्चिमी महाराष्ट्र के बड़े क्षेत्र में अपना प्रभाव स्थापित करने के बाद शिवाजी का राज्याभिषेक 6 जून, 1674 ई. को हिन्दू रीति-रिवाजों से किया गया। उन्होंने ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की। इस समारोह में कई विद्वानों, विभिन्न राज्यों के दूतों व विदेशी व्यापारियों को भी आमन्त्रित किया गया। इससे एक स्वतन्त्र वैधानिक मराठा राज्य का उदय हुआ। प्रशासन के मार्गदर्शन के लिए राज व्यवहार कोष तैयार किया गया, नया संवत चलाया गया, शुक्राचार्य व कौटिल्य को आदर्श मानकर नियम कानून बनाए गये। सोने और तांबे की मुद्राएँ जारी की गईं, जिन पर “श्री शिव छत्रपति” अंकित था। छत्रपति शिवाजी के राज्याभिषेक के पचास साल के भीतर मराठा सत्ता का भगवा ध्वज भारत के बड़े हिस्से में लहराने लगा।
शिवाजी का राज्याभिषेक – 6 जून 1674 ई. को काशी के प्रसिद्ध विद्वान गंगाभट्ट के द्वारा हुआ। राज्याभिषेक के अवसर पर शिवाजी ने एक नया संवत और सोने तथा तांबे के सिक्के जारी किए। इन सिक्कों पर ” श्री शिव छत्रपति” उत्कीर्ण कराया गया।
शिवाजी की धार्मिक नीति – शिवाजी एक धार्मिक, सहिष्णु व समर्पित हिन्दू थे। उनके साम्राज्य में समानता, स्वतंत्रता व भ्रातृत्व था। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वे बलपूर्वक धर्मान्तरण के विरुद्ध थे। शिवाजी ने कई मस्जिदों के लिए अनुदान दिया। वे हिन्दू संतों की तरह मुसलमान संतों व फकीरों का भी पूरा सम्मान करते थे। उनकी सेना में कई मुसलमान सैनिक व अधिकारी थे। उनके राज्य में पारम्परिक हिन्दू मूल्यों व हिन्दू संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया जाता था। युद्ध के समय सभी सैनिकों को स्त्रियों के सम्मान की रक्षा करने का आदेश देते थे। उनके शासन काल में आंतरिक विद्रोह जैसी कोई घटना नहीं हुई।
छत्रपति शिवाजी की मृत्यु – लम्बी बीमारी से 3 अप्रैल 1680 ई. को वे इस संसार से विदा हो गये। इनकी मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र शम्भाजी को राजा बनाया गया।
पेशवा के अधीन मराठा राज्य –
पेशवा मराठा राज्य में प्रधान मंत्री का पद होता था। कालांतर में पेशवा ही शासक की शक्तियों का प्रयोग करने लगे। बाद में पेशवा ही शासक बन गए। पेशवाओं के उत्थान का मुख्य कारण मराठा शासक शाहूजी की नीतियां तथा महाराष्ट्र में राजनैतिक असंतोष था। इनका उत्थान न तो आकस्मिक और न ही अभूतपूर्व है, उन्होंने धीरे-धीरे साधारण स्थिति से राज्य के प्रमुख और फिर पूर्ण आधिपत्य प्राप्त किया। इसने इस पद को अपने परिवार में वंशानुगत बनाकर अपने अन्य साथियों को तथा बाद में स्वयं राजा की शक्ति को निःशक्त कर दिया। आरम्भ में इनका लक्ष्य शासक के प्रतिनिधि को हटाकर राज्य में सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करना था और एक सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करने के पश्चात् राजा को भी अपना स्थान इन्हें समर्पित करना पड़ा।
बालाजी विश्वनाथ (1713 ई.-1720 ई.) – बालाजी विश्वनाथ मराठा शासक शाहू महाराज का पूर्ण विश्वासपात्र था। वह ‘सेनाकर्त्ता’ अर्थात् सेना के प्रबंधक के पद पर नियुक्त हुआ। बालाजी विश्वनाथ के चरित्र, स्वामीभक्ति और योग्यता से शाहू महाराज प्रभावित थे। इसी समय दिल्ली में नया मुगल शासक नियुक्त करने के लिए मुगल दरबारियों में कूटनीतिक संघर्ष चल रहा था। बालाजी विश्वनाथ को 1719 ई. में मुगल दरबारी सैयद बंधुओं की सहायता के लिए दिल्ली से निमंत्रण आया। परिणाम स्वरूप मराठा-मुगल संधि संपन्न हुई। बालाजी विश्वनाथ को नए सम्राट मोहम्मदशाह से तीन बख्शीशें (अनुदान) मिली जो आगे जाकर भारतवर्ष में मराठा सत्ता की आधारशिला बनी।
मराठा मैग्नाकार्टा – 1719 ई. की मराठा-मुगल संधि को रिचर्ड टेंपल ने मराठा मैग्नाकार्टा कहा। इस संधि के अनुसार शाहू को मराठा राज्य का स्वामी स्वीकार कर लिया गया। मराठो को दक्षिण भारत के छ: प्रदेशों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने की अनुमति दी गई। अवसर पड़ने पर पेशवा ने मुगल बादशाह को सैनिक सहायता देना स्वीकार किया।
बाजीराव प्रथम (1720 ई.-1740 ई.) : बाजीराव विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र बाजीराव पेशवा बना। छोटी आयु होने पर भी बाजीराव तीव्र बुद्धि और बलवान शरीर का था। वह राजनीतिक और शासन कार्य में दक्ष था। वह इस महत्वपूर्ण निष्कर्ष पर पहुँचा कि मुगल सत्ता का ह्रास हो रहा है, और इस समय उससे क्षेत्र छीनना सम्भव है। बाजीराव प्रथम को लड़ाकू पेशवा के रूप में स्मरण किया जाता है। वह शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बड़ा प्रतिपादक था।
बाजीराव प्रथम ने हिंदू पादशाही का आदर्श रखा। बाजीराव ने राज्य की सेना को पुनः संगठित किया। 1731 ई. बहुत से प्रदेशों में मराठों का चौथ और सरदेशमुखी का अधिकार सर्वमान्य हो गया। बुन्देलखंड को 1737 ई. में विजय किया और दिल्ली की ओर कूच किया। दक्कन से निजाम-उल-मुल्क मुगल सम्राट की सहायता के लिए आगे बढ़ा किन्तु भोपाल के निकट उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसने औपचारिक रूप से मालवा और गुजरात मराठों को देने पड़े। निजाम-उल मुल्क ने बाजीराव को 50 लाख रुपये युद्ध की क्षति के रूप में देना भी स्वीकार किया। मराठों ने पुर्तगालियों से 1739 ई. में बसीन का द्वीप छीन लिया। बाजीराव मराठा शक्ति की नींव दृढ़ करके 1740 ई. में चल बसा।
बालाजी बाजीराव ( 1740 ई.-1761 ई.) – बाजीराव की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा बना। बालाजी बाजीराव स्वयं प्रतिभाशाली व्यक्ति नहीं था। वह प्रत्येक बात में अपने चचेरे भाई सदाशिव भाऊ की सम्मति का लाभ उठाता था। सदाशिव भाऊ की देखरेख में ही मराठों की शक्ति 1740 ई. में उच्चत्तम शिखर पर पहुँची। रघुजी भोंसले ने कई बार मध्य भारत में मुगलों को रौंद डाला और बंगाल पर चढ़ाइयाँ की । 1750 ई. में रघुजी भोंसले की मध्यस्थता में राजाराम द्वितीय तथा बालाजी बाजीराव के मध्य संगोला की संधि हुई। इस संधि के अनुसार मराठा छत्रपति केवल नाममात्र के राजा रह गए। मराठा संगठन का वास्तविक नेता पेशवा को बना दिया गया। अब मराठा राजनीति का केंद्र पूना हो गया। 1751 ई. में उसने बंगाल के शासक अलीवर्दी खान को उड़ीसा का प्रदेश मराठों को देने के लिए विवश किया और बंगाल और बिहार के प्रदेशों की चौथ भी मराठों को देने के लिए बाध्य किया। 1752 ई. और 1756 ई. के काल में मराठों को मुगल साम्राज्य से उत्तर भारत के राजस्व से चौथ लेने का आश्वासन प्राप्त हुआ। 1758 ई. में मराठों ने पंजाब पर अधिकार किया और अटक के किले पर मराठों का ध्वज फहराया। अहमदशाह अब्दाली ने मराठों की इस चुनौती को स्वीकार किया। रोहिल्ला सरदार नजीबुद्दौला तथा अवध के नवाब शुजाउद्दौला ने अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया क्योंकि यह दोनों ही मराठा सरदारों के हाथों हार चुके थे। अतः दोनों सेनाओं के बीच 1761 ई. में पानीपत में युद्ध हुआ। मराठों तथा बालाजी बाजीराव के लिए यह युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ। इस युद्ध में मराठों की पराजय हुई। उन्हें भारी सैनिक क्षति उठानी पड़ी। बालाजी बाजीराव इस पराजय को सहन नहीं कर सके तथा 23 जून 1761 को आकस्मिक मृत्यु को प्राप्त हुए।
पानीपत का तृतीय युद्ध – 14 जनवरी 1761 को सदाशिव राव भाऊ तथा अहमदशाह अब्दाली के मध्य युद्ध हुआ। कड़े संघर्ष के बाद युद्ध में मराठों की हार हुई। इस युद्ध में विश्वास राव, सदाशिव राव भाऊ, जसवंत राव, तंकोजी सिंधिया जैसे सरदार तथा लगभग 28000 सैनिक काम आए। मराठा इतिहासकार कांशीराज पंडित के अनुसार, “पानीपत का तृतीय युद्ध मराठों के लिए प्रलयकारी सिद्ध हुआ । ”
मराठा प्रशासन –
मराठा प्रशासन प्राचीन भारतीय परंपरा पर आधारित था। शिवाजी के समय में मराठा प्रशासन का स्वरूप अत्यधिक विस्तृत था। प्रशासन को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए अनेक विभागों की संरचना की गई थी। छत्रपति शिवाजी के समय स्वयं महाराजा प्रशासन का केंद्र बिंदु होता था। महाराजा प्रमुख रूप से ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण करता था। छत्रपति का राज्याभिषेक वैदिक परंपरा के अनुसार भव्य समारोह में किया जाता था। शिवाजी ने राज्यभिषेक के समय हिंदू पातशाही अंगीकार कर, गाय और ब्राह्मणों की रक्षा का व्रत लिया। हिंदुत्व धर्मोद्धारक” की पदवी धारण की। छत्रपति सेना, वित्त, न्याय, धर्म व प्रशासन का मुखिया था। इस प्रकार महाराज मराठा प्रशासन का केंद्र बिंदु व उच्चतम शिखर था। शिवाजी की मृत्यु के बाद महाराजा की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो गई और उसकी जगह पेशवा ने प्राप्त कर ली।
अष्टप्रधान परिषद – शिवाजी ने प्रशासन में सहायता व परामर्श के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद की नियुक्ति की, इसे अष्टप्रधान कहा जाता था। इसका प्रमुख कार्य राजा को परामर्श देना मात्र था। परामर्श स्वीकार करना छत्रपति का निर्णय होता था।
पेशवा : यह राजा का प्रधानमंत्री होता था। राजा की अनुपस्थिति में उसके कार्यों की देखभाल भी पेशवा ही करता था। सरकारी पत्रों तथा दस्तावेज़ों पर छत्रपति की मोहर के बाद अपने हस्ताक्षर करता था। शिवाजी के समय पेशवा ज्यादा शक्तिशाली नहीं था। शिवाजी की मृत्यु के उपरांत राजनैतिक गड़बड़ी का सबसे ज्यादा लाभ पेशवा पद को प्राप्त हुआ। शाहू महाराज के समय पेशवा पद वंशानुगत हो गया। 1750 ई. की संगोली की संधि के बाद पेशवा ने छत्रपति की सत्ता का संपूर्ण हस्तांतरण कर लिया।
प्रमुख विभाग एवं मंत्री :-
मंत्री | विभाग |
पेशवा | प्रधानमंत्री |
अमात्य | वित्त एवं राजस्व मंत्री |
वाकिया-नवीस | दरबार की गतिविधियां एवं कार्यों का वितरण |
दबीर / सुमंत | विदेश मंत्री |
सर-ए-नौबत | प्रमुख सेनापति |
सचिव | राजकीय पत्र व्यवहार |
पंडितराव | धार्मिक मामले |
भू-राजस्व व्यवस्था : मराठा राज्य की आय का प्रमुख साधन कृषि कर तथा अन्य प्रचलित कर थे। सरदेशमुखी कर के रूप में किसानों के उत्पादन का दसवां भाग वसूला जाता था। दूसरा महत्वपूर्ण आय का साधन चौथ नामक कर था। यह पड़ोसी राज्य से उसकी आय का 1/4 भाग के रूप में वसूला जाता था। इसके अलावा गृह कर, सिंचित भूमि कर, सीमा शुल्क आदि राज्य की आय के प्रमुख साधन थे।
सेना व्यवस्था : शिवाजी के समय मराठों के पास एक अत्यंत शक्तिशाली सेना थी, जिसका वेतन सीधे शाही खजाने से दिया जाता था। शिवाजी कभी भी सामंतों की सेना पर निर्भर नही रहे। इस समय मराठा सेना में पदाति घुड़सवार प्रमुख थे। घुड़सवारों को बारगीर, सिलेदार, पागा आदि प्रमुख श्रेणियों में बांटा जाता था। सेना नियमित तथा हथियारों से सुसज्जित थी। संपूर्ण सेना ‘सर-ए-नौबत’ नामक अधिकारी के अधीन आती थी। शिवाजी ने अपनी सेना में सभी धर्मों और जातियों के सैनिकों को शामिल किया। उसने कोलाबा में एक जहाजी बेड़े का भी निर्माण करवाया। पेशवाओं के अधीन केंद्रीय सेना का स्वरूप सामंतशाही हो गया था। उन्होंने सेना को नकद वेतन के बदले बड़ी-बड़ी जागीरें बांटना आरंभ कर दिया। पेशवाओं ने तोपखाना बनाने के लिए पुणे तथा जुन्नर में अपने कारखाने स्थापित किए।
न्याय प्रणाली : मराठा साम्राज्य में न्याय प्राचीन भारतीय परम्पराओं के अनुसार किया जाता था। न्याय का सर्वोच्च मुखिया छत्रपति अथवा पेशवा होता था। वह न्यायधीश एवं पंडितराव की सहायता से निर्णय देता था। शिवाजी का न्यायालय धर्मसभा या हुजूर-हाज़िर मजलिस कहा जाता था। गांव में पटेल, जिले में मामलतदार, सूबे में सर-सूबेदार न्याय का कार्य करते थे। गांव के झगड़ों का फैसला पंचायत करती थी। मराठों की न्याय प्रणाली काफी कठोर व सुधारात्मक थी।