कंपनी की शोषणकारी नीतियाँ व उनका विरोध Class 8 इतिहास Chapter 8 Notes – हमारा भारत III HBSE Solution

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कंपनी की शोषणकारी नीतियाँ व उनका विरोध Class 8 इतिहास Chapter 8 Notes


भारत का उच्च कोटि का सूती वस्त्र व रेशमी कपड़ा, नील, शक्कर, मसाले, औषधियाँ एवं बहुमूल्य रत्न अनेक देशों को आकर्षित करते थे। हर विदेशी राष्ट्र व्यापार करके उस पर अपना आधिपत्य जमाने को आतुर था। इसी उद्देश्य हेतु हमारे देश में यूरोप कई कम्पनियाँ आई जैसे पुर्तगाली, डच, अंग्रेज़, डेनिश एवं फ्रांसीसी इन यूरोपीय देशों की कम्पनियों के आगमन के दौरान भारत राजनीतिक दृष्टि से कमजोर तथा अनेक क्षेत्रीय राज्यों में विभक्त था। इस संक्रमण काल के दौर में यूरोपियन कम्पनियाँ भारत की अव्यवस्थित राजनीति में रुचि लेने लगी और उनमें आपसी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई। इस प्रतिस्पर्धा में अंग्रेज़ विजयी रहे। उन्होंने 1600 ई. में ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ की स्थापना करके भारत में व्यापार आरम्भ किया। प्रारम्भ में कम्पनी के व्यापार से सोना-चाँदी भारत आया तथा भारत की समृद्धि में और वृद्धि होती चली गई। परन्तु 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई में विजय के बाद व्यापारिक कम्पनीयाँ राजनीतिक सत्ता में परिवर्तित हो गई इसके बाद इस कम्पनीयो ने भारत में व्यापार, भू-राजस्व व धन के निकास जैसी ऐसी शोषणकारी नीतियाँ अपनाई जिनके कारण भारत सोने की चिड़िया कहलाने वाला समृद्ध देश कुछ वर्षों में ही दयनीय तथा कंगाल देश बनता चला गया।

अंग्रेज़ी राज का चरित्र : सुंदरलाल ने अपनी पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ में अंग्रेजी राज के बारे में लिखा है।

कम्पनी की शोषणकारी आर्थिक नीतियाँ –

व्यापारिक नीतियां : प्राचीन काल से ही भारत की समृद्धि विश्व भर में प्रसिद्ध थी तथा भारत के बने सामान की विश्व के हर कोने में मांग थी। भारत के गरम मसाले, वस्त्र और मलमल दुनिया में खूब बिकते थे। कम्पनी ने भी प्रारम्भ में भारतीय सामान को विदेशों में बेचकर खूब लाभ कमाया तथा भारत की समृद्धि को भी बढ़ाया। लेकिन 18वीं शताब्दी के मध्य अंग्रेज़ों की आर्थिक नीतियों में बदलाव आया, जिसके परिणामस्वरूप भारत की धन-सम्पदा का निरन्तर निष्कासन हुआ, परम्परागत उद्योग-धंधों का विनाश हुआ। कम्पनी की शोषणकारी व्यापारिक नीतियों का अध्ययन निम्नानुसार किया जा सकता है: :

1757 ई. तक कम्पनी की व्यापारिक नीति : 1757 ई. तक ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी थी। इसका मुख्य उद्देश्य भारत व पश्चिम के देशों के बीच व्यापार पर नियंत्रण रखना था तथा व्यापार से अधिकाधिक लाभ कमाना था। कम्पनी भारत से सूती वस्त्रों, रेशमी कपड़ों, गरम मसालों, मलमल, कीमती पत्थरों, अफीम, जरी गोटा इत्यादि खरीदकर इंग्लैण्ड व अन्य यूरोपीय देशों में बेच देती थी तथा इसके बदले भारत में सोना, चाँदी जैसी बहुमूल्य धातुएँ वापस लाती थी। इस प्रकार भारत का निर्यात लगातार बढ़ रहा था जिससे भारत की समृद्धि में वृद्धि हुई।

1757 ई. – 1813 ई. तक कम्पनी की व्यापारिक नीति : 1757 ई. तक व्यापार संतुलन भारत के पक्ष में था लेकिन 1757 ई. में प्लासी की लड़ाई के बाद कम्पनी व्यापारिक सत्ता से राजनीतिक सत्ता में परिवर्तित हुई जिससे व्यापारिक नीति में भी बदलाव आने लगा। भारत में पुरानी अर्थव्यवस्था को तोड़ा मरोड़ा गया। सिंचाई व निर्माण कार्य नहीं किये गए। 1764 ई. के बक्सर के युद्ध के बाद कम्पनी को बंगाल, बिहार व उड़ीसा की दीवानी (कर एकत्र करने) का अधिकार मिल गया। भारत में अंग्रजों ने अपनी भूमि व्यवस्था को लागू किया, भूमि व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाने लगी तथा नई कर नीतियों के द्वारा भारतीय कारीगरों तथा शिल्पकारों को नष्ट कर दिया। अब कम्पनी ने अपनी राजनीतिक सत्ता का प्रयोग करके भारतीय शिल्पकारों से मनचाहे दाम पर सामान खरीदना शुरू कर दिया तथा व्यापारिक एकाधिकार भी प्राप्त कर लिया। उन्होंने बंगाल, बिहार व उड़ीसा से प्राप्त धन का प्रयोग भी भारतीय माल खरीदने के लिए शुरू कर दिया। इससे भारतीय व्यापारियों को भी हानि उठानी पड़ी तथा भारत से धन का निकास भी शुरू हो गया।

1813 ई. से 1857 ई. तक कम्पनी की व्यापारिक नीति : इंग्लैण्ड सरकार ने अपनी व्यापारिक नीति के अंतर्गत भारतीय सामान के आयात पर भारी सीमा कर लगाकर भारतीय सामान की मांग को कम करने का प्रयास किया। अब इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी तथा सामान हाथ की अपेक्षा मशीनों से बनने लगा था जो सस्ते के साथ-साथ मात्रा में अधिक भी था। इंग्लैण्ड के उद्योगपतियों के दवाब में आकर वहाँ की सरकार ने 1813 ई. के चार्टर एक्ट के अनुसार कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करके स्वतंत्र व्यापार नीति का अनुकरण करना शुरू कर दिया तथा इंग्लैण्ड के व्यापारियों को भारत के साथ व्यापार की छूट दे दी। अब अंग्रेज़ व्यापारियों ने भारत से कच्चा माल जैसे कपास, रेशम इत्यादि खरीदना शुरू कर दिया तथा इससे अपने कारखानों में रेशमी, सूती, ऊनी कपड़ा तैयार करके भारत में बेचना शुरू कर दिया। यातायात व संचार के साधनों का विस्तार करके तैयार माल को भारत के आंतरिक भागों तक पहुँचा दिया। भारत कच्चे माल का निर्यातक व तैयार माल का आयातक देश बन कर रह गया।

भू-राजस्व नीतियाँ : उस समय भारत एक कृषि प्रधान देश था। इसकी अधिकतर जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी तथा कृषि से ही उसका जीवन यापन होता था । कृषि का एक भाग किसान को राजस्व अथवा लगान के रूप में सरकार या राजा को देना होता था । यही भाग भू-राजस्व, भूमिकर या लगान कहलाता था। 1765 ई. में लार्ड क्लाईव ने मुगल सम्राट से कम्पनी के लिए बंगाल, बिहार, उड़ीसा की दीवानी (भूमि कर एकत्र करने) का अधिकार प्राप्त करने के बाद अंग्रेजी प्रशासन ने भू-राजस्व व्यवस्था में महत्वपूर्ण बदलाव किए। इसका उद्देश्य अधिक-से-अधिक भू-राजस्व प्राप्त करना एवं भारत से कच्चे माल का निर्यात करना था। ईस्ट इंण्डिया कम्पनी के अधिकारी इस बात से अवगत थे कि भारत में कुल राजस्व का मुख्य भाग भू-राजस्व है। कम्पनी ने अधिक से अधिक भू-राजस्व प्राप्त करने की मुख्यत: तीन प्रणालियाँ – स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी बंदोबस्त एवं महालवाड़ी बंदोबस्त शुरू की। उनकी भू-राजस्व प्रणालियाँ निम्नलिखित थी :

क) स्थायी बंदोबस्त : 1786 ई. में इंग्लैण्ड का एक जमींदार लार्ड कार्नवालिस भारत में कम्पनी का गवर्नर जनरल बनकर आया। उसने कम्पनी की आय निश्चित करने के लिए 1790 ई. में दस वर्षीय बंदोबस्त करके जमींदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार किया। 1793 में इस बंदोबस्त को स्थायी बंदोबस्त घोषित कर दिया। इसे बंगाल, बिहार, उड़ीसा, बनारस व उत्तरी मद्रास के कुछ जिलों अर्थात् ब्रिटिश भारत के 19 प्रतिशत भाग पर लागू किया गया था। जमींदार को भूमि का स्वामी मान लिया गया। भूमिकर में 9/10 हिस्सा कम्पनी का व 1/10 हिस्सा जमींदार का रखा गया। इस बंदोबस्त से कम्पनी को खूब लाभ हुआ। एक तो उन्हें वफादार जमींदार वर्ग मिल गया दूसरी ओर आय निश्चित हो गई तथा आय अधिक मात्रा में हुई। लेकिन भारतीय कृषि व काश्तकारों को घाटा झेलना पड़ा। इसके अन्तर्गत कर की मात्रा बहुत अधिक थी। जमींदारों को एक निश्चित तारीख तक एक तयशुदा भू-राजस्व जमा कराना होता था जिसे सूर्यास्त का नियम कहा जाता था और न दे पाने पर जमींदारी छिन जाती थी। इसके कारण गैरहाजिर जमींदार वर्ग उत्पन्न हुआ। जिससे कृषि की अवनति हुई व किसानों का अधिकाधिक शोषण हुआ।

ख) रैय्यतवाड़ी व्यवस्था : 1820 ई. में सर थामस मुनरो ने मद्रास प्रेजीडेंसी में भूमि कर की जो व्यवस्था लागू की, उसे ‘रैयतवाड़ी व्यवस्था’ कहा जाता है। इस व्यवस्था को मद्रास के तुरंत बाद बंबई, असम, सिंध, कुर्ग, बरार, अंडमान निकोबार इत्यादि ब्रिटिश भारत के लगभग 51 प्रतिशत भाग पर लागू किया गया। इसे रैय्यतवाड़ी व्यवस्था इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस व्यवस्था में समझौता सीधा रैयतों अर्थात् किसानों के साथ किया गया न कि जमींदारों के साथ। दक्षिण भारत में वैसे भी बड़ी-बड़ी भूमियों वाले जमींदार नहीं थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत भू-राजस्व 40-55 प्रतिशत तक की मात्रा निश्चित की गई। यह मात्रा स्थायी रूप से निश्चित नहीं थी ।

बीस से तीस वर्षों के पश्चात् इसे पुनः निर्धारित किया जा सकता था। भूमि कर न दे सकने वाले किसानों की भूमि को नीलाम किया जा सकता था। कम्पनी के लिए कर लगाने वाले कर्मचारी किसानों का खूब शोषण करते थे। कर की मात्र बहुत अधिक थी। सरकार की ओर से किसान को यह स्वतंत्रता थी कि कर चुकाने के लिए वह अपनी जमीन दूसरे किसानों को खेती के लिए दे सकता था, उसे गिरवी रख सकता या बेच भी सकता था। दक्षिण के कम उपजाऊ क्षेत्र वाले किसान इस कर को चुकाने में असमर्थ थे, जिसके फलस्वरूप शीघ्र ही उनकी भूमि नीलाम होने लगी। किसान साहूकारों व महाजनों के चंगुल में फंस गये।

रैय्यत : किसान को कहा जाता है। इसलिए किसानों के साथ अंग्रेजों ने जो बंदोबस्त किया उसे रैयतवाड़ी बंदोबस्त कहा जाता है।

ग) महालवाड़ी व्यवस्था : भारत में भू-राजस्व व्यवस्था की तीसरी महत्वपूर्ण भूमि-कर व्यवस्था महालवाड़ी व्यवस्था थी। यह व्यवस्था संयुक्त प्रांत के कुछ भाग, मध्य प्रांत तथा पंजाब में अर्थात् ब्रिटिश भारत के लगभग 30 प्रतिशत भाग पर लागू की गई। महालवाड़ी व्यवस्था ‘महाल’ अर्थात् सम्पूर्ण गाँव के साथ सामूहिक रूप से की जाती थी। इसे गाँव के अनुसार व्यवस्था भी कहा जाता था। इस प्रणाली में कम्पनी ने जमींदार अथवा किसान से समझौता नहीं किया अपितु समूचे गाँव से सामूहिक रूप से समझौता किया। इस व्यवस्था में सारा गाँव अथवा उनके प्रतिनिधि उस महाल अथवा गाँव के लिए निश्चित किए गये भूमि कर को अदा करने के लिए जिम्मेदार होता था। गाँव की ओर से मुखिया अथवा नम्बरदार समझौते पर हस्ताक्षर करते थे। इस व्यवस्था के प्रारम्भ में उपज का 2/3 भाग भूमि कर के रूप में निश्चित किया गया यद्यपि बाद में इसे घटाकर 1/2 निर्धारित कर दिया गया। भूमि का स्वामी सम्पूर्ण गाँव को माना गया। कर की मात्रा अधिक थी जिससे किसानों की स्थिति खराब हो गई। यह व्यवस्था तीस वर्षों के लिए निश्चित की गई तथा कुछ भागों में बीस वर्षों की अवधि निर्धारित हुई।

घ) धन का निकास : ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप भारत के धन का एक बड़ा भाग ब्रिटेन को जाता रहा जिसके बदले में भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं होता था । इसी लूट को आर्थिक निकास अथवा धन का निकास कहा जाता था। आर्थिक निकास भारत में अंग्रेज़ी शासन की प्रमुख विशेषता रही। अंग्रेज़ों से पहले भारत आए विदेशी स्थायी रूप से यहीं बस गये। उन्होंने भूमि कर व अन्य करों से प्राप्त धन को यहीं खर्च किया। लेकिन कम्पनी द्वारा स्थापित ब्रिटिश शासन का स्वरूप हमेशा विदेशी रहा तथा भारत का 1757 ई. से 1947 ई. तक निरंतर आर्थिक शोषण करता रहा। आर्थिक नीति के सिद्धांत की वैज्ञानिक व्याख्या राष्ट्रवादी नेता दादाभाई नौरोजी ने अपनी पुस्तक ‘पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इण्डिया’ (1876 ई.) में की तथा इसे भारत की दरिद्रता का मुख्य कारण माना। भारत से धन वेतनों, युद्धों पर खर्ची, गृह प्रभार, सेना पर खर्चों के रूप में इंग्लैण्ड को लाभ पहुँचाता रहा तथा भारत को इन सब खर्चों के बदले कुछ प्राप्त नहीं हुआ।

कम्पनी की शोषणकारी नीतियों के प्रभाव –

अंग्रेज़ों की आर्थिक नीतियों के कारण भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पतन आरम्भ हुआ, जिसके कारण भारत में प्रत्येक वर्ग का शोषण हुआ। उनकी व्यापारिक एवं भू-राजस्व नीतियों का मुख्य उद्देश्य भारत के संसाधनों का अधिक से अधिक दोहन करना था जिससे इंग्लैण्ड का औद्योगिक विकास किया जा सके। इन नीतियों के भारत व इंग्लैण्ड पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े :

हस्तशिल्प उद्योगों का पतन : कम्पनी के शासन से पूर्व भारत के हस्तशिल्प उद्योग व कलाकृतियाँ विकसित अवस्था में थे तथा इन उद्योगों में तैयार सामान विश्व में खूब बिकता था। ढाका की मलमल (कपड़ा) की दुनिया में बहुत मांग थी लेकिन कम्पनी की शोषणकारी आर्थिक नीतियों ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को नष्ट कर दिया। अंग्रेज़ों ने भारत में बने सामानों पर इंग्लैण्ड में भारी कर लगाया तथा अपने मुनाफे के लिए भारत में अपनी वस्तुओं के दाम कम किए। भारतीय देशी राज्यों को अधिकार में करने के बाद अंग्रेज़ों ने आयात-निर्यात, चुंगी तथा अन्य कर लगाकर भारतीय उद्योग तथा दस्तकारी का विनाश कर दिया।

अनौद्योगिकीकरणः अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में विश्व के सभी प्रमुख देशों में कृषि व औद्योगिक क्रांतियाँ हुईं तथा सभी देशों में आधुनिक उद्योगों का विकास हुआ। लेकिन भारत की ब्रिटिश सरकार ने न तो भारतीय सामान को संरक्षण दिया और न ही भारतीय व्यापारियों को सुविधाएँ दी। इसके अतिरिक्त भारत की परम्परागत आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था को भी धीरे-धीरे पतन की ओर पहुँचा दिया। भारत इंग्लैण्ड के लिए आयातित देश बनकर रह गया। भारतीय बाजार धीरे-धीरे विदेशी सामानों से भरपूर हो गये। यहाँ के उद्योग-धंधे ठप्प हो गये। इस प्रकार सरकार का मुख्य उद्देश्य भारत की बजाय ब्रिटेन के व्यापारियों व उद्योगपतियों को संरक्षण देना था जिससे भारत का अनौद्योगीकरण हुआ।

भारत की निर्धनता : अंग्रेज़ों की शोषणकारी आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप भारत का अधिक से अधिक शोषण हुआ तथा भारत से धन का एक बड़ा भाग इंग्लैण्ड चला गया। इस भाग के बदले भारत को कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। इस आर्थिक दोहन अथवा धन के निकास से भारत निरंतर निर्धन होता चला गया।

इंग्लैण्ड का विकास : भारतीय धन के निकास से ही इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति हुई। भारत से कच्चे माल का इंग्लैण्ड को निर्यात व इंग्लैण्ड से तैयार माल के भारत में आयात से इंग्लैण्ड के उद्योगों को काफी लाभ मिला। भारत में कच्चे माल को सस्ती दर में खरीदकर भारी मुनाफा कमाया जाने लगा। भारत के कपड़ा, बर्तन, लोहा व कांच उद्योग को बर्बाद कर उनमें लगे शिल्पियों को उजाड़ दिया गया।

भारतीय व्यापार को हानि : कम्पनी शासन से पूर्व भारत का व्यापार विकसित अवस्था में था तथा इस व्यापार पर भारतीय व्यापारियों का नियंत्रण था। कम्पनी के शासन की स्थापना के बाद अंग्रेज़ों ने भारतीय व्यापार व व्यापारियों पर विभिन्न तरह के प्रतिबंध लगा दिए तथा अंग्रेज़ी व्यापारियों का पक्ष लेना शुरू कर दिया। इससे भारतीय व्यापारियों को आर्थिक हानि होने लगी तथा वे बर्बाद हो गए।

कृषि का पिछड़ापन : कम्पनी ने भारत में शोषणकारी भू-राजस्व नीतियाँ अपनाई जिससे कृषि के उत्पादन में गिरावट आई। जमींदार अधिकतर शहरों में निवास करते थे। उनकी कृषि सुधार में कोई रुचि नहीं थी। किसान कृषि उत्पादन बढ़ाने में इसलिए रुचि नहीं लेते थे क्योंकि उनको पता था कि उत्पादन का बड़ा हिस्सा कम्पनी व जमींदार के पास चला जाएगा। इसलिए कृषि में गतिहीनता व पिछड़ापन आया ।

किसानों की दरिद्रता : अंग्रजों की भू-राजस्व नीतियों से किसानों की स्थिति बिगड़ने लगी । भू-राजस्व की मात्रा इतनी अधिक थी कि किसान साहूकारों व महाजनों के चंगुल में फँस गए। किसान, ऋणग्रस्तता के शिकार हुए। दूसरी ओर अकाल व बाढ़ के समय भी कम्पनी कठोरता से कर वसूल करती थी, जिससे किसानों की स्थित दयनीय होती चली गई। अधिकतर किसानों ने अपनी भूमि बेच दी व खेतीहर मजदूर बन गये।

औपनिवेशिक जरूरतों के लिए रेलों व सड़कों का विकास : कम्पनी ने अपनी सुविधा एवं लाभ के लिए भारत में यातायात के आधुनिक साधनों जैसे रेलों व सड़कों का विकास किया। रेलों व सड़कों का विकास अंग्रेज़ों ने अपनी औपनिवेशिक, आर्थिक व प्रशासनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए किया। दिल्ली से कलकत्ता तक के शेरशाह सूरी मार्ग को पक्का करवाया गया तथा इसका नाम ‘ग्रांड ट्रंक रोड’ रखा गया। कई प्रमुख नगरों को सड़कों से जोड़ा गया। नगरों को बंदरगाहों से भी सड़क मार्ग द्वारा जोड़ा गया तथा सार्वजनिक कार्य विभाग (पी. डब्ल्यू. डी.) की स्थापना की गई। इसी तरह रेलों का विकास इसलिए किया गया ताकि भारत के आंतरिक भागों से कच्चा माल आसानी से बंदरगाहों तक पहुँचाया जा सके तथा फिर तैयार माल इन बंदरगाहों से पुनः भारत के आंतरिक हिस्सों तक पहुँचाया जा सके।

  • भारत में लार्ड डलहौजी द्वारा शुरू की गई रेल व्यवस्था का उद्देश्य भारत के आंतरिक भाग से बहुमूल्य वस्तुओं को समुद्री तट पर ले जाकर लंदन ले जाना था।

कम्पनी की शोषणकरी नीतियों का प्रतिरोध –

1757 ई. से 1857 ई. के बीच कम्पनी की शोषणकारी नीतियों ने भारतीय किसानों, हस्तशिल्पियों एवं व्यापारियों को बर्बाद कर दिया तथा यहाँ के परम्परागत आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था को भी बर्बाद कर दिया। इस कारण से इन सभी वर्गों ने कम्पनी – शासन का विरोध करना शुरू कर दिया। 1757 ई. से लगातार हर वर्ष बगावत होती रही। 1857 ई. में तो भारतीय जनमानस के सभी वर्गों ने मिलकर अंग्रेज़ी कम्पनी के विरुद्ध एक ऐसा विस्तृत स्वतंत्रता संघर्ष छेड़ा जिसने अंग्रेज़ी शासन की चूलें हिला दी। कम्पनी की शोषणकारी नीतियों के प्रतिरोध का अध्ययन निम्नानुसार किया जा सकता है :

किसानों के विद्रोह : ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अपनी आय में वृद्धि के लिए मालगुजारी संबंधी सुधारों ने भारत के ग्रामीण समाज को बुनियादी तौर पर प्रभावित और परिवर्तित किया। इस कर की उगाही के लिए किसानों पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार किए जिससे भारत के अलग-अलग हिस्से के किसानों ने विद्रोह कर दिए। बंगाल में संन्यासी विद्रोह, चुआर विद्रोह, रंगपुर विद्रोह, उड़ीसा में गंजम विद्रोह, हरियाणा में जाटों का विद्रोह, गुजरात का कोली विद्रोह, महाराष्ट्र का रामोसी विद्रोह, मैसूर व गारो के पागलपंथी विद्रोह आदि किसान विद्रोह थे। इन सभी विद्रोहों का कारण कम्पनी की अत्याचारपूर्ण शोषणकारी नीतियाँ थी। अपने आधुनिक संसाधनों से अंग्रेज़ इन विद्रोहों को दबाने में तो सफल रहे लेकिन किसानों व कारीगरों के मन में ज्वाला सुलगती रही।

वनवासियों एवं जनजातियों का प्रतिरोध : अंग्रेज़ों की शोषणकारी नीतियों से वनवासियों में भी असंतोष पनपने लगा। अंग्रेज अधिकारी व कम्पनी के वफादार जमींदार वनवासी व जनजातीय लोगों का निरंतर शोषण करते थे तथा उनके जंगलों का दोहन करने लगे थे। कम्पनी की भू-राजस्व नीतियों से भी आदिवासी असंतुष्ट थे। वनवासी इतने परेशान हो गये कि उनके पास हथियार उठाने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं बचा। भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेज़ी शासन का प्रतिरोध होने लगा। 1788-1790 ई. के बीच बंगाल में वनवासियों ने विरोध का झण्डा बुलंद किया। इसी तरह से कोल, खासी, भील इत्यादि ने आधुनिक हथियारों से सुसज्जित अंग्रेजी सेना के विरुद्ध अपने परम्परागत हथियारों से विद्रोह कर दिया। सबसे भयंकर विद्रोह 1855 1856 ई. में छोटा नागपुर के सन्थालों ने सिद्धू व कान्हों के नेतृत्व में किया। यह विद्रोह इतना भयंकर था कि अंग्रेज़ों को इसे दबाने में आठ महीने का समय लगा। वनवासियों के विद्रोह उनकी स्वतंत्रता में अंग्रेजी कम्पनी के हस्तक्षेप एवं कम्पनी की शोषणकारी नीतियों के फलस्वरूप उत्पन्न हुए थे। यद्यपि अंग्रेज़ों ने इनका कठोरता से दमन कर दिया लेकिन स्वतंत्रता की ज्वाला इनके भीतर दहकती रही।

शिल्पकारों एवं कारीगरों का प्रतिरोध : ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सत्ता प्राप्ति के बाद शोषणकारी व्यापारिक नीतियाँ अपनाईं। प्रारम्भ में भारतीय शिल्पकारों एवं कारीगरों से मनचाहे मूल्य पर सामान खरीदा जिससे कारीगरों को आर्थिक हानि झेलनी पड़ी। औद्योगिक क्रांति के बाद अंग्रेज़ों ने भारत में इस तरह के नियम बनाये जिनसे भारतीय उद्योगों का ह्रास किया जा सके तथा इंग्लैण्ड में तैयार माल की खपत हो सके। 1769 ई. में कम्पनी ने बंगाल में कच्चे रेशम की पैदावार को बढ़ावा दिया परन्तु सिल्क से तैयार माल पर प्रतिबन्ध लगाये। इसी प्रकार ‘तटकर नीति’ तथा ‘आंतरिक चुंगी व्यवस्था’ को तैयार करते समय ब्रिटिश हितों को प्रमुखता दी गई थी। अत: कम्पनी के विभेदकारी कानूनों से भारतीय हस्तकलाएं नष्ट हो गई और इनका स्थान ब्रिटिश सामग्री ने ले लिया था। अब उनके अंदर असंतोष पनपने लगा तथा उन्होंने विभिन्न विद्रोहों में बढ़-चढ़कर भाग लेना शुरू कर दिया। 1770-1805 ई. के बीच बुनकरों, रेशम के कारीगरों व नमक के कारीगरों ने अंग्रेज़ी कम्पनी के विरुद्ध संघर्ष किया। इस संघर्ष को कई बार अन्य वर्गों का भी सहयोग मिला।

जमींदारों एवं राजाओं के प्रतिरोध : कम्पनी की शोषणकारी नीतियों से जमींदार एवं देशी राजा भी अप्रसन्न थे। अंग्रेज़ों ने भारत का अधिक से अधिक दोहन करने के उद्देश्य से ही यहाँ की सत्ता पर नियंत्रण किया। कम्पनी ने भारतीय राजाओं की स्वतंत्रता छीन ली। उन्होंने दीवानी का अधिकार प्राप्त करके राजाओं के आर्थिक प्रबंधन पर नियंत्रण कर लिया जिससे देशी राजाओं में बेचैनी बढ़ने लगी। वहीं दूसरी ओर भू-राजस्व नीतियों से नए-नए जमींदारों को भूमि के ठेके दिए जिससे पुराने जमींदार नाराज हो गये। इन जमींदारों ने कम्पनी के विरुद्ध किसानों व कारीगरों के साथ मिलकर विद्रोह का बिगुल बजा दिया। मेदिनीपुर (1766-1767 ई.), धूलभूमि (1766-1767 ई.), विशाखापट्टनम (1794 ई.), पयस्सी राजा ( 1796-1805 ई), वजीर अली (1799 ई.), गंजम का संघर्ष ( 1800-1805 ई.), चेंरो का संघर्ष (1800 ई.), बगड़ी का नायक विद्रोह (1806-1816 ई.), बुंदेलखण्ड व बघेलखण्ड का विद्रोह (1808-1812 ई.), हाथरस की चुनौती (1817 ई.) इत्यादि । ये सभी इसी तरह के विद्रोह एवं संघर्ष थे जिनमें जमींदारों एवं राजाओं ने अपनी रियासतों एवं जागीरों के शोषण के बारे में आवाज उठाई।

1857 ई. का महान स्वतंत्रता संग्राम : 1757 ई. की प्लासी की लड़ाई के परिणामस्वरूप बंगाल में अंग्रेजी कम्पनी ने ब्रिटिश राज्य की नींव रखी। 1757-1856 ई. के इन सौ वर्षों के दौरान कम्पनी ने सम्पूर्ण भारत में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अपनी सत्ता व सर्वोच्चता स्थापित कर ली। इस समय के दौरान जैसे-जैसे कम्पनी का राज्य विस्तार होता गया वैसे-वैसे देश के प्रत्येक वर्गों (शासकों, सामंतों, कारीगरों, किसानों व शिल्पकारों) में असंतोष की भावनाएं बढ़ती गई। 1857 का संग्राम राष्ट्रवाद की भावनाओं से ओत-प्रोत था । संग्राम का परम लक्ष्य भारत को अंग्रेज़ी राज से मुक्त कराना तथा उसे स्वतंत्र एवं संप्रभु राष्ट्र के रूप में स्थापित कराना था। भारत में अंग्रेज़ों ने जो आर्थिक एवं राजनीतिक नीति अपनाई वह ब्रिटिश हितों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी, जिसके कारण भारत के परम्परागत हस्तशिल्प उद्योग नष्ट हो गए थे। अंग्रेज़ों के द्वारा प्रचलित तीनों भू-राजस्व व्यवस्थाएँ भारत की परम्परागत प्रथाओं के अनुकूल नहीं थी जिससे कृषि व किसानों की दशा दिन-प्रतिदिन गिरती गई। अंग्रेज़ों ने विभिन्न माध्यमों से भारतीय धन का निष्कासन किया, जिसके कारण भारत में गरीबी बढ़ती गई। अंग्रेज़ों की इस शोषणकारी नीति के विरुद्ध हर वर्ग ( आदिवासी, किसान, शिल्पकार, जमींदार और शासक) में असंतोष व्याप्त था।

पाठ का सार

  • भारत को सोने की चिड़िया यहाँ की धन सम्पदा, समृद्धि एवं आत्मनिर्भरता के कारण कहा जाता था।
  • भारत में समुद्री मार्ग से पहुँचने वाला प्रथम यूरोपियन व्यक्ति वास्को-डी-गामा था, जो 1498 ई. में कालिकट पहुँचा था।
  • 1757 ई. में प्लासी का युद्ध व 1764 ई. में बक्सर के युद्ध लड़े गये।
  • लार्ड डलहौजी की विलय की नीति ने अंग्रेज़ों का भारत में राजनीतिक विस्तार किया।
  • 1765 ई. से 1947 ई. तक अंग्रेजों ने भारत का निरंतर आर्थिक, राजनीतिक विस्तार दिया।
  • भारत में 18 वीं शताब्दी को पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है।
  • भारत में लागू की गई भूमि बंदोबस्त भारतीयों के लिए नरक का द्वार बनी।
  • भारत में भारतीय संसाधनों से ही भारतीयों का शोषण करके असहाय बना दिया गया था।

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