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HBSE Class 9 Naitik Siksha Chapter 8 दिव्य चेतना पुरुष रामकृष्ण परमहंस / Divya Chetna purush Ramkrishan Pramhansh Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 9th Book Solution.
दिव्य चेतना पुरुष रामकृष्ण परमहंस Class 9 Naitik Siksha Chapter 8 Explain
आधुनिक युग में भारत की सुप्त चेतना को अपने अलौकिक स्पर्श से स्पन्दित कर कालजयी संस्कृति को पुनःस्थापित करने वाले प्रतिभावान व्यक्तियों में रामकृष्ण परमहंस का नाम अग्रगण्य है। विभिन्न मतों और वादों के झंझावातों से आक्रान्त मानवता को जिस सद्भाव और समरसता की आवश्यकता है, वे उसके मूर्तिमान रूप हैं।
रामकृष्ण का जन्म 17 फरवरी, 1836 को पश्चिमी बंगाल के हुगली जिले के कामारपुर नामक गाँव में हुआ। उनका असली नाम गदाधर था। उनकी माता का नाम चन्द्रमणि तथा पिता का नाम खुदीराम चट्टोपाध्याय था। संन्यास लेने के बाद गदाधर का नाम रामकृष्ण पड़ा।
परिवार के धार्मिक वातावरण का उनके बाल मन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। बचपन में वे हँसमुख और नटखट भी थे। उनमें नारी सुलभ माधुर्य व भावुकता थी, जो अन्तिम समय तक बनी रही। उनका कण्ठ स्वर बहुत मधुर था। वे श्रीकृष्ण के गाय चराने के गीत बड़ी मधुरता के साथ गाते थे। संगीत और काव्य में उनकी विशेष अनुरक्ति थी। देवी-देवताओं के अभिनय में उन्हें इतने आनन्द की अनुभूति होती थी कि उनकी अपनी सत्ता का लोप हो जाता था। एक बार वे शिवरात्रि के अवसर पर शिव की भूमिका अभिनीत कर रहे थे भावातिरेक में उनकी आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बहने लगी तथा वे अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। दर्शकों ने सोचा कि शायद गदाधर की मृत्यु हो गई है।
जब रामकृष्ण सात वर्ष के थे, तब उनके पिता की मृत्यु हो गई। परिवार को घोर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस समय समाज में जाति-पाति का बोलबाला कुछ अधिक था। उनके गाँव में एक धनी शूद ने उनसे आग्रह करके यह वचन ले लिया था कि यज्ञोपवीत के समय वे सबसे पहले उसी का दान स्वीकार करेंगे। जब उनके बड़े भाई रामकुमार को इस बात का पता चला तो वे परेशान हो गए। उन दिनों किसी ब्राह्मण का शूद्र से दान लेना असम्भव–सा था। ऐसा कृत्य उन्हें समाज से बहिष्कृत करा सकता था। उन्होंने रामकृष्ण को बहुत समझाया परन्तु वे अपने वचन से टलने को तैयार नहीं हुए और अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हुए उन्होंने उस धनी शूद्र से पहला दान स्वीकार किया।
आजीविका की तलाश में उनके बड़े भाई कलकत्ता चले गए। वहाँ जाकर उन्होंने एक पाठशाला की स्थापना की। सन 1852 में उन्होंने रामकृष्ण को भी वहीं बुला लिया किन्तु रामकृष्ण ने वहाँ पढ़ने से इनकार किया। इसी दौरान कलकत्ता की एक सम्पन्न महिला रासमणि ने माँ काली का एक मन्दिर बनवाया था। वहाँ पुरोहित का कार्य करने के लिए एक ब्राह्मण की आवश्यकता थी। किन्तु कोई भी इस मन्दिर का दायित्व अपने ऊपर लेने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि मन्दिर की प्रतिष्ठात्री एक शूद्राणी थी। रामकुमार ने यह दायित्व सहर्ष स्वीकार किया। अगले वर्ष बड़े भाई रामकुमार की मृत्यु के पश्चात् रामकृष्ण ने मन्दिर की पुरोहिती का दायित्व सँभाल लिया।
अब रामकृष्ण का एकमात्र कार्य काली माँ की सेवा करना था। वे सारा दिन माँ के समस्त कार्यों में उनके साथ रहते। माँ काली का परिधान परिवर्तन करते, उसे अर्घ्य चढ़ाते, भोग भी लगाते थे। वे देवी के साथ इस प्रकार घनिष्ठता का व्यवहार करते कि देखने में विस्मयकारी प्रतीत होता। उनका यह प्रेमोन्माद दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। लोग उनके इस प्रेमोन्माद की निन्दा भी करते थे। जब यह समाचार उनकी माता के पास पहुँचा तो उन्होंने रामकृष्ण का विवाह करने की इच्छा प्रकट की। उनका विचार था कि ऐसा करने से उनका मन सांसारिक कार्यों की ओर मुड़ जाएगा। विवाह के पश्चात् वे फिर मन्दिर में आ गए। मन्दिर में प्रवेश करते वही उनका वह भक्तिमय उन्माद पहले से भी अधिक वेग से प्रकट हुआ। उनका मानसिक सन्तुलन छिन्न-भिन्न-सा हो गया। उनके नेत्रों के पलक गिरने बन्द हो गए। वे एकटक काली माँ को निहारते रहते और प्रार्थना करते दो वर्ष तक उनकी यही दशा रही।
एक दिन दक्षिणेश्वर में भैरवी नाम की एक संन्यासिनी आई। रामकृष्ण को देखते ही उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। उसने कहा, “वत्स, न मालूम कितने दिनों से मैं तुम्हें तलाश रही हूँ।” काली के भक्त रामकृष्ण और भैरवी के मध्य उसी समय माता-पुत्र का सम्बन्ध स्थापित हो गया। रामकृष्ण ने उन्हें अपनी आध्यात्मिक माता एवं शिक्षिका के रूप में स्वीकार किया। भैरवी ने रामकृष्ण को आध्यात्मिक साधना के सभी मार्गों, यहाँ तक कि तान्त्रिक साधना भी सिखा दी।
भैरवी के प्रभाव से ही वे ईश्वर को मों के रूप में पूजने लगे किन्तु उनकी आध्यात्मिक ज्ञान की यात्रा अभी पूरी नहीं हुई थी। सन 1864 में एक वेदान्तिक पण्डित व साधक तोतापुरी ने उनको वेदान्त की शिक्षा दी। उनकी समझ में आ गया कि साकार और निराकार एक ही सत्ता है, यहवैसे ही एक है, जैसे- दूध और उसकी धवलता, हीरा और उसकी चमक अथवा सर्प और उसकी वक्रता। एक के बिना दूसरे का विचार ही असम्भव है। माँ और ब्रह्म दोनों एक ही हैं।
मन्दिर में सभी पन्थ-सम्प्रदायों के लोग आकर ठहरते थे। वहीं पर एक दिन रामकृष्ण गोविन्दराय नामक गरीब मुसलमान को पूजा व प्रार्थना करते हुए देखा। वे समझ गए. इस व्यक्ति ने इस्लाम के द्वारा भगवान को पा लिया है। उन्होंने उस मुसलमान की प्रेरणा से कुरान पढ़ी।
अब वे मन्दिर की सीमा से बाहर रहकर अल्लाह का नाम जपने लगे। एक भिन्न विचारधारा के प्रति उनका यह समर्पण विस्मित करने वाला था। इस्लाम साधना के इस अनुभव की उनके व्याख्याताओं ने इस प्रकार व्याख्या की है कि भारत के ये दोनों सम्प्रदाय अद्वैत व निराकार ब्रह्म के आधार पर ही परिभाषित हैं।
इसी प्रकार एक अनुभव द्वारा रामकृष्ण का ईसाई धर्म के साथ भी साक्षात् परिचय हो गया था। सन 1874 में कलकत्ता के मल्लिक नामक एक हिन्दू ने उन्हें बाइबिल पढ़कर सुनाई। यहाँ पहली बार रामकृष्ण को ईसा का परिचय प्राप्त हुआ। एक दिन उन्होंने दीवार पर टंगा हुआ मेरी और उसके पुत्र का चित्र देखा। चित्र को देखकर वे भावमुग्ध हो गए। उन्हें लगा कि वे दृश्य मूर्तियाँ उनके अन्दर प्रवेश कर गई हैं और उनके समस्त बन्धनों को तोड़ दिया है। कई दिनों तक वे ईसाई चिन्तन व ईसा के प्रेम में ही मग्न रहे। वे ईसा के साथ एकाकार हो गए। उस समय से वे ईसा के देवत्व में विश्वास करने लगे। परन्तु उनके लिए केवल ईसा ही भगवान के अवतार नहीं थे। ईसा से पूर्व कृष्ण और बुद्ध भी अवतार हुए हैं। जैन तीर्थंकरों व सिक्ख गुरुओं के प्रति भी उनके मन में श्रद्धाभाव था।
विभिन्न साधना मार्गों व पन्थों की जानकारी प्राप्त करने के बाद उन्होंने समझ लिया था कि सभी धर्मों में ईश्वर एक ही है। केवल उसे प्राप्त करने के मार्ग अलग-अलग हैं। वे अपने शिष्यों से कहते थे, “मैंने हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी धर्मों का अनुशीलन किया है। मैंने देखा है कि उसी एक भगवान की तरफ सबके कदम बढ़ रहे हैं, यद्यपि उनके पथ अलग-अलग हैं।”
रामकृष्ण की दृढ़ भक्ति और सच्ची विरक्ति को देखकर लोग उनकी ओर आकृष्ट होने लगे। अनेक लोग उनके अनुयायी भी बन गए। अपने समय के प्रसिद्ध समाज सुधारक केशवचन्द्र सेन उनसे बहुत प्रभावित हुए। यद्यपि केशवचन्द्र रामकृष्ण के प्रेमोन्माद को पहले सन्देह की दृष्टि से देखते थे तथा इसे रुग्णता मात्र मानते थे किन्तु भगवान के बारे में रामकृष्ण के प्रवाहपूर्ण प्रभावशाली शब्दों को सुनकर तथा विचार बुद्धि की स्पष्टता को देखकर वे आश्चर्य में डूब गए।
नरेन्द्र, जो बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए, रामकृष्ण के ही शिष्य थे। इन्हीं स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो की धर्म-संसद में वेदान्त और भारतीय संस्कृति की तार्किक व्याख्या कर पूर्वाग्रही यूरोप व अन्य धर्मावलम्बियों के ज्ञान चक्षु खोल दिए।
रामकृष्ण तन और मन दोनों से अत्यन्त संवेदनशील थे। अधिक शीत ताप उनसे सहन नहीं होता था। एक बार ठण्ड लगने से उनका गला सूज गया और वहाँ घाव बन गया। डॉक्टरों ने उन्हें बोलने से मना किया परन्तु उन्होंने डॉक्टरों की बात नहीं मानी और उपदेश देना जारी रखा। इससे उनकी तकलीफ और बढ़ गई। इतना होने पर भी उनके होठों पर सदैव मुस्कान रहती थी। रामकृष्ण का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बिगड़ता गया। दिसम्बर 1885 में उन्हें स्वास्थ्य लाभ के लिए कलकत्ता के समीप कोसीपुर के उद्यान में ले जाया गया। अपने जीवन के शेष आठ मास उन्होंने वहीं पर व्यतीत किए।