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HBSE Class 9 Naitik Siksha Chapter 5 ज्ञान सभी को चाहिए / Gyan Sbhi ko Cahiye Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 9th Book Solution.
ज्ञान सभी को चाहिए Class 9 Naitik Siksha Chapter 5 Explain
गीता उपनिषदों का भी उपनिषद है क्योंकि सभी उपनिषदों को दुहकर यह गीतारूपी दूध श्रीकृष्ण ने अर्जुन के निमित्त संसार को दिया है। विनोबा भावे कहते हैं कि मेरा शरीर माँ के दूध पर जितना पला है उससे कहीं अधिक मेरा हृदय और बुद्धि दोनों गीता के दूध से पोषित हुए हैं। हम सभी जानते हैं कि कर्मफलत्याग गीता का केन्द्रीय बिन्दु है। पर निष्कामता, कर्मफलत्याग कहने भर से नहीं आ जाती। यह त्याग-शक्ति पैदा करने के लिए ज्ञान चाहिए। गीता में ज्ञान के सम्बन्ध में कहा गया है-
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।। गीता 4/38
अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निश्चय ही कुछ भी नहीं है। योग सिद्ध व्यक्ति (पवित्र अन्तःकरण होने पर) स्वयं ही इसको आत्मा में पा लेता है। इस ज्ञान की तलाश में मनुष्य आदिकाल से ही रहा है। यह आवश्यक नहीं कि यह ज्ञान हमें बड़ों से ही प्राप्त हो। यदि हमें अपने छोटों से भी ज्ञान मिले तो उसे प्राप्त करने में संकोच नहीं करना चाहिए। ऐसी ही एक कथा है, जिसमें महाराजा जनक छोटे-से निःशक्त (दिव्यांग) बालक अष्टावक्र से ज्ञान प्राप्त करते हैं। कहानी इस प्रकार है:
आठ अंगों से मुडा तुड़ा पैदा होने के कारण एक बालक का नाम अष्टावक्र रखा गया। उसको माता से संस्कार मिले और पिता से सदाचार की शिक्षा । निरन्तर ज्ञान-साधना में जुटा रहने वाला अष्टावक्र निर्भीक हो गया। शारीरिक कमियों ने उसको कभी चिन्तित नहीं किया। वह जान चुका था कि शरीर आत्मा के वस्त्र की तरह है। जिस प्रकार फटे-पुराने वस्त्र, मनुष्य को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकते, उसी प्रकार शारीरिक कमियों भी बाधक नहीं बन सकती।
एक बार राजा जनक ने घोषणा करवाई जो विद्वान महाराज को ज्ञानोपदेश देकर सन्तुष्ट कर देगा, उसे आधा राज्य और बहुत-सा धन दिया जाएगा: यदि ज्ञानोपदेश सन्तोषजनक नहीं हुआ तो उसे कारागार में डाल दिया जाएगा। अष्टावक्र के पिता भी जनक के सभागार में गए परन्तु सन्तोषजनक ज्ञानोपदेश न दे पाने के कारण कारागार में डाल दिए गए। अपनी माता से पूरा घटनाक्रम सुनकर किशोर अष्टावक्र ने निश्चय किया कि वह अपने ज्ञान के बल पर अपने पिता सहित अन्य विद्वानों को भी कारागार से मुक्त कराएगा। अष्टावक्र जब जनक की सभा में पहुँचा तो सभी सभासद हँस पड़े। अष्टावक्र घबराने वाला नहीं था। सबकी ओर देखकर वह भी ठहाके लगाने लगा।
राजा जनक ने पूछा, ‘आप क्यों हँस रहे हैं?
अष्टावक्र बोला, ‘पहले आप बताइए, आप सब क्यों हँसे थे? जनक ने उत्तर दिया, ‘सभी सभासद आपकी शारीरिक अवस्था को देखकर हँसे थे, जो कि उचित नहीं था। क्षमा कीजिए।
अष्टावक्र ने कहा, “राजन्! मैं आपकी सभा को विद्वानों की सभा मानकर यहाँ आया था लेकिन इनको हँसते हुए देखकर मुझे लगा कि मैं ‘चर्मकारों की सभा में आ पहुँचा हूँ। इसी विचार से मुझे हँसी आ गई। बुरा मत मानिएगा।”
किशोर की बात सुनकर सभासद स्तब्ध रह गए। सब के सब लज्जित थे और राजा जनक मौन थे। वे जानते थे कि शरीर नश्वर है। ज्ञान की चर्चा में शरीर के रूप-रंग का क्या काम ? रूप-रंग या बनावट तो शरीर के धर्म हैं। आत्म ज्ञान से उनका क्या लेना-देना?
राजा जनक ने अष्टावक्र का स्वागत किया। अपने अन्तःपुर में ले जाकर उसकी खूब सेवा की। उसको स्वादिष्ट भोजन कराया। हालाँकि राजा के मन में ‘चर्मकारों की सभा वाली उक्ति खटक रही थी।
प्रातःकाल जनक उठे। नित्य-कर्म से निवृत्त होकर वे अष्टावक्र के पास गए और प्रणाम करके बोले, ‘महात्मन्! मुझे ज्ञानोपदेश दीजिए। मैं आप के प्रति समर्पित हूँ।’
अष्टावक्र ने हँसकर कहा, “राजन्! बिना दक्षिणा दिए ही आप ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं? जिस ज्ञान की प्राप्ति सुदीर्घ तप और ब्रह्मचर्य से होती है, उसे यूँ ही पाना चाहते हैं?”
भाव से जनक बोले, “मेरे पास जो धन-सम्पदा, राज्य आदि है, वह सब आपको समर्पित करता हूँ। आप ज्ञानोपदेश दीजिए।”
अष्टावक्र ने कहा, “हे राजन्! अनित्य पदार्थों की सहायता से दिव्य ज्ञान पाना चाहते हैं? वैसे भी धन-सम्पदा और राज्य तो प्रजा के हैं। आपका उनमें कुछ भी तो नहीं है।” जनक पुनः बोले, “तो फिर मेरा शरीर ले लें। ”
अष्टावक्र ने प्रत्युत्तर दिया, “आप अपना शरीर कैसे दे सकते हैं? वह तो मन के अधीन है।” सोच-विचारकर जनक बोले, “आप मेरा मन ही ले लीजिए।”
अष्टावक्र ने कहा, “मन तो लिया जा सकता है, अगर आपका मन शिवसंकल्प वाला हो। पहले आप कल्याणकारी संकल्प वाले बनिए।” जनक वेद वाक्य मनः शिवसंकल्पम् के मर्म को समझ गए और बोले, “मन आपका हो गया तो कल्याणकारी संकल्प वाला भी होगा ही। मुझे इस समर्पण से बहुत शान्ति मिल रही है।”
अष्टावक्र ने कहा, “आप कुछ समय इस शान्ति का अनुभव करें। आगे की बात बाद में करेंगे।” कुछ समय बाद अष्टावक्र ने राजा को समझाया कि मन आत्मा के अधीन है। देह का अधिष्ठाता मन (देही) है, पर आत्मा विदेह है। मनुष्य मन को ज्ञान के अधीन कर देता है, तब वह आत्मोन्मुख हो जाता है। धीरे-धीरे जीव सच्चिदानन्द स्वरूप को प्रकट कर लेता है। जीव की यही परम गति है। शरीर पर ज्ञान की सत्ता स्थापित होने पर ही जीव का आत्मा से साक्षात्कार होगा।
अष्टावक्र ने पुनः कहा, “राजन्! आपने मुझे शिवसंकल्पयुक्त मन दिया था। उसे लौटा रहा हूँ। आप ज्ञानपूर्वक शासन करें और आत्मा का अनुभव करें।” जनक सन्तुष्ट होकर बोले, “मैं आपका आभारी हूँ। मुझे ज्ञान मिला, उसका प्रभाव भी अनुभव कर रहा हूँ। आप यहीं रहिए, मुझे सेवा का अवसर दीजिए।” हँसकर अष्टावक्र ने कहा, “अच्छा! अब ज्ञान पा लिया है तो मुझे भी अन्य विद्वानों की तरह कारागार में डालोगे?”
जनक ने विनीत भाव से कहा, “अज्ञान में मैंने उनको बन्दी बनाया था। अब उन सब विद्वानों को मुक्त कर देता हूँ। आपकी तरह वे सब अब स्वतन्त्र हैं। आप मेरा आभार तो स्वीकारें।” अन्त में अष्टावक्र सादर अपने पिता को लेकर चले गए।
वेद में कहा है। नास्ति ज्ञानाद् ऋते मुक्तिः । अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं है। मुक्ति दिलाने वाला यह ज्ञान सात्त्विक ही हो, जिसके विषय में गीता में कहा गया है :
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् (गीता 18/20)
अर्थात् जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तो तू सात्त्विक जान ।
गीता पाठ
दसवाँ अध्याय
गीता के दशम अध्याय का नाम ‘विभूति योग है। इस अध्याय में 42 श्लोक हैं, जिनमें भगवद-विभूति, भक्तियोग एवं योग शक्तियों का वर्णन है। प्रथम श्लोक से लेकर सप्तम श्लोकपर्यन्त ईश्वर की विभूतियों और योग शक्तियों का वर्णन एवं उनके ज्ञान से होने वाले फलों का निरूपण किया गया है। 8वें श्लोक से 11वें श्लोकपर्यन्त भक्तियोग एवं भक्तियोग के प्रभाव का वर्णन किया गया है। 12-18वें श्लोकपर्यन्त अर्जुन के द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति व उनके प्रभाव एवं योग निवेदन तथा 19वें श्लोक से 42वें श्लोकपर्यन्त अध्याय के अन्त में श्रीकृष्ण के द्वारा अपनी योग-शक्तियों व विभूतियों का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत श्लोक में भगवान के स्वरूप ज्ञान का फल निरूपित करते हुए कहा है कि
यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।10 / 3।।
जो मुझे अजन्मा (जन्मरहित) अनादि तथा लोकों का महान् ईश्वर रूप से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष सभी पापों से मुक्त हो जाता है। श्रीकृष्ण परम तत्त्व का परिचय कराते हैं कि जिसका कोई अन्त न होता हो, वह अनादि और अनन्त होता है। परमात्मा अनादि, अनन्त और अजन्मा है। इस बात को सब कोई नहीं जानते। कोई सम्यक् ज्ञानी व्यक्ति ही इस रहस्य को समझता है। परमात्मा को लोकमहेश्वर कहा गया है। उसे जानने वाला सब पापों से छूट जाता है। पाप से बचना सब चाहते हैं, परन्तु बचने का मार्ग नहीं जानते। पाप से बचने का मार्ग है- परम तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना।
ग्यारहवाँ अध्याय
गीता के ग्यारहवें अध्याय का नाम ‘विश्वरूप दर्शन योग है। इस अध्याय में 55 श्लोक हैं. जिसके पहले श्लोक से चौथे श्लोकपर्यन्त भगवान के विश्वरूप दर्शन करने की इच्छा से अर्जुन द्वारा निवेदन किया गया है। पाँचवें श्लोक से 8वें श्लोक तक श्रीकृष्ण के द्वारा अपने विश्वरूप का वर्णन है। 9वें श्लोक से 14वें श्लोकपर्यन्त संजय के द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति श्रीकृष्ण के विश्वरूप का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। 15वें श्लोक से 31वें श्लोकपर्यन्त अर्जुन के द्वारा श्रीकृष्ण के विश्वरूप के दर्शनोपरान्त स्तुति का वर्णन है। 32वें श्लोक से 34वें श्लोक तक श्रीकृष्ण ने अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए अर्जुन को युद्ध के निमित्त उत्साहित किया है। 35ये श्लोक से 46वें श्लोकपर्यन्त भयभीत हुए अर्जुन ने श्रीकृष्ण से अपने चतुर्भुज रूप दर्शन देने की प्रार्थना की है। 47वें श्लोक से 50वें श्लोक तक श्रीकृष्ण के द्वारा ‘विश्वरूप दर्शन की महिमा का वर्णन एवं चतुर्भुज रूप दर्शन अर्जुन को कराने का वर्णन है। इस अध्याय में अनन्य भक्ति के स्वरूप का वर्णन करते हुए अनन्य भक्त की भगवत् स्वरूप प्राप्ति का वर्णन प्रस्तुत श्लोक में है-
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः ।
निर्वरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।।11/ 55।।
हे अर्जुन! जो पुरुष मेरे लिए यज्ञ, दान और तप आदि सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है. मुझको ही परम तत्त्व मानकर व्यवहार करता है तथा मेरा भक्त है अर्थात् मेरे नाम, गुण, प्रभाव, और रहस्य के श्रवण, कीर्तन, मनन, ध्यान का प्रेमभाव से अभ्यास करने वाला है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति वैरभाव से रहित है, ऐसी भक्ति वाला पुरुष ही मुझ को प्राप्त होता है। अपने कर्तव्य कर्मों को भगवान को समर्पित करना अनन्य भक्ति है। अनन्य भक्त सब कुछ भगवान को समझता है। वह यज्ञ, दान, तप आदि कर्म निष्काम भाव से तथा भगवान की प्रसन्नता के लिए करता है। प्रभु के विधान में आस्था रखता है अपने इष्टदेव के नाम का श्रवण करता है, कीर्तन करता है। जो सुनता है, उसका मनन करता है। जब वह परमेश्वर का हो जाता है तो सब प्राणियों को निर्वैर होकर मित्र समझने लगता है।
बारहवाँ अध्याय
गीता के बारहवें अध्याय का नाम ‘भक्ति योग है। इस अध्याय में 20 श्लोक हैं, जिनमें साकार व निराकार स्वरूपों के उपासकों की श्रेष्ठता व भगवत्प्राप्ति करने वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन है। प्रथम श्लोक से 12वें श्लोकपर्यन्त भगवत्प्राप्ति के उपाय, श्रीकृष्ण के सगुण व निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन है। 13वें श्लोक से 20वें श्लोक तक भगवत्प्राप्ति करने वाले पुरुषों के स्वभाव व प्रभाव का निरूपण है। ज्ञान, ध्यान से बढ़कर है। ध्यान से कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है। इसका प्रतिपादन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि –
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानादध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।12/12।।
तत्त्व को जाने बिना किए गए अभ्यास से परम प्रभु का ज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के रूप का ध्यान श्रेष्ठ है। ध्यान से भी बढ़कर सब कर्मों के फल का त्याग है क्योंकि कर्मफल त्याग से ही परम शान्ति प्राप्त होती है। मार्ग सब हैं। साधक की रुचि, क्षमता और स्थिति के अनुसार इनमें से कोई भी फलदायी हो सकता है। जो भगवद्प्रेम में मग्न है. वह अपने मार्ग पर बढ़ता रहे। जो ज्ञानी है, वह ज्ञानपूर्वक साधना करे जो ध्यानी है, वह ध्यान-साधना करता रहे। जो भगवान को समर्पित है, वह उस दृष्टि से काम करे। यदि इन सब में मन न लगे तो सर्वकर्मफलत्यागी बने। इन मार्गों में श्रेष्ठ कौन सा है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि जिस मार्ग से शान्ति मिले, वही श्रेष्ठ है।