हर्षवर्धन और तत्कालीन समाज Class 7 इतिहास Chapter 1 Notes – हमारा भारत II HBSE Solution

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HBSE Class 7 इतिहास / History in hindi हर्षवर्धन और तत्कालीन समाज / harshvardhan aur tatkalin samaj notes for Haryana Board of chapter 1 in Hamara Bharat II Solution.

हर्षवर्धन और तत्कालीन समाज Class 7 इतिहास Chapter 1 Notes


सम्राट हर्षवर्धन पुष्यभूति वंश के शासक थे। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत छोटे-छोटे राज्यों में टूट गया। इसी समय हूणों के आक्रमण ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया। ऐसे समय में पुष्यभूति ने थानेश्वर में पुष्यभूति नामक वंश की स्थापना की।

पुष्यभूति वंश के शासक —

नरवर्धन, राज्यवर्धन तथा आदित्य वर्धन ( 505 ई. – 580 ई. ) – हर्षवर्धन के कवि बाणभट्ट की रचना से तथा बांसखेड़ा व मधुबन के ताम्रपत्र अभिलेखों से इन शासकों की जानकारी मिलती है। यह तीनों शासक पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं थे। इसी कारण उन्होंने ‘महाराज’ की उपाधि धारण की।

प्रभाकरवर्धन ( 580 ई. – 605 ई. ) – प्रभाकरवर्धन पुष्यभूति वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था। उसने ‘महाराजाधिराज’ तथा ‘परम भट्ठारक’ की उपाधि धारण की। बाणभट्ट ने उनकी प्रशंसा में हूणों के लिए ‘शेर’ तथा सिंध देश के लिए ‘ज्वर’ बताया है। उनकी तीन संताने थी-  राज्यवर्धन, राज्यश्री तथा हर्षवर्धन।

राज्यवर्धन — प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के बाद 605 ई. में उसका बड़ा बेटा राज्यवर्धन थानेश्वर का राजा बना। उसने भी ‘महाराजाधिराज’ एवं ‘परम भट्ठारक’ की उपाधि धारण की। उसे अपने शासनकाल के शुरुआती दिनों में ही भारी संकट का सामना करना पड़ा। उसे सूचना मिली कि मालवा के शासक देवगुप्त, गौड़ प्रदेश के शासक शशांक तथा वल्लभी के राजा ध्रुवसेन ने संयुक्त रूप से उसके बहनोई कन्नौज के शासक गृहवर्मन मौखरी के साथ युद्ध करके हत्या कर दी तथा उसकी बहन राज्यश्री को बंदी बना लिया। वह तुरंत दस हजार सैनिकों के साथ युद्ध के लिए निकला। उसने मालवा के शासक देवगुप्त को पराजित कर दिया परंतु गौड़ प्रदेश के राजा शशांक ने धोखे से 606 ई. में राजवर्धन की हत्या कर दी।

हर्षवर्धन — हर्षवर्धन का जन्म 4 जून, 590 ई. को थानेश्वर के विशाल राज्य में हुआ। उनकी माता का नाम यशोमती देवी तथा पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। वह सहनशील तथा साहसी एवं प्रतापी राजा था। हर्षवर्धन तीन भाई बहन थे। हर्षवर्धन का बचपन उनकी माता यशोमती के भतीजे ‘भंडी’ के साथ बिता। हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट की रचना ‘हर्षचरित’ से यह सारी जानकारी मिलती है।

थानेश्वर राज्य में राज्यभिषेक ( 606 ई. – 647 ई. ) — बड़े भाई की मृत्यु के उपरांत 16 वर्ष की आयु में प्रधानमंत्री भंडी के परामर्श से हर्षवर्धन का राज्यभिषेक 606 ई. में थानेश्वर में किया गया। सम्राट हर्षवर्धन के राज्य की प्रथम राजधानी थानेश्वर सरस्वती नदी के किनारे स्थित थी।

कन्नौज की प्राप्ति — राज्यभिषेक के पश्चात हर्षवर्धन ने सबसे पहले अपने शत्रुओं से बदला लिया। उसकी बहन राज्यश्री कारागार से भाग विद्यांचल के जंगलों में चली गई थी। हर्षवर्धन ने दिवाकरमित्र नामक बौद्ध सन्यासी की सहायता से उसे खोज कर महल बुला लिया। बार-बार हमलों के चलते राजश्री के आग्रह पर हर्ष ने थानेश्वर को कन्नौज में मिलाकर अपनी राजधानी कन्नौज को घोषित कर दिया।

हर्षवर्धन की प्रमुख विजय गाथाएं —

  • गौड़ प्रदेश की विजय — गौड़ का शासक शशांक हर्ष का सबसे बड़ा शत्रु था। वह शैव मत को मानता था और बौद्ध मत का घोर विरोधी था। हर्ष ने भंडी को सेना के साथ गौड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा परंतु वह पूर्ण रूप से सफल ना हो पाए। बाद में हर्ष ने कामरूप के राजा ‘भास्करवर्मन’ से संधि करके शशांक को बुरी तरह से पराजित किया।
  • पांचो प्रदेशों की विजय — ह्वेनसांग के अनुसार हर्षवर्धन ने अपने शासनकाल के शुरुआती छह वर्षों तक पांच प्रदेशों के शासकों से निरंतर युद्ध किए और लगातार विजय प्राप्त की। यह पांच राज्य पंजाब, कन्नौज, बिहार, बंगाल और उड़ीसा थे।
  • वल्लभी की विजय — हर्षवर्धन ने 630 ई. में विशाल सेना के साथ वल्लभी ( गुजरात ) पर आक्रमण कर दिया। वहां ध्रुवसेन द्वितीय का शासन था। इस युद्ध में ध्रुवसेन की पराजय हुई और उसे भड़ौच के राजा दद्दा द्वितीय के पास शरण लेनी पड़ी।  बाद में दद्दा के कहने पर ध्रुवसेन का राज्य उसे लौटा दिया गया और ध्रुवसेन ने हर्षवर्धन की अधीनता को स्वीकार कर ली। हर्ष ने अपनी पुत्री का विवाह ध्रुवसेन से करके उसे अपना जमाता बना लिया।
  • कामरूप की विजय — हर्षवर्धन ने कामरूप ( असम ) के शासक भास्करवर्मन को पराजित करके उसे अपने राज्य के अधीन कर लिया था किंतु हर्ष ने शशांक को हराने के लिए उसे राज्य वापस कर दिया। भास्करवर्मन ने हर्ष की अधीनता पहले ही स्वीकार कर ली थी।
  • सिंध की विजय — प्रभाकरवर्धन ने सिंध के राजा को पराजित करके सिंध पर अधिकार कर लिया। परंतु उनकी मृत्यु के पश्चात सिंध ने पुन: स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। हर्षवर्धन ने वापिस आक्रमण करके जीत हासिल की।
  • कश्मीर की विजय — हर्षवर्धन ने कश्मीर के राजा दुर्लभवर्धन पर हमला कर दिया और उसे हराकर बलपूर्वक उससे अधीनता स्वीकार करवाई तथा वहां से महात्मा बुध का पवित्र दांत ले जाकर कन्नौज के विहार में स्थापित करवाया। यह महात्मा बुध का पवित्र दांत था जिसमें सदैव रोशनी रहती थी।
  • नेपाल की विजय — बाणभट्ट के अनुसार हर्ष ने बर्फीले प्रदेश में आक्रमण कर विजय प्राप्त की। नेपाल के शासक यशोवर्मन ने अपने राज्य में ‘हर्षसंवत’ का प्रचलन आरंभ किया था जो यह प्रमाणित करता है कि वह भी हर्षवर्धन के अधीन था।
  • गंजम विजय — हर्ष की अंतिम विजय उड़ीसा की थी। शुरुआती कुछ आक्रमण सफल नहीं हो पाए परंतु 643 ई. में वह इस पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा। इस समय पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु हो चुकी थी जो उसका समकालीन शासक था। बाद में हर्ष ने उड़ीसा के 80 नगरों को स्थानीय बौद्ध मंदिरों को दान में दे दिया।

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हर्ष का साम्राज्य – हंस ने अपनी सेना के दम पर एक विशाल साम्राज्य की नींव रखी जो उत्तर में कश्मीर से दक्षिण में विंध्याचल तक पूर्व में कामरूप से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक फैला था।

विदेशों के साथ संबंध — हर्ष के विदेशों के साथ अच्छे संबंध थे। विदेशों से व्यापार होता था और तीर्थयात्री भारत घूमने आते थे। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग भी हर्षवर्धन के समय ही भारत आया और आठ वर्ष हर्ष के दरबार में ही रहा। ह्वेनसांग को यात्रियों का राजकुमार कहा जाता है।

पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध — पुलकेशिन द्वितीय दक्षिण भारत का शक्तिशाली शासक था और हर्षवर्धन उत्तर भारत का शक्तिशाली शासक था। 633 ई. में लड़ा गया यह युद्ध नर्मदा नदी के किनारे पर हुआ। जिसमें हर्षवर्धन यह युद्ध हार गया।

हर्ष का शासन प्रबंध—

हर्ष ने अपने साम्राज्य में उच्च कोटि की शासन प्रणाली स्थापित कर रखी थी। जिसमें राजा ( हर्षवर्धन ) राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। इसके बाद अलग-अलग मंत्री पद योग्य व्यक्तियों को दिए गए थे। मंत्रियों में सैनिक गुण होना अनिवार्य था क्योंकि किसी भी मंत्री को सैन्य अभियान में भेजा जा सकता था। मंत्रियों का बंटवारा भी निम्न प्रकार से होता था:

प्रधानमंत्री ( राजा का प्रमुख सलाहकार ) > महासंधिविग्रहाधिकृत ( युद्ध व शांति मंत्री ) > महाबलाधिकृत ( सेनाध्यक्ष )> महाप्रतिहार ( महल का सुरक्षा मंत्री )> अष्टपटालिक ( लेखा अधिकारी )

प्रांतीय शासन – हर्ष ने साम्राज्य को चलाने के लिए प्रांतों में बांट रखा था। प्रांतों को दी गई शक्तियां सामंतों और महा सामंतों में विभाजित थी जिन्होंने हर्ष की अधीनता स्वीकार कर ली थी। प्रांतीय शासन चलाने वाले लोग अप्रत्यक्ष रूप से अपने अपने प्रांत के मुखिया थे। जिन क्षेत्रों पर खुद हर्षवर्धन राज करता था वह क्षेत्र भुक्ति कहलाते थे। उनके मुखिया को उपारिक किया कुमारमातय कहा जाता था।

स्थानीय शासन – भुक्ति को विश्व में बांटा गया था जिसका नेतृत्व वेश्या पति या आयुक्त करता था। उनकी नियुक्ति स्वयं शासक करता था। विषक आगे पथिक में विभाजित थे जिनकी स्थिति आज के तहसील स्तर के अधिकारी की मानी जाती थी। प्रशासन में सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। जिसका प्रधान महतर कहलाता था। कई स्थानों पर उसे ग्रामिक भी कहा जाता था।

राजस्व व्यवस्था —

आय — आय का मुख्य साधन भू-राजस्व था। यह कुल उपज का 1/6 भाग लिया जाता था। इसे ‘भाग’ या ‘उद्रंग’ कहा जाता था। प्रजा स्वेच्छा से राजा को जो उपहार देती थी। वह ‘बलि’ कहलाता था। इसके अतिरिक्त चुंगी कर, बिक्री कर, वन कर आदि थे।

व्यय — हर्षवर्धन अपनी आय को पांच तरह से बांटता था:

  1. दान देना – हर्षवर्धन एक दानवीर सम्राट था। उसने नालंदा विश्वविद्यालय को 200 गांव दान कर दिए।
  2. प्रजा हितकारी कार्य – हर्षवर्धन आय से चिकित्सालय, विश्रामगृह, सड़के, पुल-निर्माण, शिक्षा का प्रबंध और पानी के प्रबंध का खर्च उठाया था।
  3. वेतन – हर्षवर्धन के शासन में सेनापति से लेकर साधारण सिपाही को अपने गुजारे के लिए पर्याप्त वेतन दिया जाता था।
  4. सेना पर खर्च – मैं अपनी सेना के लिए अस्त्र-शस्त्र, कवच, कुंडल, घोड़े तथा हाथियों का प्रबंध अपनी आय से ही करता था।
  5. राज परिवार पर खर्च – राज परिवार की जरूरत की वस्तुएं तथा महल की मरम्मत का खर्च भी यहीं से जाता था

सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था —

वर्ण व्यवस्था — उस समय का समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में बटा हुआ था। ब्राह्मण समाज को शिक्षा देते थे तथा पवित्र कार्य पूरे करवाते थे। क्षत्रिय रक्षा का कार्य करते थे। वैश्य व्यापारिक कार्यों में लगे रहते थे और समाज की आवश्यकता पूरी करते थे। शूद्रों का कार्य सेवा करना था।

विवाह — उस समय समाज में अंतरजातीय विवाह मान्य थे। अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह को भी धीरे-धीरे स्वीकृति मिल जाती थी। समाज में बहुविवाह की प्रथा भी प्रचलित थी।

उच्च नैतिक जीवन — उस समय भारतीय पाप पुण्य का सदैव ध्यान रखते थे। यहां ईमानदारी एवं कर्तव्य निष्ठा सदैव बनी रहती थी और अतिथि को भगवान का दर्जा दिया जाता था।

आवास — नगर साधारण एवं निश्चित योजना के अनुसार बनते थे जिसके चारों ओर सुरक्षा के लिए परकोटे बनाए जाते थे। नगरों में कई मंजिलों के भवन होते थे और घरों का निर्माण पत्थर व पकाई गई ईंटो से किया जाता था।

खानपान — उस समय के लोग सादा भोजन करते थे। लोग गेहूं, चावल, घी, दूध, दही, गुड़, शक्कर, सरसों का तेल आदि उनके भोजन के मुख्य अंग थे। प्याज और लहसुन का प्रयोग नहीं होता था। कुछ लोग मांसाहारी भी थे। दालें, सब्जियां और फलों का प्रयोग भी किया जाता था।

आर्थिक व्यवस्था — उस समय के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार कृषि था। हर्षचरित के अनुसार चावल, गेहूं, ईख आदि के साथ सेब और अंगूर भी उगाए जाते थे। उस समय कुछ शहर अपने व्यापार के लिए काफी प्रसिद्ध और समृद्ध हो गए थे जैसे थानेश्वर उज्जैनी और कन्नौज। उस समय कपड़ा उद्योग, चमड़ा उद्योग, बर्तन उद्योग एवं औजार उद्योग व्यापार के लिए प्रमुख उद्योग थे।

हर्षवर्धन का चरित्र —

हर्षवर्धन के चरित्र, सफलताओं व उपलब्धियों का वर्णन बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ में मिलता है।

  1. कुशल शासन प्रबंधक एवं महान सेनापति – उसने अपने शासन को प्रांत जिलों में गांव में बांट रखा था। वह प्रजा का हाल जानने के लिए राज्य का भ्रमण भी करता था। अपनी सेना और रणनीति से उसने उत्तर भारत के बहुत सारे राजाओं को हराया।
  2. प्रजा प्रेमी – वह अपनी जनता से बहुत प्रेम करता था। वह अपने राजकोष में से एक निश्चित मात्रा में धन, प्रजा कल्याण के लिए, चिकित्सालय, विद्यालयों, भवनों, सड़कों इत्यादि पर खर्च किया करता था।
  3. परिवार प्रेमी – वह अपने परिवार से बहुत प्रेम करता था। जब उसके भाई राज्यवर्धन की धोखे से हत्या की गई तो उसने उसका बदला लिया और साथ ही अपनी बहन को ढूंढ निकाला।
  4. महान दानी – हर्षवर्धन एक बहुत बड़ा दानी था। वह प्रत्येक पांच वर्ष के बाद प्रयाग सम्मेलन में भरपूर दान किया करता था।
  5. धार्मिक सहनशील – हर्ष आरंभ में शैव मत का अनुयाई था लेकिन बाद में वह बौद्ध धर्म को मानने लगा। प्रयाग सभा में उसने पहले दिन बुध की, दूसरे दिन सूर्य की और तीसरे दिन शिव की उपासना की। उसके राज्य में सभी धर्मों के लोग रहते थे।
  6. बौद्ध धर्म का प्रचारक – हर्षवर्धन ने अपने दूतों को धर्म प्रचार के लिए विदेशों तक भेज दिया। उसने नालंदा विश्वविद्यालय को 200 गांव दान दे दिए क्योंकि उसमें बौद्ध धर्म की शिक्षा दी जाती थी।
  7. विद्वानों का संरक्षण – हर्षवर्धन ने अपने दरबार में अनेक साहित्यिक और बौद्ध विद्वानों को स्थान दे रखा था। उसके दरबार में बाणभट, दिवाकर, मयूर, जयसेन, एवं भास जैसे विद्वान रहते थे।
  8. नाटककार सम्राट, कला एवं साहित्य को संरक्षण – हर्षवर्धन स्वयं एक नाटककार एवं विद्वान शासक था। उसने तीन नाटकों ‘रत्नावली’, ‘नागानंद’ व ‘प्रियदर्शिका’ की रचना की। उसने बाणभट्ट जैसे महान साहित्यकार को संरक्षण दिया जिसने ‘हर्षचरित्र’ एवं ‘कादम्बरी’ जैसे ग्रंथों की रचना की। उसके दरबार में जयसेन ने योग, शास्त्र, वेद, ज्योतिष, भूगोल, गणित व चिकित्सा विषयों पर लिखा।
  9. शिक्षा का संरक्षक – हर्ष के समय में नालंदा विश्वविद्यालय सर्वाधिक प्रसिद्ध था। हर्ष ने 200 कर मुक्त गांव नालंदा विश्वविद्यालय को खर्च चलाने के लिए दान किए थे।

ह्वेनसांग का हर्ष के बारे में विवरण :—

ह्वेनसांग एक चीनी यात्री था। उसे ‘यात्रियों का राजकुमार’ कहा जाता है। वह 629 ई. में हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया और लगभग आठ वर्षों तक हर्ष के दरबार में रहा। वह बौद्ध धर्म के तीर्थ स्थानों व बौद्ध धर्म के बारे में जानने के लिए भारत आया था। उसने 2 साल तक नालंदा विश्वविद्यालय में शिक्षा भी ग्रहण की। दक्षिण भारत में घूमने के बाद वह 644 ई. में चीन के लिए प्रस्थान कर गया। उसने अपना भारत यात्रा का वृतांत लिखा जिसका शीर्षक था सी-यू-की।

 

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