HBSE Class 11 नैतिक शिक्षा Chapter 10 वैदिक धर्म का स्वरूप Explain Solution

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वैदिक धर्म का स्वरूप Class 11 Naitik Siksha Chapter 10 Explain


वैदिक धर्म अपने नाम से ही अपनी उत्पत्ति का बोध करवाता है। वैदिक अर्थात् वेदों से निकला हुआ। वेद समस्त ज्ञान का स्रोत हैं। वेद सभी धर्मों का मूल भी हैं। मनु कहते हैं ‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम् । मानव का सम्पूर्ण जीवन वैदिक धर्म के शाश्वत मूल्यों से ओत-प्रोत है। सभी मानवीय मूल्य इसमें प्राप्त होते हैं। इसके स्वरूप को समझने के लिए धर्म का स्वरूप समझना अनिवार्य है। धर्म का अर्थ है धारण करना। मनु धर्म की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि जो जीवन में धारण किया जाए उसे धर्म कहते हैं।

धारणाद् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजा।
यत् स्याद् धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः ।। मनुस्मृति

दया, सहिष्णुता, क्षमा, सत्य, न्याय, सेवा, सदाचार, इन्द्रिय संयम, कर्तव्य पालन, निष्ठा आदि गुणों को जीवन में धारण करना ही धर्म है। धर्म का दूसरा नाम कर्तव्य है। जो व्यक्ति अपने जीवन में कर्तव्यों का पूर्णरूप से पालन करता है, वही धार्मिक होता है। इन सभी गुणों को धारण करना ही धर्म है। वैदिक धर्म इन्हीं शाश्वत मूल्यों का वर्णन करता है। वेदों में एक ही ईश्वर का वर्णन किया गया है। वेद कहता है विद्वान एक ईश्वर की अनेक प्रकार से व्याख्या करते हैं। एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।

ईश्वर को गुण, कर्म, स्वभावानुसार अनेक नामों से पुकारा जाता है। यथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश इस विषय में उपनिषद् का कहना है कि वह एक है, एक है. एक है। सभी देव इसमें आकर मिल जाते हैं।

स एष: एक एवं, एक एव, एक एवं सर्वे। अस्मिन् देवा एकवृता भवन्ति ।

वेदानुसार ईश्वर की सत्ता सार्वभौम है। संसार में जो भी जड़ और चेतन पदार्थ है, उन सब में ईश्वर व्यापक है, अतः उसके द्वारा दिये गये भोग्य पदार्थों का हमें त्याग भावना से उपभोग करना चाहिए न कि अपनी सम्पत्ति समझ कर निष्काम भावना से कर्म करने पर हम जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाते हैं। किसी के धन का लालच नहीं करना चाहिए। यदि इस ईश्वरीय आदेश को प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में धारण करें तो परस्पर के झगड़े दंगे फसाद होने की सम्भावना कहीं पर भी नहीं बनेगी। सब प्रेमभाव से मिल-जुलकर रहेंगे। साथ चलना, एकमत होकर बोलना, मिलकर परस्पर कर्तव्यों का पालन करना सभा समितियों में अपने वैमनस्य भुलाकर विचार-विमर्श करना, प्रेम पूर्वक व्यवहार कर आगे बढ़ना, संगठन में रहना आदि इस धर्म का मूल मन्त्र है।

विश्व को पंचशील का सिद्धान्त इसी धर्म की देन है। यहाँ सबकी मंगल कामना की जाती है। किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता। सब सुखी हो, नीरोग हो, सब भद्रभाव देखें, कोई भी प्राणी दुःखी न हो यह प्रार्थना वैदिक धर्म का प्राण है। वैदिक धर्म का एक और महत्त्वपूर्ण सन्देश निष्काम कर्म है। इस विषय में वेद कहता है कि मानव निष्काम कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करे। यही मार्ग उसे आगे ले जायेगा।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे । यजुर्वेद

इससे भिन्न मार्ग पर चलने से तू कर्मफल के चक्कर में पड़कर दुनिया रूपी भँवर में डूब जायेगा। कर्म की महिमा अनन्त है, इसके बिना जीवन सम्भव नहीं है। गीता में कर्म को प्रधान माना गया है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! तेरा केवल कर्म करने का अधिकार है इसलिए तू फल की चिन्ता मत कर तू कर्म को फल का कारण मत समझ जिससे तेरी आसक्ति कर्म के छोड़ने में न हो ।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफल हेतुर्भूमति संगोऽस्त्वकर्मणि ।।

गीता में वैदिक धर्म के अमूल्य विचार रत्न सरल शब्दों में पिरोये गये हैं। वर्तमान भारतीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को श्रीमदभगवद्गीता की प्रति भेंट करते हुए कहा कि ‘मैं भारत से आपके लिए सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान् धरोहर लेकर आया हूँ। इससे अधिक मूल्यवान् भारत की ओर से आपको देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है।’

वैदिक धर्म की धरोहर उपनिषद् ब्राह्मणग्रन्थ, आरण्यक आदि ग्रन्थ अमूल्य विचार रत्नों से भरे पड़े हैं। जीवन को सरल और सुचारु ढंग से जीने के लिए धन अति आवश्यक है, विशेषरूप से गृहस्थी के लिए। अतः वेद धन कमाने का भी आदेश देता है किन्तु शुचिता के साथ धन कमाकर उसका उपभोग अकेले न करें। हम मिल कर खायें। इस विषय को बड़े सुन्दर वचनों में कहा गया है सौ हाथों से कमाओ और हज़ार हाथों से बाँट दो ।

शतहस्त समाहर सहस्रहस्त संकिरः ।

वैदिक धर्म सबको साथ लेकर चलता है। कोई भी गरीब भूखा न रहे. अतः दान को जीवन में सम्मिलित किया गया है। उसका महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है “दान करने वाले अमृत को प्राप्त करते हैं। दान करने वाले दीर्घायु प्राप्त करते हैं। किया हुआ कर्म और दिया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता। दान से ही समाज के लिए कल्याणकारी योजनायें चलाई जाती हैं, जिससे समाज के निम्न वर्ग को ऊपर उठाया जा सके। यहाँ सुगठित सामाजिक संरचना में आश्रम व्यवस्था को महत्त्व दिया गया है। सब आश्रमों के अलग-अलग कर्तव्य निश्चित किये गये हैं। ब्रह्मचर्याश्रम जीवन की नींव है, इसमें ब्रह्मचारी के लिए पालनीय कर्तव्य हैं-अध्ययन, तपश्चर्या, योग, गुरु सेवा आदि से जीवन को सुसंस्कृत बनाना गृहस्थाश्रम में गृहस्थों के कर्तव्य हैं सन्तानोत्पत्ति, सभी आश्रमों का भरण-पोषण, सामाजिक उत्थान का दायित्व, धन कमाना, आदि। गृहस्थ आश्रम में पारिवारिक परस्पर प्रेम की परिकल्पना की गई है यथा भाई, भाई से द्वेष न करे, बहन, बहन से द्वेष न करे।

मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन् मा स्वसारमुत स्वसा ।।

वेद परिवार में सब मिलकर प्रेम से रहें। परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई होती है, यदि परिवार सुखी रहेगा तो समाज भी सुखी, समृद्ध और खुशहाल रहेगा, तभी गृहस्थी का कर्त्तव्य पूर्ण होगा।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत् ।।

गृहस्थ आश्रम के पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम होता है। स्वाध्याय करना, गृहत्याग कर तपश्चर्या करना, समाजोत्थान के लिए कार्य करना आदि वानप्रस्थ आश्रम के करने योग्य कर्म हैं। संन्यासी का सम्पूर्ण जीवन समाज कल्याण के लिए है। इस प्रकार वेद एक संगठित सुसंस्कृत समाज की रचना का विचार देता है।

यदि सत्य-ध्वज के वाहक वैदिक धर्म को अपनाया जाये तो ऐसे समाज की रचना होगी जहाँ, गरीबी, भुखमरी, अनाचार, अशिक्षा, आतंक और व्यभिचार जैसे समाज को पतन की तरफ ले जाने वाले दुर्गुणों का कोई स्थान नहीं होगा। सर्वत्र ऐसे सच्चरित्र मानवों का समाज होगा जो रामायण काल की याद दिलाएंगे। राम जब खोई हुई सीता को ढूंढने निकलते हैं तब वन में उन्हें सीता के कुछ आभूषण प्राप्त होते हैं, जो रावण द्वारा अपहृत सीता ने पुष्पक विमान से गिराए गए थे। राम उन्हें लक्ष्मण को दिखाकर उनके द्वारा सीता के आभूषण होने की पुष्टि करना चाहते हैं, तब लक्ष्मण कहते हैं, मैं न तो बाजूबन्दों को पहचानता हूँ, न कुण्डलों को जानता हूँ, मैं तो नित्य ही उनकी चरणवन्दना करने के कारण नूपुरों (बिछुवे पैर की अंगुली में पहने जाने वाले आभूषण) को ही पहचानता हूँ।

नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले 
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ।। रामायण

इतने उच्च चरित्र की कल्पना हम वैदिक शिक्षाओं से ही प्राप्त कर सकते हैं। आओ एक बार फिर वेदों की शिक्षाओं, विचारों को धारण कर ऐसे ही श्रेष्ठ समाज का निर्माण करें, जहाँ लक्ष्मण जैसे आदर्श चरित्र वाले नागरिकों का निर्माण हो।


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