HBSE Class 11 नैतिक शिक्षा Chapter 3 सूक्ति सौरभ Explain Solution

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HBSE Class 11 Hindi Naitik Siksha Chapter 3 सूक्ति सौरभ / Sukti Saurabh Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 11th Book Solution.

सूक्ति सौरभ Class 11 Naitik Siksha Chapter 3 Explain


सूक्ति का अर्थ है सुन्दर उक्ति अर्थात् जिसमें कहा गया प्रत्येक शब्द प्रेरणादायी हो। सूक्तियों का स्वाध्याय मानव को श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए प्रेरित करने में समर्थ है। सूक्तियों के वाचन से मानव मन की सुप्त शक्तियाँ उद्बुद्ध होकर मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने का कार्य करती हैं। निःसन्देह सूक्तियाँ गुणकारी औषधि के समान हृदय और मस्तिष्क पर सत्प्रभाव डालती हैं। सूक्तियाँ मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा मरणशीलता से अमरता की ओर ले जाने में समर्थ हैं। सूक्तियाँ हृदयग्राही, कालजयी, प्रेरक और उदात्त होती हैं। सूक्तियाँ हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। यहाँ हम कुछ सूक्तियों का अध्ययन करेंगे —

1. सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा । यजु0 7/14

भाव – वैदिक संस्कृति संसार की पहली संस्कृति है, और सारे संसार के लिए वरणीय है अर्थात् परमात्मा में विश्वास, आत्मा की अमरता में दृढ़ विश्वास, पुनर्जन्म को मानना, ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेवयज्ञ- इन पाँच महायज्ञों का अनुष्ठान, गऊ माता का पालन पोषण। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में गुण कर्म स्वभावानुसार वर्ण व्यवस्था, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि का परिपालन। ये हैं वैदिक संस्कृति के मूल स्तम्भ, जो सभी के लिए वरणीय हैं।

2. न सा सखा यो न ददाति सख्ये । ऋ010/6/28

भाव – वह मित्र नहीं जो मित्र को सहयोग न दे अर्थात् मित्र शब्द दो अक्षरों का अद्भुत रत्न है। यह मित्र के शोक रूपी शत्रु को मार भगाता है, भय से रक्षा करता है, प्रीति और विश्वास उत्पन्न करता है, संकट आने पर सहायता करता है, इसलिए मित्र ऐसा हो जो विपत्ति के समय मित्र की सहायता करे।

3. हितकारी हो विमलमति, शुभमति दे जन जोय ।
अस्वार्थी हो साथी शुभ मित्र कहावे सोय ।। भक्ति प्रकाश स्वामी सत्यानन्द

4. आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः । ऋ01/81/1

भाव – चारों ओर से शुभ विचार हमारे पास आएँ अर्थात् अच्छे विचार मानव को ऊपर उठाते हैं, और बुरे विचार उसे नीचे गिराते हैं। अतः प्रत्येक मनुष्य को सर्वदा शुभ चिन्तन करना चाहिए, और कामना करनी चाहिए कि माता-पिता, गुरु और सभी दिशाओं से उसे भद्र विचार प्राप्त होते रहें

5. आयुष्मान् जीव मा मृथाः । अथर्व0 19/27/8

भाव – लम्बी आयुवाला सार्थक जीवन जिओ, निरर्थक जीवन मत बिताओ अर्थात् हे मनुष्य ! तू उत्साह, उमंग और उत्कर्ष के साथ जी। क्षणभर प्रज्वलित होकर जीना ही सुजीवन है। धुआँ देते हुए दीर्घ काल तक जीना जीवन नहीं। मर मत। कायर मनुष्य जीवन में अनेक बार मरते हैं, लेकिन उत्साही मनुष्य सम्मान के साथ निर्भय होकर जीते हैं।

6. प्रेता जयता नरः । साम0 1862

भाव – विषयों में आसक्त न होने वाले मानवो! आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो अर्थात् हे मानव! आगे बढ़ो और विजय प्राप्त करो। पथ आने वाली आपत्तियों को लाँघकर कुशलता से विजयी बनो। विजय उसी को प्राप्त होती है जो विजयी होने का साहस करता है।

7. अहमस्मि सहमानः । अथर्व0 12/1/54

भाव – मैं विनम्र हूँ, सहनशील हूँ अर्थात् मैं सहनशील हूँ, मैं विरोधियों के प्रबल विरोध को हास्य के साथ सहन करना जानता हूँ। मैं अपने विरोधियों का भी अनिष्ट चिन्तन नहीं करूँगा। मैं समुद्र के समान गम्भीर हूँ। इसलिए मैं कटुता को मधुरता के साथ सह लूँगा।

8. तेजोऽसि तेजो मयि धेहि । यजु0 19/1

भाव – हे प्रभु! तुम तेजस्वरूप हो, मुझ में तेज का आधान कर दो अर्थात् हे परमात्मा! आज संसार को ऐसे तेजस्वी और ओजस्वी सौभाग्य-विधाताओं की आवश्यकता है, जिनकी नसें लोहे की और अन्तःकरण वज्र के समान हों, जिनमें योद्धाओं का पराक्रम और तेजस्वियों का तेज एकत्र हो। हे प्रभु! तेरी कृपा के एक कण से सब कुछ हो सकता है। कृपा करो और हमारे जीवन को पराक्रम से भर दो।

9. माभि द्रुहः । अर्थव0 9/5/4

भाव –हे मानव! विश्व में किसी भी प्राणी से द्रोह, ईर्ष्या और वैर मत करो अर्थात् मानव को चाहिए कि वह मन, वचन और कर्म से किसी का बुरा न सोचे, किसी के प्रति वैर की भावना न रखे। सबकी भलाई करे। सबके कल्याण की कामना करे। हे मानव! ईर्ष्यालु मत बन । दूसरों की उन्नति देखकर ईर्ष्या मत कर। उन जैसा बनने का प्रयास कर ।

10. धम्मं भणे, ना धम्मं 
पियं भणे, निपियं, 
सच्चं भणे, निलिकं । संयुत्तनिकाय 1/8/6

भाव – धर्म धारण करना चाहिए, अधर्म नहीं। प्रिय बोलना चाहिए, अप्रिय नहीं। सत्य बोलना चाहिए, असत्य नहीं ।

11. एक बार वचन दे दिया तो उस वचन को तोड़ो मत। कुरानशरीफ 16/19

12. आदा धम्मो मुणेदव्वो।

भाव – आत्मा ही धर्म है, अर्थात् धर्म आत्मस्वरूप होता है। आचार्य कुन्दकुन्द (प्रवचनसार 1/8)

13 दुष्टमानव भय से आज्ञापालन करते हैं, अच्छे मानव प्रेम से। अरस्तू

14. अपना ही दोष ढूँढ निकालना ज्ञानवीरों का काम है । विवेकानन्द

15. ईश्वर की भक्ति करने से आत्मा में इतनी शक्ति आ जाती है कि पहाड़ के समान दुःख भी राई के समान तुच्छ लगता है। स्वामी दयानन्द

16. कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहितः । अथर्ववेद 7/50/8

भाव – पुरुषार्थ मेरे दाएँ हाथ में है और सफलता मेरे बाएँ हाथ में अर्थात् यह समस्त जगत् दैव और पुरुषार्थ पर प्रतिष्ठित है। इनमें दैव तभी सफल होता है जब मानव उचित समय पर पुरुषार्थ करे। इसलिए सफलता प्राप्त करने के लिए मनुष्य को हमेशा पुरुषार्थ करना चाहिए

17. वरमेको गुणी पुत्रः न च मूर्खशतान्यपि ।

भाव – सौ मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र श्रेष्ठ होता है अर्थात् जिस प्रकार तारों के समूह की अपेक्षा अकेला चन्द्रमा अन्धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार एक श्रेष्ठ पुत्र सौ कुपुत्रों की अपेक्षा कुल के यश में वृद्धि कर देता है।


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