HBSE Class 11 नैतिक शिक्षा Chapter 5 योग : कर्मसु कौशलम् Explain Solution

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योग : कर्मसु कौशलम् Class 11 Naitik Siksha Chapter 5 Explain


श्रीमद्भगवद्गीता न केवल भारत का ही अपितु विश्व का श्रेष्ठ ग्रन्थ है। श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से गाई जाने के कारण इसे गीता कहा गया। गीता वेद व्यास रचित महाभारत के भीष्मपर्व से उद्धृत है। इसमें 18 अध्याय एवं 700 श्लोक हैं। इसमें ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग प्रधान हैं। इन्हें योग की त्रिवेणी कहा जाता है। जो इन तीनों योगों में सफलता पा लेता है वही मोक्ष का अधिकारी बन पाता है।

आत्मा और परमात्मा को जोड़ देने वाली इस प्रक्रिया को योग भी कहा जाता है योगाभ्यास, योग साधना करके श्रेयार्थी पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं। योगाभ्यास के दो मार्ग हैं- एक भौतिक और दूसरा आध्यात्मिक । भौतिक वे हैं, जिनमें शरीर की क्रियाएँ करनी पड़ती हैं और आत्मिक वे हैं जिनमें मन और चेतना को परिष्कृत किया जाता है। शरीरगत अभ्यास में आसन, प्राणायाम, नेति, धोति, वस्ति, कपालभाति जैसे साधन बताए जाते हैं। ये सब कार्य शरीर को करने पड़ते हैं इसलिए इनके परिणाम भी आमतौर पर भौतिक स्तर के होते हैं। शरीरगत योग 84 प्रकार के हैं। इन योगासनों से शरीर पुष्ट होता है। मानसिक साधनाओं में प्रत्याहार, ध्यान धारणा और समाधि जैसे प्रसंग आते हैं। वे सर्व साधारण के लिए सुलभ हैं। मानसिक योग साधनाओं में तीन ही प्रमुख हैं —

  1. ज्ञानयोग 2. कर्मयोग 3. भक्तियोग । इन योगों को बाल-वृद्ध, नर-नारी, साक्षर निरक्षर कोई भी किसी स्थिति में कर सकता है।

ज्ञानयोग – ज्ञानयोग का उद्देश्य जीवन के स्वरूप और उस के सदुपयोग से परिचित होना है। इसके लिए हमें बार-बार आत्मचिन्तन करना चाहिए और अपनी वर्तमान स्थिति पर विचार करना चाहिए। हमें जानना चाहिए कि गृहस्थ, शिक्षा, चिकित्सा, वाहन, मनोरंजन आदि केवल हमारे भौतिक जीवन में सहायक हैं न कि मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति में और न ही ये तृष्णा वासना की पूर्ति का साधन हैं। हमें अपने भौतिक और आध्यात्मिक साधनों को विराट् ब्रह्म से एकरूप होने व विश्वकल्याण के कार्यों के लिए समर्पित कर देना चाहिए। आत्मा एवं विश्व के स्वरूप को जानना अनेक संशयों को दूर करने वाला है। जब यह सच्चाई स्पष्ट होगी तब समझना चाहिए कि हमें आत्मज्ञान हुआ और यही ज्ञानयोग होगा।

सूफी सन्त रबिया अपनी ईश्वर भक्ति के लिए प्रसिद्ध थी। इबलीस नामक नास्तिक उसका समकालिक था। एक दिन एक व्यक्ति ने रबिया से कहा- “इबलीस दिन-रात आपकी बुराई करता है, आप क्यों उसकी बुराई नहीं करतीं।” इस पर रबिया ने उत्तर दिया- “इबलीस भी उसी ईश्वर का पुत्र है, जिसकी मैं हूँ, अपने भाई की बुराई मैं कैसे करूँ ? जब इबलीस को इसका पता चला तो रबिया के चरणों में नतमस्तक हो गया। अतः सिद्ध होता है कि ज्ञानयोग का प्रकाश जब किसी के अन्तःकरण में आता है तो वह अपना सर्वस्व मानव कल्याण के लिए समर्पित करने लगता है।

कर्मयोग – ज्ञानयोग का अगला चरण कर्मयोग है। यह ज्ञानयोग का व्यावहारिक रूप है। समस्त योगों में कर्मयोग श्रेष्ठ है। मनुष्य कर्म करने के लिए संसार में आया है। निष्काम कर्म करना ही मनुष्य को बन्धन से मुक्त करता है। सभी प्रकार की कामनाओं और फल की इच्छा से रहित कर्म ही निष्काम कर्म कहलाता है। इसी को अनासक्ति भाव कहा गया है। प्राणिमात्र का आधार केवल कर्म करने में निहित है, फल में नहीं। गीता के दूसरे-तीसरे अध्याय में इसी कर्मयोग की चर्चा है। श्रीकृष्ण ने कहा भी है —

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।

हे अर्जुन! तेरा काम कर्म करना है न कि फल की इच्छा करना। कर्म को फल का कारण मत मान और ऐसा भी न हो कि तू कर्म के फल के अभाव में काम करना ही छोड़ दे। काम कर फल स्वयं मिलेगा और फल जो मिले उससे सन्तुष्ट हो ।

निष्काम कर्म की भावना को दर्शाने वाला एक प्रसंग यहाँ उल्लेखनीय है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी साधना – उपासना छोड़ दी और कलकत्ता में फैले प्लेग के प्रकोप से लोगों को बचाने में जुट गए। एक भाई ने पूछा- ‘महाराज! आपकी उपासना साधना का क्या हुआ ?’ स्वामी जो ने कहा- ‘भगवान् के पुत्र दुःखी हों और – मैं उनका नाम जप रहा होऊँ, क्या तुम इसे उपासना समझते हो?’

ऐसा ही एक प्रसंग यहाँ द्रष्टव्य है। पैसे की कमी के कारण जब विवेकानन्द, रामकृष्ण आश्रम की जमीन बेचने को तैयार हो गए, तब एक शिष्य ने पूछा- ‘महाराज! आप गुरु स्मारक बेचेंगे क्या ? विवेकानन्द ने उत्तर दिया, ‘मठ-मन्दिरों की स्थापना संसार की भलाई के लिए होती है। यदि उनका उपयोग भले काम में होता हो तभी उन की उपयोगिता है। अतः निष्काम कर्म करना ही कर्मयोग है।’

भक्तियोग – भक्तियोग का भी मानवीय जीवन में बहुत महत्त्व है। भक्ति का अर्थ है- प्यार, भक्तियोग का अर्थ है- प्यार का विकास। भगवान् से प्यार करना, परमात्मा की भक्ति करने का लक्ष्य है, उस विराट् ब्रह्म एवं विश्व के हर मनुष्य से प्रेम करना। समाज एवं सांसारिक चेतना के रूप में हम ईश्वर की प्रतिमूर्ति देखते हैं। जब भी हमारे दिव्यचक्षु खुलेंगे तभी हमें ईश्वर के दर्शन हो पाएँगे और उनसे व अन्य मानवों से आत्मीयता, सद्भाव, सेवा और उदारता का प्यार भरा व्यवहार करने का मन करेगा। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना का सतत विकास होगा। जिस प्रकार हमें सदा अपने परिवार की उन्नति की लगन बनी रहती है, उसी प्रकार जब मानव कल्याण या यूँ कहें, समस्त विश्व के कल्याण की भावना हमारे भीतर पैदा होगी तब हमारी भाक्तियोग की साधना फलीभूत हो पाएगी। लोकमंगल के लिए कटिबद्ध होना ही सच्ची भक्तियोग साधना है।

निष्कर्ष यह है कि ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की जीवन साधना वस्तुतः उच्चकोटि का सर्वसुलभ योगाभ्यास है। इस त्रिविध योग की विचारणा एवं कार्यशैली यदि हमारे व्यावहारिक जीवन में घुल-मिल जाए, तो जीवन का उद्देश्य सरलता से पूर्ण हो सकता है। श्री कृष्ण ने भी एक जगह गीता में कहा है —

यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एक सांख्यं च योगं च यः पश्यति सः पश्यति ।।

अर्थात् ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और कर्मयोग को फलरूप में एक देखता है वही यथार्थ देखता है। ज्ञानयोग एवं कर्मयोग के साथ भक्तियोग के समन्वय से मनुष्य का प्रत्येक कार्य पूरी तरह सफल होता है, यही कर्म कौशल कहलाता है और कर्म कौशल ही वास्तविक योग है।


गीता पाठ


षोडश अध्याय

इस संसार में शुभ व अशुभ के भेद से सम्पत्ति दो प्रकार की है। इस विषय का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में किया गया है। इसका नाम दैवासुर-सम्पद-विभाग- योग है। इसमें 24 श्लोक हैं। इस अध्याय में कुल 30 सम्पदाओं का वर्णन किया गया है। जिनमें 26 दैवी एवं 6 आसुरी सम्पदाओं का उल्लेख है। वर्तमान में इनको ही जीवनमूल्य कहा जाता है।

नाम दैवीसम्पदा अर्थ नाम दैवीसम्पदा अर्थ
अभयम् निडरता सत्त्वसंशुद्धि: मन की निर्मलता
ज्ञानयोग व्यवस्थित: ज्ञान और ध्यान में स्थिरता दानम् देना
दम: इंद्रियों को वश में रखना यज्ञ: हवन
स्वाध्याय: पढ़ना तप: नियमित कार्य करना
आर्जवम् सरलता अहिंसा हिंसा न करना
सत्यम् सच्चाई अक्रोध: क्रोध न करना
त्याग: दोषों को छोड़ना शान्ति: मन की शांति
अपैशुन्म् चुगली न करना दया कृपा
अलोलुप्त्वम् लोभ न करना मार्दवम् कोमलता
ह्री: लज्जा अचापलम् चंचलता न दिखाना
तेज: तेज क्षमा क्षमा
धृति: धैर्य शौचम् पवित्रता
अद्रोह: शत्रुभाव न रखना नातिमानिता घमंड न करना

आसुरी संपदाओं का वर्णन निम्नक्रम में कराया—

नाम आसुरी सम्पदा अर्थ नाम आसुरी सम्पदा अर्थ
दम्भ: ढोंगी दर्ष: घमण्ड
अभिमान: अहंकार क्रोध: क्रोध
पारुष्यम् कठोरता अज्ञानम् नासमझी

उपर्युक्त दैवी एवं आसुरी सम्पदाओं के फल का वर्णन करते हुए कहा है कि दैवी सम्पदा कष्टों से छुटकारा दिलाती है तथा आसुरी सम्पदा बन्धन का कारण बनती है। आसुरी सम्पदा वालों के लक्षणों का वर्णन करते हुए यह निर्देश दिया गया है कि शास्त्र के अनुकूल आचरण करना चाहिए। क्योंकि —

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।16।।

जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि को, न परम गति को और न ही सुख को प्राप्त होता है।

सप्तदश अध्याय

इस संसार में अध्ययनकार्य के प्रति श्रद्धावान् विद्यार्थी अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करता है। इस विषय का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में किया गया है। इसका नाम श्रद्धात्रय विभाग- योग है। इसमें 28 श्लोक हैं। इस अध्याय में श्रद्धा एवं शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन किया गया है। आहार, यज्ञ, तप और ज्ञान के विभिन्न भेदों का वर्णन किया गया है। अन्त में ओ३म् तत् सत् के प्रयोग की व्याख्या की गई है। इस अध्याय में श्रद्धा को निम्न तीन भागों में बाँटा गया है। सात्विकी श्रद्धा, राजसी श्रद्धा एवं तामसी श्रद्धा ।

सात्विकी श्रद्धावाले पुरुष देवताओं की उपासना करते हैं, राजसी श्रद्धा वाले पुरुष यक्ष व राक्षसों की उपासना करते हैं एवं तामसी श्रद्धावाले पुरुष प्रेत व भूत गणों की उपासना करते हैं। इसी प्रकार आहार, यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। यहाँ तप के विषय में कहा गया है कि

देवता, ब्राह्मण, गुरु (माता, पिता, आचार्य, शिक्षक) और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ये शारीरिक तप कहे जाते हैं

उद्वेग रहित, प्रिय और हित कारक एवं यथार्थ भाषण तथा वेद शास्त्रों का पठन एवं परमेश्वर के नाम जप का अभ्यास ही वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है।

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।17।।

मन की प्रसन्नता, शान्त भाव, भगवत् चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तः करण के भावों की भली-भाँति पवित्रता- ये सब मानस अर्थात् मन सम्बन्धी तप कहे जाते हैं।

अष्टादश अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय का नाम मोक्षसन्न्यास योग है। इसमें कुल 78 श्लोक हैं। इस अध्याय में त्याग व कर्मों के होने में सांख्य सिद्धान्त का वर्णन है। इसमें फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन है। ज्ञान निष्ठा के विषय का वर्णन है। भक्ति सहित निष्काम कर्मयोग के विषय का वर्णन कर श्रीमद्भगवद्गीता के महत्त्व का वर्णन किया गया है। संसार में प्रत्येक मनुष्य को संसारिक सुख में अधिक आसक्त होने से दुःख प्राप्त होता है। अतः मनुष्य को अनासक्तभाव से सांसारिक संसाधनों का उपभोग करना चाहिए तथा भगवद् अर्पणबुद्धि से त्यागपूर्वक कर्म करना चाहिए। कार्य की सिद्धि में पाँच कारण सहायक होते हैं। अधिष्ठान, कर्त्ता, करण, अनेक प्रकार की चेष्टाएँ एवं दैव। अधिष्ठान का अर्थ हैं कार्य करने की परिस्थितियाँ और दैव का अर्थ है भाग्य । इसी प्रकार इस अध्याय में तीनों गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के भिन्न-भिन्न भेदों का वर्णन है।

इसी क्रम में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों के कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है। अन्त में भक्ति सहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन कर कर्ता को सभी चिन्ताओं से मुक्त करते हुए कहा कि —

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। 18 ।।

सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्याग कर तू केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।


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