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HBSE Class 11 Hindi Naitik Siksha Chapter 7 सी. वी. रमन / C.V. Raman Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 11th Book Solution.
सी. वी. रमन Class 11 Naitik Siksha Chapter 7 Explain
चन्द्रशेखर वेंकट रमन एक महान् वैज्ञानिक हुए हैं। उनका जन्म भारत के वर्तमान तमिलनाडु राज्य के नगर तिरुचिरापल्ली में 7 नवम्बर, सन् 1888 को हुआ था। उनकी माता का नाम पार्वती अम्मल था। वह धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। उनके पिता का नाम चन्द्रशेखर अय्यर था, जो एक अध्यापक थे। विलक्षण बुद्धि के बल पर रमन ने मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में दसवीं कक्षा पास कर ली। रमन के पिता उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने के लिए विदेश भेजने के इच्छुक थे किन्तु ब्रिटिश सर्जन ने उन्हें यहीं रखने की सलाह दी। रमन ने यहाँ रहकर दो वर्ष तक मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में अध्ययन किया। अंग्रेजी और भौतिकी में प्रथम आने पर उन्हें स्वर्ण पदक मिला। सन् 1906 में उन्होंने एम.ए. की डिग्री प्राप्त की ।
रमन विज्ञान में इतनी रुचि रखते थे कि वे स्वयं पत्रिकाओं के लिए विज्ञान सम्बन्धी शोध लेख लिखने लगे। उनके शोधपूर्ण लेख लिखने से परिवार के लोग बहुत चकित हुए। पत्रिकाओं में नाम छपने से लोग उन्हें सम्मान देने लगे।
मात्र 19 वर्ष की आयु में वे ‘इण्डियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन ऑफ साईस” के सदस्य बन गए। उन्हें कोलकाता के वित्तमन्त्रालय में प्रशासनिक अधिकारी के पद पर आसीन किया गया इसी, समय उनका विवाह भी हो गया। अब विज्ञान में उनकी अधिक रुचि बढ़ गई थी।
रमन ने वायलिन और सितारों से उत्पन्न ध्वनि का अध्ययन शुरू कर दिया। उन्होंने जानना चाहा कि वाद्यों से मधुर ध्वनि कैसे उत्पन्न होती है। वे इस शोध में संलग्न हो गए। इसी प्रकार रमन नीले जल के बारे में सोचते रहते थे कि इसका नीला रंग क्यों हैं ? वे अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि नीले रंग का कारण पानी के अणुओं द्वारा प्रकाश को छितरा देना है। यह प्रयोग उन्होंने कोलकाता की प्रयोगशाला में सिद्ध किया था, जहाँ से उन्होंने विज्ञान शोध कार्य प्रारम्भ किया। यहीं से लोग इन्हें जानने लग गए।
अभी तक रमन बाबू भारतीय विज्ञान परिषद् के उपसभापति थे, किन्तु सन् 1919 में डॉक्टर अमृतलाल सरकार की मृत्यु हो जाने पर वे इस संस्था के अवैतनिक अध्यक्ष भी नियुक्त किए गए और उन्हें अनुसन्धान की स्वच्छन्द सुविधाएँ प्राप्त होने लगीं ।
सी.वी. रमन की विज्ञान साधना भारत ही नहीं विश्व में भी महत्त्वपूर्ण है। सन् 1921 में ब्रिटिश के विश्वविद्यालयों के सम्मेलन में कोलकाता विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों के प्रतिनिधि के रूप में उन्हें लन्दन भेजा गया। उनकी यह प्रथम विदेश यात्रा थी। इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपने प्रभावोत्पादक एवं मौलिक भाषणों द्वारा अपने आविष्कारों एवं नए प्रयोगों का ज्ञान पाश्चात्य वैज्ञानिकों को कराया, जिससे सी.वी. रमन का उन पर अमिट प्रभाव पड़ा।
सन् 1917 से अब तक वे प्रकृति के रंगों के अध्ययन एवं विश्लेषण में लगे रहे। उन्होंने कुहरे से तथा बादलों से निर्मित इन्द्रधनुष के रंगों की व्याख्या की। सामुद्रिक यात्रा से उन्हें समुद्र के नीले रंग के अध्ययन का अवसर मिला तथा विश्लेषण करके वे इस निर्णय पर पहुँचे कि समुद्र के जल में नीला रंग प्रकाश के प्रभाव के कारण होता है। उन्होंने समुद्र के गहरे रंग की व्याख्या इन सीधे-सादे शब्दों में की- ‘गहरे समुद्र के गहरे नीले रंग का कारण है, आकाश की नीलिमा का अक्स अर्थात् प्रतिबिम्ब ।’
वे सितम्बर 1921 में स्वदेश लौट आए। उन्होंने आकाश, समुद्र और ग्लेशियर के रंगों के सम्बन्ध में सफल प्रयोग किये। उन्होंने सिद्ध किया कि केवल पारदर्शक द्रव्यों में ही नहीं अपितु बर्फ और स्फटिक जैसे ठोस पारदर्शक पदार्थों में भी अणुओं की गति के कारण प्रकाश का परिक्षेपण होता है।
सन् 1924 में कनाडा में ब्रिटिश साम्राज्य के वैज्ञानिकों के सम्मेलन में उन्होंने भारत की ओर से भाग लिया, जहाँ उनकी भेंट संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के वैज्ञानिकों से हुई तथा उन्होंने अमेरिका और कनाडा की प्रयोगशालाओं का निरीक्षण किया। कनाडा में उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी दूरबीन देखी। इस प्रकार 10 माह तक विदेशों में रहकर वे 18 मार्च, 1924 को भारत वापस आए तथा पुनः वैज्ञानिक अनुसन्धान में लग गए। उसके बाद उन्होंने ‘साबुन के बुलबुलों’ के निर्माण पर कार्य किया
रमन बाबू ने एक ओर नवीन अनुसन्धान किए तो दूसरी ओर पहले के अनुसन्धानों में संशोधन कर उन्हें पूर्णता प्रदान की। वैज्ञानिक जगत ने उनके कार्यों को सहर्ष स्वीकार किया। उनका महत्त्वपूर्ण आविष्कार ‘रमण किरण’ माना जाता है। जो सन् 1928 में 28 फरवरी को पूर्ण किया। तभी से 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाता है।
इस आविष्कार से उन्होंने सिद्ध किया कि जब अणु प्रकाश को बिखेरते हैं तो उस समय मूल प्रकाश में परिवर्तन हो जाता है। नवीन किरणों की उपस्थिति से हम परिवर्तन देख सकते हैं। प्रकाश की जो किरणें दीख पड़ी वे ‘रमण प्रभाव’ अथवा ‘रमण किरणें’ कहलायीं। यह उनका सर्वश्रेष्ठ आविष्कार है। इस आविष्कार के उपलक्ष्य में उन्हें विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार ‘नोबेल पुरस्कार’ सन् 1930 में प्रदान कर सम्मनित किया गया। कहते हैं, उन्होंने अपनी इस खोज के लिए उपकरणों पर मात्र 200 रुपये खर्च किए थे। रमण प्रभाव ने क्वांटम सिद्धान्त को मजबूत सम्बल प्रदान किया।
1960 में रमन बाबू ने एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खोज की। उन्होंने आँख के रेटिना (काला भाग) को देखने के लिए आप थैलोमोस्कोप नामक यन्त्र बनाया। यह यन्त्र वैज्ञानिक हैलमोल्तज के यन्त्र से अनोखा है। इससे आँख के अन्दर की रचना और प्रक्रिया को बड़ी सरलता से देखा जा सकता है, यही नहीं, रमन ने रेटिना में तीन रंगों की खोज की है। उन्होंने इन रंगों के कार्य, उनके प्रभाव और पहचान का भी पता लगाया है। उन्होंने राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला बेंगलूरु में कण-विज्ञान (क्रिस्टैलियोग्राफी) पर अनुसन्धान कार्य किया।
इस भारतीय वैज्ञानिक की प्रतिभा का लोहा मानकर देश-विदेश की अनेक संस्थाओं ने उनका सम्मान किया। सन् 1928 में इटालियन सोसाइटी रोम ने मैथ्यूसी नामक स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। सन् 1929 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि प्रदान की। अनेक विश्वविद्यालयों ने अपना फैलो बनाकर उनका सम्मान किया। इस प्रकार रमन बाबू ने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की
इस प्रकार विश्व के समस्त देशों द्वारा उनको सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया। उन्होंने कहा था- ‘सम्मान, प्रशस्तियां, पुरस्कार- ये सब एक सच्चे वैज्ञानिक के जीवन की आकस्मिक घटनाएँ हैं और उसे इनकी लेशमात्र भी आकांक्षा नहीं होती। मेरा लक्ष्य तो केवल अपने कार्य के प्रति निष्ठा है।
डॉ० रमन ने भारत में वैज्ञानिक एवं अनुसन्धान हेतु सदैव प्रोत्साहन के प्रयास किए। उनके प्रयत्नों से देश में अनेक स्वतन्त्र अनुसन्धानशालाएँ, विश्वविद्यालय और वैज्ञानिक संस्थाएँ स्थापित हुई।
डॉ० रमन ने भारत में वैज्ञानिक एवं अनुसन्धान हेतु सदैव प्रोत्साहन के प्रयास किए। उनके प्रयत्नों से देश में अनेक स्वतन्त्र अनुसन्धानशालाएँ, विश्वविद्यालय और वैज्ञानिक संस्थाएँ स्थापित हुई
डॉ० रमन विज्ञान का प्रयोग युद्धक्षेत्र में करने के पक्ष में नहीं थे। वे विज्ञान का प्रयोग शान्ति कार्यों एवं जनकल्याण हेतु ही उचित समझते थे। वे नहीं चाहते थे कि वैज्ञानिक ऐसा प्रयोग करें जो विश्व शान्ति में बाधक हों। उनके इस शान्ति पूर्ण लक्ष्य के कारण ही इनको सन् 1958 में ‘लेनिन शान्ति पुरस्कार’ से सम्मनित किया गया।
डॉ० रमन बाबू 80 वर्ष की आयु में भी तरुण तपस्वी की भाँति वैज्ञानिक अनुसन्धानों में लीन रहते थे। भारत में प्लेग का प्रकोप होने पर उन्होंने अपने निवास स्थान के सामने तम्बू लगवा दिए थे और वहाँ आने वाले रोगियों की स्वयं सेवा-सुश्रूषा और औषधि का प्रबन्ध किया।
डॉ० रमन बहुत न्यायप्रिय भी थे। जब वे अकाउण्टेण्ट जनरल थे, तब एक व्यक्ति सौ-सौ के अधजले नोटों का बण्डल लाया जिनके नम्बर विकृत होने से कठिनाई से पढ़े जा सकते थे। उन्होंने स्वयं उनके नम्बर पढ़कर उसे रुपये दिला दिए। वे जाली सिक्के और नोट बनाने वालों को उचित दण्ड भी दिलाते थे।
डॉ० रमन प्रत्येक कार्य को शीघ्रता से करते थे। वे विज्ञान के साथ-साथ अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीति, इतिहास और संस्कृत के भी मर्मज्ञ थे। उनमें ज्ञान पिपासा सदैव विद्यमान रही।
आठ भाषाओं के ज्ञाता और वीणावादन में प्रवीण, पद पुरस्कार और सम्मान की प्राप्ति पर भी विचलित न होने वाले डॉक्टर चन्द्रशेखर वेंकट रमन का स्वर्गवास 21 नवम्बर, सन् 1970 को हुआ। उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए प्रतीत होता है कि रमन का व्यक्तित्व जितना महान् है, उतना ही सादा। रमन कोट, पैंट, टाई के साथ सिर पर दक्षिण भारतीय पद्धति की पगड़ी धारण करते थे। वे सही अर्थों में राष्ट्रवादी महापुरुष थे।