HBSE Class 11 नैतिक शिक्षा Chapter 8 भगवान महावीर Explain Solution

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HBSE Class 11 Hindi Naitik Siksha Chapter 8 भगवान महावीर / Bhagwan Mahavir Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 11th Book Solution.

भगवान महावीर Class 11 Naitik Siksha Chapter 8 Explain


जैन धर्म में 24 तीर्थकर माने गए हैं। ऋषभ देव आदि तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभ देव के बाद तेईस तीर्थंकर हुए। सभी तीर्थकरों ने क्षत्रिय कुल में जन्म लिया। अधिकांश तीर्थंकरों का जन्म इक्ष्वाकुवंश में हुआ और सम्मेद शिखर पर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।

जैन विचारधारा को व्यापक बनाने का श्रेय भगवान् महावीर स्वामी को है। इसलिए इन्हें जैन धर्म का संस्थापक भी कहा जाता है। इनका मूल नाम वर्धमान था । प्राकृतिक सुषमा से भरपूर विदेह जनपद की राजधानी वैशाली के पास कुण्डलपुर में 540 ईशापूर्व चैत्रशुक्ल त्रयोदशी को इनका जन्म हुआ। लिच्छवी शासक चेटक की बहन त्रिशला महावीर की माता थी। महावीर के माता-पिता श्रमणोपासक थे और पार्श्वनाथ के अनुयायी थे ।

बड़े लाड़ प्यार से वर्धमान का लालन-पालन होने लगा। सुरक्षित चम्पक वृक्ष की भाँति वे बढ़ने लगे। वर्धमान बचपन से ही बड़े वीर, धीर और गम्भीर प्रकृति के थे। एक बार वे अपने साथियों के साथ खेल रहे थे। इतने में एक भयंकर साँप दिखाई दिया जो वृक्ष की जड़ में लिपटा हुआ फुंकार मार रहा था। साँप को देखकर वर्धमान के अन्य सभी साथी वहाँ से भाग खड़े हुए जबकि वर्धमान अविचल भाव से वहीं डटे रहे। उन्होंने सर्प को हाथ में लेकर दूर फेंक दिया। मतलब यह कि वर्धमान बचपन से ही निर्भीक प्रकृति के थे और कोई भी संकट उपस्थित हो जाने पर बड़े धैर्य से काम लेना जानते थे। इन्हीं सब कारणों से वे महावीर नाम से सुविख्यात हो गए।

वर्धमान ने युवावस्था में प्रवेश किया। वर्धमान एक प्रभावशाली प्रियदर्शी युवक थे। तपाये हुए उत्तम सोने जैसी उनके शरीर की शोमा निराली थी। उनका ललाट, उनकी आँख, नाक, कान और कपोल अत्यन्त सुडौल थे, मानो किसी साँचे में ढलकर आये हो।

अपने लाडले बेटे को जवानी में पदार्पण करते देख माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। कितने आनन्द के दिन होंगे जब वर्धमान गृहस्थाश्रम में प्रवेश करेंगे. ये विचार वर्धमान के माता-पिता के मन में आनन्द का सागर उड़ेल देते।

वर्धमान के गुणों की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। विवाह के प्रस्ताव आने लगे। सिद्धार्थ प्रस्तावों पर विचार करने लगे। लेकिन वर्धमान की सहमति के बिना कोई निर्णय कैसे लिया जाए ? जबकि वर्धमान तो गृहस्थाश्रम में न पड़ने का विचार बहुत पहले से कर चुके थे, किन्तु माता त्रिशला की भावनाओं की उपेक्षा भी कैसे की जा सकती थी ? आखिर माता के स्नेह के सामने उन्हें झुकना पड़ा। इच्छा न रहते हुए भी वर्धमान ने विवाह की स्वीकृति दे दी। कलिंग देश के राजा जितशत्रु की कन्या यशोदा से वर्धमान का विवाह हो गया। उनके प्रियदर्शना नाम की एक कन्या भी हुई जिसका विवाह उसी नगर के क्षत्रिय कुमार जामालि के साथ हो गया।

गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी संसार की मोह-माया वर्धमान को आकर्षित न कर सकी। ऐसे नाजुक समय में संसार की मोह ममता त्याग कर दीक्षा ग्रहण करने की उत्कट इच्छा महावीर को उद्वेलित कर रही थी। महावीर जब 28 वर्ष के थे, उनके माता-पिता स्वर्ग सिधार गए । इससे उनके जीवन काल में दीक्षा न लेने की प्रतिज्ञा से वे मुक्त हो गए। अतएव उन्होंने अपने बड़े भाई नन्दीवर्धन के समक्ष दीक्षा का प्रस्ताव रखा। किन्तु उन्होंने भी दीक्षा की अनुमति नहीं दी। उन्होंने कहा- “श्रमण- निर्ग्रन्थों के तप और व्रत नियमों का पालन करना महाकठिन है। बड़े-बड़े तपस्वियों के आसन डोल जाते हैं।” यद्यपि महावीर जीवन की असारता से भलीभाँति परिचित थे, फिर भी उन्होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा को शिरोधार्य कर जैसे तैसे करके दो वर्ष व्यतीत किए।

एक दिन उनके मन में जनहित की प्रबल भावना जाग उठी। अब की बार गृह त्याग का उन्होंने निश्चय कर लिया। बहुत समझाने बुझाने पर भी जब वे टस से मस नहीं हुए तो निष्क्रमण की तैयारी हुई। अगहन वदी दशमी का शुभ दिन था ( आग्रहायण कृष्ण पक्ष दशमी) उद्यान में पहुँचकर वर्धमान जय-जयकार की घोषणा के बीच पालकी से उतरे। शरीर के वस्त्राभूषण उतार डाले। पंचमुष्टि से अपने केशों का लांच किया। कुलवृद्धा ने उन्हें एक उत्तम रेशमी वस्त्र में ले लिया। कुलवृद्धा तथा अन्य कुटुम्बीजनों की भर्राई हुई आवाज सुनायी दी-“बेटा! प्रयत्नपूर्वक संयम को पालना, अपने व्रत और नियमों में अडिग रहना, क्षण-भर के लिए भी प्रमाद नहीं करना।”

महावीर ने अब एक नए जीवन में प्रवेश किया था। पुराने संगी-साथी छूट गए थे। सगे सम्बन्धियों का स्नेह पुराना पड़ गया था। अब तो किसी का भी मोह शेष नहीं रह गया। किसी बात की चिन्ता नहीं, दुविधा नहीं- बेफिक्री ही बेफिक्री है। ऐसा अनमोल अवसर कब मिलेगा ? उन्होंने दृढ निश्चय किया कि कितनी ही विघ्न बाधाओं का सामना क्यों न करना पड़े, कितने ही संकट क्यों न आयें, अपने ध्येय से वे नहीं डिगेंगे, पीछे नहीं हटेंगे। इसी दृढ़ संकल्प से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हुए 12 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद वैशाख शुक्ल दशमी को ऋजुकुला नदी के तट पर जम्मिका (जमुई) में दिव्य ज्ञान हुआ। कर्म का फल अवश्य ही मिलता है क्योंकि पुरुषार्थ से सिद्धि अवश्य होती है। तपस्वी के मन की साध पूरी हुई। ज्ञान चक्षु खुल गए। ज्ञान की यह चरम अवस्था थी। “अब वे अवश्य ही दूसरों के लिए कुछ कर सकेंगे” उनके मन में एक लहर उठी। कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् महावीर स्वामी ने जन कल्याण हेतु अपनी शिक्षाओं को सहज और सरल ढंग से जन-जन तक पहुँचाया और पूरी मानव जाति का उद्धार किया। साथ ही ‘तीर्थकर शब्द को भी सार्थक कर दिया क्योंकि तीर्थकर शब्द का अर्थ है ऐसा महापुरुष जो लोगों को संसार सागर से पार उतार सके। वे अपनी इन्द्रियों को जीतने के कारण जैन कहलाए।

महावीर स्वामी की प्रमुख शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं —

1. अहिंसा – जैन धर्म की शिक्षाओं का केन्द्रबिन्दु अहिंसा का सिद्धान्त है। जैन मत के अनुसार सम्पूर्ण विश्व प्राणवान् है अर्थात् पेड़-पौधे, मनुष्य, पशु, पक्षियों सहित पत्थर और पहाड़ों में भी जीवन है। अतः किसी भी प्राणी या निर्जीव वस्तु को हानि नहीं पहुँचानी चाहिए। यही अहिंसा है। इस का मन, वचन और कर्म तीनों रूपों में पालन करना चाहिए।

2. तीन आदर्श वाक्य –

  • सत्य विश्वास
  • सत्य ज्ञान
  • सत्य चरित्र

3. पांच महाव्रत –

  • अहिंसा का पालन
  • चोरी ना करना
  • झूठ न बोलना
  • धन संग्रह न करना
  • ब्रह्मचर्य का पालन करना

4. कठोर तपस्या – जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए और पिछले जन्मों के बुरे कर्मों के फल को समाप्त करने के लिए कठोर तप पर बल दिया।

इस प्रकार मानवोपयोगी शिक्षाओं से संसार को कृतार्थ कर 72 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने कार्तिक कृष्ण अमावस्या को पावापुरी (बिहार) में मोक्ष (कैवल्य) प्राप्त किया।


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