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HBSE Class 11 Hindi Naitik Siksha Chapter 9 वीर सावरकर / Veer Savarkar Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 11th Book Solution.
वीर सावरकर Class 11 Naitik Siksha Chapter 9 Explain
10 जुलाई, 1910 सूर्योदय का समय। मोरिया नामक जहाज यान्त्रिक गड़बड़ी होने के कारण बन्दरगाह पर खड़ा था। कारीगर उसे दुरुस्त करने में लगे थे। एक प्रवासी युवक विचारमग्न था। निश्चिन्त रहना उसके लिए नामुमकिन था क्योंकि यह अंग्रेजों के बन्धन में था। दो पहरेदार लगातर उस पर नजर रखे हुए थे।
“मुझे शौच के लिए जाना है” बन्दी ने पहरेदार से कहा पहरेदार उसे जहाज के शौचकूप में ले गया। शौचकूप में ऊपर शीशा लगा हुआ था। पहरेदार उस शीशे में से उस पर नजर रखे थे। उस बन्दी ने अपना ओवरकोट ऊपर खिड़की पर लगे शीशे पर रख दिया ताकि पहरेदार उसे देख न सके। बन्दी वहाँ के पोर्ट होल से बाहर निकला, समुद्र में कूदा और तैरकर किनारे पर पहुँच गया। शौचालय के बाहर खड़े पहरेदार ने सोचा कि काफी समय हो गया है. वह अभी तक बाहर नहीं आया. कुछ तो गड़बड़ है। पहरेदार ने जहाज के ऊपर चढ़कर देखा कि युवक समुद्र में कूद गया था। वह शोर मचाने लगा। “बन्दी भाग रहा है, पकड़ो-पकड़ो।” तभी सारे जहाज में शोर मच गया। भागनेवाले बन्दी का नाम था “सावरकर इस सारी घटना का वृत्तान्त दूसरे दिन समाचार-पत्रों में छप गया। के लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ ।
महाराष्ट्र के नासिक जिले के भंगुर नामक गाँव में 28 फरवरी, 1883 को पन्त सावरकर के घर में एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम विनायक रखा गया। विनायक के बड़े भाई का नाम गणेश था। विनायक जब 9 वर्ष के थे तब उनकी माता का निधन हो गया। उन्होंने नासिक में शिक्षा ग्रहण की।
सन् 1897 में महारानी विक्टोरिया ने ध्वजारोहण उत्सव को सम्पूर्ण भारत में मनाने का निश्चय किया। महाराष्ट्र में प्लेग की बीमारी फैली होने के कारण उत्सव मनाने के निर्णय को सुनकर जनता भड़क उठी। इसका प्रभाव चाफेकर बन्धुओं पर पड़ा और उन्होंने दो अंग्रेजों को मार दिया। अंग्रेजों ने चाफेकर को फाँसी पर चढ़ा दिया। इस बलिदान की अमिट छाप सावरकर बन्धुओं पर पड़ी। दोनों ने नासिक में मित्र मेला’ नामक संगठन के द्वारा भारतीयों को स्वतन्त्रता संघर्ष के लिए प्रेरित किया। वे पढ़ाई के साथ-साथ स्वतन्त्रता की अलख जगाने के लिए संघर्ष करते रहे।
नासिक उत्सव के बाद भारत सरकार ने बंगाल का विभाजन कर दिया। भारतीय क्रान्तिकारियों ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया। विनायक ने भी विदेशी वस्त्रों की होली जलाई, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया, फिर भी उन्होंने मित्रों की सहायता से शिक्षा को जारी रखा। अन्तिम परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। लन्दन का ‘इण्डिया हाउस भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को प्रोत्साहित करने वाली संस्था थी। यह बुद्धिमान् विद्यार्थियों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान करती थी। इसके लिए सावरकर ने प्रार्थना-पत्र दिया, जो स्वीकार कर लिया गया। अतः सावरकर 1906 में शिक्षा प्राप्ति के लिए लन्दन चले गए।
उन्होंने स्वतन्त्रता की भावना को जागृत करने के लिए ‘1857 की क्रान्ति’ नामक पुस्तक लिखी सावरकर पुस्तक छपाई का प्रयास करने लगे लेकिन सफल नहीं हुए। पुस्तक की प्रतियाँ गुप्तरूप से भारत में भेजी जाने लगी। इस सम्बन्ध में सावरकर पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें कारावास की सजा सुनाई। भाभी के पत्र से सावरकर को बाबाराव के पकड़े जाने व काले पानी की सजा की जानकारी प्राप्त हुई, जिससे भारतीय आग-बबूला हो गए। लन्दन में मदनलाल ढींगरा ने इसका बदला लेने का निश्चय किया। हलचल पर निगाह रखने वाले अंग्रेज अधिकारी को गोली से उड़ा दिया जिसके परिणाम स्वरूप मदललाल ढींगरा को फाँसी दी गई। अंग्रेज सरकार ने अनेक कार्यकत्ताओं को पकड़ लिया। सरकार समझ गई कि इन सबके पीछे सावरकर का हाथ है। अतः अंग्रेज सरकार ने सावरकर पर मुकदमा दायर कर दिया।
भाई बाबाराव को अण्डमान के कारावास में भेज दिया गया। इस कारण सावरकर की लन्दन में रहने की इच्छा नहीं रही। विपरीत परिस्थितियों में भी बैरिस्टर की परीक्षा में सफल रहे। जब ये भारत लौट रहे थे तब लन्दन के विक्टोरिया स्टेशन पर इन्हें पकड़ लिया गया और अंग्रेज अधिकारी की हत्या का आरोप लगा दिया गया। मेरिया जहाज में बन्दी होने पर वे समुद्र में कूद पड़े और तैरकर फ्राँस के भू-भाग पर पहुँच गए। वहाँ पहरेदारों द्वारा उन्हें पकड़ लिया गया। भारत में सावरकर पर मुकदमा चला और उनपर आरोप लगाए गए कि ये लोगों को भड़काकर अंग्रेजों की हत्या करवाते हैं। इन अरोपों के तहत जब दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई तब सावरकर ने कहा- “ओह! अंग्रेजों को भी हिन्दुओं की पूर्वजन्म की कल्पना मान्य है। दो आजन्म कारावास की सजा सुनाना ही इसका प्रमाण है।”
सावरकर को एक दिन कारावास में अपने बड़े भाई के दर्शन हुए लेकिन वे आपस में बोल नहीं सकते थे। उन्होंने पहरेदार की सहायता से चिट्ठी भेजी और सावरकर ने हाथों की हथकड़ियों को टकराकर एक सांकेतिक भाषा मे बोलने का आभास करवाया। यही भाषा सभी कैदियों को मुक्त कराने की माध्यम बनी ।
सावरकर का सभी कैदियों के प्रति सद्व्यवहार था सावरकर जन्मजात कवि थे। कारावास में रहते हुए भी उन्होंने काव्यों की रचना की। काव्यरचना लोहे की कील से दीवार पर लिखकर कण्ठस्थ करते थे। उन्होंने अनेक काव्यों की रचना की यथा कमला, महासागर आदि ।
सन् 1919 में सावरकर से मिलने के लिए उसके छोटे भाई तथा उसकी पत्नी आए। सावरकर को मुक्त कराने के लिए चारों ओर से दबाव आने लगे और अन्त में अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा। 1921 में बाबाराव को मुक्त किया गया तथा सावरकर को भारत लाया गया और 1922 में इन्हें मुक्त कर दिया गया। लेकिन जिले से बाहर जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 1924 से 1938 तक ये रत्नागिरि जिले में बन्दी रहे। उनकी पत्नी यमुनाबाई भी इनके साथ रही। उनके प्रभात नामक कन्या तथा विश्वास नाम का पुत्र हुआ। सावरकर का विवाह 1901 में हो गया था लेकिन लगभग 23 वर्ष तक इन्होंने अकेले जीवन व्यतीत किया।
सरकार की अनुमति से वे वापिस नासिक आ गए। वहाँ जनता ने उन्हें एक लाख रुपए भेंट किए। समाज-सेवा में उन्होंने तन-मन-धन अर्पण कर दिया। उन्होंने रत्नागिरि में पतितपावन मन्दिर की स्थापना की और उसका उद्घाटन शंकराचार्य द्वारा करवाया। सभी भेदभाव को भुलाकर लोग एक जगह बैठकर भोजन कर सकें, इसके लिए सहभोज कार्यक्रम का आयोजन किया गया।
1937 में सावरकर पर लगे प्रतिबन्ध हटने पर वे राजनीति में कूद पड़े। उन्हें हिन्दू महासभा का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। सावरकर के अनुयायियों ने 1960 में मृत्युंजय दिवस मनाया और उनको जेल में जहाँ रखा गया था, वहाँ ‘स्मरण फलक’ लगवाकर उसे राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया गया। 1965 में सावरकर को “अप्रतिम स्वातन्त्र्य वीर” के सम्मान से नवाजा गया।
उन्होंने ‘भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम पृष्ठ’ नामक बृहद् ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखा। इसके द्वारा भारतीयों में स्वाभिमान जागृत करने का प्रयास किया। 26 फरवरी, 1966 को इनका देहावसान हो गया। इन्होंने गृहस्थ जीवन की अपेक्षा स्वतन्त्रता प्राप्ति को सर्वोपरि माना और अन्त समय तक उसकी रक्षा के लिए प्रयासरत रहे।