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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 10 शाश्वत नैतिक मूल्य / sashwat naitik mooly Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.
शाश्वत नैतिक मूल्य Class 12 Naitik Siksha Chapter 10 Explain
नैतिकता ही धर्म की आत्मा होती है। इस पर किसी धर्म विशेष का एकाधिकार नहीं होता। विश्व का हर धर्म कुछ ऐसे नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन करता है, जिन्हें अन्य धर्म भी उसकी आस्था के साथ स्वीकार करते हैं। नैतिकता वह महासागर है, जहाँ भिन्न-भिन्न धर्मों की नदियाँ आकर मिल जाती हैं। तब एक नया धर्म उत्पन्न होता है, जिसे मानव धर्म कहा जाता है।
नैतिकता तो भेदभाव निरपेक्ष है, सर्वसुलभ और सर्वग्राह्य तथा सबको स्वीकार्य है, इसलिए यह सबकी सॉझी सम्पत्ति है। नैतिकता पर सभी धर्मों का उतना ही अधिकार है, जितना माँ की ममता पर उसके प्रत्येक बच्चे का हुआ करता है नैतिक मूल्य कई सद्गुणों के माध्यम से अर्जित होते हैं।
सद्गुण को चरित्र का आभूषण कहा जाता है या इसे चरित्र की उत्कृष्टता भी कह सकते हैं। यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने चार प्रकार के सद्गुणों का उल्लेख किया है —
- विवेक
- साहस
- संयम
- न्याय
अलेक्जेण्डर के अनुसार सद्गुण समाज सापेक्ष होते हैं, जिस प्रकार व्यक्ति के कर्त्तव्य एवं दायित्व सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं, उसी प्रकार सद्गुण भी समयानुसार परिवर्तनशील हैं।
पतंजलि के योगसूत्र में पाँच प्रकार के सद्गुणों का उल्लेख किया गया है –
- सत्य
- अहिंसा
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह
इन्हें यम नाम से कहा गया है। यम और नियम अष्टांग योग के महत्त्वपूर्ण घटक हैं। उपनिषद्, बौद्ध व जैन ग्रन्थों ने भी पतंजलि के सद्गुणों के वर्गीकरण का समर्थन किया। पातंजल योगसूत्र में उल्लेख हैं- “अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः ।
आधुनिक युग में महात्मा गाँधी व विनोबाभावे ने भी उपर्युक्त पाँचों सद्गुणों के महत्त्व को स्वीकार किया है। विभिन्न धर्मों में भी इन सद्गुणों के महत्त्व को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया है।
सत्य – भारतीय शास्त्रों में सत्य की महत्ता का विशद वर्णन पाया जाता है। वेदों में कहा गया है कि – सत्य के द्वारा आकाश, पृथ्वी, वायु और भौतिक तत्त्वों को धारण किया जाता है। मनुस्मृति के अनुसार ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्’ अर्थात् सत्य बोलें, प्रिय बोलें परन्तु अप्रिय या कटु सत्य न बोलें। महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है कि सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत् । अर्थात् सत्यवादी को मधुरभाषी भी होना चाहिए।
जैन धर्म के अनुसार यथार्थ के साथ-साथ सत्य को प्रिय भी होना चाहिए, इसी को सुनृत व्रत कहा गया है। गाँधी जी ने तो सत्य को ही ईश्वर और ईश्वर को ही सत्य कहा है।
कुरानशरीफ में स्पष्टरूप से वर्णित है कि “सत्य के आगे असत्य कभी नहीं ठहर सकता।
ईसामसीह ने बार-बार कहा है कि “जिस व्यक्ति का मन एक बच्चे की तरह निश्छल, सत्यनिष्ठ व पवित्र हो, वही ईश्वर की कृपा का वास्तविक अधिकारी होता है”।
महात्मा बुद्ध ने भी सत्य के महत्त्व को स्वीकार करते हुए अपने शिष्यों से मध्यम मार्ग पर चलने के लिए कहा, जिसके आठ अंग बताए हैं। उनमें से एक है सम्यक् वचन अर्थात् असत्य, कटु व बुरे वचनों से बचना। वे कहा करते थे कि सत्य और शील व्यक्ति के नैतिक गुण हैं और अनुकरण भी इन्हीं का किया जाना चाहिए।
सिक्ख धर्म – गुरुग्रन्थ साहिब में विभिन्न धर्मों के सन्तों की वाणी है, जो अन्य धार्मिक ग्रन्थों को भी समान महत्त्व देते हैं, आदिग्रन्थ में कहा गया है
वेद कतेब कहो मत झूठे, झूठा सो जो न विचार
अर्थात् वेद आदि ग्रन्थों को झूठा मत कहो, झूठा वह है जो इन पर विचार नहीं करता।
अहिंसा – अहिंसा को सभी धर्मों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। संस्कृत की प्रसिद्ध उक्ति है
अहिंसा परमो धर्मः ।
जैन व बौद्ध धर्म में तो इसे धर्म का मुख्य आधार मानते है। अहिंसा के दो मुख्य रूप माने जाते हैं।
- निषेधात्मक अर्थात् किसी भी प्राणी की हत्या न करना।
-
भावनात्मक अर्थात् सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, दया व सहानुभूति रखना। क्रोध को हिंसा का कारण माना जाता है, इसके लिए जैन मत है कि क्रोध को क्षमा देकर शान्त कर देना चाहिए।
बौद्धमत के अनुसार व्यक्ति को कुशल कोचवान की तरह क्रोध पर अधिकार प्राप्त कर लेना चाहिए।
इस्लाम धर्म में भी क्षमा को अहिंसा का आधार मानकर कहा गया है कि महान् व्यक्ति वह है जो क्षमा करें और भूल जाए।
ईसामसीह का सुप्रसिद्ध कथन है। “पाप से घृणा करो, पापी से नहीं” । गुरबाणी में कहा गया है “ना कोई बैरी, ना ही बेगाना” जब कोई अपना वैरी या बेगाना ही नहीं तो हिंसा होगी कैसे। ईसामसीह ने तो किसी से भी प्रतिशोध लेने को ही मना किया है।
कुरानशरीफ में भी स्पष्ट कहा गया है कि- बुराई का बदला बुराई से न लेकर भलाई से लिया जाए तो विरोधी के मन का मैल स्वतः ही समाप्त हो जाता है और हिंसा की सम्भावना ही नहीं रहती।
महात्मा बुद्ध ने धम्मपद में कहा है कि-“न तेन अरिया होति, येनपाणानि हिंसति” अर्थात् जो प्राणियों की हिंसा करते हैं, वे श्रेष्ठ नहीं हैं।
अस्तेय – अस्तेय का अर्थ है- चोरी न करना या किसी दूसरे की सम्पत्ति को अवैध रूप में अपने पास न रखना। भारतीय नीतिशास्त्र में ‘अर्थ’ को जीवन का पुरुषार्थ तो बताया है, लेकिन अवैधरूप से अर्थोपार्जन को स्वीकार नहीं किया गया। जैनमत में दूसरे की सम्पत्ति के अपहरण को केवल चोरी ही नहीं बल्कि हिंसा की संज्ञा दी गई है।
बौद्धमत के अनुसार दूसरे की सम्पत्ति के प्रति लोभ की भावना रखना या दूसरे व्यक्ति को चारी करने के लिए प्रेरित करना भी स्तेय है।
कुरान में कहा गया है:-” हम वसीला ढूँढें और मेहनत करें।’
अपरिग्रह – अपरिग्रह का अर्थ है-आवश्यकता से अधिक धन संग्रह न करना। जैन और बौद्ध धर्म में इसे मूल सद्गुण स्वीकार किया गया है। महात्मा गाँधी ने भी इस नैतिक मूल्य की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए कहा है कि “जीवन यापन से अधिक संचय करना दूसरों को जीवित रखने से वंचित करना है।”
श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है कि-प्राणियों की सम्पत्ति उतनी ही होनी चाहिए, जितनी से उनका पेट भर जाए, उससे अधिक धन का संचय चोरी है।
सिक्ख धर्म के तीन मूल नियम हैं –
- नाम जपना
- किरत करना अर्थात् ईमानदारी से परिश्रम करना
- वण्ड छकणा अर्थात् मिल बाँटकर खाना। मिल बाँटकर खाने से अपरिग्रह की भावना पुष्ट होती है।
ईसामसीह ने भी अपरिग्रह का पक्ष लेते हुए चेतावनी दी है कि आवश्यकता से अधिक धन या ऐश्वर्य का स्वामी, प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं पा सकता।
ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य का अर्थ है-काम वासनाओं का पूरी तरह से त्याग। सभी धर्मों ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। अथर्ववेद में कहा गया है – ‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमपाध्नत” अर्थात् ब्रह्मचर्य रूप तप से ही देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की ।
जैनधर्म में ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और कर्म से करने पर बल दिया गया है। सूत्रकृतांग में कहा गया है- ‘तवेसु वा उत्तमं बंमेचरं ।” अर्थात् तपों में सर्वोत्तम तप है- ब्रह्मचर्य। महात्मा गाँधी ने भी आत्मसंयम को ही ब्रह्मचर्य कहा है। विद्यार्थी के लिए तो ब्रह्मचर्य अति आवश्यक है। इसके बिना विद्याभ्यास सम्भव ही नहीं। इसलिए विद्यार्थी को ब्रह्मचारी कहा जाता है और विद्या प्राप्त करने की अवधि को ब्रह्मचर्य आश्रम नाम से जाना जाता है। बौद्ध धर्म में भी ब्रह्मचर्य के महत्त्व को स्वीकारा है।
उपर्युक्त सभी गुण मिलकर धर्म का स्वरूप बनाते हैं। इसीलिए मनु ने धर्म के लक्षण बताते हुए लिखा है
कि –
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।
भाव – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना ) यह धर्म के दस लक्षण हैं।