HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 18 जगत् की उत्पत्ति Explain Solution

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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 18 जगत् की उत्पत्ति / Jagat ki utpatti Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.

जगत् की उत्पत्ति Class 12 Naitik Siksha Chapter 18 Explain


जगत् को सामान्य भाषा में संसार, विश्व आदि नामों से भी जाना जाता है। जगत् की उत्पति कब, कहाँ, कैसे हुई ? यह एक विचारणीय विषय है। जगत् की उत्पत्ति का प्रश्न अत्यन्त गूढ़ है, जिसके रहस्य को समझ पाना अत्यन्त कठिन है।

वैदिक काल से ही जगत् की उत्पत्ति के कारणों को खोजा जा रहा है। ऋग्वेद में कहा गया है। —

यो नः पिता जनिता यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा

अर्थात् संसार के उत्पति कर्त्ता विश्वकर्मा हमें उत्पन्न करने वाले और पालन करने वाले हैं, ऋग्वेद के ‘पुरुष सूक्त’ में पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् के अनुसार विराट् पुरुष से जगत् की उत्पत्ति मानी गई है, जो भूत और भविष्य एवं सब पदार्थों का कर्त्ता है।

ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में कहा गया है कि सर्वप्रथम चारों तरफ जल ही जल विद्यमान था, तदनन्तर परमात्मा के द्वारा जगत् की रचना की गई। कहा भी गया है

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव
यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्
सो अंग वेद यदि वा न वेद ।।

यह सृष्टि किस प्रकार हुई इसकी रचना किसने की ? इसका जो स्वामी है, वह दिव्यधाम में निवास करता है, वही इसकी रचना के विषय में जानता है, हो सकता है कि ना भी जानता हो।

ईशावास्यमिदं सर्वम्
यत्किंच जगत्यां जगत्

इस मन्त्र के अनुसार जगत् में जो कुछ भी है, वह ईश्वर से व्याप्त है। ईशावास्योपनिषद् के इस प्रथम मन्त्र के अनुसार ईश्वर से जगत् की उत्पति स्वीकार की गई है।

मुण्डकोपनिषद् में मकड़ी का दृष्टान्त देकर परमात्मा के द्वारा इस जगत की रचना स्वीकार करते हुए कहा गया है

यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति ।
यथा पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ।।

अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी अपने शरीर के भीतर से जाले का सृजन करती है और फिर उसे अपने शरीर में ही समेट लेती है। जैसे पृथ्वी से ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं और पुरुष के शरीर से केश-लोम उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म से विश्व की रचना होती है। छान्दोग्योपनिषद् में भी एकमात्र ब्रह्म से जगत् की उत्पत्ति मानी गई है। गीता में सृष्टिरचना के विषय में कहा गया है कि –

प्रभवः प्रलयः स्थानं विधानं बीजमव्ययम् अर्थात् इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय का एकमात्र कारण ब्रह्म ही है। गीता के सातवें अध्याय में श्रीकृष्ण ने कहा है कि- मैं ही इस जगत् की उत्पत्ति और प्रलय का कारण हूँ। मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते है, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है।

शंकराचार्य ने एकमात्र ब्रह्म की सत्ता स्वीकार करते हुए कहा है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः अर्थात् ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है, जीव ब्रह्म ही है कोई दूसरा नहीं। अद्वैतमत का यह मुख्य सिद्धान्त है। इसके अनुसार ब्रह्म अपनी माया शक्ति के द्वारा जगत् की रचना करता है और इसकी प्रतीति वास्तविक रूप में न होकर काल्पनिक रूप में होती है।

भारतीय दर्शन दो भागों में विभाजित है आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शन के अन्तर्गत षड्दर्शन, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त की गणना की जाती है। नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शन प्रसिद्ध हैं। इन भारतीय दर्शनों में भी जगत् की उत्पत्ति के कारणों को विस्तार से दर्शाया गया है।

चार्वाक एक भौतिकवादी और सुखवादी दर्शन है। इसके अनुसार पृथ्वी, जल, तेज और वायु-इन चार भूतों के मिश्रण से समस्त जगत् की उत्पत्ति होती है। इन चार भूतों के अतिरिक्त इस दर्शन में अन्य किसी चेतन तत्त्व की सत्ता स्वीकार नहीं की गई।

बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार सर्वस्य संसारस्य दुखात्मकत्वं तत् क्षणिकम् अर्थात् यह सारा संसार दुःखस्वरूप एवं क्षणभंगुर है। ये जगत् उत्पत्ति कारण के रूप में ईश्वर या आत्मा जैसे किसी तत्त्व की सत्ता स्वीकार नहीं करते। इनके अनुसार जगत् रचना प्रतीत्समुत्पाद अर्थात् कारण कार्य नियम के आधार पर रूप, विज्ञान, वेदना, संज्ञा और संस्कार इन पाँच स्कन्धों के मिश्रण से होती है।

जैनदर्शन के अनुसार जगत् दो प्रकार के पदार्थों में विभाजित है- जीव और अजीव जीव भोक्ता पदार्थ है और अजीव भोग्य पदार्थ है। जैनमत के अनुसार जगत् की रचना परमाणुओं से हुई है।

न्यायशास्त्र के ग्रन्थ न्यायसिद्धान्तमुक्तावली में कहा है कि- तस्मै कृष्णाय नमः संसारमहीरुहस्य बीजाय अर्थात् संसार रूपी वृक्ष का निमित्त कारण ईश्वर है। न्यायशास्त्र में उपादान कारण के रूप में परमाणुओं की सत्ता स्वीकार की गई है। पृथ्वी आदि पाँच भूतों के परमाणु ईश्वर की इच्छा से क्रियाशील होकर जगत् की रचना करते हैं। ये पाँच भूत हैं पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ।

सांख्यदर्शन के अनुसार यह जगत् यथार्थ और सुख-दुःख मोहात्मक है। इनके अनुसार सृष्टि का मूलकारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है । ईश्वरकृष्ण ने अपने ग्रन्थ सांख्यकारिका में सत्त्व, रजस् तथा तमस् इन तीन गुणों वाली प्रकृति और पुरुष के संयोग से जगत् की रचना स्वीकार की है।

योगदर्शन का भी जगत् के कारण के विषय में वही मत है, जो सांख्यदर्शन का है। अन्तर केवल इतना है कि योगदर्शन में ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ इस योगसूत्र के अनुसार ईश्वर ने जैसे एक परमार्थ तत्त्व का भी स्वीकार किया है जबकि सांख्यकार इस विषय में मौन है।

गुरुनानक ने ‘गुरुग्रन्थसाहिब’ में परमात्मा को ही जगत् का निमित्त और उपादान कारण स्वीकार करते हुए ‘आसा की वार’ नामक ग्रन्थ में कहा है —

आपीन्है आपु साजिओ आपीन्है रचियो नाउ ।

ईश्वर ने अपने आप ही जगत् को सजाया और अपने आप ही इसे नए रूप में रचा। जपु जी साहिब में भी कहा गया है

कवणु सु वेला वखतु कवणु कवणु थिति कवणु वारू ।
कवणु सु रूति माह कवणु जित होआ आकारू ।।

अर्थात् सृष्टि की रचना कब हुई, कैसे हुई यह कोई नहीं जानता ।

हिन्दी के कवि सुन्दरदास ने अपने ग्रन्थ ‘ज्ञान समुद्र’ में जगत् की उत्पत्ति एवं प्रलय का कारण ब्रह्म को माना है।

जो जाते कारय भयो सो ताही में छीन ।
ऐसे ही यह जगत् सब होई ब्रह्म महिं लीन । ।

दार्शनिक दृष्टि के अन्तर्गत विचार करने के अनन्तर वैज्ञानिक दृष्टि से भी विचार करना उचित है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो पृथ्वी सौरमण्डल का एक अंग है। सौरमण्डल के साथ ही इसका जन्म हुआ है। फॉस निवासी कास्तेद बफन ने सन् 1745 ई0 में पृथ्वी की उत्पत्ति पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करते हुए कहा है। कि बहुत वर्षों पूर्व एक बड़ा पुच्छल तारा सूर्य के समीप होकर गुजरा, जिससे दोनों में टक्कर हुई। इस टक्कर से सूर्य से द्रव निकलकर अलग हो गया। कालान्तर में यही द्रव ठण्डा होकर सौरमण्डल की रचना का कारण बना। पदार्थ के जो हिस्से बड़े थे, उनसे ग्रह बने और जो हिस्से छोटे थे, उनसे उपग्रह बने। जर्मन विद्वान् प्रोफेसर कान्त का मत है कि पृथ्वी की उत्पत्ति न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त पर आधारित है।

जगत् की उत्पति के कारण के समान इसका समय ज्ञात करना भी एक गूढ़ प्रश्न है। इसका उत्तर ढूँढने के लिए प्राचीन काल से ही मानव द्वारा चेष्टाएँ की जाती रही हैं। फारस के लोगों का विश्वास है कि पृथ्वी 12,000 वर्ष पुरानी है । हिन्दू धर्म के अनुसार पृथ्वी की आयु दो अरब वर्ष ठहरती है। विष्णु पुराण के अनुसार पृथ्वी को बने 1,97,29,49048 वर्ष हो चुके हैं। अंग्रेजी विद्वान् बी. लेविन ने अपने ग्रन्थ ‘दा क्रस्ट ऑफ दा अर्थ में इस बात को स्वीकार किया है कि पृथ्वी की आयु के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म का विचार वैज्ञानिक मत के विचार के आस-पास ही है।

इस प्रकार जगत् की उत्पत्ति के विषय में ऋषियों, सन्तों, तत्त्ववेत्ताओं, दार्शनिकों और वैज्ञानिका आदि ने अपने-अपने मत प्रस्तुत किए हैं।


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