HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 5 अष्टादश श्लोकी गीता – Explain Solution

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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 5 अष्टादश श्लोकी गीता / Astdas sloki gita Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.

अष्टादश श्लोकी गीता Class 12 Naitik Siksha Chapter 5 Explain


अर्जुन उवाच

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव 
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।1।।

हे केशव! मैं लक्षण भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में अपने लोगों को मार कर कल्याण भी नहीं देखता।

श्रीभगवानुवाच

योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय । 
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। 2।।

हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर। समत्वभाव को ही योग कहा जाता है।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।। 3 ।।

जो मूढबुद्धि पुरुष समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक (ऊपर से) रोककर उन इन्द्रियों के भोगों को मन से चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् पाखण्डी कहा जाता है।

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। 4 ।।

इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखनेवाला श्रद्धावान् पुरुष ज्ञान को प्राप्त करता है। तथा ज्ञान को प्राप्त कर वह बिना विलम्ब के तत्क्षण ही परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ।। 5।।

जिसने इन्द्रियों, मन और बुद्धि पर विजय प्राप्त कर ली है ऐसा मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो जाता है, वह सदा मुक्त ही है।

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।। 6 ।।

उपयुक्त आहार-विहार, तथा सभी कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले और यथायोग्य शयन करने तथा जागने वाले के लिए यह योग दुःखनाशक सिद्ध होता है।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। 7।।

मेरी यह अदभुत् त्रिगुणमयी माया बड़ी दुस्तर है, जो लोग मुझको निरन्तर भजते हैं, वे इस माया के पार हो जाते हैं।

अग्निज्योंतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।। 8 ।।

जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण के छह महीने हैं, उस मार्ग में मर कर गए ब्रह्मवेत्ता योगीजन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। 9।।

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मुझे निरन्तर भजता है, तो वह भी साधु ही मानने योग्य है क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है, अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असंमूढः स मर्त्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।10।।

जो मुझे अजन्मा (जन्मरहित) और अनादि तथा लोकों का महान् ईश्वर रूप से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष सभी पापों से मुक्त हो जाता है।

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ।।11।।

हे अर्जुन! जो पुरुष मेरे लिए यज्ञ, दान और तप आदि सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, तथा मेरा भक्त है, अर्थात् मेरे नाम, गुण, प्रभाव, और रहस्य के श्रवण, कीर्तन, मनन, ध्यान का प्रेमभाव से अभ्यास करने वाला है, आसक्ति रहित है और सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति वैरभाव से रहित है, ऐसा भक्ति वाला पुरुष ही मुझे प्राप्त होता है।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।।12।।

तत्त्व को जाने विना किए गए अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है और परोक्ष ज्ञान से मुझ परमेश्वर के रूप का ध्यान श्रेष्ठ है। ध्यान से भी बढ़कर सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है, त्याग से तत्काल ही परम शान्ति प्राप्त होती है।

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।13।।

हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा मुझ को ही जान। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थात् विकार सहित प्रकृति और पुरुष का जो तत्त्वरूपी ज्ञान है, वही वास्तविक ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है।

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।14।।

जो पुरुष विना किसी विकार के भक्तिभाव से मुझे भजता है, वह इन तीनों गुणों (सत्व, रजस् और तमस्) को लाँघकर ब्रह्म से एकीभाव को प्राप्त होता है।

निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।।15 ।।

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है तथा आसक्तिरूप दोष जिन्होंने जीत लिया है और जिनकी नित्य स्थिति परमात्मा के स्वरूप में हैं तथा जिनकी कामना पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है, ऐसे ही सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।।16।।

जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि को, न परम गति को और न सुख को ही प्राप्त होता है।

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ।।17।।

मन की प्रसन्नता, शान्त भाव, भगवत् चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता – ये सब मानस अर्थात् मन सम्बन्धी तप कहे जाते हैं।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।18।।

सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को मुझमें त्याग कर तू केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो । तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।

गीता माहात्म्य

गीतासारमिदं पुण्यं यः पठेत् सुसमाहितः ।
विष्णुलोकमवाप्नोति भयशोकविनाशनम् ।।

जो पुरुष इस पवित्र गीतासार का एकाग्र चित्त से पाठ करता है, वह पुरुष भय, शोक, जन्म-मरण से मुक्त होकर विष्णुलोक को प्राप्त होता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां
योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे अष्टादशश्लोकी गीता ।।

भाव – श्रीमद्भगवद गीता के उपनिषदों में ब्रह्मविद्या में यह सच है, योग शास्त्र में, गीता में कृष्ण और अर्जुन के बीच हुए संवाद के अठारह श्लोक हैं।

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