HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 7 विज्ञानाचार्य डॉ. जगदीश चंद्र बसु Explain Solution

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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 7 विज्ञानाचार्य डॉ. जगदीश चंद्र बसु / Vigyanacharya doctor jagdish chandr bsu Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.

विज्ञानाचार्य डॉ. जगदीश चंद्र बसु Class 12 Naitik Siksha Chapter 7 Explain


जगदीश चन्द्र का जन्म 30 नवम्बर, सन् 1858 को बंगाल के मैमनसिंह जिले में हुआ, जो वर्तमान में बांग्ला देश में है। यहाँ इनके पिता डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। इनके पिता का नाम भगवान चन्द्र बसु तथा माता का नाम बामा सुन्दरी बसु था। इनके जीवन पर पिता के उदारतापूर्ण व्यवहार का अधिक प्रभाव पड़ा, जिसे उन्होंने अन्त तक निभाया। उनका परिवार शिक्षित एवं धार्मिक विचारों वाला था जिसमें रामायण, गीता एवं महाभारत पढ़े जाते थे। उन्हें कर्ण के जीवन से बहुत प्ररेणा मिली, जिसके आधार पर उन्होंने जीवन में संघर्ष करते रहना सीखा। ये हार से ही विजय का जन्म होना मानते थे।

उनके पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम की बजाय बांग्ला व हिंदी की जानकारी रखने पर बल दिया। उन्होंने बालक बसु को बांग्ला स्कूल में दाखिल कराया। क्योंकि उनका कहना था पहले मातृभाषा का ज्ञान होना जरूरी है। बाद में अन्य भाषाओं का।

स्कूल में बसु के अधिकांश मित्र गरीब और पिछड़ी जाति के बच्चे थे। जिन्हें देखकर उनके मन में विचार आता था कि आदमी परिश्रम से ही ऊँचा होता है, धन या जाति से नहीं। मनुष्य बल हीन तो आत्मबल के गिरने या नष्ट होने से होता है

प्रारम्भिक अध्ययन के उपरान्त बसु ने अपनी नौ वर्ष की आयु में कोलकाता के हेयर स्कूल तथा बाद में सेण्ट जेवियर स्कूल में दाखिला लिया।

सेण्ट जेवियर स्कूल में यूरोपीय तथा भारत में रह रहे अंग्रेज छात्र पढ़ते थे। जिनसे बसु ने मित्रता की व उनकी भ्रान्त धारणाओं व चुनौतियों का सामना भी किया। वे विज्ञान की चीजों के बारे में जानकारी एकत्र करने में प्रायः व्यस्त रहते थे।

बसु सन् 1880 में उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड गए। वहाँ उन्होंने चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन शुरू किया ही था कि स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण पढ़ाई छूट गई। फिर वे कैम्ब्रिज में क्राइस्ट चर्च कालेज में प्रकृति विज्ञान के अध्ययन में जुट गए। यहाँ के दो अध्यापकों ने उनका मार्गदर्शन किया। ये अध्यापक प्रकृति-विज्ञानी प्रोफेसर सिडनी विनिस और भौतिक विज्ञानी लाई रेले थे।

बसु सन् 1885 में शिक्षा पूरी कर भारत लौट आए। उन्हें कोलकाता के प्रेसीडेंसी कालेज में मौतिकी का प्राध्यापक नियुक्त कर दिया गया। वहाँ उन्हें अंग्रेज प्राध्यापकों की तुलना में आधे से भी कम वेतन मिलता था। उन्होंने अवैतनिक प्रोफेसर के रूप में कार्य कर इसका विरोध किया। इस अनोखे संघर्ष का परिणाम था कि बसु को गत तीन वर्षों का पूरा वेतन दिया गया।

सन् 1885 में बसु ने शार्ट रेडियो तरंगो की भी खोज की। इन्होंने पटसन के सूक्ष्म रेशों जैसी सूक्ष्म सामग्री से विद्युत तरंगों के ध्रुवण को ग्रहण करने वाले उपकरण बनाने में भी सफलता प्राप्त की। उसकी सहायता से विद्युत् उपकरण रिसीवर तैयार किया। उन्होंने अपने प्रयोगों द्वारा वायु मण्डल में वायरलैस की तरंगों के अस्तित्व को सिद्ध किया। बसु के बेतार का यह आविष्कार सन् 1885 में कोलकाता नगर भवन’ में पुष्टिपूर्ण शोध कार्य मान लिया गया। उन्होंने यह कार्य अपने स्वनिर्मित उपकरणों से विद्युत तरंगों को दो कमरों की दीवार पार करके तीसरे कमरे में पहुँचाकर एक तोप व एक पिस्तौल चलाकर बारूद के ढेर में विस्फोट करके दिखाया। बसु के समय मार्कोनी ने भी अंग्रेजों और यूरोपीय वैज्ञानिकों के सहयोग से लम्बी दूरी तक रेडियो तरंगे भेजने वाला यन्त्र बना लिया था।

इसके बाद जगदीश चन्द्र बसु ने दो वर्ष कड़ी मेहनत करके रिसपॉन्स इन द लिविंग एण्ड नॉन लिविंग’ नामक मोनोग्राफ छपवाया जिसे देखकर आलोचक विज्ञानी हतप्रभ रह गए। सभी देशों के विद्वान् वैज्ञानिकों ने श्री बसु को आदर्श वैज्ञानिक माना। पौधों के क्रिया विज्ञान पर अनेक देशों में शोधकार्य शुरू कर दिए गए। इससे उनकी ख्याति बढ़ने लगी। उन्हें रॉयल सोसाइटी ने अपना सदस्य बना लिया। उनका विवाह सन् 1887 के जनवरी में अबला दास के साथ हुआ। वह प्रसिद्ध वकील दुर्गा मोहनदास की पुत्री थी। वह विवाह के समय मद्रास मेडिकल कॉलेज में चिकित्सा शास्त्र का प्रशिक्षण ले रही थी किन्तु इनकी जीवन संगिनी बनने के लिए उसने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। वैवाहिक जीवन में इस दम्पती को एक तीव्र झटका लगा। उनके प्रथम नवजात शिशु की मृत्यु हो गई। अबला एक सुचरित्रा समाज सेविका एवं परिश्रमी महिला थी।

सन् 1896 में बसु यूरोपीय वैज्ञानिकों के निमन्त्रण पर इंग्लैण्ड गए। उनके शोधपूर्ण भाषण और कार्यों की प्रशंसा करते हुए ‘फ्रेंच अकादमी ऑफ साइंस के अध्यक्ष प्रोफेसर ए. कोर्नू ने कहा- ‘आपको अपनी प्रजाति की परम्परा को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना चाहिए, जो विज्ञान और कला की मिशाल थी। फ्रांस में हम सब आपकी प्रशंसा करते हैं और उत्तरोत्तर उन्नति करते रहने की कामना भी उन्हें भारत के महान् सपूत कहकर सम्मानित किया गया।

10 मई सन् 1901 को लन्दन में रॉयल सोसाइटी ऑफ साइस हाल में बसु ने अपना पेड़-पौधों की संवेदनशीलता का प्रयोग दिखाया। यह प्रयोग देखकर सभी वैज्ञानिक और दर्शक आश्चर्य में डूब गए। वे बसु के शोधपूर्ण विवेचन कार्य की प्रशंसा कर उठे।

इस अवसर पर बसु ने सोसाइटी से कहा- ‘यदि वह लेख से सन्तुष्ट नहीं हैं तो मेरे इस लेख को प्रकाशित न किया जाए, क्योंकि मैं इसमें जरा भी परिवर्तन करने को तैयार नहीं हूँ। बसु के विभिन्न वैज्ञानिक तर्कों को सुनकर भौतिक विज्ञानी सर रॉबर्ट ऑस्टिन ने कहा- ‘मुझे यह जानकर अति खुशी हुई कि धातुओं में भी जीवन होता है, मुझे यह ज्ञान नहीं था।

बोस शोध संस्थान की स्थापना एवं उनकी अन्तिम इच्छा —

30 नवम्बर, 1917 को ‘बोस शोध संस्थान स्थापना के अवसर पर कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने संस्थान पर काव्यगीत प्रस्तुत किया था। इस अवसर पर बसु ने आगन्तुकों से स्वराष्ट्र को विकसित राष्ट्र बनाए जाने की बात पर बल दिया। उन्होंने घोषणा की- ‘हमें पश्चिमी देशों को छोड़कर अपना मूल तथ्य नहीं गँवाना चाहिए। देश के नए आविष्कार ही भविष्य की पूँजी हैं। इसके लिए मैं चाहता हूँ कि समस्त वैज्ञानिकों द्वारा इस संस्थान को सहयोग दिया जाए व इसे विकसित किया जाए, ताकि उन्हें अपने शोधकार्य में नए सम्बल मिलें तथा अभावों को समझकर वे एक-दूसरे की समस्याओं का समाधान कर सकें।

बसु ने यह भी कहा- ‘वैज्ञानिकों का शोध उनका निजी महत्त्व बढ़ाना नहीं, बल्कि मानव को संसाधनों के द्वारा लाभ पहुँचाना होता है।’

डा० जगदीश चन्द्र बसु को डॉक्ट्रेट की अनेक उपाधियाँ मिलीं। उनका 23 नवम्बर सन् 1937 को मधुमेह एवं रक्तचाप की बीमारियों के कारण निधन हो गया। उस समय वे 79 वर्ष के थे। ऐसे महान् वैज्ञानिक पर देश को गर्व है।


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