HBSE Class 12 नैतिक शिक्षा Chapter 9 मदनलाल ढींगरा Explain Solution

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HBSE Class 12 Naitik Siksha Chapter 9 मदनलाल ढींगरा / Madanlal Dhingra Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 12th Book Solution.

मदनलाल ढींगरा Class 12 Naitik Siksha Chapter 9 Explain


मदनलाल ढींगरा का परिवार सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित था। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। खूब कमाना और खूब खर्च करना ढींगरा परिवार का सिद्वान्त था। उनका जीवन स्तर नगर के गिने-चुने अमीरों से भी बेहतर था। मदनलाल ढींगरा के पिता साहिब दित्तामल ने मेडिकल स्कूल लाहौर से 1867 में सब असिस्टेण्ट सर्जन की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। ढींगरा परिवार का मूल स्थान जिला सरगोदा स्थित ‘साहीवाल’ है। यह स्थान पश्चिमी पंजाब की सीमा में आता है। 1850 में ढींगरा परिवार ‘साहीवाल’ छोड़कर अमृतसर आ गया था और फिर वहीं बस गया।

राय साहब दित्तामल के सात बेटे थे और एक बेटी थी। मदनलाल ढींगरा राय साहब दित्तामल के सबसे छोटे से बड़े बेटे थे। 1887 में अमृतसर में जन्मे मदनलाल ढींगरा बचपन से ही बहुत तेज-तर्रार और परिश्रमी थे भारत के गिने चुने चन्द परिवारों में से एक था यह परिवार, जिसने मदनलाल ढींगरा जैसे महान् क्रान्तिकारी को पैदा किया।

मदनलाल ढींगरा की आरम्भिक शिक्षा कहाँ हुई, इसके बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती । मदनलाल ने अपनी पहली आर्ट की परीक्षा म्युनिसिपल कॉलेज अमृतसर से द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की थी और बाद में उन्होंने गवर्नमेन्ट कॉलेज लाहौर में दाखिला लिया। कालेज की पढाई के दौरान मदनलाल ढींगरा का ध्यान भारत में अंग्रेज शासकों की क्रूरता की ओर गया। कालेज में गए उन्हें कुछ ही महीने बीते थे कि पिता के कानों में ये शिकायतें आने लगी कि मदनलाल अंग्रेजों से घृणा करता है और भारत में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध सिर उठाने वाले क्रान्तिकारियों में रुचि ले रहा है।

इसे नियति की विडम्बना कहेंगे या कुछ और कि जिस परिवार का एक-एक सदस्य अंग्रेजों का वफादार था, उसी परिवार में जन्मा मदनलाल अंग्रेजों को उस नजर से देखने को तैयार नहीं था। जिससे घर के अन्य सदस्य देख रहे थे। ढींगरा परिवार पर अंग्रेजों की विशेष कृपा थी। इस परिवार के आधा दर्जन सदस्य ब्रिटिश हुकूमत में भारी प्रतिष्ठा अर्जित कर रहे थे और मोटी रकम कमा रहे थे केवल एक सदस्य मदनलाल ढींगरा को पता नहीं क्यों अपने पिता तथा भाइयों का यह गणित रास नहीं आया।

मदनलाल ने अंग्रेजों को तथा अंग्रेजी शासन को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट हो रहे क्रान्तिकारियों से हाथ मिला लिया और वह उनकी बैठकों में जाने लगा। पिता रायसाहब दित्तामल को जब यह पता लगा कि उनका बेटा मदनलाल बागी क्रान्तिकारियों की संगत में पड़ गया है तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। क्रान्तिकारियों से हाथ मिलाने का मतलब था अंग्रेजों की नजरों में गिर जाना और फिर उनके कोप का भाजन बनना। वे जानते थे कि इस देश में अंग्रेजों से पैर करके कोई चैन से नहीं जी सकता। यह रास्ता तो काँटों से भरा है इस पर जो भी चलेगा, वह बर्बाद हो जाएगा और जिस परिवार से वह जुड़ा है, वह भी नहीं बच पाएगा।

राय साहब दित्तामल ने मदनलाल का नाम कॉलेज से कटवा दिया और उसे बड़े भाई के साथ व्यापार के काम में लगा दिया। एक दिन उनके बड़े भाई मोहनलाल उन्हें मिले, वे चिकित्सा विज्ञान के मर्मज्ञ थे और अपने कार्य से अच्छा पैसा कमा रहे थे। उन्होंने मदनलाल को उदास देखा तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अपने छोटे भाई से पूछा- ‘मदनलाल, लगता है तुम व्यापार के काम से खुश नहीं हो, शायद तुम पढ़ना चाहते थे और अब तुम्हें इस बात का दुःख है कि तुम्हारी पढ़ाई क्यों छूट गई? मदनलाल चुप रहे। उनमें हिम्मत नहीं थी कि जो सच्चाई बड़े भाई उनके मुख से सुनना चाहते हैं, उसे वे कह सकें, लेकिन मोहनलाल ने मदनलाल की चुप्पी का अर्थ समझ लिया और शाम को अकेले में पिता के पास जाकर कहा- “मुझे लगता है कि मदनलाल व्यापार के काम से सन्तुष्ट नहीं है, उसे अपनी पढ़ाई छूट जाने का दुःख है वो पढ़ना चाहता है जब हमारे परिवार में सभी ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है तो मदनलाल को ही पढ़ाई से क्यों रोका जाए?

कुछ देर चुप रहने के बाद पिता बोले- “शायद तुम ठीक कहते हो। मैंने उसकी पढ़ाई बीच में छुडवाकर उसके साथ अन्याय किया है। शायद मुझे यह लगा था कि वो व्यापार में अपने बड़े भाई का हाथ बँटाएगा तो व्यापार की कला सीख जाएगा। हमारे देश में व्यापारियों की बहुत कमी है सारा व्यापार अंग्रेजों के हाथ में है। लेकिन यदि तुम्हें यह लगता है कि मदनलाल की इच्छा पढ़ने की है तो मैं उसे पढ़ने से नहीं रोकूंगा, लेकिन एक बात साफ है कि मैं उसे इस देश में नहीं पढ़ने दूँगा। यहाँ के हालात अब बिगड़ते जा रहे हैं। देश के उत्तरी व दक्षिणी राज्यों में अनेक बागी क्रान्तिकारी पैदा हो गए हैं। यद्यपि पंजाब में उनकी पकड़ इतनी मजबूत नहीं बनी है, फिर भी मुझे डर है कि तुम्हारा छोटा भाई मदनलाल जिसकी राष्ट्रीयता और न्याय में विशेष रुचि है, कहीं किसी बागी के विचार से प्रेरित होकर स्वयं बागी न बन जाए। ऐसा करो, उसे विलायत भेज दो। वह वहीं पढ़े और अंग्रेजी समाज में रहकर अंग्रेजों जैसा विचारवान बने।”

मोहनलाल ने पिता की आज्ञा का पालन किया और मदनलाल का दाखिला ब्रिटेन में करा दिया। इस प्रकार मदनलाल 19 वर्ष की अवस्था में 1906 में ब्रिटेन चले गए और वहाँ के कॉलेज में दाखिला लेकर आगे की पढ़ाई करने लगे। 19 अक्टूबर, 1906 को लन्दन की आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के एक कालेज में मदनलाल को इंजीनियरिंग में दाखिला मिला ।

लन्दन में रहने वाले भारतीय छात्र उन दिनों अपने मनोरंजन के लिए लन्दन के शराबघरों और नाचघरों में जाया करते थे। ऐसे सभी केन्द्रों पर जाते समय सभी भारतीय छात्रों को थोड़ा झिझकना पड़ता था, क्योंकि अंग्रेज युवा उन्हें अपने बराबर का नहीं मानते थे और वे किसी भी क्षण उनका अपमान करते थे। मदनलाल को भी ऐसे अपमान का सामना करना पड़ गया। ये एक वॉलरूम में मनोरंजन के लिए गए थे। वहाँ युवा लड़के-लड़कियाँ नृत्य कर रहे थे। मदनलाल ने किसी अंग्रेज लड़की के साथ नृत्य करने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु उसने मना कर दिया। मदनलाल को यह बात सहन नहीं हुई, उन्होंने अंग्रेज लड़कों से पूछ डाला- आखिर इसके पीछे क्या राज है ? हम भारतीय यहाँ पढ़ते हैं और आपका साथ चाहते हैं, इसमें बुरा क्या है? आप भी तो हमारी तरह ही युवा हैं। एक अंग्रेज लड़के ने झट जवाब दिया- नहीं, तुम हमारी तरह नहीं हो सकते ……… तुम गुलाम देश के नागारिक हो और हमारी तरह गोरे भी नहीं हो, इसलिए तुम हमारे साथ डाँस नहीं कर सकते। तुम लोग यहाँ आते ही क्यों हो? क्या तुम्हारे देश में स्कूल नहीं है ……… ?

इस उत्तर ने मदनलाल के सीने में आग लगा दी। उन्हें ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके अन्दर बारूद भरकर पलीता लगा दिया हो। वालरूम में हुई घटना ने मदनलाल को झकझोर कर रख दिया था। इसके बाद वे कई दिनों तक बुरी तरह बेचैन रहे। फिर उन्हें ध्यान आया कि लन्दन में एक संस्था है, जिसका निर्माण भारतीय मूल के लोगों ने किया है। इस संस्था का नाम है इण्डिया हाउस। इण्डिया हाउस पर केवल भारतीयों का एकाधिकार है। उसमें गोरों का कोई दखल नहीं है, क्यों न वे भी इण्डिया हाउस जाएँ और भारत के लोगों से मिलें ? अगले ही दिन वे इण्डिया हाउस जा पहुँचे। वहाँ उनकी मुलाकात श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई। श्यामजी कृष्ण वर्मा इण्डिया हाउस के संस्थापक थे इण्डिया हाउस लन्दन में आरम्भ किया गया एक हॉस्टल था, जिसमें केवल भारतीय रहते थे।

इण्डिया हाउस के माध्यम से मदनलाल ढींगरा की मुलाकात वीरसावरकर, महादेव वापट, वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय, हरनाम सिंह अरोड़ा, वी.बी.एस. नैय्यर, गोविन्द, अमीन तथा गंडुरंग आदि क्रान्तिकारियों से हुई क्योंकि इनमें से बहुत से छात्र पढ़ाई से कहीं ज्यादा क्रान्ति को महत्त्व देते थे और क्रान्तिकारी गतिविधियों में संलग्न होने के कारण उनकी पढ़ाई तक छूट चुकी थी।

एक दिन सावरकर ने रात के समय इनके साहस की परीक्षा ली। उन्होंने इनसे दोनों हाथ जमीन पर रखने को कहा। जैसे ही इन्होंने अपने हाथ जमीन पर रखे। उन्होंने सूआ चुभो दिया, जो हाथ को छेदकर पार निकल गया और खून की धार बह चली। मदनलाल ने आह तक नहीं की। सावरकर समझ गए थे कि मदनलाल ढींगरा एक दृढ़ संकल्प वाला साहसी युवक है।

1 जुलाई, 1909 नेशलन इण्डियन एसोसिएशन का इम्पीरियल इंस्टीट्यूट में समारोह था। मुख्यतः भारतीय मूल के छात्र, व्यवसायी तथा अन्य लोग एकत्रित थे। कार्यक्रम में भाग लेने के लिए ब्रिटेन की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ यहाँ पहुँची थीं। सर विलियम कर्जन विली अपनी पत्नी लेडी विली के साथ समारोह में सायम् 10:30 बजे पहुँचे। सर विली आज बहुत प्रसन्न थे क्योंकि लम्बी अवधि तक राजनैतिक उथल-पुथल तथा प्रशासनिक उतार-चढ़ावों से दो-चार होने के बाद सर विली अप्रैल के अन्त में अपने वतन पहुँचे थे।

रात के ग्यारह बजे समारोह के समापन की घोषणा हो गई। सर कर्जन विली अपनी पत्नी का हाथ पकड़े हुए परिचित चेहरों से विदा लेते हुए जहाँगीर हाल से बाहर निकलने लगे, उसी समय एक अपरिचित भारतीय युवक मदनलाल ने सामने आकर उन पर पिस्तौल चलाया, फलस्वरूप उसी समय सर कर्जन विली की जीवन लीला समाप्त हो गई। मदनलाल पकड़कर जेल में बन्द कर दिए गए। अदालत में मुकद्दमा चला। श्री मदनलाल ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए अपने बयान में कहा कि मैं यह स्वीकार करता हूँ कि उस दिन मैंने एक अंग्रेज को मार डाला है, उनका यह एक साधारण सा बदला है। यह काम करने से पहले मैंने सिर्फ अपनी अन्तरात्मा की राय ली थी। मुझ जैसे गरीब और मूर्ख पुत्र के पास भारत माता को भेंट करने के लिए अपने रक्त के सिवाय और हो ही क्या सकता है ? इसीलिए मैं अपने रक्त की अंजलि भारत माता के चरणों पर चढ़ा रहा हूँ। भारत को इस समय एक ही शिक्षा की आवश्यकता है, जो है- मरना सीखना। उसे सिखाने का केवल एक ढंग है- स्वयं मरना । ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मैं बार-बार भारत माता की गोद में जन्म लूँ और उसी के उद्धार के लिए प्राण देता रहूँ और यह सिलसिला तब तक चलता रहे जब तक मेरा देश आजाद न हो जाए।” 17 अगस्त 1909 को भारत के इस महान् सपूत को जेल के अहाते में ही चुपचाप फाँसी पर लटका दिया गया। सावरकर आदि इण्डिया हाउस से जुड़े छात्र चाहते थे कि फाँसी के बाद ढींगरा का शव उन्हें दे दिया जाए जिससे वे अपने साथी का हिन्दू रीति से दाह संस्कार कर सकें, परन्तु उनकी यह बात नहीं मानी गई।


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