HBSE Class 8 नैतिक शिक्षा Chapter 15 -स्वावलम्बन Explanation Solution

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स्वावलम्बन Class 8 नैतिक शिक्षा Chapter 15 Explanation


प्रत्येक माँ उस दिन का इन्तजार करती है कि कब उसकी सन्तान चलना शुरू करेगी और पिता उस समय का इन्तजार करता है कि कब उसकी सन्तान अपने पैरों पर खड़ी होगी।

दोनों की आकांक्षा एक ही है, उसकी सन्तान स्वावलम्बी बने, स्वावलम्बन स्व (अपना) अवलम्बन (सहारा) अर्थात् अपना सहारा स्वयं बनना। दूसरों की सहायता पर निर्भर न होकर स्वयं अपनी शक्ति मनोबल व योग्यता के अनुसार अपने कार्य स्वयं करना। स्वावलम्बी शब्द को दो अर्थों में लिया जाता है-

  1. अपने छोटे-बडे दैनिक कार्य स्वयं करना।

  2. बड़े होकर धन बल से सशक्त होकर आत्मनिर्भर होना।

स्वावलम्बन से यह तात्पर्य है कि जो कार्य हम स्वयं कर सकते हैं, उसके लिए दूसरों पर निर्भर न रहें। जिन व्यक्तियों में स्वावलम्बन की भावना व आदत होती है, उनमें आत्मविश्वास भी होता है और ऐसे व्यक्ति अपने परिश्रम के बल पर उन्नति करते हैं। स्वावलम्बन से मनुष्य का चरित्र बल भी बढ़ता है।

विश्व के सभी महान व्यक्तियों ने अपने ही प्रयासों से उन्नति की है। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, लालबहादुर शास्त्री, नेपोलियन बोनापार्ट व महात्मा गाँधी के जीवन स्वावलम्बन के ज्वलन्त उदाहरण हैं। एक दिन संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन अपने जूते पॉलिश कर रहे थे। किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा कि आप स्वयं ही अपने जूते पॉलिश करते हैं? उत्तर में उन्होंने उस व्यक्ति से कहा- ‘अपने कार्य स्वयं करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए।’

बच्चो, एक छोटी-सी घटना ही व्यक्ति के जीवन को बदल देती है।

एक परिवार में रमेश और सुरेश दो भाई थे। रमेश आयु में सुरेश से बड़ा था। एक दिन माँ ने रमेश को चक्की से अनाज पिसवाकर लाने को कहा। घर का यह कार्य दो-तीन वर्षों से रमेश ही कर रहा था। परन्तु इस बार उसे यह कार्य करने में शर्म महसूस होने लगी। कारण यह था कि उसकी मित्रता राज नाम के एक धनवान लड़के से हो गई थी। रमेश को बार-बार यह बात परेशान कर रही थी कि राज ने अगर मुझे साइकिल पर गेहूँ की बोरी ले जाते हुए देख लिया तो…..। इस स्थिति से बचने के लिए उसने अपने छोटे भाई को बहला-फुसलाकर गेहूँ की बोरी लेकर चलने के लिए तैयार किया। सुरेश साइकिल पर गेहूँ की बोरी लेकर आगे-आगे चल रहा था, रमेश हाथ हिलाता ठीक उसके पीछे। जब दोनों चक्की के पास पहुँचे तो रमेश ने देखा कि राज साइकिल पर गेहूँ की बोरी लादे वहाँ पहले से ही खड़ा है। यह देखकर रमेश चौंक गया। उसने राज से पूछा क्यों राज! यह छोटा-सा काम करने के लिए नौकर को भी तो भेज सकते थे। राज ने मुस्कराते हुए कहा-पिताजी कहते हैं कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हमें अपने काम स्वयं करने में शर्म महसूस नहीं करनी चाहिए।

देखो बच्चो ! अपने कार्य स्वयं करने चाहिएँ। मेहनत, ईमानदारी और बुद्धिपूर्वक कार्य करने से सुखपूर्वक जीवन जीया जा सकता है। अतः जीवन में स्वावलम्बी बनने के लिए हमें शुरू से ही पढ़ाई के साथ-साथ ऐसे कौशल सीखने की ओर भी ध्यान देना चाहिए, जो आगे चलकर हमें आत्मनिर्भर बना सकें।

मदन एक धनिक व्यापारी का पुत्र था। जो बड़ा होने पर भी अपने पिता के व्यापार में कोई सहयोग नहीं करता था बल्कि अपने पिता द्वारा कमाए हुए धन का भरपूर आनन्द उठाता था। उसने कभी यह सोचा ही नहीं था कि पिता के न रहने पर धन कहाँ से आएगा। मेरा भविष्य कैसा होगा? मुझे क्या करना चाहिए? इत्यादि। वह मौजमस्ती के सिवा कुछ सोचता ही नहीं था जबकि उसके पिता को उसकी दिन-रात चिन्ता सता रही थी कि वह कौन-सा समय आएगा जब वह अपने पैरों पर खड़ा होगा। क्या यह हमेशा इसी तरह मुझ पर निर्भर रहेगा?

एक दिन पिता ने उसे बुलाया और प्यार से कहा-‘बेटा, तुम भी कुछ मेहनत करके कमाना सीखो।’ मदन के मन में कुछ इच्छा जागृत हुई और कह दिया-ठीक है पिताजी। अगले दिन वह घर से कुछ कमाने की नीयत से निकला। अनुभव न होने के कारण वह पूरे दिन में 20 रुपये मात्र कमा पाया। शाम को जब वह घर लौटा तो धूल-धूसरित मुँह, मैले कपड़े, बदन पर दिन भर की थकान स्पष्ट झलक रही थी। किन्तु मन में बहुत खुशी थी मेहनत से कमाए 20 रुपये के लिए। पिता ने व्यस्तता दिखाते हुए और उसकी ओर न देखते हुए कहा-जाओ, इन्हें कुएँ में फेंक दो? वह बोला-क्यो? मैं इनको बेकार नहीं करना चाहता। यह मेरी मेहनत की कमाई है। पिता ने कहा-बेटा, घर में जिस पैसे को तुम उडाते हो, वह सब इतनी ही मेहनत से कमाया हुआ पैसा है। मदन अन्दर से पानी-पानी हुआ जा रहा था। आज उसे अपनी गलतियों का अहसास हुआ कि मैं इतना बड़ा होकर भी अपने पिता पर निर्भर रहा। वह सोच रहा था कि मैं स्वयं स्वावलम्बी बनकर पिता का सहारा बनूँगा। पिता ने उसका ध्यान तोड़ते हुए कहा- बस बेटा, मैं इसी समय का इन्तजार कर रहा था, तुम्हें कब यह अहसास होगा कि तुम्हें भी आत्मनिर्भर होना चाहिए। अब मुझे विश्वास हो गया है कि तुम स्वयं स्वावलम्बी बनकर मेरे बुढ़ापे का भी सहारा बनोगे। उस दिन से मदन की जिन्दगी बदल गई।

प्यारे बच्चो ! पिता का उद्देश्य मदन का हृदय दुखाना नहीं था अपितु उसको स्वावलम्बी जीवन के प्रति जाग्रत करना था। एक अच्छा आदर्शपूर्ण जीवन जीने हेतु इस आदत व गुण को प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में अपनाना चाहिए।

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