हौसलों की उड़ान Class 9 नैतिक शिक्षा Chapter 10 Explain HBSE Solution

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हौसलों की उड़ान Class 9 Naitik Siksha Chapter 10 Explain


एक पौराणिक प्रसंग के अनुसार महाभारत के युद्ध में आहत हुए भीष्म ने दृढ़ इच्छा-शक्ति के बल पर अपनी मृत्यु को सूर्य के उत्तरायण होने तक टाल दिया था। प्रारम्भ में पढ़ाई से वंचित रहे कालिदास के अनवरत अध्ययन ने उन्हें महाकवि के पद पर अभिषिक्त किया और जन्मान्ध सूरदास ने साहित्य के क्षेत्र में वात्सल्य के चरम को छू लिया। विश्व के इतिहास में ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, जब शारीरिक रूप से अशक्त लोगों ने भी मन को शक्ति के बल पर न केवल अपने लक्ष्य को प्राप्त किया अपितु अपने जीवन को आदर्श रूप में स्थापित भी किया। दृढ़ संकल्प के सामने शारीरिक निःशक्तता भी आड़े नहीं आती। किसी कवि ने • क्या खूब कहा है :

मंजिल उनको ही मिलती है जिनमें जान होती है।
पंखों से कुछ नहीं होता हौसले से उड़ान होती है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए वर्ष 2014 में प्रथम स्थान पर चयनित इरा सिंहल शारीरिक निःशक्तता पर मन की शक्ति की विजय का अप्रतिम उदाहरण है। इरा उन व्यक्तियों लिए जीवन्त प्रेरणास्रोत है, जो मामूली अभावों का रोना रोते हुए अपने पुरुषार्थ को परिस्थितियों के बहाव में बहा देते हैं।

मेरठ के एक शिक्षित परिवार में इरा सिंहल का जन्म हुआ। जन्म के समय वह पूर्ण स्वस्थ व सामान्य बालिका जैसी लगती थी लेकिन कुछ समय बाद उसकी रीढ़ की हड्डी असामान्य रूप से बढ़ने लगी। इस रोग का नाम स्कोलिओसिस है। स्कोलिओसिस के कारण रीढ़ की हड्डी सीधी रहने की बजाय एस आकार की हो जाती है। ऑपरेशन में जान का खतरा था। अतः माता-पिता ने ऑपरेशन कराने का जोखिम नहीं उठाया। यही नहीं, एक और चुनौती पिता राजेन्द्र सिंहल और उसकी बेटी का इन्तजार कर रही थी। वे जिस भी स्कूल में उसका दाखिला कराने जाते, स्कूल प्रबन्धन इरा की शारीरिक दिक्कत की वजह से दाखिला देने में आनाकानी करता ।

सामान्यतः शारीरिक चुनौती से जूझते लोगों के प्रति समाज में सदाशयता कम ही देखने को मिलती है। कारण, व्यावसायिक बुद्धि को प्राप्त असन्तुलित सम्मान ने लोगों की संवेदनाओं को शुष्क कर दिया है। विद्यालय प्रशासन का ऐसा दृष्टिकोण संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का तो उल्लंघन है ही, नैतिकता की घोर अवमानना भी है। प्रतिष्ठालब्ध शिक्षण-संस्थान सूचनाओं के ढेर और तथ्यात्मक ज्ञान- उपलब्धता में ही अपने शिक्षण दायित्व की पूर्णता समझते हैं। समाज उनसे कहीं अधिक की अपेक्षा करता है। समाज का संस्कार करना व कमजोरों को ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में भागीदार बनाना भी उनका दायित्व है। समाज का सुदृढ़ीकरण व उसका सांस्कृतिक नेतृत्व करना शिक्षण-संस्थाओं की दोहरी जिम्मेदारी है। खराब परीक्षा परिणाम आने की सम्भावना मात्र से इरा जैसे बच्चों को प्रवेश देने में बाधाएँ खड़ी कर वे जाने-अनजाने सामाजिक पूर्णता की अवेहलना करते हैं। अस्तु, इरा को बड़ी कठिनाई से स्कूल में प्रवेश मिलता। कुछ ही दिनों में वह अपनी प्रतिभा और मिलनसार स्वभाव द्वारा अपने साथियों और शिक्षकों के हृदय में स्थान बना लेती थी। ज़रूरतमन्द लोगों की सहायता का भाव उसमें बचपन से ही था। उसने आठ वर्ष की आयु में, जिस आयु में बच्चे अपने पैसों को टॉफी और करकुरे खाने में खर्च कर देते हैं, उत्तरकाशी के भूकम्प पीड़ितों के लिए अपने गुल्लक के 91 रुपये भिजवाए थे। उसकी इच्छा थी कि वह डॉक्टर बनकर असहाय लोगों की सेवा करे। लेकिन उसके पिता ने बेटी की शारीरिक परेशानी को देखकर उसे जीव विज्ञान विषय लेने से मना कर दिया। उनका कहना है कि मुझे लगा, इरा मेडिकल की पढ़ाई तो कर लेगी, पर खड़े होकर सर्जरी करने में इरा को दिक्कत होगी। उसको मजबूरी में कम्प्यूटर इंजीनियरिंग में प्रवेश लेना पड़ा। बेमन से रंग की पढ़ाई करते हुए भी वह हर बार अच्छे अंक प्राप्त करती। तकनीकी पढ़ाई ने उसके हृदय की सरसता को छीन लिया हो, ऐसा नहीं था। कॉलेज के दिनों में वह नाटकों में अभिनय करती थी। अभिनय के साथ-साथ उसे कविता लिखने व साहित्य पढ़ने का भी शौक है। उसका मानना है कि अच्छा साहित्य मनुष्य को जीने की कला सिखाता है।

कम्प्यूटर की पढ़ाई के बाद उन्होंने फाइनेंस व मार्केटिंग में एम.बी.ए. किया तथा इस आधार पर एक कम्पनी में नौकरी भी की। नौकरी के दौरान ही इरा का मन सिविल सर्विस में जाने का बना मेहनत व ध्येय के प्रति एकाग्रता से वे लगातार तीन बार सिविल सर्विस की परीक्षा में सफल रहीं लेकिन इस का दुर्भाग्य भी कम हठीला नहीं था। शारीरिक असामान्यता के कारण उन्हें नियुक्ति नहीं दी जा सकी। इरा इस पर भी हार मानने वाली नहीं थी। वे अपने अधिकार के लिए कोर्ट गई। कोर्ट ने उनके पक्ष में फैसला सुनाते हुए सरकार को उन्हें नौकरी देने का आदेश दिया। इस प्रकार उन्हें भारतीय राजस्व सेवा में काम करने का अवसर मिला। लेकिन यह एक पड़ाव था, मंजिल नहीं। उसने चौथी बार सिविल सर्विस की परीक्षा दी और इस बार वह हुआ, जिसकी सामान्य व्यक्ति तो कल्पना भी नहीं कर सकता। चयन सूची में इरा का स्थान सर्वोच्च था। उसकी इस उपलब्धि ने देश को चौंका दिया। उसने सिद्ध कर दिया कि यदि इरादे मज़बूत हों तो कोई मंजिल दूर नहीं। उसकी यह संघर्ष गाथा उन युवक-युवतियों के लिए प्रेरणा-स्रोत बन सकती है, जो छोटी-सी असफलता मिलने पर ही जीवन को निस्सार समझने लगते हैं। हताशा के अन्धकार में डूबकर वे अपनी स्वाभाविक शक्ति का क्षरण कर लेते हैं। इरा कहती हैं, ‘सफलता को जीवन या मरण का विषय नहीं बनाना चाहिए। पास नहीं हुए, तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि जीवन खत्म हो गया। एक काम में सफल नहीं हुए तो दूसरा करेंगे।’

निराशा और मुसीबतें सबके जीवन में आती हैं। यह एक सार्वभौमिक सत्य है। असफलता की अन्धकारमय अनुभूति से सफलता का प्रकाश फूटता है। कठिनाइयों का स्वरूप कैसा है, ध्येय की प्राप्ति में कोई सहयोगी है या नहीं। परिस्थितियों का प्रवाह अनुकूल या प्रतिकूल, इससे कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। प्रभाव पड़ता है तो इस बात से कि इस अन्धकार में प्रकाश ढूँढ़ने की आपकी शक्ति कितनी है। इस प्रकाश का स्रोत कहीं बाहर नहीं अपने अन्दर खोजना पड़ेगा। यही खोज न केवल आपके जीवन को बल्कि, दूसरों के जीवन को भी आलोकित करने का सामर्थ्य पैदा करेगी।


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