(i) कवितावली (ii) लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप Class 12 Hindi सप्रसंग व्याख्या / Vyakhya – आरोह भाग 2 NCERT Solution

NCERT Solution of Class 12 Hindi आरोह भाग 2 (i) कवितावली (ii) लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप सप्रसंग व्याख्या  for Various Board Students such as CBSE, HBSE, Mp Board,  Up Board, RBSE and Some other state Boards. We Provides all Classes पाठ का सार, अभ्यास के प्रश्न उत्तर और महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर , MCQ for score Higher in Exams.

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NCERT Solution of Class 12th Hindi Aroh Bhag 2 /  आरोह भाग 2 (i) कवितावली (ii) लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप / kavitawali, lakhman murcha aur ram ka vilap Kavita ( कविता ) Vyakhya / सप्रसंग व्याख्या Solution.

(i) कवितावली (ii) लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप Class 12 Hindi Chapter 7 सप्रसंग व्याख्या


कविता 8 कवितावली ( गोस्वामी तुलसीदास ) सप्रसंग व्याख्या


1. किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी॥
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है अगि पेटकी॥

शब्दार्थ –  किसबी – मजदूर। कुल – परिवार। बनिक – बनिया। चपल नट – चंचल नट। बेचत – बेचता है। आगि – आग। आगि पेटकी – पेट की आग।

प्रसंग – प्रस्तुत कविता हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक आरोह भाग 2 में संकलित कविता कवितावली से अवतरित है जिसके कवि गोस्वामी तुलसीदास है। इसमें कभी नहीं प्रकृति और अपनी गरीबी की पीड़ा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि ने अपने समय का यथार्थ चित्रण करते हुए कहा है कि समाज में किसान, बनिए, भिखारी, घाट, नौकर चाकर, चोर आदि सभी की स्थिति अत्यंत दयनीय है। समाज का उच्च और निम्न वर्ग धर्म-अधर्म का प्रत्येक कार्य करता है। यहां तक कि लोग अपने पेट की भूख मिटाने के लिए अपने पुत्र और पुत्री को भी बेचने से नहीं झिझकते हैं। तुलसीदास जी के कहते है कि जो पेट की भूख होती है वह समुद्र की आग से कहीं बढ़कर होती है। अर्थात वह राम को याद करते हुए कहते हैं कि केवल मात्र राम ही भूख को शांत कर सकते हैं।

काव्य-सौंदर्य –

  • समाज का यथार्थ चित्रण किया गया है।
  • अभिधात्मक शैली का प्रयोग है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।

2. खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहें एक एकन सों कहाँ जाई, का करी ?
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सर्वे पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दुनी, दीनबंधु
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥

शब्दार्थ – बनिक – बनिया। बनिज – ब्याज। चाकर – नौकर। पुरान – पुराण। साँकरे – संकट के समय। रावरें – सलोने। दुनी – दुनिया।

प्रसंग – प्रस्तुत कविता हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक आरोह भाग 2 में संकलित कविता कवितावली से अवतरित है जिसके कवि गोस्वामी तुलसीदास है। इसमें कभी नहीं प्रकृति और अपनी गरीबी की पीड़ा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कमीनी समाज में फैली बुराई जैसे गरीबी और भुखमरी का सुंदर चित्रण किया है। कभी कहता है कि भिखारी के पास भीख नहीं आ रही है क्योंकि किसी के पास इतना पैसा नहीं है कि वह भिखारी को पैसे दे सके। किसान के पास उचित साधन नहीं है कि वह खेती कर सकें। व्यापारी के पास व्यापार नहीं है जिससे वह अपना जीवन यापन कर सके। नौकरी करने के लिए किसी को कोई आजीविका का साधन नहीं मिल पा रहा है। सभी तरफ मायूसी का माहौल है‌ लोग दुखी हैं। लोग दुखी होकर एक दूसरे से सवाल पूछ रहे हैं कि अब हम क्या करें। कैसे अपना जीवन यापन करें। इस स्थिति में तुलसीदास जी प्रभु राम को याद करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! अब आप ही इस गरीबी से निवारण दिलवा सकते हैं। गरीबी का साम्राज्य फैलता जा रहा है। रावण की तरह है जिस प्रकार पुराणों में बताया गया है कि श्री राम आते हैं और सभी को दुख से निवारण दिलवाते हैं। इसी प्रकार राम जी आएंगे और हम सबके गरीबी मिटा देंगे।

काव्य-सौंदर्य –

  • कवित्त छंद का प्रयोग है।
  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।
  • समकालीन समाज की गरीबी और दरिद्रता का चित्रण हुआ है।

3. धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोळ।
काहूकी बेटीसों बेटा न व्याहब, काहूकी जाति बिगार ना सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगी के खैबो, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोउ।

शब्दार्थ – धूत – धूर्त। कहौ – कहो। अवधूत – साधु। रजपूत – राजपूत। जोलाहा – जुलाहा। काहूकी – किसी की। गुलामु – गुलाम। रुचै – रूचि। खैबो – खाता हूं। लैबोको – लेना। दैबको – देना ।

प्रसंग – प्रस्तुत कविता हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक आरोह भाग 2 में संकलित कविता कवितावली से अवतरित है जिसके कवि गोस्वामी तुलसीदास है। इसमें कभी नहीं प्रकृति और अपनी गरीबी की पीड़ा का चित्रण किया है।

व्याख्या – तुलसीदास जी ने दुनिया को अपने बारे में कहा है कि उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं है। चाहे कोई उसे धूर्त कहे या साधु, राजपूत कहे या जुलाहा, छोटा कहे या बड़ा उन्हें हमसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें किसी की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं करनी थी जिससे किसी की जाति में बिगाड़ उत्पन्न होता हो। वे तो केवल प्रभु श्री राम के भगत हैं। उन्हें जो कोई कहना चाहता है वह कहता रहे। वह मांग कर खा लेते हैं। मस्जिद में जाकर सो जाते हैं और अपनी ही धुन में मस्त रहते हैं। उन्हें दुनिया से न तो कुछ लेना है और न ही देना है। तुलसीदास ने संभवत ऐसा इसीलिए कहा होगा कि उस समय के लोग उन्हें उनके विचारों के कारण बुरा भला कहते होंगे या उनसे व्यवहार नहीं करना चाहते होंगे।

काव्य-सौंदर्य –

  • कवि ने समाज में फैली जातिवाद तथा धर्म का खंडन किया है।
  • ब्रज भाषा सरल और सहज है।
  • भीम योजना सार्थक है।

कविता 8 लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप ( गोस्वामी तुलसीदास ) सप्रसंग व्याख्या


1. तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउ नाथ तुरंत।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत॥
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।

शब्दार्थ – तव – तुम्हारा। प्रताप – बल। उर – हृदय। राखि – रखकर। जैहउ – जाऊंगा। अस – ऐसा। आयसु – आज्ञा। हनुमंत – हनुमान। अपार – असीम। महुँ – मैं। सराहत – बड़ाई कर रही हैं। पुनि पुनि – बार-बार।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – प्रस्तुत दोहे में भाव यह है कि हनुमान जी भरत जी से कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपका ध्यान अपने हृदय में रखकर जल्द से जल्द श्री राम जी के पास पहुंच जाऊंगा। यह बात कह कर हनुमान जी ने भरत जी के पैर स्पर्श किए और उनसे प्रस्थान करने की आज्ञा मांगी। हनुमान जी वहां से चल पड़े वह मन ही मन भरत जी की भुजाओं की शक्ति, शील स्वभाव और श्री राम के प्रति प्रेम आदि गुणों की सराहना करते हैं और सब विचार करते हुए हनुमान जी चले जा रहे हैं कि संजीवनी बूटी लेकर श्री राम के पास जाना चाहते हैं।

काव्य-सौंदर्य –

  • अवधी भाषा का प्रयोग है।
  • भावपूर्ण शैली की योजना है।

2. उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ॥
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयठ। राम उठाइ अनुज उर लायउ ।।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।

शब्दार्थ – उहाँ – वहां। लछिमनहि – लक्ष्मण को। निहारी – देखना। बोले – बोलते हैं। मनुज – मनुष्य। अनुसारी – के अनुसार। अर्ध राति – आधी रात। गइ – बीत गई। कपि – वानर / हनुमान। नहिं – नहीं। आयठ – आए। उठाइ – उठाकर। अनुज – छोटे भाई को। उर – हृदय। लायउ – लगाते हैं। मृदुल – कोमल। सुभाऊ – स्वभाव। मम – मेरा। हित – भला। तजेहु – छोड़ देना। सहेहु – सहन किया।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – 

श्री राम जी मूर्छित लक्ष्मण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे भाई! तुम महान हो। तुमने प्रत्येक स्थिति में मेरा साथ दिया है। राम जी हनुमान के द्वारा संजीवनी बूटी लाने का इंतजार कर रहे हैं और कहते हैं कि आधी रात बीत चुकी है लेकिन हनुमान अभी तक नहीं आया है। राम व्याकुल होकर लक्ष्मण को अपने हृदय से लगा लेते हैं। रामजी एक साधारण व्यक्ति की तरह विलाप करते हुए कहते हैं कि तुम मेरे लिए अयोध्या के ऐसो-आराम छोड़कर जंगलों में मेरे साथ चल दिए। तुमने मेरी भलाई के लिए अपने माता-पिता तक को त्याग दिया है। तुमने मेरे लिए जंगलों की भयानक सर्दी, गर्मी, आंधी और तूफान को भी सहन किया है।

काव्य-सौंदर्य –

  • चौपाई छंद का प्रयोग है।
  • श्रीराम के बिल आपका करुण चित्रण है।

3. सो अनुराग कहां अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जी जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू।।
सुत वित नारि भवन परिवारा होहिं जाहिं जग बारहिं बारा ।।
अस बिचारि। जियें जागहु ताता। मिलइ जगत सहोदर भ्राता।।

शब्दार्थ – उठहु – उठो। सुनि – सुनकर। मम – मेरा। जनतेउँ – जानता। बंधु – भाई। बिछोहू – बिछड़ना। बचन – वचन। मनतेउँ – मानता। नहिं – नहीं। ओहू – आता। सुत – पुत्र। वित – धन। अस – ऐसा। बिचारि – विचार।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

 व्याख्या –  कवि तुलसीदास जी ने श्री राम जी के हृदय की व्याकुल अवस्था का मार्मिक चित्रण करते हुए कहा कि राम जी अत्यंत दुखी हो जाते हैं। वह नहीं जानते थे कि लक्ष्मण के प्राण संकट में पड़ सकते हैं। यदि वह जानते तो पिता के वचनों को कभी नहीं मानते। वह कहते हैं कि संसार में पुत्र, धन, नारी, भवन और परिवार बार-बार आते जाते रहते हैं किंतु संसार में पुन: भाई नहीं मिलता है।

काव्य-सौंदर्य –

  • श्री राम जी के हृदय की व्याकुलता का चित्रण है।
  • चौपाई छंद का प्रयोग है।
  • अवधी भाषा है।

4. जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना ।।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जी जड़ दैव जिआवै मौही।।
जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि विसेष छति नाहीं॥

शब्दार्थ – जथा – जैसे। पंख बिनु – पंख के बिना। खग – पक्षी। अति – बहुत। दीना – दीन होता है। मनि – मणि। बिनु – के बिना। फनि – सांप। जैहउँ – जाऊंगा। कवन – कैसा। मुहुँ – मुख। बरु – चाहे। सहतेउँ – सहन करना पड़ेगा।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में राम जी अपने भाई लक्ष्मण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे भाई! तुम्हारे बिना राम को अपना जीवन ठीक वैसे ही लगता है जैसे पंखों के बिना पक्षी बहुत दीन होते हैं और मणि के बिना सांप बिल्कुल हीन होते हैं। जब मैं अयोध्या में वापस जाऊंगा और लक्ष्मण मेरे साथ नहीं होगा तो लोग मुझसे सवाल करेंगे कि लक्ष्मण कहां है। तब मैं लोगों को क्या जवाब दूंगा। क्या मैंने अपनी पत्नी के लिए अपने भाई के प्राण न्योछावर कर दिए हैं यदि ऐसा होता भी है तो मेरे लिए सीता को खोना इतनी बड़ी हानि नहीं है। लेकिन मैं अपने प्यारे भाई को नहीं खो सकता।

काव्य-सौंदर्य –

  • कवि ने राम की मनोव्यथा को अभिव्यक्त किया है।
  • अवधी भाषा है।
  • करुण रस का सुंदर चित्रण है।

5. अब अपलोकु सोकु सुत तोरा सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।।
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ।।
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब विधि सुखद परम हित जानी।।
उतरु काह देहउँ तेहि जाइ। उठि किन मोहि सिखाबहु भाई॥

शब्दार्थ – अपलोकु – अपयश। सुत – बेटा। तोरा – तुम्हारा। तात – भाई। सौंपेसि – सौंपा था। मोहि – मुझे। उतरु – जवाब। काह – क्या। देहउँ – दूंगा। उठि – उठकर। मोहि – मुझे। सिखाबहु – सिखाओ।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – तुलसीदास राम के माध्यम से लक्ष्मण को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि मैं तुम्हारी मृत्यु की पीड़ा किसी तरीके से भी सहन कर लूंगा लेकिन मैं तुम्हारी मां सुमित्रा को क्या जवाब दूंगा। जब उनको पता चलेगा कि उनका एकमात्र पुत्र अब जीवित नहीं है। राम इसी असमंजस में है कि अब मां सुमित्रा लक्ष्मण के बिना कैसे जीवित रहेगी। राम फिर से कहते हैं कि अयोध्या से चलते वक्त सुमित्रा मां ने तुम्हारा हाथ मेरे हाथों में बड़े प्रेम से सौंपा था। मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगा। हर समस्या से तुम्हें बचा लूंगा। किंतु अब मैं मां के प्रश्न का क्या जवाब दूंगा जब वह पूछेगी कि मेरा लक्ष्मण कहां है। अब तुम ही उठकर मुझे यह बता दो।

काव्य-सौंदर्य –

  • राम जी की व्याकुलता का चित्रण किया है।
  • करुणा रस है।
  • अवधी भाषा है।

6. बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन ॥
उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥

शब्दार्थ – बहु – अनेक। बिधि – प्रकार। सोचत – सोचकर। बिमोचन – दबा लेना। सलिल – जल। अखंड – जो खंडित ना हो।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि का भाव यह है कि श्री राम जी ने सोच विचार कर अपनी पीड़ा को दबा लिया किंतु उनकी कोमल आंखों में से आंसू बहने लगे। राम जी दुखी होकर तेज तेज रोने लगे। उन्होंने ऐसा करके मानव जीवन पर दया दिखाई है।

काव्य-सौंदर्य –

  • अभिधात्मक शैली है।
  • चौपाई छंद है।

सोरठा


7. प्रभु प्रलाप सुनि कान विकल भए वानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मह वीर रस।

शब्दार्थ – प्रलाप – विलाप। सुनि – सुनकर। विकल – परेशान। भए – हो गए। वानर – बंदर। निकर – समूह। आइ गयउ – आ गया। जिमि – जैसे।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – लक्ष्मण जी मूर्छित अवस्था देखकर राम जी का विलाप धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा था किंतु यह देखकर वानरों के समूह भी व्याकुल हो गए। शोक का वातावरण लगने लगा। तभी हनुमान जी संजीवनी बूटी लेकर आ जाते हैं। भाव यह है कि पल भर पहले शोक का वातावरण हनुमान जी के आगमन से प्रसन्नता से भर जाता है। जैसे करुण रस में वीर रस का प्रयोग हो गया है।

काव्य-सौंदर्य –

  • कवि ने मन में उत्पन्न भावों को पल भर में बदलते हुए प्रकट करने की कुशलता दिखाई है।
  • सोरठा छंद है।
  • अवधी भाषा है।

8. हरषि राम भेंटेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ॥
तुरत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥
हृदय लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुंचावा। जेहि विधि तबहिं ताहि लड़ आवा॥

शब्दार्थ – हरषि – खुश होकर। भेंटेउ – मिलते हैं। कृतग्य – कृतज्ञता। बैद – वैद्य। उठि बैठे – उठ कर बैठ गए। लछिमन – लक्ष्मण। हृदय लाइ – हृदय से लगा लिया। भ्राता – भाई। सकल – समस्त। कपि – वानर।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या –  कवि का कथन है कि हनुमान जी के संजीवनी बूटी ले आने के पश्चात राम जी ने हनुमान जी से मेल-मिलाप किया। वह बूटी लक्ष्मण को दी गई तथा वैद्य ने उनका उपचार किया। जब लक्ष्मण मूर्छित अवस्था से बाहर आए तो सभी खुश हो गए। वानर सेना खुशी से कूदने लगी और बाद में हनुमान जी वैद्य को उनके घर वापस छोड़ कर आ गए।

काव्य-सौंदर्य –

  • लक्ष्मण के जीवित होने पर खुशी का माहौल है।
  • प्रसाद गुण है।
  • चौपाई छंद है।
  • अवधी भाषा है।

9. यह वृतांत दसानन सुनेऊ। अति विषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
व्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। विविध जतन करि ताहि जगावा ।।
जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुंभकरन बूझमा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥

शब्दार्थ – दसानन – रावण। सुनेऊ – सुना। अति विषाद – बहुत दु:ख। पहिं – पास। विविध – अनेक। जतन – प्रयत्न। करि – करके। ताहि – उसे। जगावा – जगाया। मानहुँ – मानो। कालु – काल का। देह – शरीर।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि लक्ष्मण के मूर्छित अवस्था से सचेत होने पर सभी तरफ खुशी का वातावरण हो गया। यह बात चारों तरफ फैल गई। जब यह बहुत लंकापति रावण के पास पहुंची तो वह बहुत अधिक दु:खी हुआ और वह अपने भाई कुंभकरण को जगाने का प्रयास करने लगा। कई तरह के प्रयास करने के पश्चात भी कुंभकरण अपनी नींद से नहीं जागा। मानो उसने यमराज के शरीर को धारण कर लिया हो। जब वह नींद से जागा तब उसने रावण को अत्यंत दुखी देखकर उससे सवाल किया कि तुम इतने व्याकुल क्यों हो।

काव्य-सौंदर्य –

  • कवि ने रावण की उदासीनता का सजीव चित्रण किया है।
  • बिंब योजना है।
  • चौपाई छंद है।
  • अवधी भाषा है।

10. कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे।।
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥

शब्दार्थ – तेहिं – उसे। जेहि – जिस। हरि – हरण। जोधा – योद्धा। संघारे – मारे गए। भट – योद्धा। महोदर – महान पेट वाला। बीरा – वीर।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कभी कहता है कि रावण अपने भाई कुंभकरण को अपनी व्यथा सुनाता है कि किस प्रकार राम की सेना ने उनके सभी सैनिकों को मार दिया है हमारे बड़े बड़े योद्धाओं को राम की सेना से ही मुंह की खानी पड़ी है सेना में कोई भी अब जिंदा नहीं बचा है जो उसका सामना कर सके आप ही अब भाई कुंभकरण हमारी उम्मीद है।

काव्य-सौंदर्य –

  • वीर रस विद्यमान है।
  • चौपाई छंद है।
  • अवधी भाषा है।

दोहा


11. सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥

शब्दार्थ – सुनि – सुनकर। दसकंधर – रावण। बिलखान – बिलखने लगा। जगदंबा – जगत जननी मां। हरि – हरण करके। आनि – आए हैं। सठ – दुष्ट। चाहत – चाहते हैं।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संकलित कविता ‘लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप’ से ली गई है इसके कवि तुलसीदास जी हैं। इसमें कवि ने लक्ष्मण मूर्छा के समय श्री राम की दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि का कथन है कि रावण के सभी विचार तथा उनकी बातें सुनकर कुंभकरण को प्रतीत होने लगा कि उन्होंने घनघर पाप किया है यह मूर्ख तो साक्षात जगत जननी मां अंबा का हरण करके आया है। कवि का भाग है कि अब दुष्ट रावण को उसके विनाश से कोई भी नहीं बचा सकता है।

काव्य-सौंदर्य –

  • कुंभकरण की व्याकुलता का बखान किया गया है।
  • दोहा छंद का प्रयोग है।
  • अवधी भाषा है।

 

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