प्राचीन भारत में शिक्षा, साहित्य एवं कला Class 7 इतिहास Chapter 5 Notes – हमारा भारत II HBSE Solution

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प्राचीन भारत में शिक्षा, साहित्य एवं कला Class 7 इतिहास Chapter 5 Notes


विश्व का सबसे प्राचीनतम ग्रंथ वेद हैं। वेदों के आधार पर दी जाने वाली शिक्षा को वैदिक शिक्षा कहा जाता है। प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में मुख्यतः वेद, उपवेद, उपनिषद, निरुक्त, वेदांगों द्वारा विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती थी। इस शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थियों को गुरुओं के घर रहकर शिक्षा लेनी होती थी। बाद में गुरुकुलों का निर्माण हुआ और विद्यार्थी जंगलों में गुरुओं के आश्रम में बैठकर शिक्षा ग्रहण करने लगे। तीन दिन की परीक्षा के बाद विद्यार्थी का ‘उपनयन संस्कार’ होता था। सभी विद्यार्थियों को समान रूप से शिक्षा दी जाती थी।

प्राचीन शिक्षा प्रारूप : शिक्षा में कठोर अनुशासन होता था। पाठों के उच्चारण पर बल दिया जाता था। वैदिक मंत्रों का जाप शुद्ध उच्चारण से किया जाता था। स्वाध्याय व प्रवचन – वैदिक शिक्षा के मूल अंग थे। शिक्षा विद्यार्थी को आंतरिक व बाहरी रूप से मजबूत बनाती थी । विद्यार्थी के मन की चंचलता को वश में करना, चित्तवृत्तियों का शोधन, राष्ट्र के प्रति प्रेम, परहित चिंतन, माता-पिता और गुरुजनों का सम्मान करना ही इस शिक्षा का मूल उद्देश्य था । प्राचीन शिक्षा ‘त्याग मूलक’ संस्कृति को पोषित करती थी। शिक्षा में मोक्ष-द्वार के लिए यज्ञ, अध्ययन और दान को मुख्य माना गया। जीवन व्यवस्था को ब्रह्मचर्य, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ तथा संन्यास के आधार पर बांटा गया था । वैदिक शिक्षा में लोक और परलोक, जीवन की समस्याएं, आत्मा परमात्मा का ज्ञान, देशाटन, चरित्र-निर्माण, दूसरों की भावनाओं का आदर आदि गूढ़ विषयों के मार्ग को जाना जाता था। विद्यार्थी के व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास, व्यापक दृष्टिकोण एवं सकारात्मक पहलुओं पर जोर दिया जाता था। विद्यार्थी गुरुओं के सान्निध्य में अंतेवासी (नजदीक) होकर शिक्षा ग्रहण करता था एवं व्यवसायगत शिक्षा का प्रचलन भी था।

प्राचीन शिक्षण पद्धति की विशेषताएं : प्राचीन काल में अभ्यास की प्रक्रिया में आचार्य का विशिष्ट स्थान होता था। आचार्य को ‘देवत्व’ की उपाधि प्राप्त थी। गुरु शिष्य में व्यक्तिगत संबंध होता था। शिष्य गुरु के कुल का सदस्य बनकर रहता था। शिक्षण मौखिक था। पुस्तकों की सहायता सदा नहीं ली जाती थी।  अवकाश मुख्य रूप से प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अमावस्या को निर्धारित किए गए थे। आकस्मिक घटनाओं जैसे उपद्रव, आक्रमण, लूटमार, दुर्घटना, दैवी आपत्ति पर भी अवकाश होता था।

वेदाध्ययन का तात्पर्य केवल मंत्रों को याद करना ही नहीं बल्कि उनके अर्थों को समझना भी था। अनुशासन कठोर था, संवेगों व इच्छाओं पर संयम रखा जाता था । अध्ययन के लिए कोई शुल्क नहीं होता था। वैदिक संस्कृति की रक्षा करना व उसको बढ़ाने के लिए विशेष प्रयास होता था। विद्यार्थी के नैतिक उत्थान के लिए आध्यात्मिक वातावरण तैयार किया जाता था, जैसे यज्ञ आदि करना । विद्यार्थी के मन, वचन एवं कर्म की शुद्धता पर बल दिया जाता था। शिक्षा की समाप्ति पर समावर्तन संस्कार किया जाता था।

प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा : वेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वैदिक काल में स्त्रियों की शिक्षा की भी अच्छी व्यवस्था थी। उनका भी उपनयन होता था। वे भी उच्च शिक्षा प्राप्त करती थीं। उच्च शिक्षा के कारण ही ऋग्वेद में स्त्री को ब्रह्मा कहा गया है। ज्ञान प्राप्ति के बाद (कन्याओं को) काव्य कला, शस्त्र विद्या, ललित कलाओं, संगीत, नृत्य, अभिनय आदि की शिक्षा देने की भी व्यवस्था थी । नृत्य, गायन व नृत्य कला में पारंगत स्त्री को ‘विशारद’ कहा जाता था। उपनिषदों में आदर्श नारियों का वर्णन भी खूब आता है। मैत्रेयी (याज्ञवल्क्य ऋषि की पत्नी), भारती (मंडन मिश्र की पत्नी), गार्गी आदि । लेकिन वैदिक काल के बाद स्त्री शिक्षा में कमी आई।

सैन्य शिक्षा : अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र रक्षा के लिए सैन्य शिक्षा दी जानी अनिवार्य है। सामान्य रूप से क्षत्रियों को ही सैन्य शिक्षा दी जाती थी। राष्ट्र की रक्षा का उत्तरदायित्व उन्हीं का होता था।

प्राचीन काल में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र

नालंदा विश्वविद्यालय : यह पटना के राजगृह नामक जिले में स्थित था। इस विश्वविद्यालय की स्थापना कुमारगुप्त ने की थी। ह्वेनसांग ने भी दो वर्ष तक यहां शिक्षा ग्रहण की थी।

  • यहां दस हजार विद्यार्थी तथा 1510 शिक्षक कार्यरत थे।
  • यह आवासीय विश्वविद्यालय था ।
  • इसमें केवल भारत से ही नहीं बल्कि चीन, भूटान, नेपाल, जापान, श्रीलंका, तिब्बत आदि से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
  • नालंदा विश्वविद्यालय में भाषा, व्याकरण, राजनीति शास्त्र, धर्मशास्त्र, विज्ञान, गणित, दर्शन आदि विषय पढ़ाए जाते थे। अतः शिक्षण केंद्रों के प्रति राजा हर्षवर्धन हमेशा सचेत रहते थे।

तक्षशिला विश्वविद्यालय : यह भारत का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय है जो वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी के निकट जोलिया तथा पीपला गांव के पास स्थित है। इस स्थान का विवरण अनेक प्राचीन ग्रंथों महाभारत, रामायण आदि में भी मिलता है परंतु इसे शिक्षा के केंद्र के रूप में सातवीं शताब्दी के पूर्व में स्थान मिला। यह राजगृह, बनारस और उज्जैन जैसे दूर-दूर के विद्यार्थियों को आकर्षित करता था। बाद में शक, हूण आक्रमणों के कारण यह विश्वविद्यालय समाप्त हो गया परंतु इसके अवशेष दर्शाते हैं कि यह उच्च श्रेणी का विश्वविद्यालय तथा संस्कृति का केंद्र था। यहां धर्म से संबंधित साहित्य, अर्थशास्त्र तथा राजनीति शास्त्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए थे। महात्मा बुद्ध का इलाज करने वाले जीवक नामक चिकित्सक ने सात वर्ष तक यही शिक्षा अर्जित की थी। यहां वेद, वेदांत, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष शास्त्र चिकित्सा शिक्षा और कृषि की शिक्षा दी जाती थी। यहां अध्ययन करने वाले व्यक्तियों में मुख्यत: पाणिनी, चाणक्य, जीवक आदि शामिल है इसमें प्रवेश के लिए प्रवेश परीक्षा होती थी।

वल्लभी विश्वविद्यालय : यह विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय की तरह ही था जो गुजरात के काठियावाड़ में स्थित था। यह वर्तमान भावनगर जिले में स्थित है। गुजरात में मैत्रक वंश का राज्य पांचवीं से आठवीं शताब्दी तक रहा। इसी वंश के सेनापति भट्टारक ने 470 ई. में इस विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग ने भी इस शिक्षा केंद्र का विस्तार से वर्णन किया है। इत्सिंग यहां तीन वर्ष तक रहा भी था । ह्वेनसांग के अनुसार यह विश्वविद्यालय नालंदा के समान ही प्रसिद्ध था । वल्लभी भी दूर-दूर से विद्वानों को आकर्षित करता था और यहां पढ़े हुए व्यक्ति सारे देश में सम्मान से देखे जाते थे। इस विश्वविद्यालय में अनेक विषयों का अध्ययन होत था विशेषतः कानून, अर्थशास्त्र, गणित और साहित्य। इसमें अनेक विहारों का निर्माण भी करवाया था। इस विश्वविद्यालय के पास ही मैत्रेयों की राजधानी और बंदरगाह भी थी। यह 775 ई. तक चलता रहा। इसी समय अरबों के आक्रमण आरंभ हो गए और इनका पतन भी आरंभ हो गया।

विक्रमशिला विश्वविद्यालय : यह वर्तमान बिहार के भागलपुर जिले में स्थित था। इसकी स्थापना पाल वंश के शासक धर्मपाल ने (780 ई. – 810 ई.) करवाई थी। इस राजा ने अनेक बौद्ध मंदिर और विहारों की स्थापना भी की थी। इनमें अध्ययन-अध्यापन कार्य होता था। इस विश्वविद्यालय ने अपनी विशेषताओं के कारण अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की थी । तिब्बत के लोग बड़ी संख्या में अध्ययन करने के लिए आते थे और वापस जाकर बड़े-बड़े पदों पर नियुक्त होते थे। चीन के राजा के अनुरोध पर यहां से दीपंकर श्रीज्ञान नामक विद्वान को चीन भेजा गया था। विश्वविद्यालय का प्रशासन महास्थविर चलाते थे वही उसके कुलपति हुआ करते थे। अध्यापक सादा जीवन और उच्च विचार वाले व्यक्ति होते थे। यहां व्याकरण, दर्शन, कर्मकांड आदि का विशेष अध्ययन कराया जाता था परंतु बाद में यहां तंत्र-मंत्र का अध्ययन होने लगा जो इस विश्वविद्यालय के पतन का कारण भी बना।

कांचीपुरम विश्वविद्यालय : यह कांचीपुरम में स्थित था। कांची दक्षिण भारत का प्रसिद्ध नगर, शिक्षा केंद्र और पल्लव राजाओं की राजधानी था। यहां हिंदू एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों की शिक्षा विभिन्न केंद्रों में दी जाती थी। धर्मों के अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ तर्कशास्त्र, न्याय शास्त्र और व्याकरण साहित्य की शिक्षा दी जाती थी। न्याय भाष्य के प्रसिद्ध रचयिता वात्स्यायन कांची के आचार्य रहे थे। दिगनाग ने भी इसी स्थान पर विद्या प्राप्त की थी। पांचवीं सदी के कदम्ब वंश के शासक मयूर वर्मा ने यहीं पर अध्ययन किया था। चीनी यात्री ह्वेनसांग कांची में काफी समय रहा था। उसके अनुसार कांची वैष्णव, जैन और बोद्ध संप्रदाय की महायान शाखा का भी केन्द्र था।

प्राचीन भारत में साहित्य

प्राचीन भारतीय साहित्य में हिन्दू, बौद्ध तथा जैन साहित्य की रचना हुई। इसके अतिरिक्त लौकिक साहित्य भी बड़ी मात्रा में पाया गया।

  • हिन्दू साहित्य में चार वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक उपनिषद्, धर्म सूत्र, स्मृतियां, रामायण, महाभारत, 18 पुराण आदि है।
  • बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक, दीपवंश, महावंश, बुद्ध चरित तथा जातक कथाएं प्रमुख हैं।
  • जैन साहित्य में 10 अंग, 10 उपांग, प्रकीर्ण ग्रन्थ एवं पद्म पुराण आदि हैं।
  • लौकिक साहित्य में कौटिल्य, विशाखादत्त, कालिदास, शूद्रक, दण्डी, विष्णु शर्मा, पाणिनि, पतंजलि, भरतमुनि, बाण, हर्ष आदि की रचनाएं हैं।

प्राचीन भारत में कला

कला का अर्थ : मनुष्य की रचना जो उसके जीवन में आनंद प्रदान करती है, वह ‘कला’ कहलाती है। भारतीय कला दर्शन है। ऋग्वेद में भी कला शब्द का वर्णन मिलता है। प्रथम शताब्दी में भरतमुनि ने अपने ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में इसका वर्णन किया है। कला का वास्तविक अर्थ है-प्रेरित करना। सुंदर, मधुर, कोमल और सुख देने वाला शिल्प कौशल, कला कहलाता है।

कला के प्रकार

  • वास्तुकला या स्थापत्य कला : इस कला में भवन निर्माण, दुर्ग, मंदिर तथा स्तूप इत्यादि आते हैं।
  • मूर्तिकला : इसमें पत्थर व धातु से मूर्ति बनाई जाती है।
  • चित्रकला : इसमें भवन की दीवारों, छतों, भोजपत्रों व कागज पर अंकित चित्र आते हैं।
  • मृद भाण्ड कला : इस कला में मिट्टी के बर्तन आते हैं।
  • मुद्रा कला : इसमें सिक्कों पर अंकित मोहरें आती हैं।
  • पाषाण कला : पत्थर से बनाई गई मूर्तियां इसमें आती हैं।
  • धातु कला : इसमें कांस्य, तांबा अथवा पीतल से बनी मूर्तियां आती हैं।
  • दंत कला : इसमें हाथी के दांतों से निर्मित कलाकृतियां आती हैं।
  • मृत्तिका कला : इसमें मिट्टी से बने खिलौने एवं आकृतियां आती हैं।
  • उत्कीर्ण कला या भास्कर्य कला : इस कला में पत्थर, चट्टान, धातु अथवा लकड़ी के फलक पर उकेरकर रूपांकन किया जाता है।
  • ललित कला : ललित कला सौंदर्य प्रधान है। इसमें स्थापत्य, मूर्ति, चित्र, संगीत तथा काव्य कला मानी जाती हैं।

कला अध्ययन के स्रोत : कला को जानने के लिए शिलालेख, ऐतिहासिक ग्रंथ, प्राचीन खंडहर, मोहरें व मुद्राएं, यात्रियों के वृत्तांत व राजाओं द्वारा लिखी गई आत्मकथाएं ही संबल होती हैं। इनके द्वारा ही इस कला की विशेषताओं का पता चलता है।

प्रागैतिहासिक कला : पाषाण युग का मनुष्य प्रकृति द्वारा बनाई गई गुफाओं में रहता था। वह पत्थर, लकड़ी, जानवरों की हड्डियों से हथियार बनाता था।

सरस्वती-सिंधु सभ्यता की कला : इस सभ्यता के लोग काली व लाल पकाई मिट्टी के बर्तन बनाने में माहिर थे। इसके अलावा मातृदेवी की मूर्तियां, वनस्पति, पशु-पक्षियों के चित्र, मछली व बारहसिंगे का चित्र बनाते थे। इस सभ्यता में बड़े-बड़े स्नानघर, अनाज भंडार, मिट्टी के बर्तन खिलौने व मोहरें प्राप्त हुई हैं।

अजन्ता की कला : बौद्ध काल की महान थाती ( धरोहर) अजंता को माना जाता है जो महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं व जातक कथाओं पर आधारित है। अजंता के तीस गुफा मन्दिर पहाड़ियों को काटकर बनाए गए हैं। ये गुफाएं मूर्तिकला, वास्तुकला व चित्रकला का उत्तम संगम है।

बाघ की गुफाएं : भारतीय चित्र परम्परा को अजंता के बाद बाघ की कला में देखा जा सकता है। बाघ की गुफाएं गुप्तकाल के श्रेष्ठतम उदाहरणों में से है। इनकी चित्र शैली का आकार अजंता शैली है। बाघ गुफाओं की कुल संख्या नौ है जो सभी विहार गुफाएं हैं।

गुप्तकालीन कला : गुप्तकाल धार्मिक सहिष्णुता का काल था । वासुदेव सम्प्रदाय से कृष्ण और बलराम की पूजा हुई। कृष्ण को विष्णु का अवतार मानने से विष्णु की प्रतिमाओं का भी अंकन हुआ। इसी काल में बड़े-बड़े मन्दिर बनने शुरू हुए।

जैन गुफाएं : ये गुफाएं ऐलोरा गुफा श्रृंखला के अन्तिम छोर पर एक साथ बनी हैं। इन गुफाओं की दीवारों पर पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थकरों की मूर्तियां बनी हैं। इसके अतिरिक्त बाहुबली गोमतेश्वर का अंकन विशेष लोकप्रिय है।

नटराज की मूर्ति : चिंगलेपुट जिले के कुरम से प्राप्त नटराज की प्रतिमा दक्षिण भारतीय चोलवंश के आरम्भिक काल की है। यह प्रतिमा राजकीय संग्रहालय मद्रास में सुरक्षित है। तांबे से निर्मित नटराज की यह मूर्ति बोस्टन संग्रहालय में सुरक्षित है।

ऐलोरा की गुफाएं : ऐलोरा गुफाएं महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में है। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम के काल में ऐलोरा के विश्व प्रसिद्ध कैलाश मंदिर का निर्माण हुआ था। यह मन्दिर पहाड़ों को काटकर बनाया गया। इन मंदिरों के किनारे-किनारे विशाल हाथियों की पंक्तियां बनी हैं।

स्थापत्य कला या वास्तुकला : यह कला तर्क, बुद्धि, विज्ञान और तकनीक के मिश्रण की वास्तुकला कहलाती थी। इस प्राचीन कला में भवनों की दशा व दिशाओं का बोध होता था। इस कला में बुद्धि का प्रकृति व रुचि के साथ तालमेल बिठाकर भवनों आदि का निर्माण किया जाता था। आधुनिक युग में यह कला अपने उत्कर्ष (चरम) पर है।

माइंड मैप

कला —

कला के प्रकार

  • वास्तुकला या स्थापत्य कला
  • मूर्तिकला
  • चित्रकला
  • मृद भाण्ड कला
  • मुद्रा कला
  • पत्थर कला
  • धातु कला
  • दन्त कला
  • मूर्ति कला
  • उत्कीर्ण कला
  • ललित कला

कला अध्ययन के स्रोत

  • शिलालेख
  • ऐतिहासिक ग्रन्थ
  • प्राचीन खण्डहर
  • मोहरें व मुद्राएं
  • यात्रियों के वृत्तान्त
  • राजाओं की आत्मकथाएं

विभिनन काल खण्ड में कलाएं

  • प्रागैतिहासिक कला
  • सरस्वती-सिंधु सभ्यता की कला
  • अजन्ता की कला
  • गुप्तकालीन कला
  • जैन गुफाएं
  • नटराज की मूर्ति
  • ऐलोरा की गुफाएं
  • स्थापत्य कला

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