राजा दाहिर एवं राजा आनंदपाल Class 7 इतिहास Chapter 6 Notes – हमारा भारत II HBSE Solution

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HBSE Class 7 इतिहास / History in hindi राजा दाहिर एवं राजा आनंदपाल / Raja Dahir avam Raja Aanandpal notes for Haryana Board of chapter 6 in Hamara Bharat II Solution.

राजा दाहिर एवं राजा आनंदपाल Class 7 इतिहास Chapter 6 Notes


सिन्ध का राजा दाहिर

सातवीं शताब्दी में पश्चिमी भारत में सिंध एक महत्वपूर्ण राज्य था । सिन्ध पर साहसी राय द्वितीय के वंशज पिछले छः सौ वर्षों से शासन कर रहे थे। साहसी राय का कोई पुत्र नहीं था। इसलिए साहसी राय के शासन काल में ही चच नामक एक मंत्री को राज्य का अगला राजा घोषित कर दिया गया। साहसी राय की मृत्यु के बाद चच, सिंध का राजा बन गया। राजा साहसी राय की पत्नी सोहन्दी ने दरबारियों की सलाह से उससे विवाह कर लिया। जिससे दाहिर तथा एक अन्य पुत्र का जन्म हुआ।

चच अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा और उसके बाद उसके छोटे भाई चन्द्र ने शासन सम्भाला लेकिन वह केवल सात वर्ष तक ही शासन कर सका। इसके बाद चच के पुत्रों में राजगद्दी के लिए युद्ध छिड़ गया, जिसमें दाहिर को विजय प्राप्त हुई तथा 700 ई. में उसने अपने साम्राज्य को पुन: संगठित किया।

  • दाहिर ने सभी समुदायों को साथ लेकर चलने का संकल्प किया।
  • दाहिर अपना शासन राजधानी आलोर से चलाते थे।
  • देबल सिंध राज्य की प्रमुख बन्दरगाह थी ।
  • दाहिर बचपन से ही वीर और साहसी थे।
  • उनके दो पुत्र जैसिया और घरसिया तथा दो पुत्रियां सूर्य देवी और परमल देवी थीं।

चचनामा : यह सिन्ध के इतिहास से सम्बन्धित एक पुस्तक है। इसका लेखक ‘अली अहमद ‘ है। इसमें चच राजवंश के इतिहास तथा अरबों द्वारा सिंध विजय का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक को ‘फतहनामा-ए-सिन्ध’ भी कहते हैं।

राजा दाहिर का संघर्ष

दाहिर एक शक्तिशाली शासक था। उसके समय में सिन्ध पर अरबों ने कई आक्रमण किये। अरबों का सिन्ध पर आक्रमण का उद्देश्य राज्य विस्तार के साथ-साथ इस्लाम धर्म का प्रचार करना तथा धन लूटना था। प्रारम्भ में उन्होंने सिन्ध की सीमा पर जल और स्थल मार्ग से आक्रमण किए।

अरबों का प्रतिरोध: भारत पर अरबों ने पहला समुद्री आक्रमण 636 ई. में बम्बई के निकट थाना पर किया लेकिन असफल रहे। उसके बाद उन्होंने भड़ोच और देबल पर भी समुद्री आक्रमण किये जिनमे उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। सातवीं शताब्दी में अरबों ने एक के बाद एक सिंध पर कई आक्रमण किये लेकिन सिंध के शासकों के सफलतापूर्वक प्रतिरोध के सामने उन्हें मुंह की खानी पड़ी।

आठवीं सदी के आरम्भ में अरबों ने सिन्ध के मकरान तट पर अधिकार जमा लिया। इसके बाद सिन्ध-विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। इसी समय लंका से आने वाले अरब जहाजों को देबल के समुद्री तट पर डाकुओं द्वारा लूट लिया गया। अरब जहाज की लूट की घटना से ईराक का गवर्नर हज्जाज बड़ा क्रुद्ध हुआ। उसने दाहिर से उन डाकुओं को दण्डित करने और क्षतिपूर्ति की मांग की। दाहिर ने दोनों प्रस्तावों को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता जताई। जिनके कारण हज्जाज ने बारी-बारी से तीन सेनानायकों को दाहिर के विरुद्ध भेजा।

हज्जाज द्वारा भेजे गए प्रथम दो सेनानायकों उबैदुल्लाह और बुडैल को दाहिर ने मार डाला। दाहिर को जब ज्ञात हुआ कि सिन्धु नदी के पश्चिमी तट के प्रशासक अरबों की सहायता के लिए तैयार हो गए हैं तो उसने सुदृढ़ प्रतिरक्षा के लिए अपने पुत्र जैसिया को बड़ी संख्या में सैनिकों के साथ नदी के तट पर भेजा। बड़ी कुशलता से नदी के दूसरे तट की नाकाबंदी की। इसी कारण अरब सिन्ध नदी पार न कर सके।

सिन्ध पर आक्रमण करने वाला तीसरा प्रमुख अरब सेनानायक मोहम्मद-बिन-कासिम था। उसने सिन्ध पर 712 ई. में आक्रमण किया था। कासिम के पास पन्द्रह हज़ार सैनिकों की प्रशिक्षित सेना थी। कासिम को मकरान तट पर वहां के राजा की सहायता मिली।

कासिम ने देबल पर अधिकार कर लिया और निर्दयता से सत्रह वर्ष से अधिक आयु के पुरुषों की हत्या करवा दी। देबल में तीन दिन तक मुस्लिम सैनिक उत्पात मचाते रहे, मंदिर तोड़ कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाई गई। कासिम की सेना ने नगर में लूटमार की तथा भारी संख्या में पुरुषों, स्त्रीयों व बच्चों को दास बना लिया गया। दाहिर ने रावर नामक स्थान पर 50 हज़ार सैनिकों के साथ युद्ध किया। राजा दाहिर ने मोहम्मद-बिन-कासिम का डटकर मुकाबला किया। संघर्ष के प्रारम्भ होने पर कभी एक पक्ष का पलड़ा भारी होता तो कभी दूसरे पक्ष का। दोपहर पश्चात् तो लगने लगा कि दाहिर की सेना की जीत होने वाली है और अरब सेना रणस्थल से भागने लगी। लेकिन मोहम्मद बिन कासिम ने उनका साहस बढ़ाया और वे पुन: जोर-शोर से संघर्ष करने लगे। संघर्ष के दौरान सायंकाल हाथी पर सवार दाहिर को सीने में एक तीर लगा। इस प्रकार 20 जून 712 ई. को दाहिर वीरतापूर्वक लड़ता हुआ मारा गया।

राजा दाहिर सिन्ध का अन्तिम महान शासक था। जिसने मोहम्मद-बिन-कासिम के आक्रमण का 712 ई. में प्रतिरोध किया। राजा दाहिर उच्च आदर्शों का पालन करने वाला वीर शासक था। उसने विपत्ति में फंसे मोहम्मद-बिन-कासिम पर उस समय आक्रमण नहीं किया जब वह सिंधु नदी के किनारे पर शिविर में दो महीने तक अपने बीमार घोड़ों के साथ विश्राम कर रहा था। यह आदर्श, राजा दाहिर के लिए आत्मघाती सिद्ध हुआ।

दाहिर की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा रानीबाई ने किले के भीतर से अपने पन्द्रह हजार सैनिकों के साथ अरबों के विरुद्ध युद्ध का मोर्चा सम्भाला तथा अरब सैनिकों को भारी नुकसान पहुंचाया। लेकिन सीमित साधनों के कारण उसका प्रतिरोध अधिक समय तक नहीं चला। उसने जौहर कर अपने प्राणों का त्याग किया। दाहिर का पुत्र जैसिया अन्तिम समय तक लड़ता रहा । दाहिर की दो पुत्रियों सूर्यदेवी और परमल देवी को मोहम्मद-बिन कासिम ने बन्दी बनाकर खलीफा के पास भिजवा दिया। दोनों ने कूटनिति का प्रयोग करके खलीफा से कासिम को मृत्यु दण्ड दिलवा दिया। सिन्ध क्षेत्र पर अरबवासियों का अधिपत्य हो गया तथा वे यहां की स्थानीय जनता पर निरन्तर अत्याचार करने लगे। ऐसी स्थिति में मुस्लिम शासकों को यहां विद्रोह का सामना करना पड़ा। 715 ई. के बाद सिन्ध में पुनः अरबों के विरुद्ध प्रतिरोध शुरू हो गया। अरबों को शीघ्र ही यह समझ आ गया कि तलवार की निति यहां सफल नहीं होगी इसलिए हज्जाज ने सिन्धवासियों को मंदिरों के पुनर्निर्माण की अनुमति देकर मूर्ति पूजा की अनुमति दी लेकिन इसके लिए उनसे जज़िया कर वसूल किया जाने लगा।

अरबों को सिंध में 636 ई. से 712 ई. तक यह के शासकों के लगातार प्रतिरोध सहना पड़ा तथा उन्हें 75 वर्ष की असफलता के बाद 712 ई. में सिंध पर विजय प्राप्त हुई लेकिन इसके बाद भी भारत की भूमि पर उनका लगातार प्रतिरोध होता रहा तथा वे भारत के अन्य भागों में प्रवेश नहीं कर पाए।

हिन्दूशाही शासक आनन्दपाल

हिन्दुशाही राज्य उत्तर पश्चिम भारत का एक महत्त्वपूर्ण राज्य था। हिन्दू शाही वंश की स्थापना नौंवी सदी के उत्तरार्ध में कल्लर ने की। आनन्दपाल इस राज्य का एक शक्तिशाली शासक था। वह जयपाल का पुत्र था। जयपाल इस वंश का योग्य एवं पराक्रमी शासक था। उसका राज्य सरहिन्द, लगमान, कश्मीर और मुल्तान तक फैला था। उसकी राजधानी वैहिंद थी। इस राज्य की सीमाएं चिनाब नदी से हिंदुकुश पर्वत तक फैली थी। इस राज्य की जानकारी राजतरंगिणी नामक ग्रन्थ से मिलती है।

राजतरंगिणी, कल्हण द्वारा रचित एक संस्कृत ग्रन्थ है। ‘राजतरंगिणी’ का शाब्दिक अर्थ है- राजाओं की नदी, जिसका भावार्थ है- ‘राजाओं का इतिहास या समय-प्रवाह । ‘ यह कविता के रूप में है। इसमें कश्मीर का इतिहास वर्णित है जो महाभारत काल से आरम्भ होता है।

दसवीं सदी के अंत में गज़नी में तुर्कों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी। तुर्क मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी, जिसने इस्लाम धर्म अपना लिया था। गज़नी में एक तुर्क सरदार अल्पतगीन ने 962 ई. में अपना राज्य स्थापित किया। इसी राज्य के शासक भारत के लिए खतरा बन गए थे।

गज़नी राज्य के सीमावर्ती भारतीय क्षेत्र पर उस समय हिंदुशाही शासकों की सत्ता थी। गज़नी के शासक सुबुक्तगीन व हिंदुशाही शासक जयपाल के बीच शत्रुता थी। 986 ई. में विशाल सेना सहित जयपाल ने गज़नी पर आक्रमण कर दिया। लमगान के निकट दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ लेकिन जब युद्ध चल रहा था तो अचानक तूफान आ गया। तूफान ने जयपाल की सेना को विपदा में डाल दिया। विवश होकर जयपाल को तुर्कों से संधि करनी पड़ी। जयपाल इस संधि से बड़ा विचलित रहा।

कुछ समय बाद जयपाल को सूचना मिली कि सुबुक्तगीन उस पर आक्रमण करने वाला है। जयपाल ने विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिए कालिंजर, कन्नौज व अजमेर के शासकों से सहायता मांगी। इन सभी शासकों ने तुर्कों के भारत पर आक्रमण को रोकने के लिए अपनी सेनाएं भेज दी। लमगान नामक स्थान पर युद्ध हुआ लेकिन इस युद्ध में जयपाल की सेना को सफलता नहीं मिली।

सुबुक्तगीन की मृत्यु के बाद 997 ई. में उसका पुत्र महमूद गज़नवी शासक बना। महमूद एक कट्टर मुसलमान शासक था। उसने इस्लाम का प्रसार व भारत की धन संपदा को लूटने के लिए भारत पर 17 बार आक्रमण किए। तुर्क आक्रमणकारी महमूद गजनवी से पराजित होकर जयपाल ने 1001 ई. में अग्नि में कूद कर आत्महत्या कर ली। जयपाल की मृत्यु के बाद आनन्दपाल ने 1001 से 1010 ई. तक शासन किया। आनन्दपाल सिंहासन पर बैठने से पहले कई युद्धों में विजय प्राप्त कर स्वयं को अग्रणी योद्धा साबित कर चुका था। आनन्दपाल ने लाहौर को विजय कर अपने पिता से प्राप्त राज्य का विस्तार किया।

आनन्दपाल ने अपनी राजधानी उदभाण्डपुर (ओहिन्द) से बदलकर झेलम नदी के तट के पास नन्दना नामक नगर को बनाया। 1006 ई. में महमूद गजनवी ने मुल्तान के करामाती धर्म को मानने वाले अब्दुल दाऊद पर हमले की योजना बनाई लेकिन सिन्धु नदी में बाढ़ के कारण उसने आनन्दपाल से रास्ता देने की अनुमति मांगी। लेकिन आनंदपाल ने देश प्रेम का परिचय देते हुए इंकार कर दिया इसपर महमूद ने आनंदपाल पर आक्रमण करके उसे पराजित कर दिया। आनंदपाल पराजित हो गया और कश्मीर की तरफ चला गया।

आनन्दपाल ने अपने राज्य को शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया। आनन्दपाल हमेशा अपने पड़ोसी राज्यों के साथ मैत्री पूर्ण सम्बन्ध रखता था । उसने बाहरी आक्रमणों से देश की रक्षा के लिए अन्य राज्यों का सहयोग लिया। साम्राज्य की समृद्धि के लिए उसने कृषि के साथ-साथ व्यापार पर भी जोर दिया ।। आनन्दपाल एक योग्य एवं कुशल व्यक्तित्व वाला शासक था। उसने अपने साम्राज्य को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया। उसने तुर्कों का सामना करने के लिए ग्वालियर, कन्नौज, कालिंजर व उज्जैन के शासकों के साथ मिलकर एक संघ बनाया। उसने 1008 ई. में महमूद गजनवी के आक्रमण का अटक के पास वैहिंद में कड़ा मुकाबला किया।

वैहिंद की लड़ाई : 1008 ई. तक महमूद भारत का केवल सीमांत ही छू पाया था। सतलुज पार के भारत का साम्राज्य अभी उससे बहुत दूर था। वह भारत में इस्लाम का प्रसार करके मुस्लिम जगत में अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना चाहता था। इसके लिए उसे पहले आनंदपाल से निपटना था। इस उद्देश्य से महमूद ने 1008 ई. में भारत की तरफ प्रस्थान किया। दूसरी ओर आनदपाल भी अपनी सेनाओं के साथ वैहिंद के मैदान में आ डटा। एक मध्यकालीन लेखक फरिश्ता के अनुसार आनंदपाल को इस युद्ध में उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर की सेनाओं की सहायता प्राप्त हुई। आनंदपाल की सहायता के लिए तीस हजार खोखर भी आये थे। आनंदपाल व उसके पुत्र त्रिलोचनपाल के नेतृत्व वाली विशाल सेना देखकर महमूद के होश उड़ गए। दोनों सेनाएं चालीस दिनों तक आमने सामने खड़ी रही। इस दौरान महमूद की सेना ने खाइयां खोदकर बचाव का रास्ता बनाया। दूसरी और आनंदपाल की सेना में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती देख कर महमूद ने आक्रमण का आदेश दिया। बहादुर खोखरों ने पांच हजार तुर्क सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। आनंदपाल की जीत निश्चित लग रही थी। तभी आनंदपाल का हाथी चोट ग्रस्त होकर रणभूमि से भाग निकला। राजा को पलायन करते देख सेना में भगदड़ मच गई तथा आनंदपाल की विजय पराजय में बदल गयी।

महमूद गज़नवी ने तीव्रता से आगे बड़कर नगरकोट की घेराबंदी की तथा तीन दिनों के भयंकर युद्ध के बाद उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। नगरकोट की लूट में इतना धन मिला कि जितने ऊंट मिले उन सब पर उसे लाद लिया और जो धन शेष रहा उसे अधिकारियों में बांट दिया गया। इसमें स्वर्ण सिक्के, सोना, चांदी की बहुमूल्य वस्तुएं, मोती और सुन्दर वस्त्र आदि शामिल थे।

आनन्दपाल उत्तर पश्चिमी भारत का एक महान शासक था। वह अपने साम्राज्य से बहुत लगाव रखता था वह महमूद गज़नवी के आक्रमण व भोली-भाली जनता की निर्दयतापूर्वक की गई हत्याओं एवं लूट खसोट को सहन नहीं कर पाया। एक वर्ष के पश्चात् राजधानी नन्दना में उसकी मृत्यु हो गयी। आनंदपाल के संघर्ष को उसके पुत्र त्रिलोचनपाल तथा पौत्र भीमपाल ने 1026 ई. तक जारी रखा। उनके अतिरिक्त चंदेल राजा विद्याधर ने भी कालिंजर और ग्वालियर में महमूद का कड़ा प्रतिरोध किया।

1025 ई. में महमूद ने सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण किया। मंदिर की रक्षा करते हुए पचास हजार हिन्दू मारे गए। यहां से उसे भारी धनराशि, हीरे-जवाहरात एवं सोना चांदी प्राप्त हुआ। तभी गुजरात के शासक भीम प्रथम की तैयारी को देखते हुए उसने गज़नी जाने के लिए नए रास्ते का विकल्प चुना। मिन्हास-उस- सिराज ने लिखा है कि एक हिन्दू मार्गदर्शक ने महमूद की सेना को रास्ता भटकाकर कच्छ के मरुस्थल की तरफ भेज दिया। इस रास्ते पर महमूद की सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी।

हिंदुशाही राज्य के अतिरिक्त महमूद गजनवी ने भेरा, मुल्तान, नगरकोट पर आक्रमण किए तथा बहुत-सा धन लूटकर गज़नी लौटा। महमूद गजनवी ने हिंदुओं के पवित्र स्थल थानेश्वर पर आक्रमण किया। यहां चक्रस्वामी का एक बड़ा प्रसिद्ध मंदिर था। महमूद गजनवी ने न केवल मंदिर की संपत्ति को लूटा बल्कि चक्रस्वामी की मूर्ति को भी खण्डित कर दिया। इसके मंदिर को गिरा दिया। महमूद गजनवी ने हिंदुओं के एक अन्य पवित्र स्थल मथुरा पर भी आक्रमण किया। यहां भी उसने न केवल धन-संपत्ति लूटी बल्कि भगवान केशव की मूर्ति को भी अपमानित किया। उसे मथुरा के मंदिर से 30 मन सोने, 2 बहुमूल्य रत्न तथा 50 नीलम प्राप्त हुआ। नगरकोट से वह 7 लाख स्वर्ण दिनारें, दौ सौ मन सोना दो हजार मन चांदी तथा 20 मन हीरे लूट कर ले गया था।

जन-धन ही नहीं बल्कि उसके आक्रमणों से भारतीय कला व संस्कृति को भी हानि हुई थी। महमूद ने जिस भी नगर पर आक्रमण किया, उसे नष्ट कर दिया। कला के उत्कृष्ट उदाहरण मन्दिर उसने तोड़ दिए। मथुरा, नगरकोट, कुरुक्षेत्र एवं सोमनाथ के मंदिर जो पिछली कई शताब्दियों से ज्ञान, कला एवं संस्कृति के केन्द्र के रूप में उभरे थे, उन्हें नष्ट करके महमूद गजनवी ने भारत की धन सम्पदा के साथ-साथ भारतीय संस्कृति को भी हानि पहुंचाई। उसने भारी संख्या में पुरुषों, स्त्रियों एवं बच्चों को दास बनाया। महमूद के आक्रमणों ने हिन्दुओं के मन में इस्लाम के प्रति घृणा उत्पन की।

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