सत्रहवीं  शताब्दी में मुगलों का क्षेत्रीय प्रतिरोध Class 8 इतिहास Chapter 5 Notes – हमारा भारत III HBSE Solution

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HBSE Class 8 इतिहास / History in hindi सत्रहवीं  शताब्दी में मुगलों का क्षेत्रीय प्रतिरोध / Sathrvi stabdi me mughlo ka kshetriya partirodh notes for Haryana Board of chapter 5 in Hamara Bharat III Solution.

सत्रहवीं  शताब्दी में मुगलों का क्षेत्रीय प्रतिरोध Class 8 इतिहास Chapter 5 Notes


बाबर ने 1526 ई. में इब्राहिम लोदी को पानीपत के युद्ध में हराकर भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। बाबर के बाद उसके पुत्र हुमायूं को तो जीवनभर प्रतिरोधों का सामना करना पड़ा। अकबर को हेमचन्द्र (हेमू) विक्रमादित्य से पानीपत के मैदान में युद्ध लड़कर भारत की सत्ता प्राप्त हुई। अकबर ने राजपूत शासकों की वीरता, वफादारी व शौर्य को देखते हुए उनके साथ मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किया। यद्यपि उसे भी मेवाड़ के शूरवीर राणा उदय सिंह व महाराणा प्रताप से जीवन भर संघर्ष करना पड़ा लेकिन अन्य राजपूत शासकों ने मुगलों की मित्रता स्वीकार कर ली। जहांगीर व शाहजहां ने भी अपने पूर्वज अकबर की राजपूतों के प्रति मित्रता की नीति को लगभग बनाए रखा। शाहजहां को बंदी बनाकर उसका पुत्र औरंगज़ेब, राजगद्दी पर बैठा। वह धार्मिक रूप से कट्टर सुन्नी मुसलमान था तथा उसके मन में हिन्दुओं के प्रति घृणा व्याप्त थी। उसकी धार्मिक कट्टरता की नीति के फलस्वरूप राजपूत ही नहीं अपितु खेती करने वाली शारीरिक रूप से मजबूत जाट जाति भी मैदान में उसके विरुद्ध आ डटी। यही नहीं राम नाम जपने वाले साधु-संन्यासी वर्ग के लोगों, सतनामी व बैरागियों ने भी मुगलों से टक्कर ली। विश्व के उस समय के विशाल साम्राज्यों में से एक मुगल साम्राज्य की ईंट से ईंट बजा दी। इससे यह साम्राज्य कमज़ोर हुआ तथा बाद में इसका पतन हो गया।

राजपूत –

अरबी और तुर्क आक्रमणकारियों ने आक्रमण करने आरंभ किए तो उत्तर और पश्चिमी भाग में क्षत्रियों ने इनका डटकर विरोध किया। विदेशी आक्रमणकारियों से हो रहे इस घोर संघर्ष के चलते जब क्षत्रियों की संख्या में कमी आने लगी तो विभिन्न जातियों के युवाओं ने मिलकर क्षत्रीय परंपरा को बढ़ाने के लिए स्वंय को समर्पित किया। विभिन्न जातियों से बने इस समूह को राजपूत कहा जाने लगा। इन्हें अग्निकुल अथवा अग्निवंश के नाम से भी जाना जाता है।

जोधपुर के राजा जसवन्त सिंह की मृत्यु के समय उसकी दोनों पत्नियां गर्भवती थी और दोनों ने एक-एक पुत्र को जन्म दिया। एक बच्चे की शीघ्र ही मृत्यु हो गई परिणामस्वरूप अकेला बचा हुआ बच्चा अजीत सिंह राज्य का उत्तराधिकारी बन गया। दिल्ली के राजा औरंगज़ेब ने सत्ता हथियाने के लिए इस बच्चे को रानियों सहित बंधक बना लिया और अपने विश्वासपात्र इंद्र सिंह को मारवाड़ का शासक घोषित कर दिया। इससे क्रुद्ध राजपूतों ने जब औरंगज़ेब से अजीत सिंह को उत्तराधिकारी स्वीकार करने के लिए निवेदन किया तो औरंगज़ेब ने मना कर दिया।

इन राजपूतों में दुर्गादास राठौड़ भी थे जो जसवन्त सिंह के मंत्री के बेटे थे। उन्होंने निर्णय किया कि रानियों और बच्चे को दिल्ली से बचाकर लाएंगे, भले ही इसके लिए जान क्यों न चली जाए। राजपूतों ने मुगलों से दोनों रानियों और भावी राजा अजीत सिंह को मुक्त करवा लिया। मुगल उनका पीछा करते रहे लेकिन दुर्गादास और उनके साथी मुगलों के हाथ नहीं आए। औरंगज़ेब ने अपनी सेना मारवाड़ (जोधपुर) भेज दी ताकि वह लूट-पाट कर सके। वहाँ के बहुत से मंदिरों को तोड़ दिया गया। इन्हीं दिनों औरंगज़ेब ने सारे क्षेत्र पर जजिया कर लगा दिया।

दुर्गादास अपने साथियों सहित मुगलों की सेना पर गुरिल्ला युद्ध विधि के अन्तर्गत हमले करते रहे। औरंगज़ेब ने मारवाड़ और मेवाड़ पर कब्जा करने के लिए अपने बेटे अकबर द्वितीय को नियुक्त किया। लेकिन अकबर द्वितीय ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और मुगल सेना को मेवाड़ से पीछे हटना पड़ा।  दुर्गादास राठौर ने इस विद्रोह में अकबर द्वितीय का साथ दिया। लेकिन अकबर द्वितीय का विद्रोह असफल रहा और वह दुर्गादास के साथ दक्षिण चला गया। उसके बच्चे दुर्गादास के संरक्षण में थे जिन्हें औरंगज़ेब लेना चाहता था। इस विवशता के कारण उसने दुर्गादास से समझौता कर लिया। अब तक अजीत सिंह युवा हो गए। वह इस योग्य हो गया था कि शासन कर सके जो कि दुर्गादास का उद्देश्य था। सन् 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु होते ही मुगल शासन में अस्थिरता आ गई थी। इस अस्थिरता का लाभ उठकर दुर्गादास ने जोधपुर रियासत से मुगल सेना को भगा दिया और अजीत सिंह को वहां का शासक घोषित कर दिया। तत्पश्चात् दुर्गादास ने मुगलों द्वारा नष्ट और अपवित्र किए गए मंदिरों का पुनः निर्माण करवाया। उसके बाद वे उज्जैन स्थित महाकाल के दर्शन करने गया जहां उनकी मृत्यु हो गई।

जज़िया : जज़िया एक प्रकार का धार्मिक कर है। इसे मुस्लिम राज्य में रहने वाली गैर-मुस्लिम जनता से वसूल किया जाता है। इस्लामी राज्य में केवल मुसलमानों को ही रहने की अनुमति थी और यदि कोई गैर-मुसलमान उस राज्य में रहना चाहे तो उसे जज़िया देना होता था।

जयपुर के कच्छवाहा शासक सवाई जयसिंह ने ही जयपुर शहर का निर्माण करवाया था। इस नगर की रूपरेखा एक बंगाली विद्वान विद्याधर भट्टाचार्य ने वास्तु शास्त्र और शिल्प शास्त्र के नियमों के अनुसार बनाई थी। जयपुर से पहले कच्छवाहा शासकों की राजधानी आमेर थी। जयपुर का निर्माण कर उसे नई राजधानी घोषित किया गया। सवाई जयसिंह को लगता था कि भारत के लोगों को खगोल विद्या का भी ज्ञान होना चाहिए इसलिए उन्होंने भारतीय खगोल शास्त्र के आधार पर पांच खगोलीय वेधशालाओं का निर्माण करवाया। उन्हें आज ‘ जन्तर-मन्तर’ के नाम से जाना जाता है लेकिन इनका वास्तविक नाम ‘यंत्र-मंत्र’ था । यंत्र का अर्थ होता है वैज्ञानिक उपकरण और मंत्र का अर्थ होता है गणना अथवा परामर्श। ये अद्भुत यंत्र जयपुर, दिल्ली, काशी, मथुरा और उज्जैन में बनवाए गए थे।

राजपूत स्त्रियाँ –

राजा जसवंत सिंह दारा शिकोह के समर्थन में औरंगजेब से युद्ध कर रहे थे। इस युद्ध में बहुत से राजपूतों की मृत्यु हो गई और जसवंत सिंह बहुत कठिनाई से बच पाए। फ्रांसीसी इतिहासकार बर्नियर के अनुसार राजा जसवंत सिंह की पत्नी को जब राजमहल में यह सूचना मिली कि राजा अपने आठ हजार बहादुर राजपूतों में से, युद्ध के बाद बचे हुए, पांच सौ सैनिकों के साथ लौट रहा है। उसने महल के द्वार उसके लिए बंद करने का आदेश दे दिया। रानी ने कहा यदि वह युद्ध में विजय प्राप्त नहीं कर सका, तो उसे वीरगति को प्राप्त हो जाना चाहिए। इतना कहकर वह गहरे शोक में चली गई अगले 8-9 दिनों तक इसी स्थिति में रही तथा उसने अपने पति को देखने अथवा मिलने से इंकार कर दिया। इतने में रानी की मां वहां आ गई और उसने अपनी बेटी के क्रोध को ये कहकर शांत करवाया कि जैसे ही राजा अपनी युद्ध की थकान को दूर कर लेगा, वह एक नई सेना लेकर औरंगजेब पर आक्रमण करके अपना सम्मान प्राप्त कर लेगा।

अंग्रेज़ इतिहासकार कर्नल टॉड राजपूत महिलाओं के विषय में लिखतें हैं, राजपूत महिलाएं बहुत ही चरित्रवान, परिवार के लिए समर्पित, स्नेह करने वाली, परिवार का संचालन करने वाली, पति के साथ युद्ध और खेलों में भागीदारी करने वाली, कायरों से घृणा करने वाली और सामाजिक तथा घरेलू कार्यों में प्रभावशाली भूमिका निभाने वाली हैं।

तुर्कों और मुगलों के युद्ध करने के नियम राजपूतों के नियमों के विपरीत थे। जहां राजपूत यह मानते थे कि निहत्थों, साधारण नागरिकों, वृद्धों और महिलाओं पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत अरब तुर्क और मुगल महिलाओं को पकड़कर उनके साथ अत्यंत बुरा व्यवहार करते थे। जब कभी ऐसी स्थिति आ जाती थी कि राजपूतों के दुर्ग को घेर लिया जाता था और बचने की कोई आशा नहीं होती थी। तब सभी पुरुष अंतिम युद्ध के लिए निकल पड़ते थे और पीछे बच गई महिलाएं अपना सम्मान बचाने के लिए सामूहिक रूप से ‘जौहर’ कर लेती थी। इस प्रकार के युद्ध को साका कहते थे। इसका अर्थ था विजय अथवा मृत्यु।

जौहरः जौहर राजपूतों में प्रचलित एक प्रथा थी, जिसमें अपने राज्य या गढ़ की पराजय तथा शत्रु की विजय निश्चित होने पर अपमान से बचने के लिए राजपूत स्त्रियों द्वारा एक विशाल चिता में सामूहिक रूप से आत्मदाह कर लिया जाता था।

जाट –

जाट मध्य काल में दिल्ली के आस-पास, मथुरा, आगरा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा एवं पंजाब में निवास करते थे। ये मुख्यतः कृषि करते थे तथा बलिष्ठ शरीर एवं शौर्य से परिपूर्ण लोग थे। इन्होंने महमूद गजनवी एवं उसके उत्तराधिकारियों से लोहा लिया। जाट स्वभाव से स्वतंत्रता प्रिय लोग थे। इनके गांव स्वतंत्र गणतंत्र की भांति कार्य करते थे। सल्तनतकालीन शासक एवं अधिकतर मुगल शासक भी इनके स्वतंत्रता प्रिय एवं न्याय प्रिय स्वभाव से अवगत थे। इसलिए उन्होंने जाटों के गांवों में हस्तक्षेप नहीं किया था। उनकी स्वतंत्रता, को बनाए रखा। मुगल सम्राट अकबर ने दो आदेश जारी करके जाटों की आंतरिक स्वतंत्रता जाट पंचायतों (खापों) को मान्यता एवं जाटों को अपने धार्मिक रीति-रिवाजों को अपनी प्राचीन मान्यताओं के अनुसार करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी थी। जिससे जाटों में शासन के प्रति विश्वास उत्पन्न हुआ। अकबर की शांति एवं सौहार्द्र की इस नीति को जहांगीर व शाहजहां ने जारी रखा लेकिन औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की नीति, तानाशाही शासन एवं शोषणकारी नीतियों ने जाट कृषकों में बेचैनी व असंतोष को उत्पन्न कर दिया। शीघ्र ही वे गोकुल नामक जाट जमींदार के नेतृत्व में एकजुट होने लगे। मथुरा, आगरा के इन जाटों ने गोकुल के नेतृत्व में औरंगज़ेब के अत्याचारों के विरुद्ध 1669 ई. में भयंकर विद्रोह किया। विद्रोह को दबा दिया गया तथा गोकुल शहीद हुआ लेकिन इस विद्रोह तथा मुगलों के अत्याचारों ने जाटों को लगातार संघर्ष के लिए प्रेरित किया। गोकुल के बाद बृजराज, राजा राम, चूड़ामन, बदन सिंह व सूरजमल के नेतृत्व में यह संघर्ष जारी रहा।

गोकुल : गोकुल को जाटों का अग्रणी राजनीतिक नेता माना जाता है। वह सिनसीनी गांव के जमींदार रोड़ियां सिंह का पुत्र था। उसका वास्तविक नाम ओला था तथा कुछ स्रोतों में उसे कान्हड़देव भी कहा गया है। वह एक वीर पुरुष था। उसमें अदम्य साहस, वीरता एवं संगठन क्षमता के अदभुत् गुण थे। जिनके बल पर उसने कृषि करने वाले साधारण कृषकों को सैनिक के रूप से संगठित करके विशाल एवं शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा कर दिया। गोकुल ने मथुरा व आगरा के कृषकों में व्याप्त असंतोष को विद्रोह में बदल दिया।

1669 ई. में गोकुल के योग्य नेतृत्व में विद्रोह भड़क उठा। यद्यपि यह विद्रोह गोकुल के नेतृत्व में अधिकतर जाटों द्वारा हुआ लेकिन इसमें अन्य कृषक जातियां, जैसे मेव, मीणा, अहीर, गुर्जर, नरूका, पंवार एवं अन्य भी शामिल थे। सारे विद्रोही 1669 ई. में गोकुल के नेतृत्व में मथुरा से छह किलोमीटर दूर सहोरा गांव में इकट्ठा हुए तथा उन्होंने मुगलों को कर देने से इन्कार कर दिया। मथुरा के फौजदार अब्दुल नबी ने सैनिक टुकड़ी के साथ विद्रोहियों पर आक्रमण कर दिया। इस लड़ाई में विद्रोहियों ने अब्दुल नबी को मारकर विजय प्राप्त की। विजय से उत्साहित होकर गोकुल ने सदाबाद के परगने पर अधिकार कर लिया। शीघ्र ही विद्रोह आगरा तक फैल गया। औरंगज़ेब ने सैफ शिकन खान को मथुरा का नया फौजदार नियुक्त किया लेकिन विद्रोह फैलता गया। मुगल सम्राट ने कूटनीति का सहारा लेते हुए गोकुल को माफी का प्रस्ताव भेजा जिसे गोकुल ने नकार दिया। विद्रोह के विस्तार को देखते हुए औरंगज़ेब ने स्वयं शाही सेना के साथ प्रस्थान किया। मुगल सम्राट ने रेवारा, चन्द्राखा, सरखुद में विद्रोह को दबाने के लिए हसन अलीखान को भेजा। विद्रोहियों ने वीरता से सामना किया। तीन सौ विद्रोही मारे गए और दो सौ पचास महिला-पुरुष विद्रोहियों को बंदी बनाकर हसन अली खान औरंगज़ेब के पास पहुंचा। औरंगज़ेब प्रसन्न हुआ तथा उसने ‘सैफ शिकन खान’ की जगह हसन अली खान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। हसन अलीखान पांच हजार विशेष सिपाहियों की सेना तथा पच्चीस तोपों के साथ विद्रोहियों से निपटने चला। दूसरी ओर गोकुल के नेतृत्व में दो हजार किसान (जाट व अन्य) इकट्ठा हुए। एक तरफ अनुशासित, प्रशिक्षित तथा अस्त्र-शास्त्रों से सुसज्जित सेना थी जबकि दूसरी ओर किसानों की अप्रशिक्षित सेना थी। गोकुल के नेतृत्व में जाट वीरता से लड़े लेकिन तोपखाने के कारण तीन दिन बाद मुगलों को सफलता मिली। इस युद्ध में चार हजार मुगल सैनिक मारे गए और गोकुल के समर्थक पांच हजार किसान भी शहीद हुए। गोकुल को उसके ताऊ उदय सिंह सिंधी एवं सात हजार किसानों सहित मुगल सेनापति ने बंदी बना लिया।

किसानों के प्रतिरोध के कारण : औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता एवं प्रशासनिक नीतियों से किसानों में रोष उत्पन्न हुआ। औरंगज़ेब के निम्नलिखित कार्यों, नीतियों और आदेशों ने किसानों को मुगलों के विरुद्ध कर दिया :

  • विभिन्न आदेशों द्वारा पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार करने व नए मन्दिरों के निर्माण पर रोक लगा दी। कई मन्दिरों को तोड़ दिया।
  • 1665 ई. सार्वजनिक रूप से दिवाली और होली मनाने पर प्रतिबंध।
  • 1668 ई. में हिन्दुओं के मेलों और उत्सवों पर रोक लगा दी।
  • तीर्थ-यात्रा कर पुन: लगा दिया।
  • कृषकों का शोषण
  • 1665 ई. में हिन्दू व्यापारियों पर पांच तथा मुस्लिम व्यापारियों पर ढाई प्रतिशत कर लगाया। 1667 ई. में मुस्लिम व्यापारियों से कर लेना बंद कर दिया।
  • हिन्दुओं पर जजिया कर पुन: लगाना।

गोकुल की शहीदी : जाटों ने मुगलों से संघर्ष में अपनी वीरता एवं शौर्य का परिचय दिया लेकिन शक्तिशाली मुगल सेना के सामने सीधे सरल किसान विवश थे। गोकुल को बंदी बनाकर आगरा लाया गया। औरंगज़ेब स्वयं आगरा पहुंचा तथा गोकुल को इस्लाम स्वीकार करने तथा क्षमा मांगने का प्रस्ताव दिया लेकिन गोकुल के इन्कार करने पर उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े करने का आदेश दिया। गोकुल की हत्या के बाद उनके परिवार की स्त्रियों को मुगल अधिकारियों में बांट दिया गया। जाट व अन्य कृषक जातियां पुनः संगठित हुई तथा उन्होंने इससे प्रेरणा के साथ-साथ सीख भी ली कि मुगलों से आमने-सामने की लड़ाई में विजय हासिल नहीं हो सकती इसलिए उन्होंने घने जंगलों में गढ़ बनाकर सैनिक प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया तथा पुन: मुगलों के सामने आ डटे। पंजाब के सिक्खों को भी इस विद्रोह ने प्रेरित किया।

बृजराज का विरोध : औरंगज़ेब के हाथों गोकुल की दर्दनाक मृत्यु से जाटों में आक्रोश फैल गया। उन्होंने आगरा-मथुरा के आस-पास सारी सेनाओं व सैनिक चौकियों को लूटना प्रारम्भ कर दिया। सिनसिनी गांव के बृजराज, उसके भाई भज्जा सिंह एवं भज्जा सिंह के पुत्र राजाराम के नेतृत्व में वे पुनः एकजुट होने लगे। 1680 – 1682 ई. के बीच जाट विद्रोहियों का नेतृत्व बृजराज ने किया। भू-राजस्व देने से मना करने पर औरंगज़ेब ने मुल्लत को आगरा का फौजदार बनाकर जाटों का दमन करने भेजा लेकिन उसे जाटों के सामने घुटने टेकने पड़े। 1682 ई. में बृजराज को घेर लिया गया। बृजराज शहीद हुआ तथा जाटों का नेतृत्व राजाराम के हाथों में आ गया।

राजाराम का विरोध : बृजराज की मृत्यु के बाद जाटों का नेता बृजराज के भाई भज्जा सिंह का बेटा राजाराम बना। वह एक वीर योद्धा था। उसने इतिहास से शिक्षा ली तथा मुगलों से सीधी टक्कर लेने की अपेक्षा छापामार (गोरिल्ला) युद्ध लड़ने का निर्णय किया। औरंगज़ेब इस समय दक्षिण में था तथा मुगल अधिकारी कमजोर थे। इसलिए राजाराम ने अवसर का लाभ उठाया। सर्वप्रथम राजाराम ने सभी क्षेत्रों के वीरों को एकजुट किया। तत्पश्चात् उनका सैनिक प्रशिक्षण करवाने के उद्देश्य से घने जंगलों में गढ़ बनाए। राजाराम के नेतृत्व में जाटों ने आगरा-मथुरा के क्षेत्र में सरकारी माल को लूटना शुरू कर दिया। आगरा का सूबेदार तो डरकर किले में बंद हो गया। 1687 ई. में औरंगज़ेब ने अपने पोते बेदारबख्त को जाटों का दमन करने के लिए भेजा। उसके पहुंचने से पहले राजाराम ने 1688 ई. में सिकंदरा में अकबर के मकबरे पर आक्रमण करके तथा कब्र खुदवाकर अकबर की हड्डियाँ जला दी एवं मुख्य द्वार को तोड़ दिया। छत पर लगी बहुमूल्य धातुओं को उतार लिया। इस प्रकार राजाराम ने गोकुल की मौत का बदला लिया। बेदारबख्त अप्रभावी सिद्ध हुआ तो औरंगज़ेब ने आमेर के बिसन सिंह को भेजा। दोनों में युद्ध हुआ राजाराम वीरगति को प्राप्त हुआ लेकिन अभी भी जाटों ने मुगलों का विरोध जारी रखा।

-> महाराजा सूरजमल द्वारा बनवाया गया लौहगढ़ का दुर्ग एक अजेय दुर्ग है। इसे अजयगढ़ के नाम से भी जाना जाता है। मिट्टी की प्राचीर होने के कारण इसे मिट्टी का दुर्ग भी कहा जाता है। इसके उत्तरी द्वार का दरवाजा अष्टधातु का बना है जिसे जवाहर सिंह दिल्ली विजय पर लाल किले से ले कर आये थे।

जाट राज्य की स्थापना –

राजाराम की मृत्यु के बाद जाट चूड़ामन के नेतृत्व में एकत्र हुये। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु होने के बाद मुगल कमजोर हुए। इसका लाभ उठाकर चूड़ामन ने अपनी शक्ति में वृद्धि की । वह इस समय जाटों का सर्वमान्य नेता बन गया और जाटों को सैनिक एवं राजनैतिक दृष्टि से संगठित करके सिनसिनी में जाट राज्य की नींव रखी। चूड़ामन के बाद बदनसिंह ने अपनी योग्यता से जाट राज्य का विस्तार किया। बदनसिंह के पुत्र सूरजमल ने अनेक सैनिक युद्धों में विजय प्राप्त करके भरतपुर के जाट राज्य की स्थापना की। सही अर्थों में वह भरतपुर के जाट राज्य का संस्थापक था और तत्कालीन भारत के महान राजाओं में से एक था। उसे ‘जाट जाति का प्लेटो’ भी कहा जाता है। पूरे ब्रज प्रदेश पर अधिकार स्थापित करने के बाद सूरजमल ने 12 जून, 1761 ई. को मुगलों की द्वितीय शाही राजधानी आगरा पर अधिकार कर लिया था।

सतनामी –

सतनामी मध्ययुग के भक्ति आंदोलन की ही एक उपज थी। सतनामी सम्प्रदाय की स्थापना 1543 ई. में नारनौल क्षेत्र के बिसेर गांव में बीरभान नामक एक भक्त ने ‘साध’ के रूप में की थी। यह रैदासी सम्प्रदाय की ही एक शाखा थी जो रैदास नामक प्रसिद्ध भक्त संत के बाद शुरू हुई रैदास वैष्णव सन्त रामानन्द के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। कहा जाता है कि बीरभान उद्धव दास नामक रैदास के शिष्य से प्रभावित थे। साध एकेश्वरवादी थे। ये ईश्वर के सच्चे नाम अर्थात् सतनाम में विश्वास करते थे। इसलिए ये सतनामी कहलाते थे। ये भौतिक जगत से आंशिक संन्यासी का जीवन जीते थे। इनमें नारनौल के आस-पास के अहीर, सुनार, खाती, दलित आदि छोटे-छोटे व्यवसाय करने वाली व कृषि करने वाली जातियों के लोग शामिल थे। वे अपने सिर और भौहों समेत चेहरा मुंडवा लेते थे। इसलिए उन्हें ‘मुंडिया साधु’ भी कहा जाता था। खाफी खां नामक समकालीन इतिहासकार ने अपनी पुस्तक ‘मुंतखाब – उल – लुबाब’ में इनके बारे में लिखा है। इनकी कुल संख्या उस समय लगभग चार से पांच हजार के आस-पास थी। अकबर और जहांगीर के साथ सतनामी लोग अपने-अपने गांवों में शांति से कृषि करते हुए जीवनयापन कर रहे थे।

औरंगज़ेब के धार्मिक कट्टरता के समय में उसके राजस्व अधिकारियों के अन्याय के विरुद्ध 1672 ई. में नारनौल क्षेत्र के गांवों में सतनामियों ने विद्रोह कर दिया। एक दिन सतनामी किसान से सरकारी प्यादे का झगड़ा हो गया। प्यादे ने किसान के सिर पर लाठी दे मारी। शोर मचाने पर अन्य सतनामी इकट्ठे हो गए तथा सबने मिलकर प्यादे को बुरी तरह पीट दिया। जब नारनौल के शिकदार को इस घटना की जानकारी मिली तो उसने सतनामियों को सजा देने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेजी किन्तु भारी संख्या में इकट्ठा हुए सतनामियों ने इस सैनिक टुकड़ी को बुरी तरह हराकर उसके हथियार छीन लिए। शाही सेना की दण्डात्मक कार्यवाही से विद्रोह भड़क उठा।

सतनामियों ने औरंगज़ेब के विरुद्ध धर्म युद्ध का बिगुल बजा दिया था तथा वे सिर पर कफन बांधकर युद्ध में कूद पड़े। सतनामियों का उत्साह बहुत अधिक बढ़ा हुआ था। उन्होंने फौजदार ताहिर खान व उसकी सेना को बुरी तरह से पराजित किया। नारनौल नगर पर सतनामियों का अधिकार हो गया। सतनामियों द्वारा शाही दफ्तरों व शाही खजाने को लूट लिया गया। सतनामियों ने अपनी सरकार बनाकर नारनौल क्षेत्र की व्यवस्था अपने हाथों में ले ली। स्थान-स्थान पर चौकियां बनाकर किसानों से भू-राजस्व इकट्ठा किया तथा मुगल शासन व सरकार के सभी प्रतीक चिह्न मिटा दिए गए।

औरंगज़ेब की घबराहट तथा विशाल सेना का कूच : सतनामियों की सफलता की सूचना जब मुगल सम्राट औरंगजेब तक पहुंची तो उसको चिंता होने लगी। मुगल दरबार में घबराहट व बेचैनी बढ़ने लगी। कई मुस्लिम और राजपूत सेनापतियों ने सतनामियों से लड़ने से मना कर दिया। अफवाहों का बाजार गर्म होने लगा कि सतनामियों पर मुगल अस्त्र-शास्त्रों का कोई प्रभाव नहीं होता । 15 मार्च 1672 को औरंगज़ेब ने एक विशाल मुगल सेना, मुगल शहजादा मोहम्मद अकबर तथा सबसे योग्य सेना नायकों के साथ नारनौल भेजी लेकिन सतनामियों के मंत्रों तथा बहादुरी की बातें सुनकर शाही सेना के हाथ पैर फूल गए। औरंगज़ेब ने स्वयं जादू टोने व अपने हाथ से आयतें लिखकर शाही झण्डों में सिलवाई ताकि शाही सेना का आत्म विश्वास वापस लौटे और युद्ध जीता जा सके।

सतनामियों की शहादत : जब शाही सेना नारनौल पहुंची तो सतनामी भूखे शेर की तरह उन पर टूट पड़े। एक ओर विशाल प्रशिक्षित अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित मुगल सेना तो दूसरी ओर पांच हजार की संख्या में सिर मुण्डवाए सतनामी। उनके बीच भयानक युद्ध हुआ। सतनामियों की वीरता, शौर्य एवं रण कौशल देख कर बड़े-बड़े मुगल सैनिकों के पसीने छूट गए। पीछे न हटने की तो मानो सतनामी सौगंध खाकर आए थे। सैंकड़ों सतनामी कटकर ढेर हुए लेकिन मुगल सेना आगे न बढ़ सकी। अंत में अधिक संख्या, अच्छे हथियारों से सुसज्जित, अनुशासित ढंग से लड़ने वाली मुगल सेना की विजय हुईं। लगभग पांच हजार सतनामियों की शहादत हुई। सतनामी विद्रोह को औरंगज़ेब ने दबा दिया तथा उसके बाद उसने हरियाणा के क्षेत्र में धार्मिक स्थलों का विध्वंस करके अपनी भड़ास निकालने का प्रयास किया।

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