सिख गुरु परंपरा Class 8 इतिहास Chapter 2 Notes – हमारा भारत III HBSE Solution

Class 8 इतिहास BSEH Solution for chapter 2 सिख गुरु परंपरा notes for Haryana board. CCL Chapter Provide Class 1th to 12th all Subjects Solution With Notes, Question Answer, Summary and Important Questions. Class 8 History mcq, summary, Important Question Answer, Textual Question Answer in hindi are available of  हमारा भारत III Book for HBSE.

Also Read – HBSE Class 8 इतिहास – हमारा भारत III Solution

HBSE Class 8 इतिहास / History in hindi सिख गुरु परंपरा / Sikh Guru Prampara notes for Haryana Board of chapter 2 in Hamara Bharat III Solution.

सिख गुरु परंपरा Class 8 इतिहास Chapter 2 Notes


सिक्ख धर्म के उदय और विकास के क्रम में दस गुरु हुए हैं। प्रथम गुरु नानक देव और दसवें गुरु गोबिंद सिंह थे। पंजाब में भक्ति आंदोलन के संतों में श्री गुरु नानक देव का नाम सर्वोपरि है। उनके शिष्यों को सिक्ख नाम से जाना जाता है। उन्होंनें समानता, बंधुता, ईमानदारी तथा सृजनात्मक शारीरिक श्रम के द्वारा जीविका-उपार्जन पर आधारित नई सामाजिक व्यवस्था स्थापित की। शुरू से ही नानक का संदेश कबीर, दादू, चैतन्य तथा अन्य संतों के समान होते हुए भी मौलिक रूप में अलग प्रकार का था। कालंतर में गुरु नानक की विचारधारा ही सिक्ख धर्म बन गई। दूसरे गुरु अंगददेव ने एक अलग लिपि अपनाई जिसे गुरुमुखी कहा जाता है। पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने सिक्खों के लिए पवित्र ‘आदिग्रंथ’ तैयार किया जिसे ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ भी कहा जाता है। इस ग्रंथ में गुरुओं की वाणी के साथ अनेक संत कवियों की रचनाएं भी जोड़ी गई। छठे गुरु हरगोबिंद ने सिक्खों को सैन्य स्वरूप प्रदान किया। दसवें गुरु गोबिंदसिंह ने ‘खालसा’ की स्थापना कर सिक्ख धर्म को एक अलग पहचान दे दी। उन्होंने सिक्ख गुरु परंपरा को समाप्त कर पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब‘ को ही सिक्खों के लिए गुरु घोषित कर दिया।

सिक्ख धर्म में दस गुरु हुए हैं जिनके नाम और काल-क्रम निम्न प्रकार से हैं:

1. श्री गुरु नानकदेव 1469-1539 ई.

2. श्री गुरु अंगददेव 1539-1552 ई.

3. श्री गुरु अमरदास 1552-1574 ई.

4. श्री गुरु रामदास 1574-1581 ई.

5. श्री गुरु अर्जुनदेव 1581-1606 ई.

6. श्री गुरु हरगोबिंद 1606-1644 ई.

7. श्री गुरु हरराय 1644-1661 ई.

8. श्री गुरु हरकिशन 1661-1664 ई.

9. श्री गुरु तेगबहादुर 1664-1675 ई.

10. श्री गुरु गोबिन्दसिंह 1675-1708 ई.

1. गुरु नानक देव (1469 ई.-1539 ई.) : गुरु नानक का जन्म 1469 ई. में पंजाब के तलवंडी नामक स्थान पर हुआ। उनके पिता का नाम महता कालू चंद तथा माता का नाम तृप्ता था। तलवंडी गांव को अब ‘ननकाना साहिब’ के नाम से जाना जाता है जो अब पाकिस्तान में है। नानक का जन्म कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन हुआ था। यह बालक बड़ा होकर एक ‘आध्यात्मिक गुरु’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिन्हें आज हम ‘गुरु नानक’ देव के नाम से जानते हैं। जब नानक सात वर्ष के हुए तो उन्हें शिक्षा के लिए पण्डित गोपालदास की पाठशाला में भेजा गया। बाल्यकाल से ही उनकी रुचि अध्यात्म में थी।

गुरुनानक का विवाह सुलखनी से हुआ, जो बटाला की रहने वाली थी। उनके दो बेटे हुए-श्रीचन्द और लखमीदास। उनकी बहन नानकी, जो उनसे पाँच वर्ष बड़ी थीं, अपने पति जयराम के साथ सुल्तानपुर में रहती थी। आक्रमणकारियों के चलते उत्तर भारत में राज-आश्रय न मिलने के कारण साहित्य, कलाएँ और सामाजिक ढाँचा नष्ट हो रहा था। धर्म पर इन खतरों को देखते हुए उन्होंने समाज को संगठित और जागरूक करने के लिए उपदेश देने प्रारंभ किए।

गुरु नानक देव की शिक्षाएँ – गुरु नानक ने भारत, मध्य एशिया और अरब देशों का भ्रमण किया था। गुरु नानक गृहस्थ जीवन को भक्ति के मार्ग में बाधा नहीं मानते थे। वे अपना अधिकांश समय साधना और उपदेश देने में बिताते थे। गुरु नानक ने समाज में सुधार किए। गुरु नानक के उपदेश व्यावहारिक एवं समाज कल्याण के लिए थे। उन्होंने कहा कि संसार में न कोई हिंदू है और न ही कोई मुसलमान अपितु सब उस एकमात्र परम शक्तिशाली परमात्मा की संतान हैं, जो अनंत, सर्वशक्तिमान, सत्य, कर्ता, निर्भय, निर्गुण और अजन्मा है। उनका उपदेश था कि हमें जातीय भेदभाव से दूर रहकर प्रेम के साथ रहना चाहिए।

बाला और मरदाना गुरु नानक देव के दो प्रमुख साथी थे। मरदाना गुरु नानक देव से दस वर्ष बड़े थे। वह गुरु नानक देव की एशिया की यात्रा में उनके साथ रहे। मरदाना रबाब बजाते थे। उन्होंने जीवनपर्यन्त गुरुजी का साथ दिया। 1534 ई. में उनका निधन हुआ। जब बाबर ने हिंदुस्तान पर आक्रमण करके मंदिरों का विनाश किया और लोगों को जबरन मुसलमान बनाया, तो ये घटनाएँ नानक ने अपनी आँखों से देखी थीं। इनका दुखपूर्ण विवेचन ‘बाबरवाणी’ नाम से गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित है। सन् 1522 ई. में वे करतारपुर में आ बसे और अपने अंतिम समय तक वहीं रहे। यहाँ उन्होंने ‘वार-मल्हार’ ‘वार-मांझ’, ‘वार-आसा’, ‘जपुजी’, ‘ओंकार’, ‘पट्टी’ और ‘बारह-माहा’ आदि वाणियों की रचना की।

2. गुरु अंगद देव (1539 ई.-1552 ई. ) : सन् 1538 ई. में गुरु नानकदेव ने गुरु अंगद देव को अपना उत्तराधिकारी बनाया। उन्होंने गुरु नानकदेव की वाणी का संकलन किया। यह वह काल था जब समाज के निर्धन लोगों को भोजन का लालच देकर मुसलमान बनाने का प्रयास किया जाता था। इस काम के लिए मुसलमान शासक सूफियों को बड़े-बड़े भूमि क्षेत्र अनुदान रूप में देते थे जिनमें इन सूफियों की खानकाहें होती थीं। यहाँ लोगों के लिए निःशुल्क खाने की व्यवस्था की जाती थी। ऐसे में समाज के कुछ लोग प्रलोभन में आकर मुसलमान बन जाते थे, जो समाज के लिए अच्छा नहीं था। गुरु अंगद देव ने गुरु नानकदेव द्वारा स्थापित लंगर व्यवस्था को अधिक व्यापक रूप प्रदान किया। सभी लोग एक पंक्ति में बैठकर खाना खाते थे। वहां ऊँच-नीच का भेद नहीं रहता था। उनकी धर्मपत्नी स्वयं इस व्यवस्था की देख-रेख करती थी।

पंजाब में मुगलों का प्रभाव बढ़ने के कारण अखाड़ों की परंपरा छिन्न-भिन्न हो गई थी। इसे गुरु अंगददेव ने पुन: स्थापित करते हुए खडूर साहिब में एक अखाड़ा स्थापित किया, जहाँ उनके शिष्य व्यायाम करते थे। एक और महत्वपूर्ण कार्य जो गुरु अंगद ने किया, वह था गोविंदवाल की स्थापना। सन् 1546 ई. में उन्होंने अपने विश्वसनीय शिष्य भाई अमरदास को व्यास नदी के तट पर एक नया गाँव बसाने का कार्य सौंपा। उसी के नाम से इस स्थान का नाम गोविंदवाल पड़ा है। 29 मार्च, 1552 ई. में गुरु अंगददेव का देहांत हो गया। गुरुजी ने भाई अमरदास को अपना उत्तराधिकारी भी नियुक्त कर दिया था।

3. गुरु अमरदास (1552 ई.-1574 ई.) : सन् 1552 ई. में जब गुरु अमरदास सिक्ख गुरु बने, उस समय उनकी आयु 73 वर्ष की थी। गुरु अंगददेव ने गोविंदवाल में एक बावड़ी की नींव रखी थी, जिसे गुरु अमरदास ने 1552 ई. में पूरा कर दिया। इसमें 84 सीढ़ियाँ हैं और गुरु अमरदास ने यह घोषणा की कि जो भी व्यक्ति चौरासीवीं सीढ़ी पर स्नान करेगा, वह 84 लाख योनियों के जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाएगा।

उन्होंने लंगर-व्यवस्था को और विस्तृत रूप प्रदान करते हुए “पहले पंगत फिर संगत” के विचार को स्थापित किया। इनके द्वारा मंजी- प्रथा की स्थापना भी की गई। इन्होंने आसपास के क्षेत्रों को 22 भागों में बांटकर अपने 22 विश्वासपात्र शिष्यों को धर्म प्रसार के लिए नियुक्त किया। ये शिष्य मंजी (चारपाई) पर बैठकर लोगों को गुरुओं के संदेश सुनाया करते थे, इसलिए इस प्रथा को मंजी-प्रथा कहा जाता है।

उस समय में इस्लामी प्रभाव के कारण स्त्रियाँ या तो बुर्का पहनती थीं अथवा पर्दे में रहती थीं। गुरु अमरदास का कहना था कि यह प्रथा न केवल स्त्रियों के लिए भेदभाव से भरी है बल्कि इसके कारण स्त्रियों का शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास भी नहीं हो पाता। उनकी लंगर व्यवस्था में यह आदेश था कि कोई भी महिला इस पर्दा-प्रथा को स्वीकार नहीं करेगी। उन्होंने 95 वर्ष की आयु तक समाज व धर्म के उत्थान का कार्य किया और सन् 1574 ई. में अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने दामाद भाई जेठा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। वे चौथे गुरु रामदास के नाम से जाने जाते हैं।

4. गुरु रामदास ( 1574 ई.-1581 ई.) : चौथे गुरु रामदास 1574 ई. से 1581 ई. तक सात वर्ष गुरु गद्दी पर विराजमान रहे। उनके काल में अमृतसर नगर की स्थापना हुई। अकबर ने गुरु अमरदास की बेटी सुकुमारी भानी को कुछ गाँवों की भूमि भेंट में दी थी। गुरुजी ने इस भूमि पर विकास कार्यों के लिए रामदास को वहां भेजा था। उन्होंने वहाँ संतोखसर और अमृतसर नामक दो सरोवरों की खुदाई का काम आरम्भ करवा दिया। गुरु-गद्दी पर आसीन होने के बाद गुरु रामदास वहीं जाकर रहने लगे। नगर के लिए बहुत से धन की आवश्यकता थी। गुरु रामदास ने अपने शिष्यों को इस उद्देश्य से धन एकत्र करने के लिए भेजा। इन शिष्यों को मसंद कहा जाता है। अमृतसर सरोवर के चारों ओर लोग बसने लगे। गुरु रामदास ने अपने छोटे पुत्र गुरु अर्जुनदेव को अपना उत्तराधिकारी बनाया और इनके पश्चात् ये गद्दी पैतृक रूप से दी जाने लगी।

5. गुरु अर्जुनदेव ( 1581 ई.-1606 ई. ) : गुरु अर्जुनदेव ने अमृतसर में हरमंदिर साहिब के निर्माण कार्य की गति तेज़ कर दी। सन् 1600 ई. तक हरमंदिर साहिब के निर्माण का कार्य पूरा हो गया। इसके अतिरिक्त गुरु अर्जुनदेव ने 1590 ई. में रावी और व्यास नदियों के बीच में तरनतारन नाम का नगर भी बसाया। यहाँ भी पहले एक सरोवर का निर्माण करवाया गया था। तरनतारन नाम का भाव है कि जो भी व्यक्ति इस सरोवर में स्नान कर लेता है, वह भव-सागर तर जाता है। गुरुजी ने जालंधर के निकट एक और नगर बसाया जिसका नाम करतारपुर अर्थात् ईश्वर का नगर है। सन् 1595 ई. में गुरुजी के यहाँ एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम हरगोविंद रखा गया और इससे प्रसन्न होकर उन्होंने व्यास नदी के तट पर एक और नगर की स्थापना की जिसका नाम हरगोविंदपुर रखा। तरनतारन में कुष्ठ रोगियों के लिए अलग से एक बस्ती बसाई गई, जहाँ उनके लिए निःशुल्क भोजन, वस्त्रों और औषधियों की व्यवस्था की जाती थी। इन सभी स्थानों पर लंगर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, जिसके लिए गुरु अर्जुनदेव ने शिष्यों से अपनी आय में से दस प्रतिशत राशि धर्म कार्यों के लिए निकालने को कहा। इस भाग को दसौंध कहते हैं।

एक और महत्वपूर्ण कार्य जो गुरु अर्जुनदेव ने किया वह था ‘आदि ग्रंथ’ का संकलन। उन्होंने इसमें पहले के गुरुओं की वाणी का संग्रह किया । इसमें उन्होंने कबीर, रविदास, फरीद इत्यादि संतों की वाणियों को भी सम्मिलित किया। उन्होंने अपने शिष्यों को सभी प्रकार के मादक पदार्थों के सेवन से दूर रहने का उपदेश दिया।

यह वह समय था जब दिल्ली में अकबर का शासन था जो पहले के मुसलमान राजाओं से कम कट्टर था। उसके काल में हिन्दुओं को अपने धर्म के अनुसार जीने की स्वतंत्रता थी। सन् 1605 ई. में अकबर की मृत्यु हुई और उसका बेटा जहांगीर शासक बना। उसका बड़ा बेटा खुसरो मिर्जा उस समय लगभग उन्नीस वर्ष का था, जिसे लगता था कि वह अपने दादा अकबर का चहेता था इसलिए उसे गद्दी मिलनी चाहिए। जहांगीर से विद्रोह करने के लिए वह अपने साथियों के साथ आगरा से निकला और अपनी सेना बनाता हुआ लाहौर की ओर चल पड़ा। रास्ते में जब वह तरनतारन पहुंचा तो उसने गुरु अर्जुनदेव से भेंट की और लाहौर पर अपना अधिकार करने के लिए पहुंच गया। जहांगीर अपनी विशाल सेना लेकर लाहौर पहुंचा और अपने बेटे और उसके साथियों को पकड़कर दिल्ली ले आया। उसके सभी साथियों को भयंकर यातनाएं देकर मरवा दिया गया और जहांगीर ने अपने बेटे को अंधा करवा दिया। जहांगीर एक कट्टर मुसलमान था। उसने गुरुजी को बंदी बना लिया और उन पर राजद्रोह करने के अपराध में भारी आर्थिक जुर्माना लगा दिया। सन् 1606 ई. में गुरुजी को बहुत-सी शारीरिक यातनाएं देकर शहीद कर दिया गया।

6. गुरु हरगोबिंद ( 1606 ई.-1644 ई.) : गुरु अर्जुनदेव की शहादत के बाद उनके इकलौते पुत्र गुरु हरगोबिंद ने गुरु गद्दी संभाली। जब 1609 ई. में जहांगीर को पता लगा कि सिक्खों की गतिविधियाँ कम होने के स्थान पर बढ़ गई हैं, तो उसने गुरुजी को सिक्खों पर लगाए गए जुर्माने को न भरने के अपराध में ग्वालियर के किले में कैद कर लिया। उन्हें लगभग दो वर्ष तक बंदी के रूप में रखा गया और 1611 ई. में मुक्त कर दिया गया। इसके बाद गुरुजी पंजाब लौटे और उन्होंने तुरंत ही सिक्खों को संगठित करना आरंभ कर दिया।

अभी तक के सभी गुरुओं ने भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा की भांति आध्यात्मिक ज्ञान पर अधिक बल दिया था। किन्तु इन्होंने उस समय के अपने शिष्यों में आत्मविश्वास और निडरता के गुण जागृत किए। इन्होंने अकाल तख्त का निर्माण करके अपने शिष्यों को आध्यात्मिक और व्यावहारिक शिक्षा दी। इन्होंने दो तलवारें मीरी व पीरी धारण कीं, जो आध्यात्मिक और सांसारिक इन दोनों पक्षों का प्रतीक थीं। सिक्खों को शस्त्रधारी बनाने का उनका मुख्य उद्देश्य मुगलों से अपने धर्म व जनता की रक्षा करना था।

इन्होंने सिर पर कलगी धारण कर ली और अपने मसंदों को ये निर्देश दिए कि वे धन की अपेक्षा घोड़ों और शस्त्रों का दान एकत्र करें। शीघ्र ही उनके पास विशाल संख्या में घोड़े और शस्त्र एकत्र हो गए। इन्होंने अपने लिए 52 अंगरक्षक भी नियुक्त किए। उनके आह्वान पर सारे पंजाब से लोगों ने अपने बच्चों को गुरु की सेवा के लिए भेजा ताकि धर्म की रक्षा हो सके। गुरुजी ने पाँच सौ नौजवानों को सौ-सौ के पाँच जत्थों में बाँट दिया। इनके जत्थेदार थे – विधिचंद, लंगाह, पीराना, जेठा और पैरा। इन्होंने एक विशेष संगीत मंडली बनाई, जो रात को हरिमंदिर की परिक्रमा करते हुए, हाथों में मशालें लिए ढोलक की धुन पर वीर रस के गीत गाती थी।

आध्यात्मिक शिक्षा देने के लिए गुरुजी हरमंदिर साहिब का उपयोग करते थे। इन्होंने हरिमंदिर श्री के सामने पश्चिम की ओर अकाल तख्त का निर्माण करवाया। इसमें इन्होंने बारह फुट ऊँचे एक चबूतरे का निर्माण करवाया, जो दिल्ली के मुगल सिंहासन से कुछ ऊँचा बनाया गया था। इस पर आसीन होकर वे अपने शिष्यों को राजनीतिक शिक्षा देते थे और अपने शिष्यों को अस्त्र-शस्त्र भी यहीं प्रदान करते थे। इस तख्त के निकट ही अखाड़ा था, जिसमें व्यायाम करने के लिए वे सिक्खों को प्रेरित करते थे।

इनके पाँच पुत्र थे- गुरदित्ता, अनीराय, अटलराय, तेगबहादुर और सूरजमल । सिक्खों में उत्साह का संचार करने के लिए और धर्म के प्रसार के लिए इन्होंने कश्मीर, उत्तर प्रदेश और पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों में यात्राएँ की। जब गुरुजी को लगा कि अब उनका अंतिम समय निकट आ गया है तो इन्होंने अपने पौत्र हरराय को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।

7. गुरु हरराय (1644 ई.-1661 ई.) : शांत और कोमल स्वभाव के गुरु हरराय ने, गुरु हरगोविंद के देहावसान के पश्चात् गुरु परंपरा को आगे बढ़ाया। इन्होंने विभिन्न प्रदेशों की यात्राएँ करके धर्म का प्रचार किया। उनके जीवनकाल में शाहजहाँ के बेटों में उत्तराधिकार के लिए युद्ध हो रहा था। इनमें दारा शिकोह उदार प्रवृत्ति का स्वामी था जो हिंदू धर्म से प्रभावित था। सन् 1658 ई. में सामूगढ़ के युद्ध में हारने के बाद वह पंजाब की ओर भाग खड़ा हुआ। उस समय गुरु हरराय ने उसे आशीर्वाद दिया। कुछ उलेमाओं का मानना था कि दारा शिकोह एक काफिर है। औरंगज़ेब ने दारा शिकोह को इस्लाम विरोधी घोषित करके उसकी हत्या कर दी। औरंगज़ेब ने दिल्ली में गद्दी संभालने पर गुरु हरराय को दिल्ली बुलाया तो उन्होंने अपने बड़े बेटे रामराय को भेज दिया। जब औरंगज़ेब ने उनसे ‘आसा दी वार’ में लिखे श्लोक का अर्थ पूछा —

मिट्टी मुसलमान की पैरें पइ कुमियार,
घड़ भांडे इटां कीयां जलदी करे पुकार ।

(मुसलमान की कब्र की मिट्टी कुम्हार के पैरों के नीचे कुचली जाकर, जब घड़े, बर्तन और ईंट बनकर, पंजावे में डाली जाने लगी, तो आग से डरकर चीखने लगी।)

तो रामराय ने चतुराई से कहा कि मुसलमान शब्द भूल से आ गया है, यहाँ वास्तविक शब्द बेईमान है। इससे औरंगजेब तो संतुष्ट हो गया लेकिन गुरु हरराय अपने बेटे से नाराज हो गए। उन्हें लगा कि उनके बेटे ने गुरु नानक की वाणी को बदल कर कायरता की है। इन्होंने अपने छोटे बेटे हरकिशन को अपना उत्तराधिकारी बना दिया।

8. गुरु हरकिशन (1661 ई.-1664 ई.) : जब गुरु हरकिशन गुरु गद्दी पर बैठे तो उनकी आयु केवल पाँच वर्ष और तीन महीने की थी इसलिए उन्हें ‘बाल गुरु‘ भी कहा जाता है। उनके बड़े भाई रामराय ने दिल्ली जाकर औरंगजेब से गुरुजी की शिकायत की तो औरंगजेब ने गुरुजी को दिल्ली दरबार में पेश होने का आदेश दिया। गुरुजी और उनकी माताजी, दोनों दिल्ली आए और राजा जयसिंह के बंगले पर ठहरे। यहाँ गुरुजी चेचक रोग से ग्रसित हो गए जिसके कारण उनका निधन हो गया। अपने देहांत से पहले उन्होंने एक नारियल और पाँच पैसे मंगवाए। इन वस्तुओं को पकड़कर उन्होंने तीन बार घुमाया और कहा-बाबा बकाला। इन शब्दों से उनका भावार्थ था कि उनके उत्तराधिकारी उनके दादाजी होंगे जो कि बकाला अमृतसर में रहते हैं। 30 मार्च, 1664 को उनका निधन हो गया।

9. गुरु तेगबहादुर ( 1664 ई.-1675 ई.) : 11 अगस्त, 1664 ई. को गुरु हरकिशन की अंतिम इच्छा के अनुसार, उनके कुछ शिष्य, नारियल और पाँच पैसे लेकर बकाला में रह रहे उनके दादाजी के पास गए, जिन्हें आज हम गुरु तेगबहादुर के नाम से जानते हैं। इन शिष्यों ने उन्हें गुरु गद्दी ग्रहण करने का आग्रह किया। गुरु तेगबहादुर ने गद्दी पर आसीन होने के बाद धर्म की रक्षा और प्रसार के लिए बहुत कार्य किए।

इस समय मुगल शासक औरंगज़ेब दिल्ली का शासक था। उसके आदेश के अनुसार देशभर में सभी हिन्दुओं पर अत्याचार किए जा रहे थे और मंदिरों को तोड़ा जा रहा था। गुरुजी की धर्म के प्रति निष्ठा सुनकर कश्मीरी पंडित उनसे मिलने आए। उन्होंने गुरुजी को बताया कि किस तरह पूरे कश्मीर में हिन्दुओं को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है और मंदिर तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाई जा रही हैं। धर्म पर आए इस खतरे को देखकर गुरुजी ने पंडितों का समर्थन करने का निश्चय कर लिया और वे पंडितों के साथ दिल्ली चले आए। 11 दिसंबर, 1675 ई. को दिल्ली के चाँदनी चौक पर भाई मतिदास, भाई सतिदास और भाई दयाला के साथ गुरु तेगबहादुर को शहीद कर दिया गया। जहां उनका सिर काटा गया था, वहां आज ‘गुरुद्वारा शीशगंज साहिब’ है। हिंदू धर्म की लाज रखने के कारण उनको ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है।

10. गुरु गोबिन्द सिंह ( 1675 ई.-1708 ई. ) : 22 दिसंबर, 1666 ई. को पटना में, गुरु तेगबहादुर के घर, उनकी पत्नी माता गुजरी देवी ने एक बालक को जन्म दिया। उस बालक का नाम गोबिन्द दास रखा गया। यह गुरु तेगबहादुर के इकलौते पुत्र थे। उन्हें आज हम ‘गुरु गोबिन्द सिंह’ के नाम से जानते हैं। सन् 1672 ई. में गुरु तेगबहादुर सपरिवार आनंदपुर साहिब में रहने लगे जहां गुरु गोबिन्द दास की शिक्षा हुई। उन्हें संस्कृत की शिक्षा पंडित हंसराज ने और फारसी की शिक्षा काजी पीर मोहम्मद ने दी। बजर सिंह से उन्होंने घुड़सवारी और अस्त्र-शस्त्र की विद्या ली। भाई गुरबख्श सिंह ने उन्हें गुरमुखी का ज्ञान दिया।

सभी सिक्ख गुरु गृहस्थी थे। दशम गुरु महाराज के परिवार में उनकी दो पत्नियां व चार पुत्र थे। इनके नाम अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह। धर्म की रक्षा करने के लिए किरपाल चंद ने गुरुजी के लिए सेना का गठन किया। उन्होंने लोगों से कहा कि सभी अपने पुत्रों को धर्म की रक्षा के लिए सिक्ख बनाएं। लोगों ने अपने बेटों को सिक्ख बनाना शुरू कर दिया। दान के रूप में भी शस्त्रों और घोड़ों की भेंट देने को कहा गया। इससे उनके पास बड़ी संख्या में सैनिक और शस्त्र इकट्ठे हो गए। गोबिन्द राय ने बड़े होने पर यमुना नदी के किनारे एक सुंदर स्थान पर ‘पाँउटा साहिब’ नगर की स्थापना की। यहां 52 कवियों को ठहराया गया। यहां उन्होंने सिक्खों को मानसिक रूप से सशक्त बनाने के लिए रामायण और महाभारत का हिन्दी और गुरुमुखी में अनुवाद भी करवाया।

खालसा की स्थापना – उन्होंने सिक्ख धर्म को एक नया स्वरूप दिया और ‘खालसा’ की स्थापना की। खालसा की स्थापना 1699 ई. में आनन्दपुर साहिब में की गई थी। ‘खालसा’ शब्द का अर्थ है पवित्र । खालसा की स्थापना से गुरुजी ने सिक्ख धर्म को सैन्य स्वरूप प्रदान किया, जो मुगलों से मुकाबला करने के लिए समय की मांग थी।

सन् 1699 ई. की बैशाखी के दिन, गुरुजी के आह्वान पर पांच लोग धर्म हित में अपने प्राण देने के लिए आगे आए। इन्हें ‘पंज प्यारे’ कहा जाता है। जिनमें लाहौर के दयाराम क्षत्रिय, हस्तिनापुर (मेरठ) के धर्मदास जाट, द्वारका से मोहकम चंद दर्जी, बीदर के साहिब चंद नाई और जगन्नाथपुरी (उड़ीसा) से हिम्मत राय कहार ने धर्म की रक्षा के लिए तत्परता दिखाई। इन सब को गुरुजी ने सबके समक्ष ‘पाँच प्यारों’ के रूप में प्रस्तुत किया। पाँचों वीरों ने गुरुजी के साथ मिलकर अमृत ग्रहण किया।

ये पाँचों वीर दर्शाते हैं कि गुरुजी के अनुयायी समस्त भारत में थे। इसके बाद गुरुजी ने इन सबके नामों के साथ ‘सिंह’ लगा दिया और वे स्वयं भी गुरु गोबिन्द दास के स्थान पर ‘गुरु गोबिन्द सिंह’ के नाम से जाने जाने लगे। गुरु गोबिन्द सिंह ने ‘खालसा’ की स्थापना कर भविष्य में सिक्खों के लिए पांच प्रतीक धारण करना अनिवार्य कर दिया। ये प्रतीक थे : केश, कृपाण, कड़ा, कंघा और कच्छा। गुरुजी ने अपनी दूर दृष्टि से एक ऐसी सेना का निर्माण किया जो मुगलों से लोहा ले सके। इस सेना में शामिल होने वालों को खालसा कहा जाता था। गुरु गोबिन्द सिंह ने घोषणा की कि जब देश पर विदेशी शक्तियाँ हमलावर होकर आई हैं, तो एक ही तीर्थ है रणभूमि, एक ही वर्ण है-खालसा ।

गुरु गोबिंद सिंह का संघर्ष —

भंगाणी की लड़ाई: सन् 1686 ई. में फतेह शाह ने हयात खान और नज़ाबत खान के सैनिकों के साथ मिलकर गुरुजी की सेना पर आक्रमण कर दिया। गुरुजी ने किरपाल चंद और ब्राह्मण दयाराम के सैनिकों की सहायता से फतेह शाह और उसके साथियों को हरा दिया। इस लड़ाई का उल्लेख बिचित्र नाटक में मिलता है। इस विजय के बाद वे आनंदपुर साहिब आ गए, जहाँ उन्होंने केशगढ़, आनंदगढ़ और फतेहगढ़ नामक किलों का निर्माण करवाया।

नादौन एवं गुलेर की लड़ाई – 1690-91 ई. में पहाड़ी राजाओं ने मुगल सरकार को कर देने से मना कर दिया। इस पर आलिफ खान के नेतृत्व में मुगल सेना ने पहाड़ी राजाओं को दण्ड देने का निर्णय किया। नादौन नामक स्थान पर मुगल सेना व पहाड़ी राजाओं के बीच युद्ध हुआ। गोविन्द राय ने राजा भीमचन्द व अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर मुगल सेना को हरा दिया। लेकिन बाद में पहाड़ी राजाओं ने मुगलों से संधि कर ली जिससे गुरु गोविन्द राय को निराशा हुई। दूसरी तरफ औरंगज़ेब को यह आभास हो गया था कि पंजाब में उसके विरुद्ध गोविन्दराय की शक्ति बढ़ रही है। इसलिए उसने अपने फौजदारों को आदेश दिया कि वह गोबिन्दराय के विरुद्ध कार्यवाही करें। सन् 1694 ई. में कांगड़ा के फौजदार दिलावर खान और उसके बेटे खानज़ादा रुस्तम खान ने मुगल सेना के साथ रात को सतलुज  नदी पार कर ली। वहाँ गुरुजी की सेना ने अभी उन पर कुछ गोले दागे ही थे कि खानजादा और उसके सैनिक भाग खड़े हुए। इस प्रकार ये युद्ध गुरुजी ने बिना लड़े ही जीत लिया। फौजदार ने अपने सेनापति हुसैन खान को गुलेर के राजा और गुरुजी के विरुद्ध लड़ने के लिए भेजा। पठानकोट के निकट हुए इस युद्ध में हुसैन खान मारा गया और उसकी सेना पराजित हो गई।

आनंदपुर साहिब का प्रथम युद्ध – 1700 ई. में औरंगज़ेब के दस हज़ार सैनिक दीना बेग और पैंदा खान के साथ, युद्ध के लिए पंजाब पहुंचे। यहाँ गुरु गोबिन्द सिंह ने एक ही बाण से पैदा खान का वध कर दिया, जिससे मुगल सेना भयभीत होकर मैदान छोड़कर भाग गई। बिलासपुर के राजा भीमचंद का कहना था कि यदि गुरुजी आनंदपुर साहिब में रहना चाहते हैं तो उसका किराया दें अन्यथा वे उसे छोड़ दें। गुरुजी पर दबाव डालने के लिए भीमचंद ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर आनंदपुर साहिब को घेर लिया। गुरुजी इनसे युद्ध नहीं चाहते थे इसलिए वे आनंदपुर छोड़कर कीरतपुर के निकट निर्मोह नामक स्थान पर चले गए।

निर्मोह का युद्ध – सन् 1702 ई. में वज़ीर खान के नेतृत्व में मुगल सेना ने सिक्खों पर हमला कर दिया। दूसरी ओर से मुगलों का सहयोग करने वाले कुछ पहाड़ी राजाओं ने भी हमला किया। यह युद्ध दो दिन तक चला जिसके अंत में गुरुजी की सेना विजयी हुई और वजीर खान अपनी सेना सहित मैदान छोड़कर भाग गया।

बसोली का युद्ध – निर्मोह के युद्ध के बाद गुरुजी अपनी सेना के साथ हिमाचल के बसोली में चले गए, जहाँ का राजा धर्मपाल उनका सहयोगी था। जब यहाँ मुगल सेना ने हमला किया तो धर्मपाल के विरोधी अजमेर चंद ने मुगल सेना का साथ दिया। यह युद्ध एक संधि में समाप्त हुआ, जिसके पश्चात् गुरुजी एक बार फिर से आनन्दपुर साहिब में आ गए।

आनंदपुर का दूसरा युद्ध – दो वर्ष की शांति के बाद सन् 1704 ई. में एक बार फिर मुगल सेना ने आनंदपुर पर हमला किया। इस बार युद्ध की कमान सैय्यद खान और रमजान खान के हाथों में थी। एक बार पुनः वे सिक्ख वीरों से परास्त होकर लौट गए। इस हार का प्रतिशोध लेने के लिए औरंगज़ेब ने फौजदार वज़ीर खान और ज़बरदस्त खान को एक बड़ी सेना के साथ सिक्खों पर हमला करने के लिए भेजा। मुगलों ने किले को घेर लिया। उनकी रणनीति थी कि जब अंदर भोजन सामग्री समाप्त हो जाएगी, तो सिक्खों के पास पराजय के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं होगा। आठ महीने तक घेराबंदी रहने से मुगलों की रणनीति काम कर गई। न कोई अंदर से बाहर आ सकता था और न ही सिक्खों तक कोई सहायता पहुँच सकती थी। मुगलों ने आश्वासन दिया कि यदि वे किला खाली कर दें, तो उनपर हमला नहीं होगा। 21 दिसंबर, 1704 ई. को माता गुजरी के कहने पर गुरुजी ने आनंदपुर छोड़ने का निश्चय किया।

चमकौर साहिब का युद्ध – गुरुजी के आनंदपुर से निकलते ही मुगलों ने उन्हें सुरक्षित निकल जाने का अपना वादा तोड़ दिया और अपनी सेना को उनके पीछे भेज दिया। सरसा नदी पार करके जब वे चमकौर साहिब पहुँचे, तो उनके साथ केवल चालीस सिक्ख बचे थे। एक ओर केवल चालीस सिक्ख योद्धा और दूसरी ओर हज़ारों मुगल किन्तु उस दिन के युद्ध ने संसार को दिखा दिया कि आखिर भारतमाता के सपूत किस मिट्टी से बने हुए हैं। यहाँ लड़ते हुए गुरुजी के दोनों बड़े पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए। दो छोटे पुत्रों जोरावर सिंह व फतेहसिंह को सरहिंद के सूबेदार ने जीवित दीवार में चिनवा दिया था। पाँच प्यारों में से तीन साहिब सिंह, मोहकम सिंह और हिम्मत सिंह भी शहीद हो गए। पूरे दिन के संघर्ष के बाद केवल पांच सिक्ख ही जीवित बच सके।

खिदराना का युद्ध – गुरु गोबिंद सिंह चमकौर साहिब से निकलकर खिदराना की ओर चले गए। खिदराना तक पहुँचते-पहुँचते रास्ते में लगभग दो हजार और सिक्ख सैनिक गुरुजी की सेना में शामिल हो गए, लेकिन इनका सामना दस हजार मुगल सैनिकों से था। इन दो हजार सिक्खों में चालीस सिक्ख ऐसे थे जो आनंदपुर साहिब में उन्हें छोड़कर अपने घरों को चले गए थे। उनकी पत्नियों ने जब उन्हें इस कायरता के लिए लज्जित किया तो वे पुनः गुरुजी की सहायता के लिए आ गए। इस युद्ध में अन्य सिक्खों के साथ ये चालीस भी वीरगति को प्राप्त हो गए। इन्हें ‘चालीस मुक्तें’ भी कहा जाता है। इन्हीं की स्मृति में खिदराना का नाम आज ‘मुक्तसर’ अथवा ‘ मुक्ति की झील’ है।

खिदराना से गुरुजी तलवंडी पहुंचे। तलवंडी में गरु गोबिन्द सिंह ने अपनी स्मृति के बल पर आदि ग्रन्थ को पुनः लिखा तथा दशम पातशाह का ग्रंथ भी संकलित किया। इसलिए तलवंडी को ‘गुरु की काशी’ कहा जाने लगा। 1707 ई. में मुगल बादशाह बहादुरशाह ने उन्हें अपने साथ दक्षिण जाने का आग्रह किया। गुरुजी तलवंडी से महाराष्ट्र के नांदेड़ में आ गए। नांदेड़ में 1708 ई. में एक पठान ने गुरु गोबिन्द सिंह की पीठ में छुर्रा घोंप दिया जिससे वे गहरे घाव के कारण 1708 ई. को गुरु गोबिन्द सिंह इस संसार को छोड़कर परम ज्योति में समा गए।

बंदा सिंह बहादुर का संघर्ष – देहान्त से कुछ समय पूर्व गुरु गोबिन्द सिंह की भेंट एक ऐसे महान वीर से हुई, जिसने न केवल मुगलों से संघर्ष को जीवित रखा, बल्कि गुरुजी के बेटों की अमानवीय हत्या का प्रतिशोध भी लिया। इस महानायक को विभिन्न नामों से जाना जाता है: माधोदास बैरागी, वीर बंदा बैरागी और बंदा सिंह बहादुर ।

सन् 1670 ई. में जम्मू-कश्मीर स्थित राजौरी नामक स्थान में जिस बालक का जन्म हुआ था उसके माता-पिता ने उसका नाम लक्ष्मण देव रखा था। उनका परिवार कृषि करता था इसलिए लक्ष्मण देव भी कृषि में पिता का हाथ बटाने लगे। एक दिन हिरणी के शिकार ने उनकी जीवनधारा ही बदल दी। हिरणी को तड़पते हुए देखकर लक्ष्मण देव में वैराग्य का भाव उत्पन्न हो गया और वो बैरागी सम्प्रदाय से जुड़ गए। वैराग्य की दीक्षा लेने के बाद उनका नाम माधोदास बैरागी हो गया। उन्होंने विभिन्न अखाड़ों में अस्त्र-शस्त्रों में निपुणता अर्जित की थी।

1708 ई. को उनकी भेंट नांदेड़ में गुरु गोबिन्द सिंह से हुई। गुरु गोबिन्द सिंह ने माधोदास बैरागी को अमृतपान करवाया, और फिर वे बंदा सिंह बहादुर’ के नाम से जाने जाने लगे। गुरुजी ने मुगलों द्वारा सभी गैर-मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार रोकने के लिए बंदा सिंह बहादुर को सिक्खों का सेनापति नियुक्त कर दिया। गुरु गोबिन्द सिंह ने बंदा सिंह बहादुर को पांच तीर देकर तथा 25 सिक्खों के साथ पंजाब की तरफ रवाना किया। बंदा सिंह बहादुर के जीवन का असली सफर यहीं से शुरू हुआ। उन्होंने औरंगजेब की मृत्यु से उत्पन्न अराजकता की स्थिति का लाभ उठाया तथा 1709 ई. में हरियाणा में सोनीपत के निकट सेहरी खाण्डा नामक स्थान पर डेरा लगाया। शीघ्र ही बंदा सिंह बहादुर ने सिक्खों की बिखरी शक्ति को एकजुट किया। बंदा सिंह बहादुर के साथ बहुत से लोग जुड़ चुके थे। ये वो लोग थे जो मुगलों द्वारा सताये गए थे। बंदा सिंह बहादुर ने एक विशाल सेना संगठित की तथा मुगलों के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया। इस सेना में हर वर्ग के लोग सम्मिलित थे जिन्हें बलपूर्वक मुसलमान बना दिया गया था। उन मुसलमानों को भी उन्होंने अपनी सेना में सम्मिलित कर लिया। इस सेना में ऐसे कारीगर भी थे जो अपने शस्त्र स्वयं ही बनाते थे।

आरम्भ में बंदा सिंह बहादुर ने अनेक छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ी तथा जीत हासिल की। उनकी पहली बड़ी लड़ाई 1709 ई. में समाना शहर की मानी जाती है। इस लड़ाई को जीतकर उन्होंने भाई फतेहसिंह को यहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। तत्पश्चात् उन्होंने घुड़ाम, ठसका, मुस्तफाबाद को भी आसानी से जीत लिया। इसके बाद उन्होंने सढौरा की तरफ रुख किया किन्तु रास्ते में सढौरा से चार मील दूर स्थित कपूरी गांव के दुराचारी जमींदार कदमुद्दिन पर हमला करके वहां की जनता को राहत दी। उसके बाद बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा के अत्याचारी फौजदार उसमान खान पर आक्रमण किया। सढौरा की लड़ाई में वहां की आम जनता किसान, मजदूर आदि सबने मिलकर बंदा का साथ दिया। थोड़े से संर्घष के बाद सढौरा पर सिक्खों का नियंत्रण हो गया।

बंदा सिंह बहादुर एक कुशल योद्धा थे। उन्होंने सरहिंद पर आक्रमण करने से पहले उसकी चारों तरफ की सहायक शक्तियों को नष्ट कर दिया था। तत्पश्चात् बंदा सिंह बहादुर ने 1710 ई. में सरहिंद पर चढ़ाई की। सरहिंद के मुगल सूबेदार वजीर खान की सेना तथा बंदा सिंह बहादुर की सिक्ख सेना के मध्य चपड़-चिड़ी नामक स्थान पर भयानक युद्ध हुआ। युद्ध में बंदा सिंह बहादुर की विजय हुई तथा सिक्खों ने सरहिंद पर अधिकार कर लिया। बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा के निकट शिवालिक की पहाड़ियों में स्थित मुखलिसगढ़ के किले को सिक्खों की प्रथम राजधानी बनाया तथा इस किले का नाम बदलकर लौहगढ़ रखा गया।

बंदा सिंह बहादुर ने प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए बाज सिंह को सरहिंद, फतेह सिंह को समाना तथा विनोद सिंह व राम सिंह को थानेसर का सूबेदार बनाया। उन्होंने गुरु नानक व गुरु गोबिंद सिंह के नाम से सिक्के चलाए तथा सरहिंद की विजय के बाद एक नया संवत् भी आरम्भ किया। उन्होंने हुकुमनामे व फरमान जारी करने के लिए एक सील (मोहर) भी जारी की। बंदा सिंह बहादुर ने प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर किसानों को भूमि का स्वामित्व दिया।

अगले छह वर्षों में बंदा सिंह बहादुर की इस सेना ने सहारनपुर से लेकर लाहौर तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। दिसम्बर 1715 ई. को मुगल सेना ने उन्हें आठ सौ साथियों सहित गुरदास नंगल नामक स्थान से बन्दी बना लिया। इनमें बंदा सिंह बहादुर का चार वर्षीय बेटा अजय सिंह और उनकी पत्नी भी थे। 9 जून, 1716 ई. को दिल्ली में उन्हें अमानवीय यातनाएँ देकर शहीद कर दिया गया।

Leave a Comment

error: