सिख गुरु परंपरा Class 8 इतिहास Chapter 2 Question Answer – हमारा भारत III HBSE Solution

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HBSE Class 8 इतिहास / History in hindi सिख गुरु परंपरा / Sikh Guru Prampara Question Answer for Haryana Board of chapter 2 in Hamara Bharat III Solution.

सिख गुरु परंपरा Class 8 इतिहास Chapter 2 Question Answer


आओ याद करें :

1. गुरु नानक देव का जन्म 1469 ई. में तलवंडी नामक गांव (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ।

2. गुरु अर्जुन देव ने 1590 ई. में रावी और व्यास नदियों के मध्य तरनतारन नगर बसाया।

3. 11 दिसंबर, 1675 ई. को दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेगबहादुर एवं उनके सहयोगी मतिदास, सतिदास एवं भाई दयाला को अमानवीय शारीरिक यातनाएं देकर मौत के घाट उतारा गया।

4. गुरु गोबिंद सिंह ने 1699 ई. में आनंदपुर साहिब में खालसा की स्थापना की।

5. गुरु गोबिन्द सिंह के पंज प्यारों में दयाराम क्षत्रिय (लाहौर), धर्मदास जाट (मेरठ), मोहकमचंद दर्जी (द्वारिका), साहिबचंद नाई (बीदर) एवं हिम्मत राय कहार (उड़ीसा) थे।

6. गुरु गोबिन्द सिंह ने आनंदपुर साहिब के प्रथम युद्ध में मुगल सेनापति पैंदा खान का वध कर दिया था।

7. गुरु गोबिन्द सिंह और बंदा बहादुर की भेंट 1708 ई. में नांदेड़ (महाराष्ट्र) नामक स्थान पर हुई।

8. बाबा बंदा सिंह बहादुर ने 1708 ई. में हरियाणा के सोनीपत में सेहरी खांडा को अपना प्रमुख केन्द्र बनाया।


रिक्त स्थान भरे

  1. लंगर व्यवस्था की स्थापना _______ ने की थी।

  2. मंजी-प्रथा की स्थापना गुरु _______ ने की थी।

  3. बाल गुरु _________ को कहा जाता है।

  4. गुरु हरगोविंद को ________ किले में कैद किया गया था।

  5. खालसा की स्थापना ________ ने की थी।

उत्तर – 1. गुरु नानक देव, 2. गुरु अमरदास, 3. गुरु हरकिशन, 4. ग्वालियर, 5. गुरु गोबिन्द सिंह


निम्नलिखित का सही मिलान करें :

  1. गुरु नानक
  2. गुरु अंगददेव
  3. गुरु रामदास
  4. गुरु अर्जुनदेव
  5. गुरु हरगोविंद
  • मीरी और पीरी
  • गोविंदवाल
  • गुरुग्रंथ साहिब
  • ननकाना साहिब
  • अमृतसर नगर

उत्तर

  1. गुरु नानक
  2. गुरु अंगददेव
  3. गुरु रामदास
  4. गुरु अर्जुनदेव
  5. गुरु हरगोविंद
  • ननकाना साहिब
  • गोविंदवाल
  • अमृतसर नगर
  • गुरुग्रंथ साहिब
  • मीरी और पीरी

आओ विचार करें:


प्रश्न 1. गुरु तेगबहादुर के हिन्दू धर्म की रक्षा में योगदान एवं बलिदान पर विचार कीजिए।

उत्तर – गुरु तेगबहादुर ने गद्दी पर आसीन होने के बाद धर्म की रक्षा और प्रसार के लिए बहुत कार्य किए। इस समय मुगल शासक औरंगज़ेब दिल्ली का शासक था। उसके आदेश के अनुसार देशभर में सभी हिन्दुओं पर अत्याचार किए जा रहे थे और मंदिरों को तोड़ा जा रहा था। गुरुजी की धर्म के प्रति निष्ठा सुनकर कश्मीरी पंडित उनसे मिलने आए। उन्होंने गुरुजी को बताया कि किस तरह पूरे कश्मीर में हिन्दुओं को मुसलमान बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है और मंदिर तोड़कर उनके स्थान पर मस्जिदें बनाई जा रही हैं। धर्म पर आए इस खतरे को देखकर गुरुजी ने पंडितों का समर्थन करने का निश्चय कर लिया और वे पंडितों के साथ दिल्ली चले आए। 11 दिसंबर, 1675 ई. को दिल्ली के चाँदनी चौक पर भाई मतिदास, भाई सतिदास और भाई दयाला के साथ गुरु तेगबहादुर को शहीद कर दिया गया। जहां उनका सिर काटा गया था, वहां आज ‘गुरुद्वारा शीशगंज साहिब’ है। हिंदू धर्म की लाज रखने के कारण उनको ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है।


प्रश्न 2. गुरु गोविंद सिंह की मुगलों के विरुद्ध लड़ाइयों एवं उनके परिणाम पर विचार कीजिए।

उत्तर

नादौन एवं गुलेर की लड़ाई – 1690-91 ई. में पहाड़ी राजाओं ने मुगल सरकार को कर देने से मना कर दिया। इस पर आलिफ खान के नेतृत्व में मुगल सेना ने पहाड़ी राजाओं को दण्ड देने का निर्णय किया। नादौन नामक स्थान पर मुगल सेना व पहाड़ी राजाओं के बीच युद्ध हुआ। गोविन्द राय ने राजा भीमचन्द व अन्य पहाड़ी राजाओं के साथ मिलकर मुगल सेना को हरा दिया। लेकिन बाद में पहाड़ी राजाओं ने मुगलों से संधि कर ली जिससे गुरु गोविन्द राय को निराशा हुई।

आनंदपुर साहिब का प्रथम युद्ध – 1700 ई. में औरंगज़ेब के दस हज़ार सैनिक दीना बेग और पैंदा खान के साथ, युद्ध के लिए पंजाब पहुंचे। यहाँ गुरु गोबिन्द सिंह ने एक ही बाण से पैदा खान का वध कर दिया, जिससे मुगल सेना भयभीत होकर मैदान छोड़कर भाग गई।

निर्मोह का युद्ध – सन् 1702 ई. में वज़ीर खान के नेतृत्व में मुगल सेना ने सिक्खों पर हमला कर दिया। दूसरी ओर से मुगलों का सहयोग करने वाले कुछ पहाड़ी राजाओं ने भी हमला किया। यह युद्ध दो दिन तक चला जिसके अंत में गुरुजी की सेना विजयी हुई और वजीर खान अपनी सेना सहित मैदान छोड़कर भाग गया।

बसोली का युद्ध – निर्मोह के युद्ध के बाद गुरुजी अपनी सेना के साथ हिमाचल के बसोली में चले गए, जहाँ का राजा धर्मपाल उनका सहयोगी था। जब यहाँ मुगल सेना ने हमला किया तो धर्मपाल के विरोधी अजमेर चंद ने मुगल सेना का साथ दिया। यह युद्ध एक संधि में समाप्त हुआ, जिसके पश्चात् गुरुजी एक बार फिर से आनन्दपुर साहिब में आ गए।

आनंदपुर का दूसरा युद्ध – दो वर्ष की शांति के बाद सन् 1704 ई. में एक बार फिर मुगल सेना ने आनंदपुर पर हमला किया। इस बार युद्ध की कमान सैय्यद खान और रमजान खान के हाथों में थी। एक बार पुनः वे सिक्ख वीरों से परास्त होकर लौट गए। इस हार का प्रतिशोध लेने के लिए औरंगज़ेब ने फौजदार वज़ीर खान और ज़बरदस्त खान को भेजा। मुगलों ने किले को घेर लिया। आठ महीने तक घेराबंदी रहने से मुगलों की रणनीति काम कर गई। मुगलों ने आश्वासन दिया कि यदि वे किला खाली कर दें, तो उनपर हमला नहीं होगा। 21 दिसंबर, 1704 ई. को माता गुजरी के कहने पर गुरुजी ने आनंदपुर छोड़ने का निश्चय किया।

चमकौर साहिब का युद्ध – गुरुजी के आनंदपुर से निकलते ही मुगलों ने उन्हें सुरक्षित निकल जाने का अपना वादा तोड़ दिया और अपनी सेना को उनके पीछे भेज दिया। सरसा नदी पार करके जब वे चमकौर साहिब पहुँचे, तो उनके साथ केवल चालीस सिक्ख बचे थे। एक ओर केवल चालीस सिक्ख योद्धा और दूसरी ओर हज़ारों मुगल किन्तु उस दिन के युद्ध ने संसार को दिखा दिया कि आखिर भारतमाता के सपूत किस मिट्टी से बने हुए हैं। पूरे दिन के संघर्ष के बाद केवल पांच सिक्ख ही जीवित बच सके।

खिदराना का युद्ध – गुरु गोबिंद सिंह चमकौर साहिब से निकलकर खिदराना की ओर चले गए। खिदराना तक पहुँचते-पहुँचते रास्ते में लगभग दो हजार और सिक्ख सैनिक गुरुजी की सेना में शामिल हो गए, लेकिन इनका सामना दस हजार मुगल सैनिकों से था। इस युद्ध में बहुत सारे सिक्ख वीरगति को प्राप्त हो गए। खिदराना से गुरुजी तलवंडी पहुंचे।


प्रश्न 3. धर्म की रक्षा एवं साम्राज्य की स्थापना में वीर बंदा सिंह बहादुर के योगदान पर विचार करें।

उत्तर – बंदा सिंह बहादुर ने गुरु गोबिंद सिंह के बेटों की अमानवीय हत्या का मुगलों से प्रतिशोध लिया। गुरुजी ने मुगलों द्वारा सभी गैर-मुसलमानों पर हो रहे अत्याचार रोकने के लिए बंदा सिंह बहादुर को सिक्खों का सेनापति नियुक्त कर दिया। गुरु गोबिन्द सिंह ने बंदा सिंह बहादुर को पांच तीर देकर तथा 25 सिक्खों के साथ पंजाब की तरफ रवाना किया। उन्होंने औरंगजेब की मृत्यु से उत्पन्न अराजकता की स्थिति का लाभ उठाया तथा 1709 ई. में हरियाणा में सोनीपत के निकट सेहरी खाण्डा नामक स्थान पर डेरा लगाया। शीघ्र ही बंदा सिंह बहादुर ने सिक्खों की बिखरी शक्ति को एकजुट किया। बंदा सिंह बहादुर के साथ बहुत से लोग जुड़ चुके थे। ये वो लोग थे जो मुगलों द्वारा सताये गए थे। बंदा सिंह बहादुर ने एक विशाल सेना संगठित की तथा मुगलों के विरुद्ध संघर्ष शुरू कर दिया। इस सेना में हर वर्ग के लोग सम्मिलित थे। आरम्भ में बंदा सिंह बहादुर ने अनेक छोटी-छोटी लड़ाइयां लड़ी तथा जीत हासिल की। उनकी पहली बड़ी लड़ाई 1709 ई. में समाना शहर की मानी जाती है। इस लड़ाई को जीतकर उन्होंने भाई फतेहसिंह को यहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। तत्पश्चात् उन्होंने घुड़ाम, ठसका, मुस्तफाबाद को भी आसानी से जीत लिया। इसके बाद उन्होंने सढौरा की तरफ रुख किया किन्तु रास्ते में सढौरा से चार मील दूर स्थित कपूरी गांव के दुराचारी जमींदार कदमुद्दिन पर हमला करके वहां की जनता को राहत दी। उसके बाद बंदा सिंह बहादुर ने सढौरा के अत्याचारी फौजदार उसमान खान पर आक्रमण किया। सढौरा की लड़ाई में वहां की आम जनता किसान, मजदूर आदि सबने मिलकर बंदा का साथ दिया। थोड़े से संर्घष के बाद सढौरा पर सिक्खों का नियंत्रण हो गया। तत्पश्चात् बंदा सिंह बहादुर ने 1710 ई. में सरहिंद पर चढ़ाई की। सरहिंद के मुगल सूबेदार वजीर खान की सेना तथा बंदा सिंह बहादुर की सिक्ख सेना के मध्य चपड़-चिड़ी नामक स्थान पर भयानक युद्ध हुआ। युद्ध में बंदा सिंह बहादुर की विजय हुई तथा सिक्खों ने सरहिंद पर अधिकार कर लिया। बंदा सिंह बहादुर ने प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए बाज सिंह को सरहिंद, फतेह सिंह को समाना तथा विनोद सिंह व राम सिंह को थानेसर का सूबेदार बनाया। उन्होंने गुरु नानक व गुरु गोबिंद सिंह के नाम से सिक्के चलाए तथा सरहिंद की विजय के बाद एक नया संवत् भी आरम्भ किया। उन्होंने हुकुमनामे व फरमान जारी करने के लिए एक सील (मोहर) भी जारी की। बंदा सिंह बहादुर ने प्रशासनिक कार्यों के साथ-साथ ज़मीदारी प्रथा को समाप्त कर किसानों को भूमि का स्वामित्व दिया। अगले छह वर्षों में बंदा सिंह बहादुर की इस सेना ने सहारनपुर से लेकर लाहौर तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। दिसम्बर 1715 ई. को मुगल सेना ने उन्हें आठ सौ साथियों सहित गुरदास नंगल नामक स्थान से बन्दी बना लिया। 9 जून, 1716 ई. को दिल्ली में उन्हें अमानवीय यातनाएँ देकर शहीद कर दिया गया।


आओ चर्चा करें :


प्रश्न 1. सिक्ख पंथ की उत्पत्ति एवं विकास का वर्णन कीजिए।

उत्तर – सिक्ख धर्म के उदय और विकास के क्रम में दस गुरु हुए हैं। प्रथम गुरु नानक देव और दसवें गुरु गोबिंद सिंह थे। उनके शिष्यों को सिक्ख नाम से जाना जाता है। उन्होंनें समानता, बंधुता, ईमानदारी तथा सृजनात्मक शारीरिक श्रम के द्वारा जीविका-उपार्जन पर आधारित नई सामाजिक व्यवस्था स्थापित की। शुरू से ही नानक का संदेश कबीर, दादू, चैतन्य तथा अन्य संतों के समान होते हुए भी मौलिक रूप में अलग प्रकार का था। कालंतर में गुरु नानक की विचारधारा ही सिक्ख धर्म बन गई। दूसरे गुरु अंगददेव ने एक अलग लिपि अपनाई जिसे गुरुमुखी कहा जाता है। पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने सिक्खों के लिए पवित्र ‘आदिग्रंथ’ तैयार किया जिसे ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ भी कहा जाता है। इस ग्रंथ में गुरुओं की वाणी के साथ अनेक संत कवियों की रचनाएं भी जोड़ी गई। छठे गुरु हरगोबिंद ने सिक्खों को सैन्य स्वरूप प्रदान किया। दसवें गुरु गोबिंदसिंह ने ‘खालसा’ की स्थापना कर सिक्ख धर्म को एक अलग पहचान दे दी। उन्होंने सिक्ख गुरु परंपरा को समाप्त कर पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को ही सिक्खों के लिए गुरु घोषित कर दिया।


प्रश्न 2. गुरु नानक देव के जीवन और शिक्षाओं पर चर्चा कीजिए

उत्तर

गुरु नानक देव का जीवन – गुरु नानक का जन्म 1469 ई. में पंजाब के तलवंडी नामक स्थान पर हुआ। उनके पिता का नाम महता कालू चंद तथा माता का नाम तृप्ता था। तलवंडी गांव को अब ‘ननकाना साहिब’ के नाम से जाना जाता है जो अब पाकिस्तान में है। नानक का जन्म कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन हुआ था। यह बालक बड़ा होकर एक ‘आध्यात्मिक गुरु’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिन्हें आज हम ‘गुरु नानक’ देव के नाम से जानते हैं। जब नानक सात वर्ष के हुए तो उन्हें शिक्षा के लिए पण्डित गोपालदास की पाठशाला में भेजा गया। बाल्यकाल से ही उनकी रुचि अध्यात्म में थी। गुरुनानक का विवाह सुलखनी से हुआ, जो बटाला की रहने वाली थी। उनके दो बेटे हुए – श्रीचन्द और लखमीदास। आक्रमणकारियों के चलते उत्तर भारत में राज-आश्रय न मिलने के कारण साहित्य, कलाएँ और सामाजिक ढाँचा नष्ट हो रहा था। धर्म पर इन खतरों को देखते हुए उन्होंने समाज को संगठित और जागरूक करने के लिए उपदेश देने प्रारंभ किए।

गुरु नानक देव की शिक्षाएँ – गुरु नानक ने भारत, मध्य एशिया और अरब देशों का भ्रमण किया था। गुरु नानक गृहस्थ जीवन को भक्ति के मार्ग में बाधा नहीं मानते थे। वे अपना अधिकांश समय साधना और उपदेश देने में बिताते थे। गुरु नानक ने समाज में सुधार किए। गुरु नानक के उपदेश व्यावहारिक एवं समाज कल्याण के लिए थे। उन्होंने कहा कि संसार में न कोई हिंदू है और न ही कोई मुसलमान अपितु सब उस एकमात्र परम शक्तिशाली परमात्मा की संतान हैं, जो अनंत, सर्वशक्तिमान, सत्य, कर्ता, निर्भय, निर्गुण और अजन्मा है। उनका उपदेश था कि हमें जातीय भेदभाव से दूर रहकर प्रेम के साथ रहना चाहिए।


प्रश्न 3. सिक्ख को सैन्य स्वरूप देने वाले गुरु गोबिंद सिंह के सिक्खों के विकास में योगदान पर चर्चा कीजिए।

उत्तर – सभी सिक्ख गुरु गृहस्थी थे। गुरु गोबिंद सिंह के परिवार में उनकी दो पत्नियां व चार पुत्र थे। धर्म की रक्षा करने के लिए किरपाल चंद ने गुरुजी के लिए सेना का गठन किया। उन्होंने लोगों से कहा कि सभी अपने पुत्रों को धर्म की रक्षा के लिए सिक्ख बनाएं। लोगों ने अपने बेटों को सिक्ख बनाना शुरू कर दिया। दान के रूप में भी शस्त्रों और घोड़ों की भेंट देने को कहा गया। इससे उनके पास बड़ी संख्या में सैनिक और शस्त्र इकट्ठे हो गए। उन्होंने सिक्खों को मानसिक रूप से सशक्त बनाने के लिए रामायण और महाभारत का हिन्दी और गुरुमुखी में अनुवाद भी करवाया। उन्होंने सिक्ख धर्म को एक नया स्वरूप दिया और ‘खालसा’ की स्थापना की। खालसा की स्थापना 1699 ई. में आनन्दपुर साहिब में की गई थी। खालसा की स्थापना से गुरुजी ने सिक्ख धर्म को सैन्य स्वरूप प्रदान किया, जो मुगलों से मुकाबला करने के लिए समय की मांग थी। गुरु गोबिन्द सिंह ने ‘खालसा’ की स्थापना कर भविष्य में सिक्खों के लिए पांच प्रतीक धारण करना अनिवार्य कर दिया। ये प्रतीक थे : केश, कृपाण, कड़ा, कंघा और कच्छा। गुरुजी ने अपनी दूर दृष्टि से एक ऐसी सेना का निर्माण किया जो मुगलों से लोहा ले सके। इस सेना में शामिल होने वालों को खालसा कहा जाता था। गुरु गोबिन्द सिंह ने घोषणा की कि जब देश पर विदेशी शक्तियाँ हमलावर होकर आई हैं, तो एक ही तीर्थ है रणभूमि, एक ही वर्ण है-खालसा ।


प्रश्न 4. खालसा की स्थापना एवं विस्तार पर गुरु गोबिंद सिंह के कार्यों पर विस्तृत चर्चा करें।

उत्तर – खालसा की स्थापना 1699 ई. में आनन्दपुर साहिब में की गई थी। ‘खालसा’ शब्द का अर्थ है पवित्र । खालसा की स्थापना से गुरुजी ने सिक्ख धर्म को सैन्य स्वरूप प्रदान किया, जो मुगलों से मुकाबला करने के लिए समय की मांग थी। सन् 1699 ई. की बैशाखी के दिन, गुरुजी के आह्वान पर पांच लोग धर्म हित में अपने प्राण देने के लिए आगे आए। इन्हें ‘पंज प्यारे’ कहा जाता है। इन सब को गुरुजी ने सबके समक्ष ‘पाँच प्यारों’ के रूप में प्रस्तुत किया। पाँचों वीरों ने गुरुजी के साथ मिलकर अमृत ग्रहण किया। ये पाँचों वीर दर्शाते हैं कि गुरुजी के अनुयायी समस्त भारत में थे। इसके बाद गुरुजी ने इन सबके नामों के साथ ‘सिंह’ लगा दिया और वे स्वयं भी गुरु गोबिन्द दास के स्थान पर ‘गुरु गोबिन्द सिंह’ के नाम से जाने जाने लगे। गुरु गोबिन्द सिंह ने ‘खालसा’ की स्थापना कर भविष्य में सिक्खों के लिए पांच प्रतीक धारण करना अनिवार्य कर दिया। ये प्रतीक थे : केश, कृपाण, कड़ा, कंघा और कच्छा। गुरुजी ने अपनी दूर दृष्टि से एक ऐसी सेना का निर्माण किया जो मुगलों से लोहा ले सके। इस सेना में शामिल होने वालों को खालसा कहा जाता था। गुरु गोबिन्द सिंह ने घोषणा की कि जब देश पर विदेशी शक्तियाँ हमलावर होकर आई हैं, तो एक ही तीर्थ है रणभूमि, एक ही वर्ण है-खालसा ।


प्रश्न 5. आनन्दपुर साहिब के युद्धों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

उत्तर –  आनंदपुर साहिब का प्रथम युद्ध – 1700 ई. में औरंगज़ेब के दस हज़ार सैनिक दीना बेग और पैंदा खान के साथ, युद्ध के लिए पंजाब पहुंचे। यहाँ गुरु गोबिन्द सिंह ने एक ही बाण से पैदा खान का वध कर दिया, जिससे मुगल सेना भयभीत होकर मैदान छोड़कर भाग गई। बिलासपुर के राजा भीमचंद का कहना था कि यदि गुरुजी आनंदपुर साहिब में रहना चाहते हैं तो उसका किराया दें अन्यथा वे उसे छोड़ दें। गुरुजी पर दबाव डालने के लिए भीमचंद ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर आनंदपुर साहिब को घेर लिया। गुरुजी इनसे युद्ध नहीं चाहते थे इसलिए वे आनंदपुर छोड़कर कीरतपुर के निकट निर्मोह नामक स्थान पर चले गए।

आनंदपुर साहिब का दूसरा युद्ध – 1704 ई. में एक बार फिर मुगल सेना ने आनंदपुर पर हमला किया। इस बार युद्ध की कमान सैय्यद खान और रमजान खान के हाथों में थी। एक बार पुनः वे सिक्ख वीरों से परास्त होकर लौट गए। इस हार का प्रतिशोध लेने के लिए औरंगज़ेब ने फौजदार वज़ीर खान और ज़बरदस्त खान को एक बड़ी सेना के साथ सिक्खों पर हमला करने के लिए भेजा। मुगलों ने किले को घेर लिया। उनकी रणनीति थी कि जब अंदर भोजन सामग्री समाप्त हो जाएगी, तो सिक्खों के पास पराजय के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं होगा। आठ महीने तक घेराबंदी रहने से मुगलों की रणनीति काम कर गई। न कोई अंदर से बाहर आ सकता था और न ही सिक्खों तक कोई सहायता पहुँच सकती थी। मुगलों ने आश्वासन दिया कि यदि वे किला खाली कर दें, तो उनपर हमला नहीं होगा। 21 दिसंबर, 1704 ई. को माता गुजरी के कहने पर गुरुजी ने आनंदपुर छोड़ने का निश्चय किया।


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