सुहेलदेव एवं पृथ्वीराज चौहान Class 7 इतिहास Chapter 7 Notes – हमारा भारत II HBSE Solution

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HBSE Class 7 इतिहास / History in hindi सुहेलदेव एवं पृथ्वीराज चौहान / Suheldev avam Prithviraj Chauhan notes for Haryana Board of chapter 7 in Hamara Bharat II Solution.

सुहेलदेव एवं पृथ्वीराज चौहान Class 7 इतिहास Chapter 7 Notes


राजा सुहेलदेव –

राजा सुहेलदेव एक वीर एवं पराक्रमी शासक थे। अपने पिता प्रसेनजित की मृत्यु के बाद 1027 ई. में सुहेलदेव बहराइच राज्य के शासक बने। उसने अपने पिता द्वारा स्थापित बहराइच राज्य को और अधिक सुदृढ़ किया। उसने राज्य के रक्षात्मक उपायों पर विशेष बल देते हुए सेना का पुनर्गठन किया। उसने 1027 ई. से 1077 ई. तक शासन किया। राजा सुहेलदेव ने महाराजा की उपाधि भी धारण की।

राजा सुहेलदेव ने अवध एवं उसके आसपास के विभिन्न क्षेत्रों को संगठित करके एक सुदृढ़ राज्य का निर्माण किया। ये क्षेत्र प्रशासनिक आधार पर 21 भागों में विभक्त थे, जहां राजा सुहेलदेव के सहयोगी उपराजा स्वतन्त्र रूप से प्रशासनिक प्रबन्धक का कार्य करते थे। जिन्हें राजभर राजा भी कहा जाता था। राजा सुहेलदेव ने अपने पराक्रम एवं बुद्धिमता से राज्य की सीमाओं का विस्तार करते हुए गोरखपुर से सीतापुर, गोंडा, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर तक फैलाया।

  • राजा सुहेलदेव का जन्म 990 ई. (वसंत पंचमी के दिन) में हुआ था। वह राजभर के नाम से प्रसिद्ध थे।
  • इनके दो भाई बहरदेव तथा मल्लदेव थे। वे भी अपने भाई सुहेलदेव की भांति वीर एवं पराक्रमी थे।
  • आज भी उत्तर प्रदेश के अवध और मैदानी भागों में राजा सुहेलदेव की वीरता की कहानियां सुनाई जाती हैं।
  • भारत सरकार ने राजा सुहेलदेव पर डाक टिकट जारी करके उनके प्रति सम्मान व्यक्त किया है।

1000 ई. से लेकर 1027 ई. तक महमूद गजनवी ने भारत में इस्लाम के प्रचार के उदेश्य से सत्रह बार आक्रमण किए। वह मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मन्दिरों को तोड़ने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भानजे सैयद सालार मसूद ने भी भाग लिया था। 1030 में महमूद गज़नवी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार व तुर्क राज्य के प्रसार करने की जिम्मेदारी सैयद सलार मसूद ने अपने कन्धों पर ली ।

वह भी भारत में इस्लाम का प्रसार करने के साथ-साथ यहां कि धनसंपदा को लूटना चाहता था। उसने दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों को जीतने के लिए आक्रमण किया। यहां उसका सामना राय महिपाल व राय हरगोपाल नामक दो स्थानीय प्रशासकों ने किया। लेकिन मसूद ने इनकी सेना को हरा दिया व दोनों लड़ते हुए युद्ध में मारे गए। मेरठ, बुलंदशहर व बदायूं क्षेत्र के स्थानीय शासकों ने मसूद की अधीनता स्वीकार कर ली। मसूद ने कन्नौज को केंद्र बनाकर पूर्व की ओर सेना भेजने का निर्णय किया। उसने सतारिख पर विजय प्राप्त की। इस क्षेत्र के स्थानीय शासकों ने बहराइच के राजा सुहेलदेव से मसूद को रोकने का आग्रह किया।

बहराइच के राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। वे बहराइच में सूर्य कुण्ड पर भगवान सूर्य की पूजा करते थे। बहराइच को पहले ब्रह्माइच के नाम से जाना जाता था।

सालार मसूद को रोकने के लिए बहराइच के आस-पास के सभी छोटे-बड़े राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबन्द हो गए। राजा बहराइच के शहर के उत्तर की ओर लगभग तीन मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित इकट्ठे हुए। अभी ये युद्ध की तैयारी ही कर रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि में आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गये लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई में सालार मसूद विजयी रहा।

पहली लड़ाई में परास्त होने के पश्चात् पुनः अगली लड़ाई के लिए बहराइच की सेना संगठित होने लगी। लेकिन इस बार भी उन्होंने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नहीं दिया। अतः वे पुन: रात के समय हुए इस युद्ध में भी परास्त हो गए तथापि तुर्क सेना के अनेक सैनिक इस युद्ध में मारे गये।

अब बहराइच की सेना सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक युद्ध हेतु तैयार हो गई थी। लड़ाई का क्षेत्र चित्तौर झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था।

जून 1034 ई. में दोनों सेनाओं के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में सैयद सलार मसूद मारा गया। उसकी बची हुई सेना भाग गयी।

सैयद मसूद को उसकी विशाल सेना के साथ समाप्त करने के बाद राजा सुहेलदेव ने विजय पर्व मनाया और इस महान् विजय के उपलक्ष में कई पोखर भी खुदवाए । वह एक विशाल स्तम्भ का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर सके। 1034 ई. में तुर्क सेना की इस पराजय बाद लगभग 140 वर्षों तक किसी भी तुर्क सेनापति ने भारत को लूटने व यहां इस्लाम का प्रसार करने का साहस नहीं किया।

बहराइच का युद्ध : जून 1034 ई. को सुहेलदेव के नेतृत्व में एक बड़ी सेना ने सालार मसूद की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद अधिक देर तक न ठहर सका। सुहेलदेव के धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विषबुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा, जिससे उसका देहान्त हो गया। इसके दूसरे ही दिन शिविर की देख-भाल करने वाला सालार इब्राहिम भी बचे हुए सैनिकों के साथ मारा गया।

पृथ्वीराज चौहान

भारतीय राजपूत राजवंशों में चौहान वंश को विशेष स्थान प्राप्त है। चौहान वंश के शासकों ने 9वीं से 12वीं सदी तक शासन किया। इस राजवंश के शासकों ने आधुनिक राजस्थान हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं इसके समीपवर्ती क्षेत्रों पर शासन किया। प्रारम्भिक काल में इनकी राजधानी शाकंभरी (सांभर झील) थी इसके बाद अजमेर को राजधानी बनाया गया। जिसके कारण इन्हें अजमेर के चौहानों के रूप में जाना जाता है। इस राजवंश के संस्थापक का नाम राजा वासुदेव चौहान था। इस वंश के प्रमुख शासक थे : विग्रहराज प्रथम (734-759 ई.), गोविन्द राज- प्रथम (809-836 ई.) विग्रहराज द्वितीय (971-988 ई.) विग्रह राज तृतीय (1070-1090 ई.) विग्रहराज चतुर्थ (1050-1164 ई.) पृथ्वीराज चौहान (1178-1192 )1

चौहान वंश के महान एवं अन्तिम शासक पृथ्वीराज चौहान तृतीय थे। जिन्होंने दिल्ली के आस-पास अपने पराक्रम से चौहान वंश के महान साम्राज्य की स्थापना की।

पृथ्वीराज चौहान को ‘राय पिथौरा’ भी कहा जाता है। इनका जन्म 1165 ई. में हुआ। यह अजमेर के शासक सोमेश्वर और कमला देवी के पुत्र थे। उन्होंने बाल्य काल में ही युद्ध विद्या सीख ली थी। पृथ्वीराज चौहान ने बिना किसी हथियार के शेर को मार गिराया। जिसके कारण उसे ‘अजमेर का शेर’ भी कहा जाता है। उसे पृथ्वीराज तृतीय के नाम से भी जाना जाता था।

पृथ्वीराज चौहान को उनके पिता की मृत्यु के पश्चात 1178 ई. में तेरह वर्ष की आयु में अजमेर का शासक नियुक्त किया गया। उसकी बहादुरी एवं शौर्य से प्रभावित होकर इसके नाना ( अनंगपाल ) ने उसे दिल्ली के सिहांसन का उत्तराधिकारी भी घोषित किया।

पृथ्वीराज चौहान ने गद्दी पर बैठने के पश्चात साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाते हुए 1182 ई. में भाड़ान के राजा को परास्त किया और रिवाड़ी, भिवानी तथा अलवर के क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था। इसके बाद बुन्देलखण्ड के चन्देल शासक परमाल को भी हराया।

उन्होंने 1186 ई. में गुजरात के शासक भीमदेव द्वितीय को हराया तथा अपने साम्राज्य का विस्तार पश्चिमी भारत में किया। पृथ्वीराज चौहान ने महाराजधिराज की उपाधि धारण की।

पृथ्वीराज चौहान के बारे में यह भी जाने—

  • पृथ्वीराज चौहान ने 64 कलाओं में 14 विद्याओं का अध्ययन किया था।
  • पृथ्वीराज चौहान केवल 13 वर्ष की आयु में सिंहासन पर बैठे।
  • सम्राट पृथ्वीराज 36 अस्त्र धारण कर सकते थे।
  • चंदबरदाई ने लिखा है कि पृथ्वीराज शब्दभेदी बाण चलाने में निपुण थे।
  • पृथ्वीराज चौहान को 6 भाषाओं संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची, मगधी व शूरसेन का ज्ञान था।
  • पृथ्वीराज चौहान के पिता का नाम सोमेश्वर व उनकी माता का नाम कमला देवी था।
  • पृथ्वीराज चौहान धर्मशास्त्र, मीमांसा, आयुर्वेद, गणित व संगीत आदि विद्याओं के ज्ञाता थे।
  • पृथ्वीराज विजय नामक ग्रंथ में पृथ्वीराज की 16 रानियों के नाम मिलते हैं।
  • पृथ्वीराज के पास एक विशाल सेना थी जिसमें तीन लाख सैनिक व 380 हाथी थे व सैनिक के रूप में कुशल घुड़सवार में ऊंट सवार भी थे।

पृथ्वीराजरासो

  • ‘पृथ्वीराजरासो’ ढाई हजार पृष्ठों का महाकाव्य है जिसमें एक लाख छंद व 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं।
  • इसके रचयिता चन्दबरदाई थे वे पृथ्वीराज के बचपन के मित्र और उनके राजकवि थे और उनकी युद्ध यात्राओं के समय वह ओजस्वी कविताओं से सेना को प्रोत्साहित भी करते थे।

भारत को 1175 ई. के बाद एक बार पुनः तुर्क आक्रमणों का सामना करना पड़ा। इस बार तुर्क आक्रमणकारी था मोहम्मद गौरी। उसने 1175 ई. से 1206 ई. तक भारत पर अनेक आक्रमण किये। इस समय भारत में गुजरात का चालुक्य, दिल्ली और अजमेर का चौहान तथा कन्नौज के गहड़वाल नामक तीन शक्तिशाली राजवंश थे। ये तीनों राजवंश अपने आप में इतने सक्षम और शक्तिशाली थे कि वे अकेले-अकेले ही तुर्क शत्रुओं से सफलता पूर्वक निपट सकते थे। मोहम्मद गौरी ने सैन्य बल के साथ-साथ युद्ध की रणनीति की ओर विशेष ध्यान दिया। सर्वप्रथम उसने खैबर की बजाए अधिक सुरक्षित एवं छोटे मार्ग का प्रयोग करते हुए गोमल दर्रे से भारत में प्रवेश किया। 1175 ई. में मोहम्मद गौरी ने मुल्तान को आसानी से जीत लिया। उसके बाद उसने उच्च के शासक भट्टी राय पर धोखे से विजय प्राप्त की ।

मूलराज तथा नायकी देवी मोहम्मद गौरी की हार : 1178 ई. में मोहम्मद गौरी ने गुजरात के चालुक्य राजा मूलराज द्वितीय पर आक्रमण किया। यहां मूलराज द्वितीय की मां नायकी देवी के नेतृत्व में एक विशाल सेना ने मोहम्मद गौरी की सेना का सामना किया। इस युद्ध में मोहम्मद गौरी की सेना की भारी पराजय हुई। मोहम्मद गौरी जान बचाकर गज़नी वापस लौटा। यह पराजय इतनी भयंकर थी की मोहम्मद गौरी ने अपने जीवन में पुन: गुजरात की तरफ मुंह नहीं किया। इसके बाद मोहम्मद गौरी ने पेशावर और लाहौर को जीता। अब वह दिल्ली और अजमेर पर अधिकार करने की योजना बनाने लगा।

हमीर महाकाव्य के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को सात बार हराया। प्रबंध चिंतामणि एवं पृथ्वीराजरासो के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को इक्कीस बार हराया जबकि मुस्लिम लेखकों मिन्हास और फरिश्ता के अनुसार पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच तराइन के मैदान में केवल दो लड़ाइयां हुई इतिहासकार दशरथ शर्मा का मानना है कि 1186 ई. में लाहौर जीतने के बाद गौरी के सेना नायकों और पृथ्वीराज चौहान की सेनाओं की सीमा पर हुई झड़पों को हिंदू लेखकों ने बड़ी लड़ाइयां लिखा जबकि मुस्लिम लेखकों ने इनकी उपेक्षा कर दी।

तराइन के युद्ध

तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.) –

1190 ई. में मोहम्मद गौरी ने दिल्ली की ओर बढ़ना आरम्भ किया उसने पृथ्वीराज के सीमान्त क्षेत्र ( भटिंडा) पर अधिकार कर लिया। मगर पुन: कुछ दिनों के बाद पृथ्वीराज के सैनिकों ने गौरी के सैनिकों को वहां से भगा दिया। अगले ही वर्ष 1191 ई. में मोहम्मद गौरी ने अपनी सैनिक तैयारी के साथ दिल्ली विजय की योजना बनाई। दिल्ली से 80 मील दूर दोनों के मध्य तराइन ( तरावड़ी) के स्थान पर घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में चौहान सेना ने अपनी पूरी ताकत दिखाई। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के भाई गोबिन्दराय ने मोहम्मद गौरी पर हमला करके उसे घायल कर दिया। यदि उसके सैनिक उसे नहीं बचाते तो वह मृत्यु को प्राप्त हो गया होता। युद्ध में गौरी की बुरी तरह से पराजय हुई। गौरी की सेना जान बचाने के लिए भाग खड़ी हुई। गौरी के सैनिकों को सरहिन्द तक खदेड़ा गया।

पृथ्वीराज चौहान का कार्य पूर्ववर्ती शासकों से अधिक कठिन था क्योंकि अरबों एवं महमूद गजनवी के आक्रमणों से भारत अपनी प्राकृतिक सीमाएं खो चुका था। लाहौर के पूरे प्रदेश पर तुर्क मुसलमानों का अधिकार हो चुका था तथा भारत के तबरहिंद (भटिंडा) तक उनकी सीमाएं पहुंच चुकी थी। इसी कारण प्रथम तराइन युद्ध के बाद पृथ्वीराज चौहान एक सीमा तक ही गौरी का पीछा कर सकता था।

तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)

तराइन के प्रथम युद्ध में हारने के बाद मोहम्मद गौरी गज़नी लौट गया। परन्तु वह अपनी अपमानजनक पराजय को न भूल सका। मोहम्मद गौरी अपनी पिछली पराजय का बदला लेना व भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता था। उसने अपनी सेना को एकत्रित करके 1192 ई. में भारत पर पुनः आक्रमण किया। गौरी की सेना में 120000 सैनिक थे। पृथ्वीराज को जब यह पता चला तो वह भी अपने अधीनस्थ राजाओं की सहायता से तराइन के मैदान में मुकाबला करने के लिए आ खड़ा हुआ। मोहम्मद गौरी ने रणनीति बनाकर सुबह-सुबह ही राजपूतों के शिविर पर उस समय हमला किया जिस समय सैनिक अपने नित्य कार्य से निवृत हो रहे थे। गौरी ने सेना को पांच भागों में बांट कर हमला किया। इस बार भी राजपूत वीरता से लड़े लेकिन उनकी पराजय हुई। मोहम्मद गौरी द्वारा पृथ्वीराज चौहान को पकड़ कर उसकी हत्या कर दी गई। इस विनाशक युद्ध के परिणामस्वरूप भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना हुई।

तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान पर विजय प्राप्त करके 1194 ई. में मोहम्मद गोरी ने कन्नौज के शासक जयचंद राठौर को चंदावर के युद्ध में पराजित किया। मोहम्मद गौरी और उसके सेनानायकों कुतुबुद्दीन ऐबक एवं बख्तियार खिलजी को भी भारतीय शासकों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। यद्यपि 1206 ई. में उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना तो हो गई लेकिन इस कार्य में विदेशी आक्रमणकारियों को भारतीयों के सतत प्रतिरोध के कारण 570 वर्ष (636 ई. से 1206 ई.) का समय लगा।

प्रशासनिक व्यवस्था –

चौहान राज्य में शासन राजतन्त्रीय व्यवस्था के अन्तर्गत होता था। फिर भी इस वंश के शासक निरकुंश नहीं होते थे। राजा राज्य का प्रधान होता था। राज्य की सभी शक्तियां उसमें निहित होती थी। वह राज्य का सबसे बड़ा कानून निर्माता, शासन प्रबन्धक, सेनापति व न्यायाधीश होता था। राजा विभिन्न तरह की उपाधियां धारण करते थे। राजा शासन को चलाने के लिये युवराज, मन्त्री व बड़े पदाधिकारियों की सलाह लेते थे।

आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था –

राज्य की अर्थिक व्यवस्था कृषि आधारित थी। इसके अतिरिक्त उद्योग भी उन्नत थे। कपड़ा, बर्तन, पत्थर की मूर्तियों से सम्बंधित उद्योग प्रमुख थे। दिल्ली व आस-पास के राजपूताना क्षेत्र में वर्णाश्रम समाज का मुख्य आधार था। इसके अतिरिक्त उनेक उपजातियां बन चुकी थी। उस समय सती प्रथा व जौहर प्रथा समाज में प्रचलित थी।

स्थापत्य कला एवं ललित कला –

पृथ्वीराज चौहान एवं राजपूत शासकों ने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए विभिन्न भागों में किलों का निर्माण करवाया। जिनमें रायपिथौरा, दिल्ली, अजमेर व हांसी का किला प्रमुख थे। शासकों द्वारा भवन निर्माण कला को प्रोत्साहन दिया गया। इससे स्थापत्य कला व मूर्ति कला का विकास हुआ।


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