सूरदास के पद Class 10 Hindi Explanation ( व्याख्या ) – क्षितिज भाग 2 NCERT Solution

NCERT Class 10 Hindi Chapter 1 Surdas ke pad of Kshitij Bhag 2 / क्षितिज भाग 2. Here We Provides Class 1 to 12 all Subjects NCERT Solution with Notes, Question Answer, HBSE Important Questions, MCQ and old Question Papers for Students.

Also Read :- Class 10 Hindi क्षितिज भाग 2 NCERT Solution

  1. Also Read – Class 10 Hindi क्षितिज भाग 2 NCERT Solution in Videos
  2. Also Read – Class 10 Hindi कृतिका भाग 2 NCERT Solution in Videos

NCERT Solution of Class 10 Hindi क्षितिज भाग 2 Kavita Chapter 1 Surdas Ke Pad / सूरदास के पद Explanation or Vyakhya ( व्याख्या ) for Exams.

सूरदास के पद Class 10 Explanation


1. ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूंद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

शब्दार्थ – अति – बहुत। बड़भागी – भाग्यशाली। अपरस – अछूता। सनेह – प्रेम। तगा – बंधन। पुरइनि पात – कमल का पत्ता। रहत – रहता है। रस – पानी। देह – शरीर। दागी – दाग लगना। गागरि – घड़ा। ताकौं – उसको। लागी – लगती है। प्रीति-नदी – प्रेम रूपी नदी। पाउँ – पैर। बोरयौ – डुबाया। परागी – खो जाना। भोरी – भोली। गुर – गुड़।  चाँटी – चींटी।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज भाग 2’ में संकलित ‘पद’ नामक कविता से अवतरित है। कृष्ण मित्र उधौ यहां गोपियों को कृष्ण द्वारा भेजा गया योग का संदेश देने आए हैं। जिस पर गोपियां अपनी प्रतिक्रिया दे रही हैं।

व्याख्या – इन पंक्तियों में गोपियों ने उधौ पर तंग करते हुए कहा है कि उधौ! तुम बहुत भाग्यशाली हो, जो श्री कृष्ण के पास रहकर भी उनके प्रेम के बंधन में नहीं बंधे। फिर गोपियाँ उदाहरण देती हैं कि तुम तो कमल के उस पत्ते के समान हो जो जल में रहता है परंतु फिर भी जल के दाग उस पर नहीं लगते हैं। फिर गोपियाँ कहती हैं जिस प्रकार चिकने घड़े को कितना भी जल में डूबा लो परंतु उस पर जल की एक बूंद भी नहीं ठहरती है। ठीक उसी प्रकार तुम भी श्री कृष्ण रूपी प्रेम की नदी के साथ रहते हुए भी उसमें तुमने अपना पैर तक नहीं डूबाया है। इसीलिए तुम्हारी नजर श्री कृष्ण के प्रेम में नहीं खोई है। गोपियाँ कहती है हम भोली भाली अबला गोपियाँ हैं। हम तो श्री कृष्ण के प्रेम में इस प्रकार लीन हैं जैसे चीटियां गुड में लीन हो जाती हैं।

काव्य सौंदर्य

  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।
  • व्यंग्यात्मक भाव है।
  • अनुप्रास, उपमा, रूपक अलंकारों का प्रयोग है।

2. मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग संदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुती गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।

सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।

शब्दार्थ माँझ – में। अवधि – समय सीमा। आस – उम्मीद। आवन – आने की। बिथा – पीड़ा। सही – सहन की है। जोग – योग। संदेसनि – संदेश। बिरहिनि – वियोग की पीड़ा में रहने वाली।  बिरह – बिछड़ना। दही – जल रही है। हुती – थी।  गुहारि – रक्षा के लिए पुकारना। उत – वहां। धीर – धैर्य। धरहिं – धारण करना। मरजादा – मर्यादा। न लही – नहीं रखी।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज भाग 2’ में संकलित ‘पद’ नामक कविता से अवतरित है। कृष्ण मित्र उधौ यहां गोपियों को कृष्ण द्वारा भेजा गया योग का संदेश देने आए हैं। जिस पर गोपियां अपनी प्रतिक्रिया दे रही हैं।

व्याख्या – गोपिया इन पंक्तियों में उधौ को बता रही हैं कि उनकी मन की बात मन में रह गई है अर्थात उनकी मन की बात सुनने के लिए श्री कृष्ण तो वहां पर है ही नहीं। हे उद्यौ! हम आपको अपने संदेश देने का उचित पात्र नहीं मानती हैं और कहती हैं कि उन्हें सिर्फ श्रीकृष्ण से बात करनी है। किसी और को कहकर संदेश नहीं भेज सकती। वे कहती हैं कि इतने समय से श्रीकृष्ण के लौटने की उम्मीद में हम तन-मन की हर प्रकार की व्यथा सहन कर रही थी। यह सोच कर कि श्री कृष्ण आएंगे और सारे दुख दर्द दूर हो जाएंगे। परंतु श्री कृष्ण ने न आकर यह योग का संदेश भेज दिया है। अब हम और ज्यादा वियोग की अग्नि में जलने लगी हैं‌ गोपियां अपने रक्षक को पुकारना चाहती हैं परंतु उनके दुख का कारण तो उनका रक्षक खुद है। हे उधौ! अब हम धैर्य कैसे रखें? अब हमने अपनी सारी मर्यादाओं को त्याग दिया है अर्थात जब गोपियों को आशा थी कि श्री कृष्ण आएंगे और उनकी बातें सुनेंगे, परंतु वह नहीं आए। अब जो बात सिर्फ श्री कृष्ण से करनी थी वह बात अब उधौ से भी करनी पड़ेगी।

काव्य सौंदर्य

  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।
  • अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।
  • प्रश्नात्मक शैली का प्रयोग है।

3. हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तो व्याधि हम कौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तो ‘सूर’ तिनहिं लै सौंपो, जिन के मन चकरी ॥

शब्दार्थ हरि – श्री कृष्ण। हारिल – एक पक्षी। लकरी – लकड़ी। क्रम – कर्म। जागत सोवत – जागते-सोते। स्वप्न – सपना। दिवस-निसि – दिन-रात। जकरी – जपती हैं। सुनत – सुनकर। ज्यौं – जैसे। करुई – कड़वी। ककरी – ककड़ी। व्याधि – बीमारी। तिनहिं – उनको। चकरी – चंचल है / भटकते रहते हैं।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज भाग 2’ में संकलित ‘पद’ नामक कविता से अवतरित है। कृष्ण मित्र उधौ यहां गोपियों को कृष्ण द्वारा भेजा गया योग का संदेश देने आए हैं। जिस पर गोपियां अपनी प्रतिक्रिया दे रही हैं।

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियों ने उधौ को अपना प्रेम श्री कृष्ण के प्रति व्यक्त किया है। गोपिया कहती है कि श्री कृष्ण हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान है अर्थात जिस प्रकार हारिल पक्षी अपने पंजों में हमेशा एक लकड़ी पकड़े रहता है उसी प्रकार हम श्रीकृष्ण के ध्यान में रहती हैं। हमारे मन, कर्म और वचन में श्रीकृष्ण को अपने मन द्वारा पकड़ लिया है। गोपिया कहती हैं कि जागते-सोते, सपने में, दिन-रात में, हर समय हम सदा श्री कृष्ण का जाप करती रहती हैं। गोपियाँ उधौ से कहती हैं कि तुम्हारा योग का संदेश सुनकर हमें ऐसा लगता है कि मानो हमने कड़वी ककड़ी खा ली हो। गोपियाँ उधौ से कहती हैं कि हे उधौ! तुम तो हमारे लिए एक ऐसी बीमारी ले आए हो, जिसके बारे में हमने ना तो कभी सुना है और ना ही कभी देखा है। यह योग का संदेश तो उनके लिए है जिनका मन अशांत है अर्थात गोपियां कहती हैं कि यह संदेश हमारे किसी काम का नहीं है क्योंकि हमारा मन तो श्रीकृष्ण में लग चुका है।

काव्य सौंदर्य

  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।
  • अनुप्रास अलंकार है।
  • वियोग श्रृंगार रस है।

4. हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-संदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपने मन फेर पाइ, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करें आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यह ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए॥

शब्दार्थ मधुकर – भंवरा। अति – बहुत। पहिलैं – पहले। पठाए – भेजा। हित – कल्याण। अनीति – अन्याय।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘क्षितिज भाग 2’ में संकलित ‘पद’ नामक कविता से अवतरित है। कृष्ण मित्र उधौ यहां गोपियों को कृष्ण द्वारा भेजा गया योग का संदेश देने आए हैं। जिस पर गोपियां अपनी प्रतिक्रिया दे रही हैं।

व्याख्या – प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियां श्री कृष्ण के बारे में बताती हैं कि अब तो श्रीकृष्ण ने राजनीति पढ़ ली है। गोपियां व्यंग्यपूर्वक कहती हैं कि वह तो पहले से ही बहुत चालाक थे। अब तो उन्होंने बड़े-बड़े ग्रंथ भी पढ़ लिए हैं। जिससे उनकी बुद्धि और भी बढ़ गई है। तभी तो हमारे बारे में सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने हमारे पास उधौ द्वारा हमारे लिए योग का संदेश भेजा है। उधौ जी का इसमें कोई दोष नहीं है। यह तो भले लोग हैं। गोपियां उधौ से कहती हैं कि आप जाकर कहना कि यहां से मथुरा जाते वक्त श्री कृष्णा हमारा मन भी अपने साथ ले गए थे जो श्री कृष्ण ने हम से चुराया था। अब उसे वे वापस लौटा दे। गोपियां श्री कृष्ण को राजधर्म बताते हुए कहती हैं कि राजा का धर्म है कि उसकी प्रजा को सताया ना जाए, परंतु वे स्वयं ही अपनी प्रजा के साथ अन्याय कर रहे हैं। उनका तो काम यह है कि वे अपनी प्रजा को अन्याय से बचाए अर्थात गोपियां श्रीकृष्ण से प्रेम करती हैं परंतु श्री कृष्ण उनका प्रेम स्वीकार नहीं कर रहे हैं।

काव्य सौंदर्य

  • ब्रज भाषा का प्रयोग है।
  • अनुप्रास अलंकार है।

Leave a Comment

error: