उत्तर भारत के तेरहवीं से पंद्रहवीं सदी के राज्य Class 7 इतिहास Chapter 8 Notes – हमारा भारत II HBSE Solution

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HBSE Class 7 इतिहास / History in hindi उत्तर भारत के तेरहवीं से पंद्रहवीं सदी के राज्य / uttar bharat ke terhvi se pandhravi sadi ke rajya notes for Haryana Board of chapter 8 in Hamara Bharat II Solution.

उत्तर भारत के तेरहवीं से पंद्रहवीं सदी के राज्य Class 7 इतिहास Chapter 8 Notes


उत्तर भारत भौगोलिक दृष्टि से समृद्ध क्षेत्र है। यहां हिमालय से निकलने वाली नदियां इसे समृद्धि प्रदान करती है। समृद्धि से भरे उत्तर भारत के इन क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिये काफी शक्तियां प्रयासरत रहती थी।

तेरहवीं सदी से पंद्रहवीं में उत्तर भारत के प्रमुख राज्य दिल्ली सल्तनत, मेवाड़, रणथम्भोर, मालवा, गुजरात, जौनपुर व बंगाल आदि थे। लेकिन उस समय इन राज्यों की राजनीतिक नीतियों का ताना-बाना दुर्बल था । आपसी संघर्षो के कारण ये राज्य कमजोर थे। उस समय उत्तर भारत के इन प्रमुख राज्यों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से है :

दिल्ली सल्तनत

दिल्ली सल्तनत का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक था । ऐबक तुर्क आक्रान्ता मोहम्मद गौरी का गुलाम व सेनापति था। मोहम्मद गौरी ने भारत पर कई आक्रमण किए। 1175 ई. में उसने गुजरात पर आक्रमण किया लेकिन यहां के शासक मूलराज ने उसे बुरी तरह हरा दिया। इसके बाद उसने पंजाब पर आक्रमण किया। उसे दिल्ली व अजमेर के शासक पृथ्वीराज तृतीय ने 1191 ई. में तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित किया। लेकिन तराइन के दूसरे युद्ध (1192 ई.) में उसने पृथ्वीराज तृतीय तथा 1194 ई. में कन्नौज के युद्ध में यहां के शासक जयचंद को हरा दिया। 1206 ई. में मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद उसके सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वतंत्र राज्य की नींव रखी। यह राज्य दिल्ली सल्तनत कहलाया । वह एक गुलाम था और उसके बाद उसके अनेक उत्तराधिकारी भी अपने जीवन काल में गुलाम रहे थे । अतः ये सभी शासक गुलाम वंश के शासक कहलाए। लाहौर को उसने अपनी राजधानी बनाया। दिल्ली सल्तनत के शासकों ने 1206 ई. से 1526 ई. तक शासन किया। इस दौरान पांच वंशों ने शासन किया। ये वंश इस प्रकार थे :

गुलाम वंश 1206-1290 ई.
खिलजी वंश 1290-1320 ई.
तुगलक वंश 1320-1414 ई.
सैयद वंश 1414-1450 ई.
लोदी वंश 1451-1526 ई.

दिल्ली के सुल्तानों ने भारत में जिस राज्य को स्थापित किया वह शीघ्र ही एक शक्तिशाली केन्द्रीभूत शासन की इकाई में विकसित हो गया। सैन्य क्षमता के बल पर कोई भी सुल्तान बन सकता था। सुल्तान का पद सल्तनत में केन्द्रीय पद था व कानूनी सत्ता उसी में निहित थी। उसकी नियुक्ति व उत्तराधिकार का कोई नियम नहीं था। सुल्तान वैभवशाली जीवन व्यतीत करते थे।

दिल्ली में बनी कुव्वत-उल इस्लाम मस्जिद कुतुबुद्दीन ऐबक (प्रथम सल्तनत शासक) द्वारा बनवाई गई। यह भारत की पहली सल्तनतकालीन इस्लामिक इमारत मानी जाती है।

सल्तनत काल के प्रमुख सुलतान :

इल्तुतमिश

दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक शम्सुद्दीन इल्तुतमिश को माना जाता है जिसने लाहौर के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया। उसने 1210 ई. से 1236 ई. तक शासन किया। राज्य को संगठित करने व विस्तार देने के लिए उसने चालीस दासों को नियुक्त किया जिसे चालीसा दल कहा जाता था। रणथम्भौर, ग्वालियर और मालवा के शासकों ने उसका विरोध किया। 1226 ई. में रणथम्भौर के शासक वीर नारायण ने उसका मुकाबला किया लेकिन उसने उसे हरा दिया। 1231 ई. में ग्वालियर के शासक मंगलदेव ने इल्तुतमिश का डटकर मुकाबला किया। लेकिन इल्तुतमिश ने ग्वालियर जीत लिया व किले में जाकर 700 निर्दोष लोगों की हत्या कर दी। 1233 ई. में नागदा के गुहिलोत व 1234 ई. में गुजरात के सोलंकी शासकों ने इल्तुतमिश को हरा दिया। इसके बाद इल्तुतमिश ने मालवा पर आक्रमण किया व भिलसा नगर के 300 मंदिरों को नष्ट कर दिया। उसने उज्जैन को लूटा व महाकाल के प्राचीन मन्दिर को नुकसान पहुंचाया। उसने सल्तनत को ‘इक्ता’ नामक प्रशासनिक इकाइयों में बांटकर प्रशासन को संगठित किया। उसने नई मुद्रा व्यवस्था स्थापित की तथा चांदी का सिक्का ‘टका’ चलाया।

मध्यकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बर्नी के अनुसार इल्तुतमिश के समय मुस्लिम धार्मिक वर्ग (उलेमा) चाहता था कि हिन्दुओं को इस्लाम अथवा जज़िया के विकल्प की बजाए इस्लाम अथवा मृत्यु का विकल्प दिया जाना चाहिए। वे यह प्रस्ताव लेकर सुल्तान इल्तुतमिश के पास गए। सुल्तान ने अपने मंत्री जुनैदी की ओर देखा । जुनैदी ने स्पष्ट किया कि उलेमा का कथन उचित है पर व्यावहारिक नहीं। यदि ऐसा किया गया तो हिन्दू इकट्ठे होकर मुसलमानों को हिंदुस्तान से निकाल देंगे। लेकिन जब हमारी संख्या पर्याप्त हो जाएगी तो हम यही करेंगे। इस उत्तर से उलेमा संतुष्ट हो गए।

रज़िया बेगम

इल्तुतमिश की पुत्री रज़िया बेगम एक योग्य, कुशल प्रशासिका, वीरांगना, साहसी और प्रतिभा सम्पन्न सुल्ताना थी। मध्यकाल में सिंहासन पर बैठने वाली वह प्रथम व अन्तिम मुस्लिम स्त्री थी, उसने 1236 ई. से 1240 ई. तक शासन किया। रज़िया ने प्रशासनिक व्यवस्था को सुधारा व प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किए। वह पर्दे को त्यागकर पुरुषों के वस्त्र पहनकर राज संचालन करती थी ।

दिल्ली के अमीरों (सरदारों) ने उसे सुल्तान मानने से इन्कार कर दिया। अतः कुछ समय पश्चात् मुल्तान, झांसी, लाहौर और बदायूं के सूबेदारों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस अवसर पर उसने बड़ी कूटनीति से काम लिया और आक्रमणकारी सूबेदारों में फूट डलवाकर विद्रोह को दबा दिया। जब लाहौर के सूबेदार कबीर खां ने विद्रोह किया तो रज़िया ने इस विद्रोह को भी दबा दिया।

इसके बाद भटिंडा के सूबेदार अल्तूनिया ने विद्रोह कर दिया और विशाल सेना के साथ दिल्ली पर आक्रमण किया। रज़िया पराजित हुई और अल्तूनिया ने उसे बन्दी बना लिया। रज़िया ने स्थिति को समझते हुए अल्तूनिया से विवाह कर लिया। अब वे दोनों सेना सहित दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने के लिए पुनः प्रयास करने लगे परन्तु बहरामशाह ने उन्हें परास्त कर दिया। अल्तूनिया और रज़िया भागने में सफल हो गये लेकिन 1240 ई. में कैथल के समीप कुछ विद्रोहियों ने उनका वध कर दिया। रज़िया के मकबरे के अवशेष कैथल शहर में आज भी है।

बलबन

गुलाम वंश के सुल्तानों में बलबन सर्वाधिक प्रसिद्ध था। उसका सम्बन्ध तुर्क वंश के इल्बारी कबीले से था। बलबन एक अत्यंत महत्वाकांक्षी और अवसरवादी व्यक्ति था । इसी अवसर वादिता के कारण उसने गुलाम से शासक तक का सफर तय किया । वह इल्तुतमिश के शासन काल में अपनी योग्यता के बल पर चालीसा में शामिल हुआ। रज़िया के शासन काल में बलबन अमीर-ए-शिकार (शाही शिकार का प्रबन्धक) के महत्वपूर्ण पद पर पहुंच गया था। उसने रजिया को अपदस्थ करवाने तथा बहरामशाह को सुल्तान बनाने में सक्रिय योगदान दिया। अतः बहरामशाह ने बलबन की सेवाओं से प्रसन्न होकर उसे अमीर-ए-आखुर (शाही अश्वशाला का प्रधान) के पद पर नियुक्त किया तथा उसे रेवाड़ी व हांसी की जागीरें भी दी। बलबन के प्रयास से 1246 ई. में नासिरुद्दीन महमूद दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल में बलबन का महत्व और भी बढ़ गया। सुल्तान ने उसे अपना वजीर ( प्रमुख मंत्री) नियुक्त किया। अतः राज्य की समस्त शक्तियां व्यावहारिक रूप से बलबन के हाथ में आ गई। 1266 ई. में सुल्तान नासिरुद्दीन की मृत्यु अथवा हत्या के पश्चात् बलबन स्वयं सुल्तान बन गया।

उसने 1286 ई. तक शासन किया। दिल्ली के निकट मेवात क्षेत्र के लोगों ने बलबन का विरोध किया। उसने मेवातियों पर बड़ी सेना के साथ आक्रमण किया और उन्हें बड़ी संख्या में मौत के घाट उतार दिया। इस क्षेत्र में सैनिक चौकियां स्थापित करवाई ताकि वे पुनः सिर न उठा सकें। कटेहर के लोगों ने भी बलबन का विरोध किया था। इन लोगों पर भी बलबन ने बहुत अत्याचार किए। गांव के गांव उजाड़ दिए गए। सभी युवकों को मार डाला गया और महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया। बलबन ने क्रूरता के साथ अपनी सत्ता स्थापित की थी। उसने अपने विरोधियों से कठोरता से व्यवहार किया। उसने दिल्ली सल्तनत की सेना का पुनः गठन किया। चालीस सरदारों (चालीसा) के संगठन को प्रभावहीन किया जो सुल्तान इल्तुतमिश के समय बनाया गया था। उसने दरबार में प्रचलित नियमों का कड़ाई से पालन करवाया। उसने अमीरों को सिजदा तथा पाबोस की प्रथाओं को मानने के लिए बाध्य किया। उसने राज्य के उच्च पदों पर केवल मुस्लिम कुलीन परिवार के सदस्यों को नियुक्त किया।

  • सिजदा – घुटने पर बैठकर सुल्तान के सामने सर झुकाना।
  • पाबोस – सुल्तान के कदमों को चूमना।

जलालुद्दीन व अलाउद्दीन ख़िलजी

1290 ई. में गुलाम वंश के अंतिम शासक कैकुबाद की उसके एक अमीर सरदार जलालुद्दीन ख़िलजी ने हत्या करके ख़िलजी वंश की स्थापना की। 1296 ई. में जलालुद्दीन ख़िलजी की मृत्यु के बाद उसका भतीजा अलाउद्दीन खिलजी शासक बना। वह ख़िलजी वंश के सबसे शक्तिशाली शासक था। अलाउद्दीन ख़िलजी भी अवसरवादी और धन का लालची था। उसने विस्तारवादी नीति अपनाई।

सुल्तान बनने से पूर्व जलालुद्दीन कैथल का प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी था। यहां मंढार सरदारों ने तुर्कों का डटकर विरोध किया था।

अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात, रणथम्भौर, मेवाड़, मालवा आदि पर अनैतिक उपायों से विजय प्राप्त की और लूटमार करके बड़ी मात्रा में धन प्राप्त किया। इसी प्रकार मलिक काफूर नामक सेनापति की सहायता से दक्षिण भारत में वारंगल, देवगिरि, द्वारसमुद्र व मदुरा आदि राज्यों को जीता।

अलाउद्दीन ख़िलजी ने अनेक कानून व आर्थिक नियम बनाये परन्तु वे उसके जीवन के साथ ही समाप्त हो गए। हिंदू बहुल क्षेत्रों का उसके काल में बड़ा शोषण हुआ। अलाउद्दीन खिलजी के उत्तराधिकारी काफी कमजोर निकले।

खुसरो खान का अल्प शासनकाल : 1320 ई. में ख़िलजी वंश के अंतिम शासक मुबारक खां की उसके ही वजीर खुसरो ने हत्या कर दी। अपने अल्पकालीन शासन काल में खुसरो खान ने गोवध पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाया। यह धार्मिक एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपुर्ण था क्योंकि भारत में कृषि एवं माल ढुलाई पूर्णत: बैलों पर आधारित थी। 1320 ई. में ही दीपालपुर के सूबेदार गाजी मलिक ने खुसरो की हत्या कर दी और स्वयं ग्यासुद्दीन तुगलक के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गया।

मोहम्मद-बिन-तुगलक

मोहम्मद-बिन-तुगलक का वास्तविक नाम जूना खां था। 1325 ई. में अपने पिता ग्यासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के बाद वह स्वयं मोहम्मद-बिन-तुगलक के नाम से सिंहासन पर बैठा। उसने राज्य के सरदारों तथा प्रजा का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से अपार धन लुटाया। उसने 1351 ई. तक शासन किया। उसने अपने राज्य को 23 सूबों में बांटा हुआ था।

मोहम्मद-बिन-तुगलक नई-नई योजनाएं बनाने तथा उन्हें लागू न करा पाने के लिए प्रसिद्ध था। उसकी योजनाओं के कारण लोगों को घोर कष्टों का सामना करना पड़ा। उसकी योजनाएं व्यावहारिक कम तथा काल्पनिक अधिक मानी जाती थी।

मोहम्मद-बिन-तुगलक दर्शन शास्त्र, खगोल विज्ञान, गणित व भौतिक विज्ञान का विद्वान था। वह तुर्की, संस्कृत, फारसी व अरबी भाषा का अच्छा जानकार था।

मोहम्मद-बिन-तुगलक की प्रशासनिक योजनाएं

राजधानी परिवर्तन 1327 ई.-1329 ई. : मोहम्मद-बिन-तुगलक की प्रथम महत्पूर्ण योजना अपनी राजधानी को दिल्ली से देवगिरि में परिवर्तित करना था। देवगिरी का नाम बदल कर दौलताबाद रखा गया। देवगिरी उसके राज्य के मध्य में थी । सुल्तान यहां के उन्नत व्यापार, कृषि उत्पादन तथा अच्छी जलवायु से प्रभावित था लेकिन नई राजधानी में मौलिक संसाधनों का अभाव था जिससे यह योजना असफल रही। पुन: दिल्ली राजधानी बनाई गयी।

गंगा-यमुना के दोआब में कर वृद्धि : सुल्तान द्वारा दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि की गई ताकि राज्य की आय में अभिवृद्धि हो सके। लेकिन उसी दौरान इस क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ गया। किसान कर न दे सके। अतः उन्होंने इस योजना का विरोध किया परन्तु अधिकारियों ने असहाय किसानों पर शक्ति का प्रयोग कर भू-राजस्व देने के लिए बाध्य किया, जिससे किसानों ने विद्रोह कर दिया। जब सुल्तान ने सेना भेजी तो बहुत से लोग मारे गए। और शेष अपनी भूमि को छोड़ कर अपने परिवारों सहित वनों में भाग गए। इस योजना से राज्य को आर्थिक हानि हुई ।

सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1330 ई.-1332 ई.) : मोहम्मद-बिन-तुगलक की तीसरी महत्वपूर्ण योजना सांकेतिक मुद्रा प्रणाली का प्रचलन था । सुल्तान ने चांदी के टके के स्थान पर तांबे के सिक्के चलाए। नए सिक्कों का मूल्य चांदी के सिक्के के बराबर कर दिया। लेकिन शाही टकसालों की अव्यवस्था के कारण योजना असफल हो गई। लोगो ने घरों में ही नकली सिक्के बनाने शुरू कर दिए। अत: सुल्तान को पुनः पुरानी व्यवस्था अपनानी पड़ी।

कृषि सुधार की योजना ( 1330 ई.) : मोहम्मद-बिन-तुगलक ऊसर भूमि को कृषि योग्य बना कर फसलों की उपज में वृद्धि करना चाहता था। इस उद्देश्य के लिए उसने ‘दीवान-ए-अमीर- कोही’ नामक कृषि विभाग स्थापित किया। उसने उत्तम प्रकार की फसलों के परीक्षणों पर दो वर्षों में सत्तर लाख रुपए व्यय कर दिए परन्तु सुल्तान की यह वैज्ञानिक योजना भी पूरी तरह असफल रही।

खुरासान एवं कराचिल विजय की योजना ( 1332 ई.- .-1333 ई.) : मोहम्मद-बिन-तुगलक विश्व-विजेता बनने का सपना देख रहा था अतः उसने खुरासान को जीतने की योजना बनाई । विशाल सेना का गठन किया गया। सैनिकों को दो साल का अग्रिम धन भी दिया गया। लेकिन खुरासान पर आक्रमण न किया जा सका। सुल्तान से इस सेना को कराचिल (कुमाऊं) क्षेत्र को जीतने के लिए भेज दिया लेकिन इस पहाड़ी क्षेत्र के लोगों ने सेना का डटकर विरोध किया। लगभग एक लाख घुड़सवारों में से केवल कुछ ही सैनिक जीवित लौटे। जिससे राज्य को बड़ा आर्थिक नुकसान हुआ।

इन योजनाओं के परिणाम राज्य के लिए बहुत घातक सिद्ध हुए जो तुगलक साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बनी।

फिरोजशाह तुगलक

मोहम्मद-बिन-तुगलक के बाद 1351 ई. में उसका चचेरा भाई फिरोजशाह तुगलक सुल्तान बना। नगरकोट के राजा ने उसका विरोध किया तो उसने उस पर आक्रमण कर दिया व माता ज्वालामुखी के मन्दिर को नुकसान पहुंचाया। सिंध के शासक जाम ने भी उसका विरोध किया। जब फिरोजशाह तुगतक ने इस पर आक्रमण किया तो जाम ने उसका डटकर मुकाबला किया। फिरोजशाह तुगतक एक धर्मान्ध शासक माना जाता है। पूर्ववर्ती सुल्तान ब्राह्मणों के अतिरिक्त बाकी हिन्दुओं से जज़िया कर लेते थे परन्तु उसने ब्राह्मणों पर भी जजिया कर लगाया था। उसके काल में सल्तनत की सैन्य व्यवस्था में कमजोरी आई जो उसके वंश के लिए घातक सिद्ध हुई।

सिंध के शासकों ने तुगलक वंश के शासकों का लगातार विरोध किया। मोहम्मद तुगलक ने अपने शासन काल के अंतिम वर्षों में सिंध पर आक्रमण किया लेकिन वह उसे जीत न सका। फिरोजशाह तुगलक ने शासक बनने के बाद सिंध व थट्टा को जीतने का प्रयास किया लेकिन उसे वहां के लोगों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। राजधानी दिल्ली से उसकी सेना का संपर्क छः महीने तक टूटा रहा। बड़ी मुश्किल से वह दिल्ली वापस लौट पाया।

सैयद एवं लोधी वंश

1398 ई. में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया व दिल्ली से तुगलक वंश की सत्ता नष्ट कर दी। उसका एक सेनापति खिज्र खान जब दिल्ली का सुल्तान बना तो उसके वंशज सैयद वंश के शासक कहलाये । लेकिन 1451 ई. में सैयद वंश के अंतिम शासक अल्लाउद्दीन आलमशाह को बहलोल लोदी ने हटाकर लोधी वंश की नींव रखी। लोधी वंश में बहलोल लोधी के बाद सिकन्दर लोदी 1489 ई. में सुल्तान बना। उसने ही आगरा नगर की नींव रखी थी। 1517 ई. में उसकी मृत्यु के बाद इब्राहिम लोधी सुल्तान बना जिसे 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के युद्ध में हरा दिया तथा दिल्ली सल्तनत को समाप्त कर दिया ।

सल्तनत राज्य का स्वरूप

शासन व्यवस्था : दिल्ली के सुल्तानों की निरंकुश राजतंत्रीय शासन व्यवस्था थी। सुल्तान शासन के सर्वेसर्वा थे । सुल्तान की शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं था। वे राज्य के प्रमुख न्यायाधीश, सेनापति व उच्च अधिकारी भी थे। उनका निर्णय अंतिम था।

राज्य के अन्य अधिकारी अपने प्रशासनिक कार्य को सही ढंग से चलाने के लिए सुल्तान अन्य राजकीय पदाधिकारियों की सहायता लेता था। इनमें प्रमुख थे वजीर, ‘दीवान-ए-विजारत’, ‘सद्र-उस सुदूर’, ‘दीवान-ए-रसालत’ और ‘दीवान ए- कज़ा ( दान और न्याय), ‘आरीज़ ए-मुमालिक’, ‘दीवान-ए-अर्ज़’ और दबीरे खास, ‘दीवाने – इन्शा’ (पत्राचार) विभाग थे।

प्रांतीय प्रशासन : दिल्ली सल्तनत कई इक्तों (प्रांत) में बंटी हुई थी। सुल्तान अपनी इच्छानुसार इक्तों की संख्या को कम या ज्यादा करते रहते थे। इक्ता का शासन प्रबंध इक्तादार के जिम्मे था । इक्ता, शिकों में बंटे थे। शिक का शासन प्रबंधक शिकदार होता था। गांव शासन की सबसे छोटी इकाई थी। प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति सुल्तान स्वयं करता था ।

सैन्य-संगठन : दिल्ली सुल्तानों की सारी शक्ति सेना पर निर्भर करती थी। उनका अधिकांश समय युद्ध या युद्ध-सम्बन्धी कार्यों में ही व्यतीत होता था। घोड़े, पैदल तथा हाथी उनकी सेना के तीन प्रधान अंग थे। सेना का प्रमुख सुल्तान ही होता था। सैन्य संगठन के सभी अधिकारियों की नियुक्ति सुल्तान ही करता था।

न्याय-प्रबंधन : न्याय के क्षेत्र में भी सुल्तान सर्वोच्च न्यायाधीश था। फिर भी न्याय करने के लिए राज्य में काजी, मुमालिक, अमीरेदाद, हजीब आदि होते थे। न्यायिक व्यवस्था धर्म-आधारित थी। काजी प्रमुख न्यायाधिकारी होता था। न्याय करते समय धार्मिक भेदभाव भी किया जाता था।

सामाजिक व्यवस्था : सल्तनतकाल में भारतीय समाज स्पष्टतः दो वर्गों में बंटा था-हिन्दू समाज और मुस्लिम समाज । हिन्दू देश की बहुसंख्यक प्रजा थे परन्तु शासन में उनकी भागीदारी नहीं थी। हिन्दुओं में अधिकांश कृषक थे। हिन्दुओं को सदा कुचले जाने का भय रहता था। मुस्लिम समाज की स्थिति कुछ अच्छी थी। वे राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त होते थे। हिन्दुओं से मुसलमान बन गए लोगों को भी कोई बड़े पद अथवा अधिकार नहीं मिलते थे। हिन्दुओं से प्रभावित होकर मुस्लिम समाज भी कई वर्गों में बंट गया था।

सल्तनत काल के प्रमुख अधिकारी

अधिकारी विभाग
दीवान-ए-विजारत राजस्व विभाग
सद्र-उस-सुदूर धर्म एवं राजकीय दान विभाग
दीवान-ए-रसालत विदेश विभाग
दीवान-ए-अर्ज सैन्य विभाग
आरीज-ए-मुमालिक सेना मंत्री

स्थानीय राज्य

बंगाल –

बंगाल अपने अतिरिक्त आंतरिक साधनों और विदेशी व्यापार के कारण अपनी सम्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था। 750 ई. से यहां पालवंश के राजा शासन कर रहे थे। विदेशी आक्रांता के रूप में बंगाल को सबसे पहले मोहम्मद गौरी के सेनानायक मोहम्मद बिन- बख्तियार खिलजी ने 1204 ई. में जीता। वह घोड़ों के एक सौदागर के रूप में अचानक बंगाल की राजधानी नदिया पहुंचा और उसने धोखे से राजमहल पर आक्रमण किया। यहां का राजा लक्ष्मणसेन घबरा कर भाग गया और बख्तियार खिलजी बंगाल के बड़े भाग का शासक बन गया। उसने लखनौती को अपनी राजधानी बनाया।

उसने असम पर आक्रमण किया परन्तु वह केवल 100 सैनिकों के साथ ही जीवित लौट सका। परिणामस्वरूप उसके अपने साथियों ने ही उसकी हत्या कर दी। 1225 ई. में इल्तुतमिश ने भी बंगाल को अपने अधिकार में कर लिया परन्तु उसके बाद बंगाल पुनः स्वतंत्र हो गया क्योंकि दिल्ली से बहुत दूर होने के कारण बंगाल पर केन्द्रीय नियंत्रण रखना कठिन होता था। बलबन ने अपने शासन काल के दौरान यहां तुगरिल बेग के विद्रोह को दबाकर अपने पुत्र बुगरा खां को सूबेदार नियुक्त किया। बाद में बुगरा खां ने अपने आप को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और उसके वंशज बंगाल पर शासन करने लगे।

ग्यासुद्दीन तुगलक ने 1324 ई. में बंगाल पर आक्रमण किया और बुगरा खां के वंशज नसिरुद्दीन ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। मोहम्मद तुगलक के शासन काल के अन्तिम दिनों में हाजी इलियास बंगाल का शासक बना और 1357 ई. में हाजी इलियास की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र सिकन्दर शाह गद्दी पर बैठा और उसने 1393 ई. तक राज किया।

सिकन्दर शाह की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र आजम खां ने 1393 ई. से 1409 ई. तक राज किया। उसने चीन के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित किए। आजम खां का उत्तराधिकारी सैफुद्दीन हम्जा शाह एक अयोग्य शासक था। उसके समय में दीनाजपुर के राजा गणेश दनुर्जनदेव ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

1442 ई. तक उसके उत्तराधिकारी बंगाल पर शासन करते रहे। उसके बाद इलियास के वंशज इस्लाम शाह ने पुनः बंगाल पर अधिकार कर लिया। उसके वंशजों ने 1487 ई. तक बंगाल पर शासन किया। उसके बाद कुछ समय तक बंगाल पर अबीसीनियाई सरदारों का नियंत्रण रहा। 1493 ई. में हुसैन शाह ने बंगाल पर अधिकार करके हुसैन शाही वंश की नींव डाली। वह साहित्य और कला का पोषक था।

गुजरात

तेरहवीं सदी में गुजरात में बीसलदेव ने बघेल वंश की सत्ता स्थापित की। अलाउद्दीन खिलजी ने 1297 ई. में बघेल वंश के राजा करणदेव पर आक्रमण करके उसे हरा दिया। कुछ वर्षो के विद्रोहों के पश्चात् मलिक काफूर की सहायता से 1310 ई. में उसके राज्य को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। उस समय से लेकर 1398 ई. में तैमूर के आक्रमण तक गुजरात दिल्ली सल्तनत के अधीन एक प्रदेश बना रहा। तैमूर के आक्रमण के पश्चात् गुजरात के सूबेदार ज़फर खां ने तुगलक साम्राज्य में फैली अव्यवस्था का लाभ उठाया और 1401 ई. में अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। 1411 ई. में अहमदशाह गुजरात का शासक बना। उसने 1442 ई. तक राज किया। उसने गुजरात की सीमाओं का विस्तार किया। उसने हिन्दुओं को धर्म बदलकर मुसलमान बनने के लिए प्रोत्साहित किया।

कुछ वर्षों के बाद महमूद बेगड़ा गुजरात का शासक बना। उसने 53 वर्ष (1458 ई. – 1511 ई.) तक राज किया। अपने इस लम्बे शासन काल में उसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की। उसने जूनागढ़, सूरत और कच्छ को जीत कर अपने राज्य में मिलाया। 1484 ई. में उसने चम्पानेर पर भी अधिकार कर लिया। उसने एक जलसेना का भी निर्माण किया और पुर्तगालियों के विरुद्ध सफल युद्ध किए।

मेवाड़

मेवाड़ राजपूतों का एक प्रमुख राज्य था। इसकी राजधानी चित्तौड़ थी। 1303 ई. में दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया और राजा रतनसिंह व उसके बहादुर सेनापतियों गोरा व बादल को पराजित करके मेवाड़ की राजधानी चितौड़ पर अधिकार कर लिया। अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् मेवाड़ पुन: स्वतंत्र हो गया। राणा हमीर ने 1324 ई. से 1364 ई. तक राज किया। उसके शासन काल में मेवाड़ ने बहुत प्रगति की। उसके बाद क्षेत्र सिंह वहां का शासक बना और उसने 1382 ई. तक शासन किया। क्षेत्र सिंह के बाद लाखा सिंह व मोकल सिंह शासक बने। जिसने 1432 ई. तक शासन किया। मोकल सिंह ने कविराज वाणी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय प्रदान किया।

1433 ई. में राणा कुम्भा (1433 ई. – 1468 ई.) मेवाड़ का शासक बना। वह एक वीर एवं साहसी योद्धा और सफल सेनानायक था। उसने मेवाड़ की सेना को संगठित किया और सीमाओं पर दुर्गों का निर्माण करवाया। विजय स्तम्भ उसकी प्रमुख अमरकृति है। कुंभलगढ़ का दुर्ग भी विशेष रूप से प्रसिद्ध है। उसने मालवा और गुजरात व अन्य शासकों के विरुद्ध सफल युद्ध किए। राणा कुम्भा की मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों में गृहयुद्ध शुरू हो गया। इस संघर्ष के अन्त में संग्रामसिंह को सफलता मिली। उसके शासन काल (1509 ई. – 1528 ई.) में मेवाड़ अपने विकास की चरम सीमा तक पहुंचा।

मेवाड़ राज्य की राजधानी चितौड़गढ़ के नाम से जानी जाती थी। मेवाड़ की धरती राजपूती प्रतिष्ठा, मर्यादा एवं गौरव का प्रतीक रही है। गुहिलोत और सिसोदिया वंश के राजाओं ने लगभग 1200 वर्ष तक मेवाड़ राज्य पर शासन किया।

जौनपुर

1398 ई. में भारत पर तैमूर के आक्रमण के बाद जौनपुर के राज्य की स्थापना ख्वाजा जहां नामक एक व्यक्ति ने की थी जो तुगलक वंश के दिल्ली के सुल्तानों का एक अधिकारी था। उसे मलिक-उ-शर्क की उपाधि मिली हुई थी। उसके वंशज ‘शर्की’ वंश के शासक कहलाये। 1399 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। उसका दत्तक पुत्र मलिक करनफूल मुबारक शाह ‘शर्की’ की उपाधि धारण करके गद्दी पर बैठा। अल्पकालीन शासन के बाद 1402 ई. में मुबारक शाह की मृत्यु हो गई और इब्राहिम शाह शर्की उसका उत्तराधिकारी बना।

वह शर्की वंश का सबसे योग्य शासक था तथा कला एवं साहित्य को आश्रय देता था। यहां सुन्दर भवनों का निर्माण करवाया गया जिन पर हिन्दू वास्तु कला का स्पष्ट प्रभाव था तथा साधारण ढंग की मीनारों से रहित मस्जिदें बनवाकर इस नगर को अलंकृत किया गया। उसका दरबार अनेक विद्वानों से सुशोभित था तथा उस समय भारतीय ग्रंथों का फारसी में अनुवाद भी किया गया। अतः सांस्कृतिक व धार्मिक उपलब्धियों के कारण जौनपुर उस समय ‘पूर्व का शिराज’ कहलाने लगा। इब्राहिम शाह शर्की के बाद पुत्र महमूद शाह, मोहम्मद शाह तथा हुसैनशाह शासक बने । प्रारम्भिक सफलताओं के पश्चात् हुसैनशाह, बहलोल लोधी से हार गया तथा उसके राज्य जौनपुर को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। बहलोल ने अपने पुत्र बरबक को जौनपुर का शासक नियुक्त किया।

मालवा

मालवा पर 13वीं शताब्दी के अंत तक परमार वंश के राजाओं का शासन था। उनकी राजधानी धार थी। 1305 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने मुल्तान के सूबेदार आईन-उल-मुल्क के नेतृत्व में वहां के लिए एक सेना भेजी। इस युद्ध में मालवा का शासक महलक देव पराजित हो गया। मालवा पर अब अलाउद्दीन ख़िलजी ने अधिकार कर लिया था। तब से 1398 ई. तक यह दिल्ली के अधीन रहा। तैमूर के आक्रमण के समय यह अन्य प्रान्तों की तरह स्वतंत्र हो गया।

1406 ई. में दिल्ली के सुल्तान से व्यावहारिक रूप में स्वतंत्र हो कर दिलावर खां, मालवा का शासक बना। 1407 ई. में उसके बाद उसका महत्वाकांक्षी पुत्र अल्प खां, हुशंग शाह के नाम से सिंहासन पर बैठा। उसने धार के स्थान पर माण्डू को अपनी राजधानी बनाया। 1422 ई. में उसने उड़ीसा पर अचानक आक्रमण किया और उसने वहां के राजा को 75 (पचहत्तर) हाथी व बहुत सारा धन देने पर विवश किया। उसने खेरला, दिल्ली, जौनपुर एवं गुजरात के शासकों के विरुद्ध भी युद्ध किए। 1435 ई. उसका बड़ा पुत्र गाजी खां, मोहम्मद शाह के नाम से, मालवा का सुल्तान बना। वह एक अयोग्य शासक था। 1436 ई. में उसके मन्त्री महमूद खिलजी ने उसका वध करके गद्दी हड़प ली। इस प्रकार मालवा में ख़िलजी सुल्तानों का वंश स्थापित हुआ।

महमूद खिलजी ने गुजरात, दिल्ली, बहमनी एवं मेवाड़ के शासकों के विरुद्ध युद्ध किए। मेवाड़ के राणा के साथ 1437 ई. में सारंगपुर के युद्ध में वह हार गया। इस विजय की स्मृति में मेवाड़ के राजा ने चित्तौड़ में, ‘विजय स्तंभ’ बनवाया। महमूद खिलजी मालवा के मुस्लिम शासकों में सबसे अधिक योग्य था। उसने अपने राज्य की सीमाओं को दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत श्रेणी तक, पश्चिम में गुजरात की सरहद तक, पूर्व में बुन्देलखण्ड तक तथा उत्तर में मेवाड़ एवं हैराती तक बढ़ाया। उसने माण्डू में एक सात मंजिला स्तम्भ भी बनवाया। 1469 ई. में माण्डू में उसकी मृत्यु हो गयी। उसके उत्तराधिकारी अयोग्य थे। धीरे-धीरे मालवा साम्राज्य का पतन होता चला गया। महमूद खिलजी का पुत्र गियास शाह मालवा का अन्तिम शासक था।

राजपूतों के राज्यों में रणथम्भौर प्रमुख राज्य था और 13वीं शताब्दी के आरम्भिक समय तक अपनी विशाल हिन्दू विरासत को सहेजे हुए था। मगर 1227 ई. में मानों इसे ग्रहण लग गया और इल्तुतमिश ने चौहान शासक वीरनारायण को पराजित करके उस पर अधिकार कर लिया लेकिन कुछ ही वर्षों के बाद राणा हम्मीर देव यहां शासन स्थापित करने में सफल हो गया। 1301 ई. में अलाउद्दीन ख़िलजी ने राणा हम्मीर देव को षडयंत्र से हरा दिया गया। यहां अलाउद्दीन के सैनिकों ने खूब लूट-मार की और अनेक मंदिरों को तोड़ दिया गया। 15वीं शताब्दी के अंतिम दशक में इसे दिल्ली सल्तनत के अधीन कर लिया गया।

रणथम्भौर का किला एक पहाड़ी पर बना हुआ है। इस किले का निर्माण राजा सज्जन सिंह नागिल ने करवाया था। इसके सात द्वार हैं। किले में 84 स्तंभों वाला बड़ा सभा स्थल बना है। यह किला तीन मंजिला इमारत है। इसमें 32 खम्बे हैं जो छत्रियों और गुंबदों को सहारा देते हैं। अकबरनामा के लेखक अबुल फ़ज़ल ने इस दुर्ग के बारे में कहा कि यह कवच समान प्रतीत होता है।

स्थानीय राज्यों का स्वरूप

तेरहवीं सदी में अनेक स्थानीय राज्यों पर राजपूत वंश के राजाओं का शासन था। इनमे मेवाड़, गुजरात, मालवा व रणथंभौर थे।

शासन व्यवस्था : राजपूत राज्य सामन्तवादी प्रथा पर आधारित थे। राजपूत राज्य कई जागीरों में बंटे हुए थे। वे जागीरदार व सामन्त राजा के प्रति व्यक्तिगत श्रद्धा से जुड़े होते थे। संकट के समय ये राजा की सहायता करते थे। सामन्त नियमित रूप से राजा को वार्षिक कर देते थे। राजा को असीमित अधिकार प्राप्त थे। वह अपने राज्य का सर्वोच्च अधिकारी, प्रमुख सेनापति और मुख्य न्यायाधीश होता था । निरंकुश होते हुए भी राजा प्रजा की रक्षा तथा जन-कल्याण के कार्य करना अपना कर्तव्य समझते थे। इन्ही राजाओं एवं शासकों के आपस में लड़ने के कारण इनके राज्यों का पतन हुआ।

सैनिक व्यवस्था : राजपूतों का सैनिक संगठन विशेष प्रकार का होता था। राजा की व्यक्तिगत सेना कम होती थी। सामन्तों की संयुक्त सेना पर राजा की शक्ति निर्भर थी। राजपूत सेना में पैदल, घुड़सवार और हाथी होते थे। राजपूत युद्ध करना अपना कर्तव्य समझते थे। ये युद्ध कौशल में निपुण होते थे।

न्याय व्यवस्था : दण्ड-विधान कठोर था। धर्मशास्त्रों और परम्पराओं के अनुसार न्याय किया जाता था। न्यायिक व्यवस्था हिन्दू परम्परा पर आधारित थी। राजा अपने राज्य का सर्वोच्य न्यायाधीश होता था ।

सामाजिक जीवन : उस काल में वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज कई जातियों और उपजातियों में विभाजित था। ब्राह्मणों का समाज में उच्च स्थान था। वे राजपूत राजाओं के पुरोहित और मंत्री होते थे। रक्षा का भार क्षत्रियों पर होता था । शासक और सैनिक होते थे वैश्य व्यापार करते थे शूद्र वर्ग के लोग अन्य सेवा का कार्य करते थे। समाज में जाति का महत्व था। शुद्ध शाकाहारी भोजन अच्छा समझा जाता था।

अर्थव्यवस्था : राज्यों की आय का मुख्य आधार कृषि था। यहां मौसम के अनुसार रबी तथा खरीफ की फसलों को उगाया जाता था जैसे गेहूं, धान, चना, मटर, दालें, कपास, ज्वार, बाजरा, फल, सब्जी इत्यादि भूमि को उपज के आधार पर उर्वरा, बंजर, खिल्ल तथा मरू आदि प्रकारों में बांटा गया था। सिंचाई के लिए नहरें, कुएं, तालाब, झीलें आदि का प्रयोग किया जाता था। सामान्यत कृषि प्रकृति अर्थात वर्षा पर निर्भर थी। पशु पालन भी प्रमुख व्यवसाय था ।

वस्तु विनियम अर्थ व्यवस्था का आधार था। इस काल में सूती वस्त्र उद्योग प्रमुख था। इसके अतिरिक्त ऊनी, रेशमी वस्त्र भी प्रयोग में लाये जाते थे। सिक्के, बर्तन, मूर्तियां, आभूषण आदि भी विभिन्न धातुओं के बनाये जाते थे।

कला : राजपूत राजा महान निर्माता थे। उन्होंने अनेक मन्दिर, किले, बांध, जलाशय और स्नानागार बनवाए। सूर्य, विष्णु, शिव आदि की विभिन्न मुद्राओं में अनेक मूर्तियों का निर्माण किया गया। उस समय राजपूत हिन्दू धर्म परम्परा को अपनाए हुए थे। उनके दुर्ग एवं किले बहुत मजबूत थे। अतः ये राज्य खुशहाल थे। आर्थिक रूप से गांव आत्मनिर्भर होते थे।

उस समय भी भारत का विदेशो से व्यपारिक सम्बन्ध था। जिसके अन्तर्गत वस्तुओं का आयात-निर्यात किया जाता था।

निर्यातक वस्तुएं : कपड़े, चावल, गेहूं, रेशम, चीनी आदि।

आयातक वस्तुए : नमक, कस्तूरी, रेशम, केसर, मेवे ।

समकालीन लेखन में गुजरात तट पर 84 बन्दरगाहों का उल्लेख है। इनमें प्रमुख थी – खंभात, पाटन, सोमनाथ, भरूच। यहां लगभग 300 जहाज प्रति वर्ष आते थे।

माइंड मैप

उत्तर भारत के 13 से 15 वीं सदी के राज्य —

दिल्ली सल्तनत के प्रमुख शासक

  • इल्तुतमिश
  • रजिया बेगम
  • बलबन
  • अलाउद्दीन खिलजी
  • मोहम्मद–बिन–तुगलक

सल्तनत राज्य का स्वरूप

  • शासन व्यवस्था
  • राज्य के अन्य अधिकारी
  • प्रांतीय प्रशासन
  • सैन्य संगठन
  • न्याय प्रबंद
  • समाज

स्थानीय राज्य

  • बंगाल
  • गुजरात
  • मेंवाड़
  • जौनपुर
  • मालवा
  • रणथंभोर

राजपूत राज्यों का स्वरूप

  • शासन व्यवस्था
  • सैनिक व्यवस्था
  • न्याय व्यवस्था
  • सामाजिक जीवन
  • आर्थिक स्थिति

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