वैदिक काल Class 6 इतिहास Chapter 2 Notes – हमारा भारत I HBSE Solution

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HBSE Class 6 इतिहास / History in hindi वैदिक काल / Vedic kal notes for Haryana Board of chapter 2 in Hamara Bharat 1 Solution.

वैदिक काल Class 6 इतिहास Chapter 2 Notes


वैदिक काल की जानकारी के प्रमुख स्रोत वेद होने के कारण इसको वैदिक काल कहते हैं।

वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है।

  1. ऋग्वैदिक काल
  2. उत्तर वैदिक काल

ऋग्वैदिक काल —

  • ऋग्वेद विश्व का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है। इसमें 10 मण्डल और 1028 सूक्त हैं।
  • इसकी रचना गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज, वशिष्ठ, कण्व व अंगिरा आदि ऋषियों ने सरस्वती व दृषद्वती नदियों के किनारे पर की है।
  • सरस्वती नदी ऋग्वैदिक काल की सबसे पवित्र नदी है।
  • ऋग्वेद की तिथि प्राय: 6000 ई.पू. से लेकर 1500 ई.पू. के बीच में मानी जाती है।
  • इसमें सिन्धु, झेलम, चिनाब, रावी, सतलुज, यमुना तथा गंगा आदि नदियों का तथा सप्तसैन्धव प्रदेश के भौगोलिक क्षेत्र का भी वर्णन मिलता है। जिसका प्रसार अफगानिस्तान से लेकर गंगा घाटी तक माना जाता है।

ऋग्वेदकालीन राजनीतिक जीवन –

राजनीतिक दृष्टि से ऋग्वैदिक काल की सबसे बड़ी इकाई जन थी। जन विशों में बटें हुए थे। विश ग्रामों में, ग्राम कुलों में और कुल परिवारों में बटें हुए थे। सबसे छोटी इकाई ‘परिवार’ का मुखिया पिता या बड़ा भाई होता था, जिसको कुलप कहा जाता था। कई कुलों से मिलकर ग्राम बनता था। ग्राम के मुखिया को ग्रामणी कहा जाता था। ग्राम से बड़ी संस्था विश होती थी जिसका स्वामी विशपति कहलाता था। कई विशों के समूह को जन कहा जाता था। ऋग्वेद में पांच जनों पुरु, तुर्वस, यदु, अनु और द्रुहु का वर्णन मिलता है।

देश के लिए ‘राष्ट्र’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जनों के आपसी संघर्ष को ‘दशराज्ञ युद्ध’ कहा गया है, जिसमें सुदास ने दस राजाओं के संघ को हराया था। आर्यों की सेना में रथ व पैदल सैनिक होते थे। धनुष-बाण मुख्य हथियार थे। बाणों के अग्रभाग धातु निर्मित और नुकीले होते थे। तलवार व फरसे आदि का भी प्रयोग होता था। युद्ध के भी नियम निर्धारित थे। युद्ध आरम्भ करने से पहले शंखनाद करना, ढोल और बिगुल बजाना जरूरी था। निशस्त्र शत्रु पर घायल होने पर तथा युद्ध से भागने वाले पर आक्रमण करना अनुचित कार्य माना जाता था ।

जन के अधिपति को राजन कहा जाता था। राजन निरंकुश नहीं थे। ‘सभा, समिति और विदथ’ नामक संस्थाए उन पर अंकुश रखती थी। कई अवसरों पर वे राजा का चुनाव भी करती थीं और राजा को हटा भी देती थी। राजा शपथ लेते हुए बोलता था कि “यदि मैं विश्वासघात करूँ तो मुझे अपने सभी अच्छे और धार्मिक कर्मों का फल न मिले और मैं अपने स्थान, पद, जीवन और यहां तक की अपनी संतान से भी वंचित हो जाऊँ। ”

शांति स्थापित करना, झगड़ों का निपटारा करना, बाहरी आक्रमणों से रक्षा करना और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति व आध्यात्मिक उन्नति के लिए यज्ञ-हवन करवाना राजा के प्रमुख कर्तव्य माने ‘जाते थे। राजा की सहायता के लिए पुरोहित, सेनापति, ग्रामणी आदि होते थे जो राजा और प्रजा के बीच में मध्यस्थ का काम करते थे। इन्हें अपने-अपने भू-भाग में शासन व न्याय के अधिकार प्राप्त थे।

उस समय चोरी, बेईमानी एवं धोखाधड़ी करना अपराध की श्रेणी में आता था। जिनके लिए अपराधी को शारीरिक और आर्थिक दण्ड दिए जाते थे। मृत्यु दण्ड की प्रथा नहीं थी। अग्नि को अत्यंत पवित्र माना जाता था। यह सभी घरों में निरन्तर रखी जाती थी।

ऋग्वेदकालीन सामाजिक जीवन –

सामाजिक व्यवस्था : ऋग्वैदिक समाज का आधार संयुक्त परिवार होता था जिसमें पिता या बड़ा भाई परिवार का स्वामी होता था। उसके अधिकार असीमित होते थे। वह परिवार के सदस्यों को कठोर से कठोर दण्ड भी दे सकता था। लेकिन ऐसा होता नहीं था। वह बहुत ही प्यार से परिवार चलता था।

राज्य लोगों के पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता था। उस समय जीवन बहुत ही शिष्ट, सात्विक व सदाचारपूर्ण होता था। उस काल के गांव भी छोटे-छोटे होते थे। लोग मिट्टी, लकड़ी व घास-फूस के बने मकान में रहते थे।

वर्ण व्यवस्था : समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म पर आधारित वर्ण व्यवस्था की स्थापना की गई। वर्णों में कोई कठोरता नहीं थी। हमें ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जिनका जन्म किसी वर्ण में हुआ, परन्तु कर्मों के द्वारा वे दूसरे वर्ण में चले गए। वर्ण चार प्रकार के थे —

  1. ब्राह्मण
  2. क्षत्रिय
  3. वैश्य
  4. शूद्र

जैसे विश्वामित्र क्षत्रिय ब्राह्मण बने, नाभानेरिष्ठ वैश्य थे ब्राह्मण बने अर्थात् मनुष्य के कर्म के अनुसार ही उसका वर्ण निर्धारित होता था ।

आश्रम व्यवस्था : मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया था – 1 से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य आश्रम, 25 से 50 वर्ष तक गृहस्थ आश्रम, 50 से 75 वर्ष तक वानप्रस्थ आश्रम व 75 से 100 वर्ष तक संन्यास आश्रम। इन अवस्थाओं में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करना, गृहस्थ जीवन में विवाह करना व धन कमाना, वानप्रस्थ में समाज हित के कार्य करना व संन्यास आश्रम में मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयास करना होता था। मनुष्य के जीवन के धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष आदि उद्देश्य भी निर्धारित थे।

मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक अनेक संस्कार भी बताए गए हैं।

खान पान : उस काल में दूध, घी और दही आदि का भोजन में विशेष महत्व था।

वेशभूषा : शरीर का ऊपरी भाग एक वस्त्र से ही ढका जाता था, जिसे वास कहते थे। सिर पर पहनी जाने वाली पगड़ी को अधिवास तथा नीचे (पैरों पर) पहने जाने वाले वस्त्र को नीवी कहते थे।

आभूषणों में स्त्रियाँ केशबन्ध, कानों में बालियां, गले में हार, बाजूबंद तथा पैरों में कड़े आदि पहनती थीं। केशों को संवारने के लिए चोटी रखना, तेल लगाना, फूल के गजरे आदि लगाए जाते थे। पुरुष भी आभूषणों का प्रयोग करते थे।

मनोरंजन : आखेट, रथदौड़, घुड़दौड़ तथा संगीत की तीनों विधाओं गायन, वाद्य व नृत्य इत्यादि से भी मनोरंजन किया जाता था।

शिक्षा : शिक्षा के लिए गुरु के घर जाना पड़ता था। शिक्षा मौखिक होती थी, जिसका मूल उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना, श्रेष्ठ आचरण रखते हुए एक श्रेष्ठ नागरिक बनाना होता था। वैदिक ऋषि सभी की मंगल कामना करते थे। ऋग्वेद के संज्ञान सूक्त में प्रार्थना है- “हे भगवान हमें ऐसी बुद्धि दे जिससे हम सब मिलकर रहें, प्रिय बोलें, सहृदयी बनकर मिल-बांटकर धन-धान्य का उपयोग करें। हमारी प्रवृत्ति राग-द्वेष रहित व प्रेम पूर्वक हो।” एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद में मातृभूमि की सेवा करने का उल्लेख है। ऋग्वेद में अनेक मंत्र मिलते हैं जो राष्ट्र की रक्षा करने लिए लिखे गए हैं। ऋग्वेद के इन्द्र सूक्त में ऐसी संतान की कामना है जो अपने देश की रक्षा के लिए, धन-धान्य से परिपूर्ण हो व प्रत्येक जन व जन-समूह पर कल्याणकारी गुणों को बरसाने वाली हो।

स्त्रियों की स्थिति : स्त्रियों की समाज में स्थिति अच्छी थी। विवाह परिपक्व अवस्था में ही होते थे। उन्हें भी स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने-फिरने, पढ़ने-लिखने व पति को चुनने का अधिकार था। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था और स्त्रियों की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था थी विवाह को पवित्र और स्थायी सम्बन्ध माना जाता था। विवाह के बाद पत्नी जब घर आती थी तो गृहस्वामिनी कहकर उसका स्वागत किया जाता था। कुछ स्त्रियां विवाह नहीं करती थीं, जैसे- अपाला, विश्ववारा, घोषा आदि। धार्मिक कार्य स्त्री के बिना पूर्ण नहीं होते थे। उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती थी।

ऋग्वेदकालीन आर्थिक जीवन –

कृषि और पशुपालन : ऋग्वैदिक आर्यों की आय का प्रमुख साधन कृषि और पशुपालन थे। व्यक्तिगत भूमि को उर्वरा तथा शामलाती या साझी भूमि को खिल्य कहते थे, जिसे पशुओं को चराने के लिए प्रयोग किया जाता था। उस समय लोग फसलों की जुताई- बुआई, सिंचाई, कटाई को जानते थे। बैलों से चलाने वाले हलों का प्रयोग होता था। वैसे तो सिंचाई का मुख्य साधन वर्षा था परन्तु कुओं से भी सिंचाई होने का उल्लेख मिलता है।

पशुपालन में मुख्य रूप गाय, बैल, भेड़, बकरी, घोड़ा, कुत्ता आदि पशु पाले जाते थे। पशु पालकों को गोप कहा जाता था। गाय का दूध मुख्य आहार था। बैल हल चलाने व बैलगाड़ी खीचने के काम में लिए जाते थे। घोड़ों का रथों व युद्ध क्षेत्र में प्रयोग होता था। शिकार के लिए कुत्ते काम में लिए जाते थे। जिसके पास जितने ज्यादा पशु होते थे, वह उतना ही धनी माना जाता था। आखेट (शिकार) करना भी प्रमुख कार्य था जो धनुष-बाण व जाल फैलाकर किया जाता था।

उद्योग : उद्योग एवं शिल्प भी बड़ी मात्रा में प्रचलन में थे। ऋग्वेद में लकड़ी उद्योग, कपड़ा उद्योग, चर्म उद्योग, धातु उद्योग और कुम्भकार आदि का उल्लेख मिलता हैं। लकड़ी की वस्तुओं में विशेषकर रथ, बैलगाड़ी आदि का निर्माण किया जाता था। कपड़ा उद्योग में सूत, रेशम और ऊन के वस्त्र बनाए जाते थे। चमड़े के कोड़े, लगाम, डोरी तथा थैले आदि बनाये जाते थे। धातु को गला कर वस्तुएँ बनाने के प्रमाण भी मिलते हैं। उस समय में मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार, बाल काटने वाले नाई, शल्य चिकित्सक, गायक, वादक, नर्तक आदि का भी उल्लेख मिलता है। च्यवन ऋषि द्वारा प्रदत्त शल्य विद्या से अनेक लोगों की चिकित्सा की गई थी।

उस काल में व्यापार भी होता था। व्यापारियों को पंणि कहा जाता था। व्यापार जल और स्थल दोनों मार्गो से होता था। व्यापार वस्तु विनिमय से होता था। वस्तु विनिमय का मुख्य साधन गाय होती थी। उस काल गण, व्रात शब्दों का भी उल्लेख मिलता है, जो सम्भवतः व्यापारिक संघों के लिए प्रयोग किये जाते थे। ये सम्भवतः ब्याज का लेनदेन भी करते थे, जिसको अच्छा नहीं माना जाता था।

ऋग्वेदकालीन धार्मिक जीवन

ऋग्वैदिक धर्म में बहुदेववाद के दर्शन होते हैं। उस समय के देवता प्राकृतिक शक्तियों के ही प्रतीक थे। इसलिए उस काल के धर्म को प्राकृतिक धर्म कहना ज्यादा उचित लगता है। उस समय के देवी-देवताओं का तीन भागों में वर्गीकरण किया गया था। ये सभी अपने अपने वर्ग के प्रमुख देवता हैं। इस काल के देवी-देवताओं में कोई छोटा-बड़ा नहीं होता था।

कई देवताओं के वाहनों का भी उल्लेख मिलता है जैसे सूर्य के अश्व और इन्द्र का हाथी

अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए वे खुले स्थान पर जाकर यज्ञ-हवन करते थे व समाज के सभी वर्गों के लोग उनमें शामिल होते थे।

ऋग्वेद में कहीं भी मूर्ति-पूजा, मन्दिर आदि का उल्लेख नहीं मिलता है।

प्रतीत होता है कि प्रकृति को सजीव मानते हुए उसका मानवीकरण किया गया। अग्नि के तीन रूपों का वर्णन मिलता है जैसे- पृथ्वी पर अग्नि, सूर्य की अग्नि, वायुलोक में बादलों में कड़कने वाली विद्युत अग्नि। इसी प्रकार अलग-अलग रूपों में, अलग-अलग नामकरण हो जाता है।

अंतरिक्ष के देवता : इन्द्र, रुद्र, वायु

पृथ्वी के देवता : अग्नि, पृथ्वी, सोम

आकाश के देवता : सूर्य, वरुण, आदित्य

ऋग्वैदिक मानव देवताओं की पूजा-अर्चना शत्रुओं के दमन के लिए करता था । उस काल के शत्रुओं को असुर कहते थे। जैसे- वृत्रासुर । वृत्रासुर सम्भवत: एक प्रकृति की घटना थी जिसमें रेत का बवंडर उठता हो और जहां पानी की कमी हो। दूसरे मनुष्यों के शत्रु जिन्हें राक्षस माना जाता था। ये राक्षस / दस्यु सम्भवतः वे लोग थे जो पूजा- अर्चना में विश्वास नहीं रखते थे। जंगलों में रहते हुए मांस भक्षण किया करते थे और यज्ञ-हवनों में बाधा पहुंचाते थे।

यज्ञ-हवन करने वाले व ऋचाओं को बनाने वाले ऋषि-मुनि होते थे जो सभी वर्गों से होते थे। उस काल में धार्मिक कट्टरता नहीं थी। किसी भी वर्ण का व्यक्ति अपने कर्मों के द्वारा दूसरे वर्ण में जा सकता था। उस काल में छुआछूत भी नहीं थी। ऋग्वेद में सभी वर्णों की रचना की प्रार्थना की गई है। ऋग्वेद में पुनर्जन्म व कर्मवाद में विश्वास भी झलकता है।

उत्तर वैदिक काल

ऋग्वैदिक संस्कृति के आधार पर विकसित यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, वेदों पर लिखी टीकाएं ब्राह्मण ग्रन्थ तथा आरण्यक ग्रन्थ, उपवेद आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद, शिल्पवेद, उपनिषद् व छह वेदांग-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, निरुक्त व छन्द आदि से उत्तर वैदिक काल की संस्कृति की जानकारी मिलती है। उत्तर वैदिक काल की तिथि प्राय: 1500 ई.पू. से लेकर 1000 ई.पू. के बीच में मानी जाती है। यह समय आर्यों की प्रगति का काल था । संख्या की दृष्टि से बढ़ने के साथ-साथ भौगोलिक दृष्टि से भी उनका विस्तार हो रहा था। उन्होंने गंगा-यमुना नदी को पार कर लिया था और पूर्व में बंगाल तक फैल चुके थे तथा दक्षिण में भी विंध्याचल पर्वत माला पार कर ली थी। इस काल की विशेषताओं को निम्न प्रकार से देखा जा सकता है।

राजनीतिक जीवन –

इस काल में ऋग्वेद की तुलना में राज्य बड़े हो चुके थे, जिनमें कुरु, पांचाल, काशी, कौशल, विदेह, इत्यादि थे। पुरु व भरत से मिलकर कुरु वंश बना। इनके राज्य में आधुनिक हरियाणा भी शामिल था। हस्तिानापुर इनकी राजधानी थी। परीक्षित व जनमेजय इस वंश के महत्वपूर्ण शासक थे। जनमेजय की राजधानी आसनधीवत (आधुनिक असन्ध ) थी। पांचालों का राज्य गंगा-यमुना के उत्तर में था व काम्पिल्य इसकी राजधानी थी।

राजा : इस काल में राजाओं की शक्तियों में वृद्धि हुई। इस काल में राजा अनेक उपाधियां धारण करता था। जैसे सम्राट, विराट, राजाधिराज आदि। उनके द्वारा अश्वमेध, राजसूय तथा वाजपेय बड़े-बड़े यज्ञों का भी आयोजन किया जाता था। राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली तथा राजा का पद वंशानुगत होता था। उसकी शक्तियां निरंकुश होती थी परंतु फिर भी वह प्रजा के हित में कार्य करता था।

इस काल में मातृभूमि की रक्षा और देशभक्ति के प्रमाण के रूप में अनेक प्रसंग मिलते हैं। अथर्ववेद में वर्णित भूमिसूक्त का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें लिखा है ” भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं। पृथ्वी विभिन्न जातियों, धर्म-कर्म करने वालों का भरण पोषण करती है।” यजुर्वेद में विद्वानों व साधारण लोगों से प्रार्थना की गई है कि वे ऐसे श्रेष्ठ क्षत्रिय को राजा चुनें जो अपने राज्य का विस्तार करें, उसमें विद्वान लोगों को आश्रय दें, धन सम्पदा से समृद्ध करें तथा सबकी सहमति लेकर बिना किसी भेदभाव के विनम्रता से कार्य करें व अपने भू-भाग को शत्रुओं से रहित करें।

राजा से यह भी आशा की जाती थी कि वह धर्म ऋतु या नियम के अनुसार कार्य करे क्योंकि सारा संसार नियमों व धर्म से ही बंधा हुआ था। धर्म की रक्षा का भार राजा पर था परन्तु वह स्वयं धर्म से ऊपर नहीं था और वह धर्म के सिद्धांतों को बदल नहीं सकता था। अधर्मी और स्वेच्छाचारी राजाओं की निंदा का भी उल्लेख मिलता है।

राजा के कार्य इस प्रकार हैं :

  • राज्य व प्रजा की रक्षा एवं युद्धों में सेना का नेतृत्व करना ।
  • न्याय करना
  • प्रजा के हित में कार्य करना ।

राजा प्रजा से विभिन्न प्रकार के कर लेता था जिसे अधिकारियों को वेतन देने, सुरक्षा करने, प्रजाहित के कार्य करने तथा राजमहल की आवश्यकताओं पर खर्च किया जाता था। उत्तर वैदिक काल में सभा तथा समिति का महत्व कम हो गया था। इसके अतिरिक्त राजा अपनी सहायता के लिए भागदुह (कर एकत्रित करने वाला), संग्रहीता (खजांची), सूत (सारथी), द्वारपाल (सन्देश लाने-ले जाने वाला), पालागल, पुरोहित और युवराज आदि अधिकारियों की नियुक्ति भी करता था।

सैनिक प्रबंध : इस काल में राजाओं ने अपनी ‘ स्थायी सेना रखनी आरंभ कर दी थी। युद्ध में हाथियों का प्रयोग भी होने लगा था। उनके अस्त्र-शस्त्र में प्रमुख धनुषबाण होता था। इनके बाणों के नुकीले अग्रभाग कई बार विष से बुझे भी होते थे। सैनिक युद्धों के अतिरिक्त कृषि जैसे असैनिक कार्य भी करते थे।

  • सेनानी – सेनापति
  • सूत – राजा का सारथी
  • ग्रामणी – गांव का मुखिया
  • भागदुह – कर संग्रहकर्ता
  • संग्रहीता – कोषाध्यक्ष
  • क्षता – प्रतिहारी
  • गोविकर्तन – जंगल विभाग का प्रधान।
  • महिषी – मुख्य रानी
  • पुरोहित – धार्मिक कार्य करने वाला
  • युवराज – राजकुमार

न्याय व्यवस्था : छोटे झगड़ों का निपटारा ग्रामणी ही किया करते थे। निर्दोष सिद्ध करने के लिए अग्नि, जल आदि परीक्षाएं भी होती थीं। मृत्यु दंड नहीं दिया जाता था। अपराधों के लिए आर्थिक व शारीरिक दंड ही दिये जाते थे।

सामाजिक जीवन

समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार होती थी। परिवार पितृसत्तात्मक थे अर्थात् पुत्र को पिता के गोत्र से ही जाना जाता था। परिवार के बड़े पुरुष को ही परिवार का मुखिया माना जाता था तथा उसका घर की सारी सम्पत्ति तथा सदस्यों पर पूरा नियंत्रण होता था।

अथर्ववेद में लिखी एक कामना से यह सिद्ध हो जाता है: पुत्र अपने पिता के प्रति भक्तिवान हो, अपनी माता के प्रति एक मन वाला हो, पत्नी अपने पति से सदा मधुर एवं विनम्रवाणी में बोले। भाई-भाई से तथा बहन-बहन से घृणा न करे, खाना-पीना साथ हो, एक होकर यज्ञाग्नि के चारों ओर शामिल हों। जैसे चक्र के अर्रे धुरी से जुड़े रहते हैं।

वर्ण व्यवस्था : ऋग्वेद की भांति समाज वर्णों में विभाजित था परंतु उसका आधार अब भी कर्म ही था। शूद्रों के साथ भेदभाव नहीं होता था। छूआछूत की भावना भी नहीं थी । वैश्वदेव यज्ञ में लगे आर्यों के लिए शूद्रों द्वारा भोजन बनाने का प्रावधान था । अथर्ववेद में सभी वर्णों की कीर्ति के लिए कामना मिलती है।

वर्ण व्यवस्था आगे चलकर जन्म पर आधारित होने लगी थी फिर भी वे परिवर्तनशील थे।

आश्रम व्यवस्था : उत्तर वैदिक काल में मनुष्य की आयु को सौ वर्ष मानकर उसको चार आश्रमों में बांटा गया हैं।

  • ब्रह्मचर्य (1 से 25 वर्ष) : जिसमें मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालने करते हुए नीतियों/नियमों को सीखना और शिक्षा ग्रहण करनी होती थी।
  • गृहस्थ (25 से 50 वर्ष) : इस काल में मनुष्य को जीविका तथा अपने बच्चों के पालन-पोषण के कार्य निर्धारित थे।
  • वानप्रस्थ (50 से 75 वर्ष) : इस अवस्था में मनुष्य के लिए सामाजिक कार्य निर्धारित थे। जैसे गृहस्थ आश्रम में मनुष्य अपने बच्चों का पालन पोषण करता था। इसी प्रकार अब समाज को अपना समझते हुए उसकी उन्नति के लिए प्रयास करने थे।
  • संन्यास (75 से 100 वर्ष) : इस अवस्था में मनुष्य से आशा की जाती थी कि वह मोक्ष की प्राप्ति के लिए घर, समाज को छोड़कर जंगलों में चला जाए और मोक्ष की प्राप्ति के लिए अपने प्रयास करे।

मनुष्य के जीवन का उद्देश्य चार पुरुषार्थ माने जाते थे। 1. धर्म 2. अर्थ 3. काम 4. मोक्ष। इन्हें इन आश्रमों में ही पूरा करना होता था।

संस्कार : जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कारों को करने का प्रचलन था।

खान-पान : इस काल में सात्विक भोजन होता था। भुने हुए अन्न का भी प्रयोग होता था। इस काल में सत्तू, तिल, खीर, खिचड़ी आदि का सेवन आम बात थी।

वेशभूषा : इस काल में रंगीन वस्त्रों का प्रचलन हो गया था। केसर आदि प्राकृतिक तरीकों से ही वस्त्रों को रंगा जाता था। सुगंधित द्रव्यों का भी प्रयोग किया जाता था। लोगों को सजने-संवरने का शौक था। स्त्रियां अनेक प्रकार के आभूषण धारण करती थीं। पुरुष भी बाजूबंद और विभिन्न प्रकार की मालाएं पहनते थे।

मनोरंजन के साधन : बाहर खेले जाने वाले खेल जैसे रथदौड़, घुड़दौड़, शिकार करना, मल्लयुद्ध, पशुओं की लड़ाई करवाना आदि से मनोरंजन होता था। घर में खेले जाने वाले खेल जैसे चौपड़, संगीत, नाटक आदि से भी मनोरंजन होता था।

स्त्रियों की स्थिति : समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। धनी और राज परिवारों में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। सती, बाल विवाह और पर्दा प्रथाएं प्रचलित नहीं थीं। वे शिक्षा ग्रहण करती थीं। गार्गी-याज्ञवल्क्य वाद-विवाद से सिद्ध होता है कि उस काल में स्त्रियों को भी पढ़ने-लिखने का अधिकार था। और वे विदूषी होती थीं।

नैतिक पतन : इस काल में समाज का नैतिक पतन होना आरंभ हो गया था। राजभवनों में शराब, नाच, गाना, जुआ आदि का प्रचलन हो रहा था।

आर्थिक जीवन

कृषि : इस काल में आय का प्रमुख साधन कृषि था। इस काल में कृषि की जोत बहुत बढ़ गई थी। हल का आकार बड़ा था और इसका उपयोग बड़े पैमाने पर होने लगा था। ऐसे हलों का प्रयोग मिलता है जिसे 24 बैल मिलकर खींचते थे। जौ, चावल, मूंग, उडद, तिल और गेहूं आदि प्रमुख अन्न थे। ऋतुओं के अनुसार फसल को बोया और काटा जाता था। जौ (यव) सर्दियों में बोया जाता था और गर्मियों में काटा जाता था। शतपथ ब्राह्मण में कृषि के विभिन्न कार्य जुताई, बुआई, सिंचाई, कटाई, ओसाई आदि का उल्लेख मिलता है। उत्पादन बढ़ाने के लिए गोबर की खाद का प्रयोग होता था। सिंचाई के लिए वे वर्षा पर ही निर्भर थे। कुएं और नदियों के जल का भी प्रयोग करते थे। ज्यादा बारिश का आना या कम बारिश का होना व अन्य प्राकृतिक आपदा के आने का किसानों में भय बना रहता था। कृषि को रोगों या ऐसी आपदाओं से बचाने के लिए तंत्र-मंत्र का प्रयोग किया जाता था।

पशुपालन : इस काल में गाय का महत्व काफी बढ़ गया था और उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। इस काल में हाथी और ऊंट भी पाले जाते थे। इसके अतिरिक्त घोड़ा, सूअर, गधा, कुत्ता, तथा अन्य काम आने वाले पशुओं को पाला जाता था।

उद्योग धंधे : वाजसनेयी संहिता में हमें विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख मिलता है। जिनमें रथकार, स्वर्णकार, चर्मकार, लुहार, कुम्भकार, जुलाहे, धोबी, वधिक, नट, गायक, गोप, सूत, नाई, ज्योतिषी इत्यादि प्रमुख थे।

धातु उद्योग : इस काल में सोना (हिरण्य), लोहा (कृष्ण अयस्क), तांबा (लाल अयस्क), चांदी, टिन, शीशा आदि धातुओं के प्रयोग का पता चलता है। धातुओं से आभूषण, कृषि संबंधी उपकरण, बर्तन तथा लड़ाई के लिए अस्त्र-शस्त्र बनाए जाते थे।

व्यापार : इस काल में समान व्यवसाय करने वाले एक संघ में संगठित हो जाते थे। साहित्य में ऐसे अनेक संघों का उल्लेख मिलता है और इनके अध्यक्ष को श्रेष्ठि कहा जाता था। इस काल के निष्क, शतमान, कार्षापण आदि मुद्रा की विभिन्न इकाइयों के उल्लेख मिलते हैं। व्यापार, जल और स्थल मार्गों से होता था। सौ पतवारों वाली बड़ी-बड़ी नावों का उल्लेख भी मिलता है। पहाड़ी प्रदेशों से भी व्यापार होता था । सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए बैलगाड़ी का प्रयोग आम था।

वैदिक काल

धार्मिक जीवन

इस काल में पहले के प्राकृतिक देवताओं इंद्र, वरुण तथा अग्नि का महत्व घट गया था तथा नए देवताओं की आराधना आरम्भ हो गई थी। अब ब्रह्मा-विष्णु-महेश का स्थान सबसे ऊपर हो गया था।

यज्ञों की प्रधानता : इस काल में यज्ञों की प्रधानता हो गई थी। यज्ञवेदियों की रचना, उनके संचालन के लिए पुरोहितों का होना कई दिनों तक चलने के कारण यज्ञ आम जनता की पहुंच से दूर हो गये थे। उत्तर वैदिक काल में कर्मकांडों ने प्रधानता बना ली थी, जिनमे घर के कार्यों के साथ-साथ महायज्ञों के ऐसे विधान बनाए गए थे जिनकी कल्पना साधारण मनुष्य की सोच से बाहर थी। इन कर्मकांडों में मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक का ही विधान नहीं था बल्कि उससे अनेक कर्म दिवंगत आत्मा की शांति के लिए भी बताए गए थे।

तपस्या : इस काल में शरीर को कष्ट देने अर्थात् तपस्या की भावना का भी विकास हुआ। सत्य की उत्पत्ति तप से ही हुई और तप के द्वारा देवताओं को भी वश में किया जा सकता है। तपस्या के द्वारा ही शक्ति प्राप्त करके अनेक मनुष्यों ने स्वर्ग को जीता। प्रजापति ने भी तप के द्वारा सृष्टि की रचना की थी। इस काल में अनेक ऋषियों द्वारा घोर तपस्या का उल्लेख मिलता है।

इस काल में लोगों में अंधविश्वास बढ़ने लगा था। लोग भूत-प्रेतों में विश्वास रखने लगे थे। जादू टोनों व मंत्रों में उनका विश्वास दृढ़ हो गया था। अथर्ववेद में भूतप्रेतों से रक्षा के लिए तंत्र-मंत्र का विस्तृत उल्लेख है। रोगों को दूर करने के लिए भी तंत्र-मंत्र का सहारा लिया जाता था।

दार्शनिकता : इस काल में जहां एक ओर कर्मकांड तथा घोर तपस्या की क्रियाएं हो रही थीं वहीं दूसरी ओर ऐसा भी वर्ग था जो शांति और ज्ञान की खोज में लगा था। उपनिषदों में इस आध्यात्मिक चिन्तन का विस्तृत वर्णन मिलता है। आत्मा, परमात्मा, सृष्टि, मोक्ष आदि इनके प्रमुख विषय थे।

दर्शन की छह आस्तिक व्याख्याएं ढूंढी जा सकती हैं। जिनमें 1. सांख्य दर्शन 2. योग दर्शन 3. वैशेषिक दर्शन 4. न्याय दर्शन 5. पूर्व मीमांसा और 6. उत्तर मीमांसा । उत्तर मीमांसा को ही वेदांत कहते हैं अर्थात वेदों का निचोड़।

ये सभी व्याख्याएं संसार को मायाजाल मानती हैं। ब्रह्म एवं जीव को समझने के लिए छान्दोग्य उपनिषद में पिता-पुत्र संवाद का वर्णन है, जिसमें उद्दालक (पिता) अपने पुत्र श्वेतकेतु को समझाता है कि कोई न कोई वस्तु अवश्य है जिससे जगत की उत्पत्ति हुई। उसकी कल्पना की जा सकती है और वह ही सत्य है। जब उसने सोचा कि एक से अनेक बनूं तो उसी से अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, व अन्य जीव बने। अतः जो कुछ भी दिखता है, वह वही है, तो हे श्वेतकेतु तुम भी वही हो

मनुष्य का अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष से अभिप्राय है जन्म मरण के चक्र से छुटकारा । मोक्ष से जीव का विनाश नहीं होता बल्कि वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। जिसका वह अंश होता है, यह एक चरमशांति की स्थिति होती है, जो हमें ज्ञान से प्राप्त होती है।

अश्वमेध यज्ञ – साम्राज्य सीमा वृद्धि के लिए, घोड़े को स्वतंत्र रूप से छोड़ दिया जाता था

राजसूय यज्ञ – राजा के राज्याभिषेक से संबन्धित

अग्निष्टोम यज्ञ – पापों के क्षय व स्वर्ग की ओर ले जाने वाली नाव के रूप में वर्णित

वाजपेय यज्ञ – शक्ति प्रदर्शन के लिए रथ दौड़ का आयोजन

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