विदेशियों के आक्रमण एवं उनका भारतीय संस्कृति में समावेश Class 6 इतिहास Chapter 7 Notes – हमारा भारत I HBSE Solution

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विदेशियों के आक्रमण एवं उनका भारतीय संस्कृति में समावेश Class 6 इतिहास Chapter 7 Notes


छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ईरान के राजा साइरस एवं डेरियस ने आक्रमण किया था। 326 ईसा पूर्व में यूनान के राजा सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया। 323 ईसा पूर्व में उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी उसके साम्राज्य को संभालने में असमर्थ रहे और अनके राज्यों ने अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया।

इन जातियों ने समय-समय पर भारत पर आक्रमण किए, अपने राज्य भी स्थापित किए परन्तु ये भारत से बाहर कब गए, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। इसका अभिप्राय यह है कि ये बर्बर जातियां भारतीय समाज में ही विलीन हो गई और भारतीय धर्म-संस्कृति के प्रचार-प्रसार में लग गईं।

भारत पर आक्रमण करने वाली प्रमुख विदेशी जातियां

  • इण्डो ग्रीक
  • इण्डो पार्थियन
  • शक
  • हूण
  • कुषाण

इण्डो ग्रीक

250 ईसा पूर्व के लगभग बैक्ट्रिया के गर्वनर डायोडोटस प्रथम ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया और इसके बाद डायोडोटस द्वितीय, यूथीडेमस प्रथम, द्वितीय, एन्टियोकस प्रथम ने शासन किया। डिमिट्रियस प्रथम इस वंश का पहला शासक था जिसने भारतीय भू-भाग पर हमला किया और अफगानिस्तान और पश्चिमी भू-भाग के प्रदेशों को जीता। डिमिट्रियस द्वितीय को हराकर यूक्रेटाईडस प्रथम ने अपना राज्य स्थापित किया। इन शासकों की जानकारी के लिए हमें सिक्कों पर ही आश्रित रहना पड़ता है। इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक मिनान्डर था जिसने 155 से 130 ईसा पूर्व के लगभग शासन किया। उसकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) थी।

मिनान्डर

यह मूल रूप से अलसन्दा के निकट कलसी का रहने वाला था जिसकी पहचान काकेशस भू-भाग के एलेग्जांड्रिया नगर से की गई है। इसका राज्य पश्चिम में अराकोशिया से पूर्व में रावी तक तथा उत्तर में स्वात घाटी से दक्षिण में पंचनद तक था। इन भू-भागों से हमें सिक्के प्राप्त होते हैं। मिनान्डर ने साकेत व पाटलिपुत्र पर भी आक्रमण किए थे। इसे विजय भी प्राप्त हुई थी परन्तु आपसी फूट के कारण इसे वापिस जाना पड़ा। पंतजलि के महाभाष्य, युग पुराण की गार्गी संहिता व कालिदास के नाटक मालविकाग्निमित्रम् से हमें इन आक्रमणों की पुष्टि होती है। इसने सोटर व डिकेयॉय की उपाधियां प्राप्त की थीं।

मिलिन्दपन्हों पुस्तक में मिनान्डर की बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ वार्तालाप का वर्णन मिलता है। जिससे सिद्ध होता है कि नागसेन से अत्याधिक प्रभावित हुआ और इसने बौद्ध धर्म अपना लिया। इसने सिक्कों पर बौद्ध प्रतीक, चक्र को भी अंकित करवाया। इसके काल को इण्डोग्रीक राजाओं में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जनता इसे भगवान की तरह मानती थी और इसकी लोकप्रियता इतनी थी, इसकी मृत्यु होने पर इसके शरीर की राख के लिए भी लड़ाई हो गई थी। इसीलिए इसके बारे में कहा जाता है कि मिनान्डर जैसा शक्तिशाली योद्धा शासक अपनी विजयों की अपेक्षा एक चिंतक के रूप में प्रसिद्ध हुआ। एण्टीआलकिड्स इस वंश का अन्य राजा था जिसने भागवत धर्म अपना लिया था और उसके काल में गर्वनर हेलियोडोरस ने एक गरुड़ स्तंभ स्थापित किया। इस वंश का अंतिम शासक हर्मियस था जिसने 75 से 55 ईसा पूर्व में शासन किया था और इसके बाद शक और कुषाण राजाओं ने इनकी सत्ता को समाप्त कर दिया।

इण्डो पार्थियन

अरसाकोज के नेतृत्व में पार्थिया (ईरान) स्वतंत्र हो गया। मिथराडेटस इस वंश का पहला राजा था। जिसने इण्डोग्रीक राजाओं से सिन्धु व झेलम नदियों के बीच का भू-भाग जीत लिया। इन राजाओं में गोण्डोफर्नीज सबसे प्रसिद्ध राजा था। उसने शक और कुषाणों से संघर्ष करके अपना राज्य विशाल कर लिया था। इसके काल में ईसाई धर्म प्रचारक संत थॉमस भारत आया था।

शक

शकों ने कि-पिन पर अधिकार किया जिसे इतिहासकारों ने कश्मीर से पहचाना है।

प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में भारत के उत्तर-पश्चिम में शक जाति ने आक्रमण करने शुरू किए। चीनी प्रमाणों के अनुसार ह्यूग-नू जाति के लोगों ने यूची जाति पर हमला किया तो यूची जाति ने पश्चिम की ओर पलायन किया और वहां रहने वाली शक जाति को दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। पतंजलि के महाभाष्य ने इन्हें सुदूर उत्तर-पश्चिमी सीमा पर यवनों के साथ रहने वाला बताया है। महाभारत में भी इन्हें शाकल (स्यालकोट) से आगे उत्तर-पश्चिम की ओर बर्बरों एवं यवनों के साथ रहने वाला बताया है।

मध्ययुगीन जैन ग्रन्थ कालकाचार्य कथानक में शकों के आक्रमण के विषय में एक कथा मिलती है। इसके अनुसार कालक नामक आचार्य मालवा के राजा गर्गभिल्ल से अधिक नाराज था। उसे सबक सिखाने के लिए वह उत्तर दिशा में गया तथा शक नेताओं को आक्रमण के लिए प्रेरित किया। शक सिन्धु नदी पार करके सौराष्ट्र प्रदेश में आए और सारे प्रदेश को आपस में बांट लिया। आचार्य कालक शकों को उज्जैन ले गया जहां उसने गर्गभिल्ल शासक को परास्त करके बंदी बना लिया। मालवा में शक राज्य स्थापित हुआ जिसे विक्रमादित्य द्वारा समाप्त किया गया।

भारत में शकों के चार राज्य मिलते हैं।

  1. पश्चिम में उज्जैन
  2. दक्षिण में नासिका
  3. उत्तर-पश्चिमी तक्षशिला
  4. पूर्व में मथुरा

तक्षशिला के शक : माउज इस वंश का प्राचीनतम राजा था जिसके सिक्के हमें उपलब्ध होते हैं। जिन पर खरोष्ठी लिपि में राजा तिराज महान लिखा है। इसके उत्तराधिकारी एजेज प्रथम व एजेज द्वितीय थे जिनकी जानकारी केवल सिक्कों से मिलती है। इण्डों पार्थियन राजा गोण्डोफर्नीज ने इस वंश का अंत किया।

मथुरा के शक : मथुरा से प्राप्त सिंह – शीर्ष लेख से हमें राजुल व सोडाव राजाओं का उल्लेख मिलता है। इन दोनों को महाक्षत्रप कहा गया है। इस वंश की स्वतंत्रता कनिष्क के राज्यकाल में समाप्त हो गई जब महाक्षत्रप खरपल्लान व क्षत्रप वनस्पर ने कनिष्क की अधीनता स्वीकार की।

नासिक के शक : यहां के दो शासकों भूमक तथा नहपान का उल्लेख मिलता है। नहपान इस वंश का शक्तिशाली राजा था जिसके राज्य में राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मालवा, उत्तरी कोंकण, नासिक व पूना का इलाका शामिल था। नासिक गुहा अभिलेख में इसकी जानकारी दी गई है। नहपान की राजधानी मिन्नगर थी। इस वंश का पतन गौतमी पुत्र शातकर्णि द्वारा किया गया।

उज्जैन के शक : इस राज्य की स्थापना चष्टन ने की थी। इसके मुद्राओं पर चैत्य प्रतीक मिलता है। सम्भवतः उसने बौद्ध धर्म अपनाया था। रूद्रदामन इस वंश का प्रसिद्ध शासक था जिसके जूनागढ अभिलेख से हमें बहुत जानकारी मिलती है। उसने अनेक सफलताएं अर्जित की और दक्षिणापथ-पति शातकर्णि को युद्ध में दो बार हराया। उसने सिन्धु सौवीर का प्रदेश भी जीता। उसने सुदर्शन झील का जीर्णोद्वार करवाया। गुप्त वंश के समय में इस वंश का अंत हुआ।

कुषाण

कुषाण, यूची जाति का ही एक हिस्सा थे जिसे हूण जाति ने निकाल दिया था और ये जाति दक्षिण की ओर आगे बढ़ी और इन्होनें शक जाति पर हमला करके अपना राज्य स्थापित कर लिया था। इन संघर्षों के दौरान यह जाति पांच भागों में बंट गई और इन्हीं पांचों में एक भाग कुषाणों का था। ईसा की पहली शताब्दी में इस कुषाण शाखा ने अन्य चारों को भी जीत लिया और अपना राज्य स्थापित किया।

कुषाण वंश के प्रमुख शासक इस प्रकार हैं :

कैडफिसिज- प्रथम

यह इस वंश का पहला ऐसा शासक था, जिसने देवपुत्र की उपाधि धारण की। इसका साम्राज्य सिंधु नदी और ईरान की सीमा के बीच था। इसने इण्डोग्रीक एवं इण्डोपार्थियन राजाओं को हराया। इसका राज्य संभवतः 40 ई. से 65 ई. तक रहा।

कैडफिसिज-द्वितीय

इसने शक राजाओं को हराकर पंजाब, उत्तर प्रदेश, कश्मीर, मथुरा और वाराणसी तक अपने राज्य का विस्तार कर लिया था। इसने भी अनेक उपाधियां धारण की जैसे महाराज, राजाधिराज, महेश्वर, देव पुत्र आदि । उसने शैव धर्म को अपना लिया था परन्तु वह अन्य धर्म का भी सम्मान करता था। इसका राज्यकाल सम्भवतः 65 ई. से 78 ई. तक था।

कनिष्क

इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक कनिष्क था जिसनें 78 ई. से लेकर 120 ई. तक शासन किया। इसकी राजधानी आधुनिक पेशावर (पुरुषपुर) थी जिसे उसने सार्वजनिक भवनों, महलों और बौद्ध विहारों से सजाया था। इसने एक विशाल स्तंभ का भी निर्माण करवाया था जो लकड़ी की 13 मंजिलों का था।

कनिष्क द्वारा प्राप्त सफलताएं —

कश्मीर की विजय : कनिष्क ने सर्वप्रथम कश्मीर पर विजय प्राप्त की और वह इसे इतना अच्छा लगा कि वहां पर कनिष्कपुर नामक नगर की स्थापना की जो आज भी एक छोटे से गांव के रूप में जाना जाता है। जिसे नीस्पोर के रूप में जाना जाता है।

शक राजाओं के साथ युद्ध : उसने पंजाब, मथुरा एवं उज्जैन के शक राजाओं को हरा कर अपने राज्य का विस्तार किया।

मगध की विजय : कनिष्क की महत्वपूर्ण सफलता मगध की विजय है। चीनी और तिब्बती प्रमाणों के आधार पर यह माना जाता है कि उसने पाटलीपुत्र पर हमला किया और राजा से सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु मांगी तो राजा ने उसे बौद्ध भिक्षु अश्वघोष को दे दिया। अश्वघोष के प्रभाव से उसने बौद्ध धर्म अपना लिया।

चीन के राजा के विरुद्ध सफलता : कनिष्क ने चीन के राजा के पास अपना राजदूत यह कहकर भेजा कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर ले। चीन के राजा ने राजदूत को बंदी बना लिया। उसके बाद चीनी राजा का कनिष्क के साथ युद्ध हुआ तो कनिष्क को हार का सामना करना पड़ा परन्तु अगले वर्ष पूरी तैयारी के साथ चीन पर हमला किया परिणामस्वरूप उसे काशगर, यारकन्द और खोतान प्राप्त हुए।

बौद्ध मत : कनिष्क ने बौद्ध मत से प्रभावित होकर इसे स्वीकार किया। लेकिन कनिष्क की मुद्राओं पर सभी देवी-देवताओं के चित्र मिलते हैं जो उसकी धार्मिक उदारता का प्रमाण है। उसके प्रयासों से ही बौद्ध मत मध्य एशिया, चीन, तिब्बत आदि प्रदेशों में फैला।

कनिष्क ने प्राचीन बौद्ध विहारों का जीर्णोद्धार करवाया तथा नए स्तूप-विहारों का निर्माण करवाया भिक्षुओं के जीवनयापन के लिए आर्थिक सहायता दी। महात्मा बुद्ध की अनेक मूर्तियां इस काल में बनीं।

उसके काल में बौद्ध धर्म की चौथी महासभा कुण्डलवन (कश्मीर) में बुलाई गई जिसमें 500 के लगभग भिक्षुओं ने भाग लिया।

इस सभा के प्रमुख धर्माचार्य अश्वघोष, वसुमित्र, नागार्जुन आदि थे। बौद्ध धर्म में आए अनेक मतभेदों को समाप्त नहीं किया जा सका और बौद्ध धर्म दो भागों में बंट गया। जो प्राचीन सिद्धान्तों में ही विश्वास रखता था, उसे हीनयान कहा गया और जिस वर्ग ने समय के अनुसार उसमें परिवर्तन कर लिया और महात्मा बुद्ध की मूर्ति की पूजा करनी शुरू कर दी, उसे महायान संप्रदाय के रुप में मान्यता दी गई। बौद्ध धर्म के प्राचीन ग्रन्थ पर टीका लिखी गई जिसे महाविभाष कहा गया।

कला व साहित्य के क्षेत्र में उन्नति : कनिष्क कला और साहित्य का भी संरक्षक था और उस काल में ऐसे अनेक क्षेत्रों में विकास हुआ। उस काल में मूर्ति निर्माण में गांधार कला का विकास हुआ जिसमें मूर्ति बनाने के तरीके यूनानी थे परन्तु मूर्तियां भारतीय देवी-देवताओं की बनाई जाती थी। इसी भांति सारनाथ भी मूर्ति कला के केन्द्र बने। उस काल में साहित्य भी बहुत लिखा गया। अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित सौदरानन्द ग्रन्थ’ लिखे। नागार्जुन ने ‘शून्यवाद’ का प्रचार किया और माध्यमिक सूत्र ग्रंथ की रचना की। आयुर्वेद का ग्रंथ ‘चरक संहिता’ भी उसी काल में लिखा गया।

आर्थिक उन्नति : कनिष्क के काल में भारत का व्यापार सबसे उन्नत था। यह रोम, दक्षिण भारत चीन और पार्थियन साम्राज्य तक फैला हुआ था और इन प्रदेशों में भारत से जो सामान जाता था उसके बदले में सोना, चांदी ही आता था। यह व्यापार जल और स्थल मार्गों से होता था और भारत उस समय बहुत धनी बन गया था।

  • त्रिपिटक : बौद्धों के तीन विशेष ग्रन्थ
  • हीनयान : बुद्ध के मूल सिद्धान्तों को मानने वाले
  • महायान : नए विचारों को अपनाने वाले एवं मूर्तिपूजा करने वाले बौद्ध

हूण

कुषाण वंश के बाद एक अन्य बर्बर जाति ने भारत पर आक्रमण किया, जिन्हें हूण या श्वेत हूण नामों से जाना जाता है। भारत में इनका प्रवेश पांचवीं सदी में होता है और 150 वर्षों तक ये राज्य करते रहे। चीनी स्रोतों के अनुसार हिंगु-नु (हूण) जंगुरिया नामक स्थान पर रहते थे। इन्होंने 165 ईसा पूर्व के लगभग यूची जाति को पश्चिम-उत्तर सीमा से बाहर निकाला और कुछ समय ये स्वयं भी पश्चिम की ओर बढ़े। इनकी दो शाखाएं थी, एक यूरोप की ओर बढ़ी तथा दूसरी आक्सस घाटी में बस गई । इन्हीं लोगों ने पर्शिया (ईरान) पर हमला किया जिसमें उन्हें हार का सामना करना पड़ा, फिर ये भारत की ओर मुड़ गए। 465 ई. में इन्होंने गांधार को जीत लिया।

भारत पर हूणो के आक्रमण का पहला प्रमाण स्कन्दगुप्त के भीतरी स्तम्भ लेख में मिलता है जब उसने हूणों को भयंकर युद्ध में परास्त किया था।

तोरमाण का आक्रमण (484-51 ) : पांचवीं सदी के अंत में तोरमाण नामक हूण राजा का उल्लेख मिलता है, जिसने ईरान के राजा पिफरोज की हत्या करके अपना प्रभाव बढ़ा लिया था। उसने भारत के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत से आगे बढ़कर पंजाब व कश्मीर अपनी सत्ता स्थापित की। उसने गुप्तों के विरुद्ध भी सफलता प्राप्त की और उसके पश्चिमी क्षेत्र मालवा तक अपना प्रभाव बढ़ा लिया। उसकी पुष्टि अभिलेख, सिक्कों व साहित्य से भी होती है। उसने यौधेय, मालव, मद्र व आर्जुनायन गणराज्यों को भी नष्ट किया। इसके बाद वह सौराष्ट्र व पूर्वी प्रदेश मगध को रौंदता हुआ गौड़ नगर तक पहुंचा। इसके सिक्के कौशांबी व काशी तक मिलते हैं। मंजुश्रीमूलकल्प में भी इसका उल्लेख है।

मिहिरकुल : 510 ई. में तोरमाण की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल शासक बना। वह बहुत क्रूर था। उसने बौद्ध विहारों, चैत्यों मठों को नष्ट करना शुरू कर दिया। पाटलीपुत्र पर मिहिरकुल ने अधिकार करके गुप्त राजा बालादित्य का पीछा करना शुरू किया जिसने एक टापू पर शरण ली हुई थी। मिहिरकुल जब द्वीप पर पहुंचा तो बालादित्य के सैनिकों ने उसे बंदी बना लिया। बालादित्य ने अपनी माता के कहने पर उसे मुक्त कर दिया परन्तु उससे राज्य छीन लिया। कश्मीर के राजा ने उसे शरण दी परन्तु वह उस शासक को मारकर स्वयं गद्दी पर बैठ गया। यशोधर्मन के मन्दसौर अभिलेख से पता लगता है कि भारतीय राजाओं ने यशोधर्मन के नेतृत्व में एक संयुक्त मोर्चा बनाकर मिहिरकुल को पूरी तरह परास्त किया था। मिहिरकुल की पराजय से हूणों की शक्ति क्षीण हो गई। केवल छोटे-छोटे सामन्तों के रूप में वे उत्तर-पश्चिमी भारत में राज्य करते रहे और भारतीय समाज में ही विलीन हो गए।

इस प्रकार प्राचीन काल में भारत पर विदेशी जातियों इण्डो-ग्रीक, इण्डो पार्थियन, शक, कुषाण और हूणों ने आक्रमण किया लेकिन ये जातियां भारत में आकर भारतीय सभ्यता, संस्कृति, धर्म एवं दर्शन से प्रभावित हुई तथा भारतीय सम्पर्क में आने से शीघ्र ही ये भारतीय जनमानस में घुल-मिलकर लुप्त हो गईं।

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