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HBSE Class 9 इतिहास / History in hindi आजाद हिंद फौज एवं नेताजी की भूमिका / Azad hind Fauj avam Netaji ki bhumika notes for Haryana Board of chapter 7 in Hamara bharat IV Solution.
आजाद हिंद फौज एवं नेताजी की भूमिका Class 9 इतिहास Chapter 7 Notes
भारत की आजादी के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ‘आजाद हिंद फौज’ को संगठित करते हुए आह्वान किया था कि “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी रहे पी. सीतारमैया ने उन्हें सिकंदर, सीजर और क्रॉमवेल के समान राजनीतिक विभूति बतलाया।
‘लोकमान्य’ बाल गंगाधर तिलक को कहते हैं, ‘महामना’ मदन मोहन मालवीय के लिए, ‘गुरुदेव’ रवींद्रनाथ टैगोर के लिए तो ‘महात्मा’ मोहनदास करमचंद गांधी के लिए प्रयोग किया जाता है इसी तरह से भारत की जनता सुभाष चंद्र बोस को ‘नेताजी’ कहकर संबोधित करती है।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का आरम्भिक जीवन –
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 ई. को कटक (उड़ीसा) में प्रभावती तथा जानकीनाथ बोस के घर में हुआ। वह चौदह भाई-बहनों में नौवें नंबर पर थे। पाँच वर्ष की आयु में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को कटक के एक अंग्रेजी प्रोटस्टेंट स्कूल में पढ़ने भेजा गया। वे कुशाग्र बुद्धि थे तथा हमेशा पढ़ाई में आगे रहते थे इसलिए अध्यापकों के प्रिय बन गए। अंग्रेजी स्कूल के भेदभावपूर्ण वातावरण के कारण उन्हें आरम्भ से ही अंग्रेजों से घृणा हो गई। प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने रेवेन्शा कोलजिएट स्कूल में दाखिला लिया। इस स्कूल से उन्होंने 1913 ई. में मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा प्रांत में दूसरे स्थान पर रहे।
ओटन विवाद – सुभाष चंद्र बोस ने उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उन्होंने 1915 ई. में एफ.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। एक महत्वपूर्ण घटना ने नेताजी का जीवन बदल दिया। कॉलेज के प्रोफेसर ई. एफ. ओटन तथा जे. डब्ल्यू. हॉम्स भारतीय विद्यार्थियों से दुर्व्यवहार करते थे तथा भारतीय राष्ट्रीयता से संबंधित गलत टिप्पणी करते रहते थे। कुछ भारतीय विद्यार्थियों ने ओटन पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि सुभाष आक्रमणकारियों में नहीं थे लेकिन वे इस घटना के चश्मदीद गवाह थे। जाँच समिति के सामने सुभाष ने आक्रमणकारी छात्रों के नाम बताने से इंकार कर दिया। सजास्वरूप नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को कॉलेज से निकाल दिया गया। इसके बाद उनका जीवन परिवर्तित हो गया। 1917 ई. में उन्होंने स्काटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया। यहाँ उन्होंने सैनिक प्रशिक्षण लिया तथा फोर्ट विलियम की यात्रा कैडेट के रूप में कई बार की। उन्होंने 1919 ई. में दर्शन शास्त्र में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आदर्श – जब वे छोटे थे तो उन पर अनुशासनप्रिय माता प्रभावती का गहरा प्रभाव पड़ा। बड़ा होने पर स्कूल के हेडमास्टर बेनी माधव ने उन्हें प्रभावित किया। इसके अतिरिक्त वे रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद से भी काफी प्रभावित हुए। वे अरविंद घोष और रवींद्रनाथ टैगोर के विचारों के समर्थक थे। बाद में ‘देशबंधु चित्तरंजन दास’ को उन्होंने अपना गुरु मान लिया।
राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश –
1919 ई. में सुभाष चन्द्र बोस के पिता ने उन्हें आई.सी.एस. की परीक्षा पास करने के लिए इंग्लैंड भेजा। 1920 ई. में हुई आई.सी.एस. की परीक्षा में उन्होंने चौथा स्थान प्राप्त किया। अब उन्हें अपने जीवन का सबसे कठोर निर्णय लेना था या तो वे आई.सी.एस. बन कर अंग्रेजों का सहयोग करें या फिर पद त्याग देकर मातृ भूमि की सेवा करे। उन्होंने आई.सी.एस. से त्यागपत्र देकर राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करने का निश्चय किया।
गांधी जी से तीन प्रश्न – त्यागपत्र देकर नेताजी 1921 ई. में असहयोग आंदोलन के दौरान भारत पहुँचे तथा 16 जुलाई, 1921 ई. को उन्होंने मुंबई पहुँचकर गांधी जी से भेंट की, उनके मन में तीन प्रश्न थे :
- कांग्रेसी कार्यक्रमों से करों की अदायगी कैसे बंद हो?
- असहयोग आन्दोलन से अंग्रेज भारत छोड़कर कैसे जाएंगे?
- गांधी जी एक वर्ष में स्वराज का वचन कैसे पूरा करेंगे?
गांधी जी ने उनके प्रश्नों के उत्तर दिए। सुभाष पहले प्रश्न के उत्तर से संतुष्ट हुए लेकिन अन्य उत्तर उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाए।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस गांधी जी के सुझाव पर कलकत्ता जाकर चित्तरंजन दास से मिले और उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मान लिया। देश भर में आंदोलन जारी था तभी प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आने की घोषणा हुई। वे आंदोलन में कूद पड़े तथा उन्होंने वेल्स के दौरे का विरोध शुरू कर दिया। सरकार घबरा उठी। चित्तरंजन दास ने उन्हें नेशनल कॉलेज का प्राचार्य नियुक्त किया। उनकी अद्भुत संगठन क्षमता तथा ओजस्वी भाषण से बंगाल में उनका जादू छाने लगा।
10 दिसंबर, 1921 ई. को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यह उनकी पहली गिरफ्तारी थी बाद में 1941 ई. में भारत से अदृश्य होने तक, 20 वर्ष की अवधि में वे कुल 11 बार जेल गए।
स्वराज पार्टी के लिए कार्य – 1922 ई. में ‘चौरी-चौरा’ की घटना के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन स्थगित किया तो सुभाष ने इसे “राष्ट्रीय विपत्ति” बताया। उन्होंने अपने राजनैतिक गुरु चित्तरंजन दास के साथ मिलकर ‘स्वराज पार्टी’ का गठन किया। बंगाल अध्यादेश का विरोध करने पर ब्रिटिश सरकार ने उन पर क्रांतिकारी षड्यंत्र करने का आरोप लगाकर उन्हें पुनः गिरफ्तार करके बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया। इस जेल में आने पर उन्हें गर्व था क्योंकि इसी जेल में पहले तिलक एवं लाला लाजपतराय जैसे नेता रह चुके थे। दो वर्ष बाद उन्हें कलकत्ता की जेल में लाया गया लेकिन स्वास्थ्य खराब होने के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया।
1923 ई. में कलकत्ता नगर निगम के चुनावों में सी. आर. दास महापौर (मेयर) बने तो उन्होंने नेताजी को अपना मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने कलकत्ता की मुख्य सड़कों के नाम अंग्रेजों के नाम से बदलकर भारतीय महापुरुषों के नाम पर रखे।
इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का गठन – 1927 ई. में साइमन कमीशन की नियुक्ति के बाद देशभर में इस कमीशन के बहिष्कार आंदोलन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस भी शामिल हो गए। नेहरू रिपोर्ट में पूर्ण स्वराज का जिक्र न होने के कारण उन्होंने जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर कांग्रेस के भीतर ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ का गठन किया तथा कांग्रेस पर “पूर्ण स्वराज” का लक्ष्य निर्धारित करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया।
16 जुलाई, 1921 ई. के अपने पहले मिलन से ही गांधी और सुभाष में वैचारिक विरोध के भाव थे। गांधी जी साधन और साध्य दोनों की पवित्रता में गहरा विश्वास रखते थे जबकि नेताजी साध्य के लिए किसी भी साधन को अपनाने के हक में थे। 33 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता के महापौर निर्वाचित हुए।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में –
हरिपुरा अधिवेशन – सुभाष चंद्र बोस की राष्ट्रीय सेवाओं को महत्व देते हुए उनकी अनुपस्थिति में ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1938 ई. के हरिपुरा अधिवेशन में सर्वसम्मति से उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित कर लिया।
अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने कांग्रेस की गति को तीव्रता देनी शुरू की तथा स्वतंत्रता का जोर-शोर से प्रचार शुरू कर दिया। वे सरकार को समयबद्ध चेतावनी देकर स्वतंत्रता संघर्ष छेड़ने के पक्षधर थे। उन्होंने भारत की विदेश नीति एवं आर्थिक पुनर्निर्माण से संबंधित विचार रखे। उन्हें यूरोप की विस्फोटक स्थिति का पूर्वाभास था तथा वे इसका फायदा उठाना चाहते थे।
त्रिपुरी अधिवेशन – 1939 ई. में कांग्रेस का अधिवेशन त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) में हुआ। वे पुनः अध्यक्ष बनना चाहते थे। गांधी जी उनकी आतुरता के विरुद्ध थे। वे उन्हें पुनः अध्यक्ष पद पर नहीं देखना चाहते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के इतिहास में पहली बार चुनाव हुआ। सुभाष को 1580 तथा गाँधीजी के प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस पुनः अध्यक्ष निर्वाचित हुए लेकिन गांधी जी व गांधीवादियों के असहयोग के कारण वे अधिक समय तक कांग्रेस का संचालन नहीं कर सके।
त्याग-पत्र – गांधी जी ने सीतारमैया की हार को अपनी हार माना था। कार्यकारिणी के विरोधस्वरूप नेताजी को 29 अप्रैल, 1939 ई. को अध्यक्ष पद से त्याग-पत्र देना पड़ा। उन्होंने 3 मई, 1939 ई. को ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की तथा अग्रगामी नीति का अनुसरण करते हुए देश भर में आंदोलन की रूपरेखा बनानी शुरू कर दी।
दूसरा विश्व युद्ध तथा सुभाष चन्द्र बोस का जर्मनी पहुंचना –
सुभाष चन्द्र बोस की नजरबंदी – विश्व युद्ध शुरू होने पर नेताजी इस अवसर का लाभ उठाना चाहते थे। उन्होंने देश भर में ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ के माध्यम से आंदोलन प्रारंभ कर दिया। 22 जून, 1940 ई. को वे सावरकर से मिले तथा विदेशी सहायता से आजादी की योजना बनाई। 2 जुलाई, 1940 ई. को उन्हें गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। 26 नवंबर, 1940 ई. को सुभाष ने गवर्नर को पत्र लिखा कि “राष्ट्र को जीवित रखने के लिए व्यक्ति का मरना आवश्यक है। आज मेरा मरना जरूरी है ताकि भारत स्वतंत्रता एवं गौरव को प्राप्त कर सके।” इसके बाद 29 नवंबर, 1940 ई. को उन्होंने उपवास शुरू कर दिया। कुछ दिनों में उनकी हालत बिगड़ने लगी। सरकार घबरा गई तथा 5 दिसंबर, 1940 ई. को सुभाष को जेल से रिहा कर दिया गया तथा बाद में उन्हें कलकत्ता में उन्हीं के घर में नजरबंद कर दिया।
भेष बदलकर जर्मनी पहुँचना – घर में नजरबंदी के बाद उन्होंने सबसे मिलना-जुलना बंद कर दिया। दाढ़ी बढ़ा ली तथा 16 जनवरी, 1941 ई. की रात्रि को मौलवी जियाउद्दीन का भेष धारण करके वे कलकत्ता से पेशावर तथा फिर पेशावर से काबुल पहुँचे। इसमें भक्तराम व उत्तमचंद मल्होत्रा ने उनकी सहायता की। उनकी रोमांचक यात्रा का वर्णन उत्तम चंद मल्होत्रा ने अपनी पुस्तक ‘सुभाष जब जियाउद्दीन थे’ में किया है। उसके बाद वे मास्को की ओर रवाना हुए लेकिन रूस मित्र देशों की ओर से युद्ध में शामिल हो गया था। इसलिए वे इटालियन दूतावास की मदद से बर्लिन पहुँचे। पासपोर्ट पर उनका नाम ‘ऑरलैंडो मंजोटा’ अंकित था।
हिटलर से मुलाकात – जर्मन प्रवास के दौरान एक अंतराल के बाद बोस की हिटलर से मुलाकात हुई। जब हिटलर ने उनसे राजनीतिक परिकल्पना के स्वरूप के बारे में पूछा तो उन्होंने वोनड्रीट जो दुभाषिए का कार्य कर रहे थे, को कहा कि महामहिम से कह दो कि “मैं जीवन भर राजनीति में रहा हूँ और मुझे इस संबंध में किसी के परामर्श की जरूरत नहीं है।”
जर्मनी में स्वतंत्र भारत केंद्र तथा आजाद हिंद रेडियो की स्थापना : जर्मनी में बर्लिन पहुँचने के बाद नेताजी ने स्वतंत्र भारत केंद्र की स्थापना की। इसमें बीस भारतीय सदस्य थे। एक सदस्य डॉक्टर एम. आर. व्यास की मदद से ‘आजाद हिंद रेडियो की स्थापना’ की गई तथा देश में प्रसारण प्रारंभ किया। उन्होंने जर्मनी में भारतीय युद्धबंदियों से एक सैन्य दल गठित किया जो आजाद हिंद फौज का पूर्वगामी रूप था। नेताजी ने जर्मन विदेश विभाग को अपनी योजना से अवगत कराया तथा जर्मन विदेश विभाग ने नेताजी को वित्तीय मदद देनी शुरू कर दी।
आजाद हिंद फौज का गठन –
फरवरी 1942 ई. में जब अंग्रेजी सेना ने सिंगापुर में जापानी सेना के सामने हथियार डाले उन्होंने तो एशिया जाने की योजना बनानी शुरू कर दी तथा 90 दिन की पनडुब्बी की यात्रा करके वे दक्षिण-पूर्व एशिया पहुँचे। ‘रास बिहारी बोस’ काफी समय से आत्म निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे। उन्होंने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का गठन करके दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत की स्वतंत्रता के प्रयास किए। उनके अलावा बर्मा, थाईलैंड और शंघाई में क्रमश: प्रीतम सिंह, बाबा अमर सिंह एवं बाबा उस्मान खान भी स्वतंत्रता की अलख जगाए हुए थे। इन सबके प्रयत्नों तथा कैप्टन मोहन सिंह के सहयोग से ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन हुआ लेकिन शीघ्र ही मोहन सिंह व जापानी अधिकारियों में मतभेद होने से इसका विघटन होने लगा।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा आजाद हिंद फौज की कमान संभालना – नेताजी पनडुब्बी यात्रा करके 20 जून, 1943 ई. को टोक्यो पहुँचे। वहाँ के मंत्रियों, सैनिक अधिकारियों एवं प्रधानमंत्री तोजो से भेंट की। 2 जुलाई, 1943 ई. को वे सिंगापुर पहुँचे। 4 जुलाई, 1943 ई. को रास बिहारी बोस ने सिंगापुर में एक सभा करके बोस को आजाद हिंद फौज की बागडोर सौंप दी। यहीं से सुभाष चन्द्र बोस को ‘नेताजी’ कहकर पुकारा जाने लगा। अब वे आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनानायक बन गए उन्होंने सैनिक वेशभूषा धारण की।
नेताजी तीन लाख सैनिक भर्ती करना चाहते थे। इसके लिए धन की आवश्यकता थी। रंगून के एक उद्योगपति हबीबुर्रहमान ने एक करोड़ रुपए की सहायता दी। एक गुजराती महिला श्रीमती बताई देवी ने तीन करोड़ की संपत्ति नेताजी के कदमों में रख दी। रंगून में ‘आजाद हिंद बैंक’ की स्थापना हुई। प्रवासी भारतीयों ने अपने गहने बेचकर नेताजी को धन दिया। नेताजी ने अधिकाधिक सैनिक भर्ती करने के लिए सिंगापुर, मलाया, जावा, सुमात्रा, बर्मा में फौज के दफ्तर खोल दिए।
” नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने आबिद हसन के सुझाव पर ‘जय हिंद’ का नारा दिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता को ‘राष्ट्रगान’ बनाया। कांग्रेस के ‘तिरंगे’ को ‘राष्ट्रीय झंडा’ घोषित किया तथा इसमें से चरखा हटाकर उछलता चीता अंकित किया।”
सेना को पाँच भागों (ब्रिगेड) में बांटा :
- गांधी ब्रिगेड
- नेहरू ब्रिगेड
- आजाद ब्रिगेड
- सुभाष ब्रिगेड
- झाँसी की रानी रेजीमेंट (महिलाओं के लिए)।
झाँसी की रानी रेजीमेंट की अध्यक्ष लक्ष्मी स्वामीनाथन को बनाया गया। पहले इसमें 156 महिलाएँ थी। बाद में इनकी संख्या 1000 तक पहुँच गई। बाल सेना भी बनाई गई।
अंतरिम सरकार की स्थापना – 21 अक्टूबर, 1943 ई. को सिंगापुर के कैथे सिनेमा हॉल में अंतरिम सरकार की घोषणा हुई। यह घोषणा 1500 शब्दों की थी, जिसे नेताजी ने तैयार किया था।
बहुत से सैनिक अधिकारियों को सशस्त्र सेना का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। अंतरिम सरकार के निर्माण के बाद शीघ्र ही नौ देशों इटली, जापान, जर्मनी, फिलीपींस, चीन, क्रोएशिया, थाईलैंड, मंचूरिया और बर्मा ने इसे मान्यता दे दी।
आजाद हिंद फौज का संघर्ष – 23/24 अक्टूबर, 1943 ई. को सुभाष चंद्र बोस ने इंग्लैंड के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रंगून को अस्थाई सरकार का मुख्यालय बनाकर आगे का संघर्ष शुरू कर दिया। 4 जनवरी, 1944 ई. को फौज ने रंगून से अराकान की पहाड़ियों की ओर प्रस्थान किया। बर्मा में फौज ने अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी।
फौज का भारत में प्रवेश – 1 मई, 1944 ई. को आजाद हिंद फौज ने भारत में प्रवेश किया। फौज ने कोहिमा और उसके चारों और झंडा फहराया। उसके बाद इम्फाल पर आक्रमण की योजना बनी। वर्षा शुरू हो गई। जापानियों का सहयोग मिलना बंद हो गया। चार हजार सैनिक मारे गए। अक्टूबर 1944 ई. में इम्फाल अभियान स्थगित कर दिया गया।
फौज ने शीघ्र ही क्लांग-क्लांग की मजबूत चौकी पर कब्जा कर लिया। म्याम्यों नामक स्थान को स्वतंत्र भारत की राजधानी बनाया गया।
1944 ई. के अंत तथा 1945 ई. के प्रारंभ में जर्मनी हार गया। 6 अगस्त व 9 अगस्त, 1945 ई. को हिरोशिमा व नागासाकी पर गिराए गए बमों से जापान को भी आत्मसमर्पण करना पड़ा। ऐसे में आजाद हिंद फौज के सत्रह हजार सैनिकों और अधिकारियों ने भी आत्मसमर्पण कर दिया। उसके बाद नेताजी ने रूस जाने की तैयारी की। 17 अगस्त को सारगोन तथा 18 अगस्त, 1945 ई. को वे ताईपे पहुँचे। ताइपे भोजन करने के बाद 2:30 बजे उनके विमान ने उड़ान भरी तो उसमें तुरंत आग लग गई। ऐसा माना जाता है कि उनका शरीर झुलस गया तथा उनकी मृत्यु हो गई, यद्यपि आज तक भी उनकी मृत्यु को लेकर कोई प्रमाण नहीं मिला है।
आजाद हिंद फौज पर मुकद्दमा – फौज के आत्मसमर्पण के बाद फौज के कैदी अधिकारियों पर मुकद्दमा शुरू हुआ। अब तक सारे देश में फौज व नेताजी के कारनामों का जनता को पता चल चुका था। सारा देश आंदोलित था। 5 नवंबर, 1945 ई. को शहनवाज खान, गुरबख्श सिंह ढिल्लों, प्रेम कुमार सहगल पर लाल किले में मुकद्दमा शुरू हुआ। जाने-माने वकीलों ने अकाट्य दलीलें दी तथा आजाद हिन्द फौज के बचाव में खड़े हो गए। 31 दिसंबर, 1945 ई. तक मुकद्दमा चला। 57 दिनों के दौरान वादी पक्ष की तरफ से 30 तथा बचाव पक्ष की ओर से 12 साक्षी उपस्थित हुए।
3 जनवरी, 1946 ई. को सैनिक न्यायालय ने तीनों अभियुक्तों को सम्राट के विरुद्ध युद्ध का दोषी ठहराया तथा आजीवन निर्वासन का दंड दिया। जनता के दबाव में आकर सभी की सजा माफ कर बरी कर दिया गया।
आजाद हिंद फौज की गतिविधियों एवं मुकद्दमे से सारे देश में हलचल मच गई। 1946 ई. में भारतीय नौसेना का संघर्ष भी इसी फौज से प्रेरित था। संभवत: अंग्रेजों के शीघ्र ही भारत छोड़ देने के निर्णय के पीछे यही अकेला सबसे निर्णायक कारण रहा हो। ‘द स्प्रिन्गिंग टाइगर’ पुस्तक के रचनाकार हग टॉए ने लिखा कि, “इसमें संदेह नहीं कि आजाद हिंद फौज ने युद्ध के मैदान में ही नहीं बल्कि प्रलयकारी चोट से भारत में ब्रिटिश शासन के अंत को निकट ला दिया। ”
आजाद हिंद फौज के योगदान के कुछ बिंदु:
- युवकों को प्रेरणा।
- अहिंसात्मक नीति का विरोध करके आजाद हिंद फौज के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन को जुझारू एवं संघर्षशील बनाया।
- संघर्ष एवं युद्ध करके राष्ट्रीय भावना को तीव्रत्तम स्तर पर पहुँचाया।
- सुभाष चन्द्र बोस ने हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख सभी को सेना में समान रूप से भर्ती करके साम्प्रदायिक एकता व सौहार्द उत्पन्न किया।
- प्रवासी भारतीयों ने तन-मन-धन से फौज को सहयोग देकर देश की स्वतंत्रता में योगदान दिया।
- मुंबई नौसेना का 1946 ई. का संघर्ष भी बोस की आजाद हिंद फौज से ली गई प्रेरणा का परिणाम था। • अग्रेंजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।
- महिलाओं ने जेवर दिए, बताई देवी ने संपत्ति दान कर दी, लक्ष्मी स्वामीनाथन ने रेजीमेंट का नेत्तृत्व किया। हजारों स्त्रियाँ युद्ध के मोर्चों पर सक्रिय रही, जिससे संघर्षशील आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी हुई।
महत्वपूर्ण तिथियां :-
1. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का जन्म – 23 जनवरी, 1893 ई.
2. आई.सी.एस. की परीक्षा मे चौथा स्थान – 1920 ई.
3. सुभाष चन्द्र बोस की प्रथम गिरफ्तारी – 1921 ई.
4. गांधी-सुभाष चन्द्र बोस की प्रथम भेंट – 16 जुलाई, 1921 ई.
5. हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन में सुभाष चन्द्र बोस का प्रथम बार अध्यक्ष बनना – 1938 ई.
6. सुभाष चन्द्र बोस का पुनः अध्यक्ष बनना (त्रिपुरी अधिवेशन) – 1939 ई.
7. फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना – 1939 ई.
8. सुभाष चन्द्र बोस द्वारा अंतरिम सरकार का गठन – 21 अक्टूबर, 1943 ई.
9. आजाद हिंद फौज का भारत में प्रवेश – 1 मई 1944 ई.
10. सुभाष चन्द्र बोस का विमान दुर्घटना ग्रस्त हुआ – 18 अगस्त, 1945 ई.