भारत का सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण Class 9 इतिहास Chapter 1 Notes – हमारा भारत IV HBSE Solution

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भारत का सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण Class 9 इतिहास Chapter 1 Notes


भारत का सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारतीय समाज सती प्रथा, मूर्ति पूजा, विधवा का कठोर जीवन, कर्मकांड, अंधविश्वासों, अशिक्षा असमानता, छुआछूत, जाति प्रथा जैसी बुराइयों के साथ जूझ रहा था। इसका फायदा उठाकर ईसाई मत प्रचारकों ने जोर शोर से ईसाइयत का प्रचार आरंभ कर दिया। जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, ज्योतिबा फूले, महादेव गोविंद रानाडे जैसे महान समाज सुधारकों ने ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, सत्यशोधक समाज, रामकृष्ण मिशन इत्यादि आंदोलन चलाएं।

राजा राममोहन राय एवं ब्रह्म समाज —

राजा राममोहन राय ने 20 अगस्त 1828 ई. को ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की। राजा राममोहन राय को आधुनिक भारतीय राजनीति और सामाजिक सुधार का अग्रदूत कहा जाता है। राजा राममोहन राय एवं उनके ब्रह्म समाज आंदोलन के योगदान निम्नलिखित हैं-

  1. सती प्रथा का उन्मूलन – राजा राममोहन राय ने सती प्रथा का इतना उग्र विरोध किया कि लॉर्ड विलियम बैंटिक को एक आज्ञा पत्र जारी कर 1829‌ ई. में सती प्रथा पर रोक लगाकर ‘सती प्रथा निषेध कानून’ को पूरे भारत में लागू करना पड़ा। ( सती प्रथा एक ऐसी प्रथा थी जिसमें पत्नी अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी चिता में जलकर स्वयं को समाप्त कर लेती थी।)
  2. नारी की दशा में सुधार – उन्होंने नारी पर किए जाने वाले अन्याय और अत्याचार का विरोध किया एवं नारी स्वतंत्रता, नारी अधिकार और नारी शिक्षा पर बल दिया। उन्होंने स्त्री पुरुष के अधिकारों में समानता पर बल दिया।
  3. जाति प्रथा का विरोध – उनके अनुसार जाति प्रथा सामाजिक असमानता को बढ़ावा देती है।
  4. समाचार पत्रों का प्रकाशन – वे पहले भारतीय थे जिन्होंने समाचार पत्रों की स्थापना संपादन और प्रकाशन का कार्य किया। उन्होंने अंग्रेजी, बांग्ला तथा उर्दू में समाचार पत्र प्रकाशित किए। उन्हें ‘पत्रकारिता का जनक’ भी कहा जाता है। उन्होंने ‘ब्रह्मनिकल मैगजीन’, ‘संवाद कौमुदी’, ‘मीरात-उल-अखबार’, ‘बंगदूत’ नामक समाचार पत्रों का संपादन प्रकाशन किया।
  5. व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा अधिकारों के प्रबल समर्थक – उनका मानना था कि राज्य को निर्बल तथा असहाय व्यक्तियों की रक्षा करनी चाहिए।
  6. अंग्रेजी शिक्षा पर बल – उन्होंने बार-बार अंग्रेजी सरकार को पत्र लिखकर अंग्रेजी शिक्षा और अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं की स्थापना का आग्रह किया।
  7. मानवता एवं विश्व बंधुत्व – वे विश्व बंधुत्व के उपासक थे और मत-मतान्तरो से ऊपर उठकर मानव धर्म के चिंतक भी थे।

प्रार्थना समाज —

भारत के सबसे पहले समाज सुधारक गोपाल हरी देशमुख थे, जिन्हें ‘लोकहितवादी’ भी कहा जाता है। 1867 ई. में ब्रह्म समाज से प्रभावित होकर आत्माराम पांडुरंग ने ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना की।

प्रार्थना समाज का उद्देश्य अछूतों, वंचितो तथा पीड़ितों की दशा में सुधार करना तथा जाति व्यवस्था एवं रूढ़िवाद का विरोध करना था। प्रार्थना समाज ने अंतर्जातीय विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा का भी समर्थन किया।

रानाडे ने महाराष्ट्र में ‘विधवा पुनर्विवाह संघ’ की स्थापना की। उन्हीं के प्रयत्नों से ‘ढक्कन एजुकेशनल सोसाइटी’ की स्थापना हुई और उनके शिष्य गोपाल कृष्ण गोखले ने ‘सर्वेंट ऑफ़ इंडिया सोसाइटी’ की स्थापना की।

स्वामी दयानंद एवं आर्य समाज —

आर्य समाज की स्थापना स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 ई. में मुंबई में अपने गुरु विरजानंद की प्रेरणा से की। उन्होंने अंधविश्वासों में कर्मकांडों का विरोध किया और हरिद्वार में ‘पाखंड खंडनी पताका’ फहराकर मिथ्याडंबर व कर्मकांड के समर्थकों को शास्त्रार्थ में हराया।

स्वामी दयानंद का कथन ‘भारत भारतीयों के लिए है’ तथा ‘बुरे से बुरा स्वदेशी राज्य भी अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से अच्छा होता है’ से भारतीयों में विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष की भावना का जन्म हुआ।

आर्य समाज पूर्ण रूप से शुद्ध वैदिक परंपरा में विश्वास करता था एवं मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बली, कर्मकांड, धार्मिक आडंबर एवं अंधविश्वासों को अस्वीकार करता था। आर्य समाज के द्वारा किए गए सुधारों का वर्णन है —

  • राष्ट्रीय गीत में तीन कार्य – स्वामी दयानंद ने एकता स्थापित करने के लिए तीन कार्य करने की योजना बनाई।
  1. हरिद्वार कुंभ मेले में सन्यासियों के मध्य वेदों पर आधारित धार्मिक विचार रखें ताकि मतभेद दूर होकर एकता स्थापित हो सके।
  2. शास्त्रार्थ द्वारा सत्य और असत्य का निर्णय कर विद्वानों को संगठित करना ताकि सत्य को ग्रहण और असत्य का त्याग किया जा सके।
  3. 1877 ई. में दिल्ली दरबार के समय समाज सुधारको को आमंत्रित कर सर्व सम्मत कार्यक्रम बनाकर समाज सुधार किया जाए।
  • सत्यार्थ प्रकाश – आर्य समाज का मूल ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ है। जिसकी रचना स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदी में की।
  • वेदों की ओर लौटो – स्वामी दयानंद ने मूर्ति पूजा, पुरोहितवाद तथा कर्मकांडो का विरोध किया एवं ‘वेदों की ओर लौटो’ का नारा दिया।
  • शुद्धि आंदोलन – हिंदू धर्म की श्रेष्ठता पर बल देते हुए आर्य समाजियों ने ‘शुद्धि आंदोलन’ आरंभ किया। जिसका उद्देश्य था ‘हिंदू धर्म से अन्य धर्मों में गए लोगों को वापस हिंदू धर्म में लाना।’
  • वर्ण भेद का विरोध – उनका मानना था कि समाज में कोई भी वर्ग छोटा या बड़ा नहीं होता, सभी समान होते हैं।
  • स्त्री शिक्षा एवं समानता – वे सदैव स्त्री को पुरुष के समान मानते थे और उन्होंने वेदों के प्रमाण देकर स्त्री शिक्षा का समर्थन किया।
  • बाल विवाह का विरोध – उन्होंने शास्त्रों के माध्यम से लोगों को समझाया कि मनुष्य जीवन में पहले 25 वर्ष ब्रह्मचर्य के हैं। उनके अनुसार बाल विवाह एक कुप्रथा है।
  • विधवा पुनर्विवाह – स्वामी दयानंद से पहले ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह के लिए विशेष अभियान चलाया था। जिसके परिणामस्वरूप 1856 ई. में विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता मिली।
  • शिक्षा का प्रसार – शिक्षा के क्षेत्र में गुरुकुल कांगड़ी और डी.ए.वी. ( दयानंद एंगलो वेदिक ) संस्थान स्थापित कर शिक्षा जगत में आर्य समाज ने अग्रणी भूमिका निभाई।

स्वामी विवेकानंद एवं रामकृष्ण मिशन —

स्वामी विवेकानंद ने 1 मई 1897 ई. को रामकृष्ण मिशन की स्थापना रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं और उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुंचाने के लिए की। सबसे पहले स्वामी विवेकानंद ने बारानगर में मठ की स्थापना की।

रामकृष्ण मिशन के सिद्धांतों का आधार वेदांत दर्शन है। मिशन के अनुसार ईश्वर साकार और निराकार दोनों हैं।

  1. शिकागो धर्म संसद – स्वामी विवेकानंद 1893 ई. में शिकागो गए जहां उन्होंने धर्म संसद में 11 सितंबर, 1893 ई. को भाषण दिया। जिसने पूरी दुनिया के सामने भारत को एक मजबूत छवि के साथ पेश किया।
  2. सभी धर्मों में एकता – भारत भ्रमण के दौरान उन्होंने विभिन्न धर्मों के मूल को समझा और कहा “धर्म हमेशा मनुष्य को सद्विचार एवं आत्मा से जोड़ता है। धर्म वह विचार एवं आचरण है जो मनुष्य के अंदर की पशुता को इंसानियत में और इंसानियत को देवत्व में बदलने की क्षमता रखता है।”
  3. शिक्षा पर बल – उनका मानना था कि शिक्षा मानव के जन्म से ही विद्यमान शक्तियों का विकास करती है। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की आंतरिक पूर्णता को प्रकट करना, शारीरिक पूर्णता, चरित्र का निर्माण करना, जीवन संघर्ष की तैयारी, राष्ट्रीयता की भावना का विकास, आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास पैदा करना होना चाहिए।
  4. स्त्री पुरुष के भेदभाव का विरोध – उन्होंने कहा कि स्त्री एवं पुरुष का भेद प्राकृतिक नहीं है। यह केवल शारीरिक बेर है जो ईश्वर द्वारा मान्य नहीं है।
  5. स्वामी विवेकानंद एवं युवा – स्वामी विवेकानंद का मानना था कि युवाओं में अनंत ऊर्जा होती है और उसको सही दिशा मिलने पर राष्ट्र का विस्तार और विकास हो सकता है। उन्होंने युवा वर्ग को चरित्र निर्माण के 5 सूत्र दिए — आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मज्ञान, आत्मसंयम और आत्मत्याग।
  6. विवेकानंद और राष्ट्रीयता – स्वामी विवेकानंद ने कहा “मैं भारतीय हूं और प्रत्येक भारतीय मेरा भाई है। अबोध भारतीय, गरीब एवं फक्कड़ भारतीय, ब्राह्मण भारतीय, अछूत भारतीय मेरा भाई है।”

सांस्कृतिक राष्ट्रीयता तथा महर्षि अरविंद एवं डॉ. हेडगेवार —

भारत की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के दो प्रमुख पैरोकार महर्षि अरविंद एवं डॉ केशवराव हेडगेवार थे।

  • अरविंद घोष – राजनीति में अरविंद घोष केवल 5 वर्ष रहे। इसी दौरान उन्होंने असहयोग पद्धति की शुरुआत की तथा पूर्ण स्वतंत्रता का उद्घोष भी उन्होंने ही किया। 1902 ई. में कांग्रेस के अहमदाबाद एवं 1904 ई. के मुंबई अधिवेशन में शामिल हुए। 1905 ई. में बंगाल विभाजन की घटना ने देश की राष्ट्रीयता की प्रबल लहर जागृत कर दी। उन्होंने 1906 ई. यह कोलकाता अधिवेशन में सक्रिय भाग लिया। 1906 ई. में ‘वंदे मातरम’ पत्र के सह संपादक के रूप में प्रचार किया। 1910 ई. में वे राजनीति से दूर हो गए तथा पांडिचेरी आश्रम में रहने लगे।

उन्होंने माना कि स्वतंत्रता तीन प्रकार की होती है – राष्ट्रीय स्वतंत्रता, आंतरिक स्वतंत्रता तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता

  1. निष्क्रिय प्रतिरोध के समर्थक तथा स्वराज के पैरोकार – अरविंद घोष गरम दल के विचारक थे तथा भारत की स्वाधीनता के प्रबल पक्षधर थे। उनके अनुसार भारतीयों का प्रथम लक्ष्य स्वराज की प्राप्ति होना चाहिए।
  2. तीन प्रकार के अधिकारों का समर्थन – अरविंद घोष ने तीन प्रकार के अधिकारों का समर्थन किया जो है – प्रैस का अधिकार, सार्वजनिक सभा का अधिकार तथा संगठन निर्माण का अधिकार।
  3. अरविंद घोष का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद – उनका कहना था कि ‘राष्ट्रीयता ही राष्ट्र की दैवीय एकता है।’ उनके राष्ट्रीय विचार उनके लेख वंदेमातरम् में मिलते हैं।
  • डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार –

डॉ. केशवराम हेडगेवार बचपन से ही देश भक्ति थे। उन्होंने डॉ.ी की पढ़ाई कोलकाता से पूरी की। जहां वे अपने बड़े भाई महादेव के मित्र श्यामसुंदर चक्रवर्ती के घर रहते थे। उसी समय उनका का मिलाप बंगाल के क्रांतिकारियों से हुआ। उनकी असाधारण योग्यता को देखते हुए उन्हें ‘अनुशीलन समिति’ का सदस्य बनाया गया और बाद में ‘अंतरंग सदस्य’ भी बना लिया गया। बाद में वे कांग्रेस में शामिल हो गए।

  1. नागपुर कांग्रेस अधिवेशन – 1915 ई. से 1920 ई. तक केशव राव राष्ट्रीय आंदोलन में अत्यंत सक्रिय रहे। वे प्रवास, सभा, बैठक आदि कार्यक्रमों में व्यस्त रहे। 1920 ई. में उनके गुणों का अनुभव सबको हुआ। अधिवेशन में आए 14000 प्रतिनिधियों की सुख सुविधाएं और अन्य व्यवस्थाएं संभालने के लिए उन्होंने ‘स्वयंसेवक दल’ का गठन किया।
  2. असहयोग आंदोलन – वे कांग्रेस द्वारा ‘खिलाफत आंदोलन’ का साथ देने में खुश नहीं थे। मतभेदों के होते हुए भी कांग्रेस से जुड़े होने के कारण जब कांग्रेस ने ‘असहयोग आंदोलन’ की घोषणा की तो वे आंदोलन में कूद पड़े एवं उन्हें 1 वर्ष की सश्रम कारावास की सजा हुई।
  3. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – 1922 ई. में भारत के कई क्षेत्रों में दंगे हुए। इसी दौरान एक बैठक बुलाई गई जिसमें हिंदू संगठन बनाने का निर्णय लिया, जिसका उद्देश्य था हिंदू को सशक्त राष्ट्र बनाना। इस प्रकार 28 सितंबर 1925 ई. को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खड़ा करने के लिए सुबह शाम शाखाएं लगाई जाने लगी।
  4. सविनय अवज्ञा आंदोलन – 1929 ई. में जब लाहौर में हुई कांग्रेसी अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव पास किया गया और 26 जनवरी 1930 ई. को देश भर में तिरंगा फहराने का आह्वान किया तो डॉ. केशवराव ने अपनी सभी शाखाओं में तिरंगा फहराने का संकल्प लिया। 1930 ई. में जब महात्मा गांधी द्वारा ‘नमक कानून विरोधी आंदोलन’ छेड़ा गया तो केशवराव ने सारी जिम्मेदारी डॉ. परांजपे को सौंप कर अपने साथियों के साथ यवतमाल वन सत्याग्रह में भाग लिया और जिसमें उन्हें 9 माह की कैद हो गई।
  5. जाति प्रथा व अस्पृश्यता का विरोध – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविरों में ब्राह्मणों, गैर ब्राह्मणों एवं अस्पृश्य में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता था। डॉ हेडगेवार को 1937 ई. एवं 1939 ई. में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के ‘राष्ट्रीय उपसभापति’ के रूप में चुना गया।

जाति प्रथा विरोध तथा अछूतोद्धार आंदोलन —

जातीय भेदभाव के चलते भारतीय समाज का एक बहुसंख्यक भाग दरिद्र, अशिक्षित, वंचित एवं पिछड़ा हुआ रह गया। जिसका अर्थ था पूरे राष्ट्र का पिछड़ापन और संपूर्ण राष्ट्र की कमजोरी।

सत्य शोधक समाज एवं श्री नारायण धर्म परिपालन योगम –
ज्योतिबा फूले पहले समाज सुधारक थे। उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीयों को आह्वान किया कि वह देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करके एक स्वस्थ, सुंदर, सुदृढ़ समाज का निर्माण करें। उन्होंने आह्वान किया था “मानव मात्र के लिए एक धर्म एक जाति और एक ईश्वर।”

डॉ. भीमराव अंबेडकर की भूमिका –
डॉ भीमराव एक महान समाज सुधारक, विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ, कुशल वक्ता व उच्च कोटि के विद्वान थे। वंचितों के प्रति किए गए उनके प्रयासों को देखते हुए उन्हें ‘दलितों का मसीहा’ कहा जाता है। उनके इतने सारे योगदान को देखते हुए उन्हें ‘भारत रत्न’ के सम्मान से सम्मानित किया गया।

  1. बहिष्कृत हितकारिणी सभा – 20 जुलाई 1924 ई. को अछूतो एवं दलितों की समस्याओं को दूर करने तथा उनके सामाजिक, राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिए मुंबई में बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया गया। जिसके प्रमुख उद्देश्य थे अछूतों एवं दलितों में शिक्षा का प्रसार, सांस्कृतिक उत्थान, आर्थिक दशा में सुधार तथा समस्याओं का प्रतिनिधित्व। अछूतों के उद्धार के लिए उन्होंने अखिल भारतीय दलित संघ नामक संस्था भी बनाई।
  2. महाड़ का सत्याग्रह –  20 मार्च 1927 ई. को महाराष्ट्र राज्य के रायगढ़ जिले के महाड़ स्थान पर दलितों को सार्वजनिक चवदार तालाब से पानी पीने और इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाने के लिए किया गया एक प्रभावी सत्याग्रह हुआ। जिसमें हजारों दलित समुदाय के लोगों ने भाग लिया और जिसकी अगुवाई डॉ. भीमराव अंबेडकर कर रहे थे।
  3. असमानता एवं भेदभाव का विरोध – डॉ. अंबेडकर एक ऐसे समाज के समर्थक थे जिसमें जाति, भाषा, वर्ग, रंग, लिंग, नस्ल व जन्म स्थान आदि के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव ना हो। उन्होंने भारत में प्रचलित वर्ण व्यवस्था, छुआछूत, लिंग व जाति के आधार पर भेदभाव का विरोध किया।
  4. संविधान निर्माण में भूमिका – डॉ. अंबेडकर को ‘भारतीय संविधान का निर्माता’ होने का श्रेय प्राप्त है‌। 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन की मेहनत के पश्चात 26 नवंबर 1949 ई. को भारत के संविधान का मसौदा तैयार हुआ। इस संविधान को 26 जनवरी 1950 ई. को लागू कर दिया गया। नए संविधान में उन्होंने ऐसी अनेक व्यवस्थाएं की, जिससे निम्न वर्गों, महिलाओं व पिछड़े वर्ग के हितों की रक्षा हो सके।
  • स्वतंत्रता के पश्चात कानून मंत्री के पद पर रहते हुए अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल तैयार किया इस बिल की प्रमुख बातें निम्नलिखित थी –
  1. अंतर्जातीय विवाह की अनुमति
  2. हिंदू महिलाओं को संपत्ति के पूर्ण अधिकार
  3. पिता की संपत्ति पर पुत्री का समान अधिकार
  4. तलाक संबंधी नियम।

डॉ. भीमराव अंबेडकर के आंदोलनों संस्थान विचारों एवं कार्यो का प्रभाव भारत के राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पड़ा।

  1. शिक्षा का विकास एवं विस्तार हुआ
  2. नारी शिक्षा का विस्तार हुआ
  3. कुरीतियों की समाप्ति हुई
  4. नारी की दशा में सुधार हुआ
  5. कर्मकांड व अंधविश्वासों में कमी आई
  6. जाति प्रथा में कमी आई
  7. छुआछूत की समाप्ति हुई
  8. आत्मविश्वास एवं स्वाभिमान को बल मिला
  9. धर्मांतरण में कमी आई
  10. राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ
  11. राष्ट्रीय एकता व अखंडता को प्रेरणा मिली
  12. स्वाधीनता संघर्ष को प्रेरणा मिली

कुछ महत्वपूर्ण तिथियां-

  1. ब्रह्म समाज की स्थापना – 1828 ई.
  2. सती प्रथा पर रोक – 1829 ई.
  3. विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता  – 1856 ई.
  4. प्रार्थना समाज की स्थापना – 1867 ई.
  5. आर्य समाज की स्थापना – 1875 ई.
  6. स्वामी दयानंद का रेवाड़ी आगमन – 1880 ई.
  7. शिकागो धर्म संसद का आयोजन – 1893 ई.
  8. रामकृष्ण मिशन की स्थापना – 1897 ई.
  9. बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना – 1924 ई.
  10. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना – 1925 ई.
  11. महाड़ सत्याग्रह हुआ – 1927 ई.

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