Class 9 इतिहास BSEH Solution for chapter 8 भारत का विभाजन, रियासतों का एकीकरण एवं विस्थापितों का पुनर्वास notes for Haryana board. CCL Chapter Provide Class 1th to 12th all Subjects Solution With Notes, Question Answer, Summary and Important Questions. Class 9 History mcq, summary, Important Question Answer, Textual Question Answer in hindi are available of हमारा भारत IV Book for HBSE.
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HBSE Class 9 इतिहास / History in hindi भारत का विभाजन, रियासतों का एकीकरण एवं विस्थापितों का पुनर्वास / bharat ka vibhajan, riyaston ka ekikaran avam vishthapito ka punarvas notes for Haryana Board of chapter 8 in Hamara bharat IV Solution.
भारत का विभाजन, रियासतों का एकीकरण एवं विस्थापितों का पुनर्वास Class 9 इतिहास Chapter 8 Notes
15 अगस्त, 1947 ई. को अंग्रेजों की लगभग दो सौ वर्षों की गुलामी से भारत को स्वतंत्रता मिली। अब यह स्वप्न पूरा हुआ और स्वंतत्र भारत का जन्म हुआ, लेकिन उसमें अब सिंध, बलूचिस्तान व सीमांत प्रांत शामिल नहीं रह गए थे। बंगाल और पंजाब प्रांत तो शामिल थे, परंतु विखण्डित अवस्था में। दोनों को बांटकर नवनिर्मित पाकिस्तान में शामिल किया गया था। जहां नए देशों के निर्माण की खुशियां मनाई जा रही थी, वहीं लाखों निर्दोष अपनी जन्मभूमि, घर-बार, चूल्हा चक्की छोड़ने को मजबूर हुए।
भारत का स्वतंत्रता अधिनियम-1947 —
जुलाई 1947 ई. में ब्रिटिश संसद में भारत को स्वतन्त्रता की प्राप्ति ‘भारत स्वतंत्रता अधिनियम’ पारित किया गया। इस अधिनियम की मुख्य धाराएँ निम्नलिखित थी:
1) 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत तथा पाकिस्तान दो नये अधिराज्य बना दिए जाएंगे।
2) इन दोनों अधिराज्यों की सीमाएँ निश्चित कर दी गई।
3) दोनों अधिराज्यों का एक-एक गवर्नर-जनरल होगा। यदि दोनों अधिराज्य सहमत हों तो एक ही व्यक्ति को दोनों अधिराज्यों का गवर्नर-जनरल नियुक्त किया जा सकता है।
4) यह निश्चित किया गया कि दोनों अधिराज्यों की संविधान सभाएँ जब तक अपने-अपने अधिराज्य का संविधान नहीं बना लेती, तब तक विधानमण्डल की सारी शक्तियाँ सभा के पास रहेंगी।
5) 15 अगस्त, 1947 ई. के पश्चात् ब्रिटिश सरकार का किसी भी अधिराज्य पर अधिकार नहीं होगा।
6) देशी रियासतों को भारत अथवा पाकिस्तान में सम्मिलित होने की स्वतन्त्रता दी गई और यदि ये रियासतें चाहें तो दोनों से अलग भी रह सकती हैं।
इस अधिनियम के अनुसार 15 अगस्त, 1947 ई. को भारत स्वतन्त्र हो गया। यह देश के लिए एक गौरवपूर्ण दिन था।
भारत का विभाजन –
स्वतन्त्रता के साथ ही देश का दुखद विभाजन हुआ। यद्यपि भारतीय नेता इस विभाजन के लिए तैयार नहीं थे फिर भी परिस्थितिवश उन्हें इसे स्वीकार करना पड़ा। महात्मा गांधी ने भी परिस्थितियों से विवश होकर देश के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। साम्प्रदायिकता की इस आग में पाकिस्तान में मुसलमानों ने हिंदुओं तथा सिक्खों की निर्मम हत्याएँ की तथा उनकी सम्पत्ति लूट ली। उनकी स्त्रियों एवं बेटियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया। लाखों की संख्या में सिक्खों, हिंदुओं की स्त्रियों एवं बच्चों को बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया।
जिन्ना की हठधर्मिता ने पाकिस्तान तो बना लिया पर समस्या का कोई व्यापक समाधान नहीं हो पाया। लगभग एक करोड़ हिन्दू तथा सिक्ख विस्थापितों के रूप में पाकिस्तान से भारत तथा पचास लाख मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए।
पाकिस्तान के जन्म के समय पाकिस्तान दो हिस्सों में था। एक पूर्वी पाकिस्तान व दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान। पूर्वी पाकिस्तान 1971 ई. में अलग देश बांग्लादेश बन गया। पश्चिमी पाकिस्तान अपने पर्ववर्ती रूप में आज भी विद्यमान है।
भारत के विभाजन के कारण –
देश के विभाजन के कारणों पर इतिहासकारों एवं समकालीन राजनीतिक नेताओं में बहुत मतभेद हैं। वास्तव में भारत के विभाजन के लिए किसी एक व्यक्ति अथवा कारक को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता। विभाजन के अनेक कारणों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है :
1. अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति – भारत में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को अपनाया। 1857 ई. के स्वतन्त्रता संग्राम के पश्चात् भारत में अंग्रेज़ों ने मुसलमानों का पक्ष लेना और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना आरम्भ कर दिया। उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों में आपसी फूट डालने का हर सम्भव प्रयास किया। इसके लिए उन्होनें 1905 ई. में बंगाल का विभाजन किया। 1909 ई. तथा 1919 ई. के अधिनियमों में भी मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया। इस नीति के परिणामस्वरूप ही 1947 ई. में भारत का विभाजन हुआ।
2. मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक विचारधारा – भारत के विभाजन का मुख्य कारण मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक विचारधारा थी। मुस्लिम लीग ने अपने उद्देश्य में स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय मुसलमानों के पृथक राजनीतिक अस्तित्व के रूप में उनके हितों की रक्षा करेगी। 1939 ई. में जब ब्रिटिश सरकार की मनमानी नीति के विरोध में कांग्रेस के मन्त्रीमण्डल ने त्याग पत्र दे दिया तो जिन्ना ने मुसलमानों को ‘मुक्ति दिवस’ मनाने के लिए कहा। 1940 में मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए पृथक स्वतन्त्र देश पाकिस्तान की मांग संबंधी प्रस्ताव पास करके अलग स्वतन्त्र राज्य के लिए संघर्ष करना आरम्भ कर दिया। जिसके कारण विभाजन हुआ।
3. जिन्ना की हठधर्मिता – मोहम्मद अली जिन्ना बहुत ही महत्वाकांक्षी व्यक्ति था, वह अपनी हठधर्मिता पर चलते हुए लंदन के तीनों गोलमेज सम्मेलनों में साम्प्रदायिकता का राग अलापता रहा। उसने राष्ट्रीय आंदोलनों से दूरी बना ली तथा बेवल एवं केबिनेट योजना को असफल कर दिया। वह हर उस प्रस्ताव का विरोध करता रहा जिसमें पाकिस्तान का समर्थन नहीं था। उसने दंगे व कत्लेआम करवाकर कांग्रेस पर दबाव बनाया तथा पाकिस्तान बनवाने में सफल हो गया।
4. कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति – मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के मार्ग में बाधाएँ डालने की नीति अपनाई। दूसरी ओर कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध मुस्लिम लीग का साथ चाहती थी। 1916 ई. का लखनऊ समझौता, 1919 ई. का खिलाफत आंदोलन तथा गांधी-जिन्ना वार्ता कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति के उदाहरण थे। इनसे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला। देश में साम्प्रदायिक दंगे भड़क रहे थे, जिनके पीछे मुस्लिम लीग का ही हाथ था। कांग्रेस को अब यह विश्वास हो गया था कि देश की शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए देश के बंटवारे को स्वीकार करना आवश्यक है।
5. अन्तरिम सरकार की असफलता – कैबिनट मिशन की योजनानुसार 2 सितम्बर, 1946 ई. को जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार की स्थापना की गई। मुस्लिम लीग ने पहले इसका बहिष्कार किया परंतु बाद में इसमें शामिल हो गई। मुस्लिम लीग के लियाकत अली इस सरकार में वित्तमंत्री बने। वे इस सरकार के सफल संचालन में अक्सर बाधाएँ डालते रहते थे। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के प्रत्येक सुझाव को अस्वीकार करना आरम्भ कर दिया। उसका वास्तविक उद्देश्य अंतरिम सरकार को असफल करना था। इसी समय मुस्लिम लीग के नेता ज़ोर-शोर से पाकिस्तान की मांग करने लगे। उन्होंने कई नगरों में दंगे भी करवा दिए। ऐसी परिस्थितियों में कांग्रेस नेता यह अनुभव करने लगे कि मुस्लिम लीग से छुटकारा पाए बिना राष्ट्रीय सरकार के लिए सफलतापूर्वक कार्य करना सम्भव नहीं होगा।
6. मुस्लिम लीग की प्रत्यक्ष कार्यवाही एवं साम्प्रदायिक दंगे – मुस्लिम लीग पाकिस्तान का निर्माण करने एवं सत्ता प्राप्त करने के लिए बेचैन हो रही थी। उसने कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकार कर दिया और 16 अगस्त, 1946 ई. को प्रत्यक्ष कार्यवाही की घोषणा कर दी। उस दिन बंगाल विशेषकर कलकत्ता में दंगे हुए। यहाँ मुसलमानों ने सैकड़ों हिन्दुओं की हत्या कर दी तथा उनकी संपत्ति को नष्ट कर दिया। शीघ्र ही साम्प्रदायिक दंगों की यह आग पूरे उत्तर भारत में फैल गई। ऐसी परिस्थिति में निर्दोष जनता के खून-खराबे को बंद करने के लिए कांग्रेस देश के विभाजन को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गई।
7. इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री लार्ड एटली की घोषणा – 20 फरवरी, 1947 ई. को इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री मि. ऐटली ने अपनी घोषणा में जून 1948 ई. तक भारत छोड़ने की बात कही। इस घोषणा से मुस्लिम लीग को बड़ी प्रेरणा मिली और उसने पाकिस्तान की शीघ्र प्राप्ति के लिए संघर्ष तेज कर दिया। उसने सरकार पर अपना दवाब बढ़ाने के लिए दंगों का सहारा लिया। हिन्दुओं और मुसलमानों की शत्रुता इतनी बढ़ गई कि बंगाल, असम, पंजाब, उत्तर पश्चिम प्रान्तों में साम्प्रदायिक दंगों से गृह युद्ध वाली स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को दो विकल्पों में से एक चुनना था। देश में गृह युद्ध अथवा देश का विभाजन। कांग्रेस ने दूसरा विकल्प चुना।
8. लार्ड माउंटबेटन के प्रयत्न – मार्च 1947 ई. में लार्ड माउंटबेटन को भारत का नया वायसराय बनाया गया। उन्होंने भारत के राजनीतिक दलों के नेताओं से बातचीत करके वह इस निर्णय पर पहुँचा कि मुस्लिम लीग एवं कांग्रेस के बीच समझौता होना असंभव है। भारत-विभाजन से ही भारत की समस्या का समाधान हो सकता है। मुस्लिम लीग के कठोर व्यवहार तथा देश में बढ़ रहे दंगों के कारण भारत का विभाजन अनिवार्य है। परिस्थितियों से विवश होकर कांग्रेस के नेताओं ने वायसराय के सुझाव को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् 3 जून, 1947 ई. को ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति लेकर माउंटबेटन में भारत के विभाजन की घोषणा कर दी।
9. कांग्रेसी नेतृत्व की सत्ता लोलुपता – विभाजन के प्रमुख कारणों में कांग्रेसी नेतृत्व की थकान और उसकी सत्ता लोलुपता को भी उत्तरदायी माना जाता है। लगातार संघर्ष से कांग्रेसी नेतृत्व थक चुका था। वह अब और संघर्ष करने के लिए तैयार नहीं था। कांग्रेस के कुछ नेता यथाशीघ्र स्वतंत्रता प्राप्त कर सत्ता भोगना चाहते थे। गांधी जी ने जब विभाजन का विरोध किया तो कांग्रेस के नेतृत्व ने कोई उत्साह नहीं दिखाया, जिस वजह से गांधी जी ने भी विभाजन को स्वीकार कर लिया।
देशी रियासतों का एकीकरण –
1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय संघ को विभाजन के साथ-साथ जिस समस्या का सामना करना पड़ा वह थी, रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करना। आजादी के समय लगभग 562 के करीब रियासतें थी, जिनका विलय भारतीय संघ में किया जाना था। सरदार वल्लभभाई पटेल जिन्हें ‘भारत का बिस्मार्क’ व ‘लौह पुरुष’ भी कहा जाता है, एक ऐसे प्रतिभाशाली राजनीतिज्ञ थे जिनकी दूरदर्शिता एवं सूझ-बूझ से ही भारत का एकीकरण संभव हुआ। श्री वी. पी. मेनन को रियासतों के मन्त्रालय का सचिव नियुक्त किया गया। वे भी एक बुद्धिमान तथा अनुभवी अधिकारी थे और उन्होंने रियासतों की समस्या को सफलतापूर्वक सुलझाने में सरदार पटेल के साथ मिलकर कार्य किया।
1. रियासतों की स्थिति – अधिकतर रियासतों के शासक ब्रिटिश सरकार के समर्थक थे और उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम से भी दूरी बनाए रखी थी। वे अपनी रियासतों में एक तानाशाह की तरह शासन करते थे। रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करना एक जटिल समस्या थी। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए भारत की अंतरिम सरकार ने 25 जून, 1947 ई. को अलग से रियासतों का मन्त्रालय बनाया और सरदार बल्लभ भाई पटेल को इसका मन्त्री बनाया गया। उन्होंने अपनी दूरदर्शिता तथा बड़ी सूझ-बूझ से इस समस्या का सफलतापूर्वक समाधान किया।
2. सरदार पटेल की अपील तथा अधिकतर रियासतों का विलय – 4 जुलाई, 1947 ई. को सरदार पटेल द्वारा देशी शासकों से अपील की गई कि देश के सामूहिक हितों के लिए रियासतों को सुरक्षा, विदेशी मामलों तथा संचार सम्बन्धी विषयों पर भारतीय संघ में शामिल हो जाना चाहिए। तत्पश्चात् रियासतों के समायोजन सम्बन्धी पत्र तैयार किया गया। सरदार पटेल तथा उनके सचिव मेनन ने बहुत से शासकों से भेंट की और उनसे अधिमिलन सम्बन्धी पत्र पर हस्ताक्षर करने की अपील की। उनके प्रयासों के परिणामस्वरूप अधिकतर रियासतें स्वतंत्रता से पहले ही भारतीय संघ मे शामिल हो गईं। 15 अगस्त, 1947 ई. के पश्चात् भारत की स्वतन्त्र सरकार को रियासतों के सम्बन्ध में केवल जूनागढ़, हैदराबाद तथा कश्मीर की समस्याओं का सामना करना पड़ा क्योंकि इन रियासतों के शासकों ने भारतीय संघ में शामिल होने से मना कर दिया।
3. जूनागढ़ का विलय – जूनागढ़ काठियावाड़ के दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक प्रमुख रियासत थी। इस रियासत की कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत हिन्दू तथा 20 प्रतिशत मुसलमान थे। जूनागढ़ का नवाब मुसलमान था। जूनागढ़ के भौगोलिक पक्ष से पाकिस्तान से कोई संपर्क न होने के बावजूद जूनागढ़ के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने की घोषणा कर दी। नवाब की इस घोषणा का वहाँ की जनता ने घोर विरोध किया। जूनागढ़ के नवाब ने अपने पड़ोस की दो रियासतों मैगरोल तथा बाबरियावाड़ में अपनी सेनाएँ भेज दी। यह दावा किया कि ये दोनों रियासतें जूनागढ़ का ही भाग हैं जबकि ये दोनों रियासतें भारतीय संघ में शामिल हो चुकी थी। भारतीय सरकार ने इसका उचित उत्तर देने के लिए ब्रिगेडियर गुरदयाल सिंह के नेतृत्व में एक सेना भेज दी। इस समय तक जूनागढ़ में स्थिति बहुत खराब हो गई थी और एक लाख से भी अधिक हिन्दू जूनागढ़ छोड़कर चले गए थे। ब्रिगेडियर गुरदयाल सिंह के नेतृत्व में सेना के पहुँचने पर नवाब ने पाकिस्तान से मदद की प्रार्थना की। मदद की कोई आशा न देखकर अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह में नवाब अपने परिवार तथा धन-दौलत सहित विमान द्वारा कराची चला गया। 20 फरवरी, 1948 ई. को जूनागढ़ में जनमत करवाया गया। इस जनमत में 99 प्रतिशत मत भारतीय संघ में सम्मिलित होने के पक्ष में थे। इस प्रकार जूनागढ़ को भारतीय संघ में शामिल किया गया।
4. हैदराबाद का विलय – हैदराबाद भारत की बड़ी रियासतों में से एक थी। 1947 ई. में मीर उसमान अली खाँ बहादुर, हैदराबाद का निज़ाम (शासक) था। हैदराबाद की रियासत में 85 प्रतिशत जनसंख्या हिन्दुओं की थी। जून 1947 ई. में निजाम ने एक फरमान जारी किया कि वह दोनों देशों की संविधान सभा में अपना प्रतिनिधि नहीं भेजेगा तथा 15 अगस्त, 1947 ई. को उसकी रियासत एक स्वतन्त्र देश होगा। निज़ाम ने लार्ड माउंटबेटन से हैदराबाद के लिए एक अलग अधिराज्य की मांग की, जिसे अस्वीकार कर दिया गया। सरदार पटेल तथा वी. पी. मेनन (सचिव) ने निजाम के प्रतिनिधियों से अपील की कि हैदराबाद का भारत में समायोजन, भारत तथा हैदराबाद दोनों के हित में होगा परन्तु निजाम ने इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया। तत्पश्चात् भारत की स्वतन्त्र सरकार ने निजाम को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए दो महीने का समय दे दिया। निज़ाम ने लार्ड माउंटबेटन की हैदराबाद में जनमत करवाने की मांग भी अस्वीकार कर दी।
29 नवम्बर, 1947 ई. में भारत की स्वतन्त्र सरकार और निज़ाम के बीच एक समझौता हो गया। इसके अनुसार भारत सरकार तथा निज़ाम दोनों ने मित्रतापूर्ण व्यवहार करते हुए एक दूसरे के हितों में काम करने का वचन दिया परन्तु हैदराबाद का निजाम अधिक समय तक इस समझौते की शर्तों पर टिक न सका। उसने अपने फरमानों द्वारा हैदराबाद से भारत जाने वाली सभी मूल्यवान धातुओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया। साथ ही उसने भारतीय सिक्कों को भी अवैध घोषित कर दिया। इसके अतिरिक्त हैदराबाद के निज़ाम ने भारतीय सरकार की स्वीकृति के बिना रियासत की सेना की संख्या भी बढ़ा दी। हैदराबाद में रज़ाकर नामक मुस्लिम कट्रपंथियो का एक सशस्त्र संगठन स्थापित हो गया। रज़ाकारों ने हैदराबाद के मुसलमानों को भड़काना आरम्भ कर दिया। भारत सरकार ने इसका विरोध किया परन्तु हैदराबाद के निज़ाम पर इसका कोई असर न पड़ा। अन्त में विवश होकर भारत सरकार ने हैदराबाद के निज़ाम के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करने का निश्चय किया।
13 सितम्बर, 1948 ई. को मेजर जनरल जे. एन. चौधरी के नेतृत्व में सेना हैदराबाद भेजी गई । यद्यपि निज़ाम की सेना तथा रजाकारों ने भारतीय सेना का सामना किया परन्तु शीघ्र ही उन्होंने हथियार डाल दिये। 18 सितम्बर, 1948 ई. को भारतीय सेना हैदराबाद में प्रवेश कर गई और उस पर अधिकार कर लिया। मेजर जनरल चौधरी को हैदराबाद का गवर्नर नियुक्त कर दिया गया। तत्पश्चात् निज़ाम ने भारतीय संघ में शामिल होने की घोषणा कर दी।
भारतीय सेना की इस कार्यवाही को ऑपरेशन पोलो का नाम दिया गया क्योंकि उस समय हैदराबाद में विश्व में सबसे ज्यादा 17 पोलो के मैदान थे।
5. कश्मीर का विलय – कश्मीर भारत के उत्तर में स्थित एक बड़ी रियासत थी। इस रियासत के शासक महाराजा हरि सिंह हिंदू थे। रियासत की बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की थी। इस रियासत की सीमाएँ भारत तथा पाकिस्तान दोनों के साथ लगती थी। इसलिए दोनों देश इसे अपने देश में शामिल करने के इच्छुक थे, परन्तु कश्मीर का शासक किसी भी देश में शामिल नहीं होना चाहता था। उसने भारत तथा पाकिस्तान दोनों से बातचीत कर प्रचलित व्यवस्था कायम रखने संबंधी समझौता करने की इच्छा व्यक्त की। पाकिस्तान की सरकार ने इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये परन्तु भारत की सरकार ने इस पर कोई निर्णय नहीं लिया।
कश्मीर की रियासत को अपने साथ मिलाने हेतु विवश करने के लिए पाकिस्तान की सरकार ने कश्मीर की आर्थिक नाकेबन्दी कर दी। पाकिस्तान ने कश्मीर को अनाज, पेट्रोल तथा कई अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बन्द कर दी। सीमावर्ती क्षेत्रों में कबाइलियों द्वारा गड़बड़ी करवानी आरम्भ कर दी।
22 अक्टूबर, 1947 ई. को पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबाइली हमला करवा दिया। जम्मू कश्मीर की सेना ने कर्नल नारायण सिंह के नेतृत्व में कबाइलियों का मुकाबला किया। लड़ाई के दौरान रियासत के कुछ मुसलमान सैनिक भी कबाइलियों के साथ मिल गये। परिणामस्वरूप कबाइलियों ने रियासत के कई सीमावर्ती क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया तथा श्रीनगर की बिजली सप्लाई बन्द कर दी। कबाइलियों ने कश्मीर के जिलों में खूब लूटमार की। ऐसी परिस्थितियों में कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 ई. को भारत की सरकार से सैनिक सहायता की अपील की और अपनी रियासत को भारतीय संघ में शामिल करना स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् भारत तथा पाकिस्तान की सेनाओं में कश्मीर में युद्ध आरम्भ हो गया। अंत में संयुक्त राष्ट्र संघ की मध्यस्थता के परिणामस्वरूप 1 जनवरी, 1949 ई. को युद्ध समाप्त हो गया। भारत सरकार ने समस्त कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित कर दिया जिसे पाकिस्तान ने स्वीकार नहीं किया।
6. एकीकृत भारत का निर्माण – देसी रियासतों का भारत में विलय भारत की एकता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था। यह अनुभव किया गया कि छोटे राज्यों में आधुनिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं करवाई जा सकेंगी इसलिए सरदार पटेल ने छोटे राज्यों को निकट के राज्यों में मिला दिया।
7. राज्यों का वर्गीकरण – विलय के बाद चार प्रकार राज्यों का उदय हुआ । संविधान के अनुसार ये राज्य वर्ग थे – अ, ब, स और द । ‘अ’ वर्ग में वो राज्य शामिल किए गए जो ब्रिटिश भारत के गवर्नरों के अधीन थे। ‘ब’ वर्ग में वो राज्य रखे गए जो देसी रियासतों को मिलाकर बने थे। ‘स’ वर्ग में वो राज्य थे जो चीफ कमिश्नरों के अधीन थे। ‘द’ वर्ग में केवल अण्डमान निकोबार का राज्य था।
8. राज्यों का पुनर्गठन – 1953 ई. में भारत सरकार ने ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ गठित करके 1956 ई. में राज्य पुनर्गठन कानून बनाया। भाषा के आधार पर भारत में 14 राज्यों और 6 केन्द्र शासित प्रदेशों की व्यवस्था की गई। अ, ब, स और द प्रणाली को समाप्त कर दिया गया।
रियासतों के शासकों की प्रशासन सम्बन्धी शक्तियाँ तथा अधिकार समाप्त कर दिए गए। उनके एवं उनके परिवारों के खर्च के लिए वार्षिक धनराशि निश्चित कर दी गई। रियासतों के मेल से बने राज्यों में लोकतन्त्रीय शासन तथा उत्तरदायी सरकारों की स्थापना की गई। देश के राजनीतिक एकीकरण के लिए यह एक रक्तपात-रहित क्रान्ति थी।
विस्थापितों का पुनर्वास –
15 अगस्त, 1947 ई. को स्वतंत्रता के साथ हुए विभाजन से एक नए देश पाकिस्तान का निर्माण हुआ। विभाजन के साथ ही देशांतरण की शुरुआत हुई। वह समय विस्थापितों के लिए अत्यन्त कठिन एवं दुःखदायी था। एक ओर आज़ादी की खुशियाँ मनाई जा रही थी दूसरी ओर कत्लेआम, आगजनी, भयंकर रक्तपात लगभग पूरे उत्तर भारत को अपनी चपेट में ले चुका था। खून से लथपथ विस्थापितों से भरी रेलें, गाड़ियाँ, ट्रक, रोज भारत पहुँच रही थी। जरूरत थी उनके आँसू पोंछकर आश्रय देने की। यह कार्य बहुत ही कठिन था। राहत कार्य के लिए सारे देश में एक जैसी नीति अपनाई गई। सीमा रेखा के पास अटारी, अबोहर, फाजिल्का, अमृतसर, खेमकरण तथा ननकाना साहिब में ट्रांजिट शिविर लगाए गए। यहां से विस्थापितों को विशेष शिविरों में भेजा जाता था।
1. विस्थापितों की समस्याएँ – विभाजन के कारण सबसे अधिक दुःख एवं मुसीबतें पाकिस्तान से विस्थापित हुए हिन्दुओं और सिक्खों को सहनी पड़ी। उनके सामने समस्याओं का एक बड़ा पहाड़ था। विस्थापित होकर भारत आए इन लोगों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित थीं :
क) पहली समस्या विस्थापितों के लिए निवास स्थान उपलब्ध करवाने की थी। लाखों की संख्या में हिन्दू तथा सिक्ख अपने-अपने गाँव, शहर तथा घरों को छोड़ कर भारत आ गए थे। उनके पास भारत आने पर न घर था न ही छत जिसके नीचे रहकर वे अपना जीवन व्यतीत कर सकें।
ख) विस्थापितों की दूसरी बड़ी समस्या भोजन, वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की थी। पाकिस्तान से भारत आते हुए इन लोगों की धन-संपत्ति भी लूट ली गई थी। अब इनके पास भोजन, वस्त्र तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ खरीदने के लिए धन भी नहीं था।
ग) तीसरी समस्या जमीन की थी। जो सिक्ख तथा हिन्दू जमींदार पाकिस्तान से भारत आए थे, उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा था। भारत आने पर उनके पास कोई जमीन नहीं थी जिस पर वे खेती कर सकें जबकि पाकिस्तान में उनके पास कृषि योग्य उपजाऊ जमीन थी।
घ) चौथी समस्या रोजगार एवं व्यवसाय की थी। अधिकतर हिन्दू तथा सिक्ख विस्थापित पाकिस्तान के शहरों में रहने वाले थे और वहां उनका अच्छा व्यापार चलता था। इनमें कई अमीर साहूकार एवं व्यापारी थे। अनेक लोगों के पाकिस्तान में अपने उद्योग धन्धे थे।
ड.) विस्थापितों की पांचवीं समस्या बिछुड़े हुए अपनों से मिलने की थी। भारत विभाजन के दौरान पाकिस्तान से आ रहे हिन्दू तथा सिक्ख विस्थापितों के परिवार बिखर गए। विस्थापन के अराजक माहौल में कई परिवारों से उनके सदस्य बिछड़ गए। ये लोग या तो दंगे की भेंट चढ़ गए या उन्हें बलपूर्वक मुसलमान बना दिया गया।
इसके अतिरिक्त भारत में आए इन विस्थापितों को भारी भीड़, अत्यधिक वर्षा से कई नदियों में बाढ़ आने के कारण अव्यवस्था की स्थिति तथा कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का सामना भी करना पड़ा।
विस्थापितों की समस्याएँ –
- निवास स्थान ।
- भोजन, वस्त्र व आवश्यक सामग्री।
- कृषि योग्य भूमि ।
- व्यवसाय व रोजगार।
- बिछड़े व बिखरे परिवार
- स्वास्थ्य
2. पुनर्वास विभाग की स्थापना – भारत विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान से लाखों की संख्या में आए हिन्दू एवं सिक्ख विस्थापितों के पुनर्वास एंव पुनर्स्थापना की समस्या अत्यन्त कठिन तथा गम्भीर थी। जिसका पंजाब तथा भारत सरकार को कई वर्षों तक सामना करना पड़ा। इस समस्या का समाधान करने के लिए एक विशेष ‘पुनर्वास विभाग’ की स्थापना की गई। भारत की सरकार ने पुर्नवास विभाग के माध्यम में विस्थापितों के पुनर्वास के लिए कई महत्वपर्ण कदम उठाए।
3. विस्थापितों के लिए शिविरों की व्यवस्था – भारत सरकार द्वारा स्थापित ‘पुनर्वास विभाग’ ने विस्थापितों के रहने एवं उनकी देखभाल के लिए कई शहरों में विस्थापित शिविर स्थापित किए। इन विस्थापित शिविरों की संख्या 160 थी। भारत सरकार ने सेना की सहायता से कुरुक्षेत्र में सबसे बड़े विस्थापित शिविर की व्यवस्था की जिसमें लगभग 3 लाख विस्थापित रहते थे। इन शिविरों में विस्थापितों के लिए भोजन, कपड़े, आदि देने की व्यवस्था की गई। बीमार व्यक्तियों के लिए डॉक्टर तथा निःशुल्क दवाइयों की व्यवस्था की गई। विस्थापितों के लिए राशन कार्ड बनाए गए ताकि उन्हें आटा, चावल, दाल आदि वस्तुएँ दी जा सकें। स्त्रियों की देखभाल के लिए विशेष रूप से जालन्धर में एक ‘सेवा सदन’ की स्थापना की गई।
पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों का पुनर्वास दो प्रकार से किया गया शहरी पुनर्वास व ग्रामीण पुनर्वास । इन शरणार्थियों को उसी प्रकार बसाया जाना था जैसे वो पाकिस्तान में छोड़कर आए थे। जो लोग शहरों से आए थे उनको शहरों में बसाने का प्रयास किया गया जो लोग गाँव छोड़कर आए थे उनको गाँव में बसाया जाना था।
4. मकानों तथा दुकानों की व्यवस्था – भारत सरकार के सामने विस्थापितों को नगरों में बसाने के लिए सबसे आवश्यक काम उनके लिए मकानों की व्यवस्था करना था। पाकिस्तान छोड़कर आए हिन्दू तथा सिक्ख विस्थापितों का रहन सहन का स्तर भारत छोड़कर गए मुसलमानों से बहुत अच्छा था। पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू तथा सिक्ख वहाँ 154000 बढ़िया मकान तथा लगभग 51000 दुकानें छोड़कर आए थे। जो मुसलमान पाकिस्तान गये वे यहाँ 112000 हजार छोटे प्रकार के मकान तथा केवल 17000 दुकानें छोड़कर गये थे। अतः अनेक विस्थापितों को मकान तथा दुकानें अलाट न की जा सकी। इसलिए सरकार ने उन्हें मुआवजा दिया तथा नई कालोनियों में रहने की व्यवस्था करवाई।
5. कृषि भूमि का आबंटन – विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान से लगभग तीन लाख पचास हजार किसान अपनी भूमि को छोड़कर भारत आ गये थे। इनमें कुछ छोटे किसान थे और कुछ बड़े किसान थे। ये लोग पाकिस्तान में लगभग 67 लाख एकड़ कृषि योग्य भूमि छोड़ कर आए थे जबकि भारतीय पंजाब (पूर्वी पंजाब) में कृषि योग्य भूमि केवल 47 लाख एकड़ ही थी। अतः विस्थापित किसानों को कृषि योग्य भूति आबंटित करने के लिए सरकार ने एक योजना बनाई। इसके अनुसार ज़मीनों का आबंटन करते समय बड़े किसानों को दी जाने वाली ज़मीन पर अधिक कटौती तथा छोटे किसानों को दी जाने वाली भूमि पर कम कटौती करने की व्यवस्था की गई।
6. विस्थापितों की आर्थिक सहायता – भारत के विभाजन के कारण पाकिस्तान में रहने वाले कई धनी साहूकार कंगाल हो गये। इनमें से अधिकतर का व्यवसाय कई पुश्तों से पैतृक था। परन्तु वहाँ उनकी संपत्ति पूरी तरह नष्ट हो चुकी थी। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई। भारत की सरकार ने ऐसे विस्थापितों की आर्थिक सहायता कर उनके पुनर्वास में सहायता की। उन्हें कम ब्याज दरों पर कर्ज उपलब्ध करवाए गए। 1954 ई. तक भारतीय सरकार ने लगभग 4 लाख परिवारों को आर्थिक सहायता देकर अपने पैरों पर खड़ा कर दिया था।
7. विस्थापितों को मुआवज़ा – विभाजन के पश्चात् पाकिस्तान से भारत आए विस्थापितों की संपत्ति से संबंधित रिकार्ड देने में आरम्भ में पाकिस्तान ने टाल-मटोल की परन्तु बाद में पाकिस्तान की सरकार ने यह रिकार्ड भारत की सरकार को उपलब्ध करवा दिया। इसी के आधार पर ही भारत सरकार ने विस्थापितों को मुआवजा देने का निर्णय लिया। अतः 1955 ई. में मुआवजा स्कीम को अन्तिम रूप दिया गया। विस्थापितों से मुआवजे के लिए अपने-अपने दावे भरवाए गए। इन दावों में मांगी गई राशि में कटौती करने का एक फार्मूला बनाया गया जिसके आधार पर विस्थापितों को मुआवजे की राशि दी गई। विस्थापितों को मकान तथा दुकानें आदि भी दी गईं और उन पर उनका स्थायी अधिकार मान लिया गया।
8. स्त्रियों तथा बच्चों का निकास – 1947 के दंगों के दौरान बड़ी संख्या में हिन्दू तथा सिक्ख स्त्रियों, लड़कियों तथा बच्चों को अगवा कर लिया गया था। उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया था। स्त्रियों तथा लड़कियों को एक आदमी से दूसरे आदमी के पास बेच दिया जाता था। उनका जबरन विवाह तथा धर्म परिवर्तन कर दिया गया। इन अगवा की गई स्त्रियों तथा लड़कियों की खोज करके उनको सुरक्षित भारत लाना भारत सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी। इस उद्देश्य से भारत तथा पाकिस्तान के प्रधान मन्त्रियों में एक समझौता हुआ। उसके अनुसार इस प्रकार की सभी स्त्रियों तथा बच्चों को एक दूसरे देश को वापिस किया जाए। इसके लिए स्थानीय पुलिस तथा समाज सेवी संस्थाओं की सहायता ली गई तलाश करने के पश्चात् सरकार ने उन स्त्रियों तथा बच्चों के पुनर्वास के उचित प्रबंध किए।
9. बेसहारा स्त्रियों तथा अनाथ बच्चों का पुनर्वास – पाकिस्तान से खोजकर भारत लाई गई अनेक स्त्रियाँ विधवा हो गई थीं तथा कई बेसहारा थी। सरकार ने इन विधवा तथा बेसहारा स्त्रियों के लिए सात आश्रम खोले। इसके अतिरिक्त कई सामाजिक संस्थाओं जैसे आर्य समाज आदि ने बेसहारा स्त्रियों के लिए आश्रम स्थापित कर उन्हें योग्यतानुसार प्रशिक्षण दिया ताकि वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें। इन स्त्रियों के साथ-साथ भारी संख्या में बेसहारा तथा अनाथ बच्चे भी भारत आए थे। उनके लिए अनाथालय स्थापित किये गये। ऐसे बच्चों को अनाथालयों अथवा गुरुकुलों में भेज दिया गया जहाँ उनकी शिक्षा तथा काम धन्धों के लिए प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया गया।
10. पूर्वी पाकिस्तान से आए विस्थापितों का पुनर्वास – स्वतंत्रता के साथ ही पश्चिमी पाकिस्तान के साथ-साथ पूर्वी पाकिस्तान का जन्म हुआ। पंजाब की तरह बंगाल को भी बाँट दिया गया। बंगाल से भी विस्थापितों का भारत की तरफ पलायन शुरू हो गया। पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान से हुए देशान्तरण में भिन्नता थी। पश्चिमी पाकिस्तान से विस्थापित बहुत कम समय में भारत आ गए जबकि पूर्वी पाकिस्तान से लम्बे समय तक देशान्तरण होता रहा। बड़ी संख्या में हिन्दू पूर्वी पाकिस्तान में रुक गए थे। जब भेदभाव बढ़ा तो वे परेशान होकर भारत आने लगे।
महत्वपूर्ण तिथियां :-
1. मुस्लिम लीग की स्थापना – 1906 ई.
2. मुस्लिम लीग का पाकिस्तान प्रस्ताव – 1940 ई.
3. लार्ड एटली की घोषणा – 20 फरवरी, 1947 ई.
4. अंतरिम सरकार द्वारा रियासतों के मंत्रालय का गठन – 25 जून, 1947 ई.
5. भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम – 18 जुलाई, 1947 ई.
6. भारत को स्वतंत्रता की प्राप्ति – 15 अगस्त, 1947 ई.
7. कश्मीर पर पाकिस्तान प्रायोजित कबाइली हमला – 22 अक्टूबर, 1947 ई.
8. जूनागढ़ मे जनमत संग्रह – 1948 ई.
9. भारतीय सेना का हैदराबाद पर अधिकार – 1948 ई.
10. बांग्लादेश का निर्माण – 1971 ई.