Class 10 इतिहास BSEH Solution for chapter 8 भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन Notes for Haryana board. CCL Chapter Provide Class 1th to 12th all Subjects Solution With Notes, Question Answer, Summary and Important Questions. Class 10 History mcq, summary, Important Question Answer, Textual Question Answer in hindi are available of भारत एवं विश्व Book for HBSE.
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HBSE Class 10 इतिहास / History in hindi भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन / Bharat me british upniveshvad virodhi andolan Notes for Haryana Board of chapter 8 in Bharat avam vishwa Solution.
भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन Class 10 इतिहास Chapter 8 Notes
सोने की चिड़िया कहा जाने वाला भारत विश्व का एक समृद्ध देश था। 1600 ई. में ब्रिटेन के लालची व्यापारियों ने संयुक्त रूप से एक कंपनी (ईस्ट इंडिया कंपनी) बनाकर भारत से व्यापार की शुरुआत की। अठारहवीं सदी में भारत की राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाकर ये लालची व्यापारी राजनीतिक सत्ता में परिवर्तित हो गए। अंग्रेजों के ईसाई मत के प्रचार तथा भारतीय धर्म व संस्कृति में अनावश्यक हस्तक्षेप से भी अंग्रेजी शासन के विरुद्ध गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ। इसी असंतोष के परिणामस्वरूप भारतीयों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध कई जन आंदोलन खड़े हुए जिनका वर्णन निम्न प्रकार से है :-
1857 ई. से पूर्व का साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष –
1757 ई. में प्लासी व 1764-65 ई. में बक्सर के युद्ध जीतने के पश्चात् अंग्रेज व्यापारिक सत्ता से राजनीतिक सत्ता बन गए। 1757 ई. से 1857 ई. के बीच लगभग सैकड़ों विद्रोह हुए। 1763 ई.-1800 ई. के बीच ‘वंदे मातरम’ का रणनाद् करते हुए संन्यासियों ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया। सभी संघर्षों का परिणाम 1857 ई. की क्रांति में देखने को मिला।
1857 ई. का महान स्वतंत्रता संघर्ष –
अंग्रेजों ने भारतीय किसानों, हस्तशिल्प उद्योगों और देसी रियासतों को बर्बाद कर दिया उनकी दमनकारी नीतियों से लोग परेशान हो चुके थे। सेना में भारतीय सैनिकों के साथ भेदभाव किया जाता था। ईसाई मत के प्रचार से तथा भारतीय धर्म व संस्कृति का उपहास करने से भारतीय जनता बहुत दुखी हुई। देश में धन की कमी होने लगी। इन सबके फलस्वरूप 1857 में अंग्रेजी सत्ता की बेड़ियों से मुक्त होने के लिए सभी वर्गों, धर्मों, क्षेत्रों, रंगों, जातियों के लोगों ने मिलकर योजनाबद्ध ढंग से संगठित होकर एक वर्ष तक लगातार अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष किया। यद्यपि भारत को आजादी नहीं मिली फिर भी इस संघर्ष ने अंग्रेजी शासन की नींव हिला दी, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने भारत में ‘फूट डालो और राज करो’ की नई नीति अपनाकर भारतीयों को आपस में बांट कर इस क्रांति को खत्म कर दिया। 1857 ई. के महान क्रांतिकारियों मंगल पांडे, रानी लक्ष्मीबाई, तांत्या टोपे, नाना साहिब, राव तुलाराम, कुंवर सिंह, राजा नाहर सिंह प्रमुख थे।
1857 ई.-1900 ई. के बीच का संघर्ष –
1857 की महान राष्ट्रीय क्रांति की असफलता के बावजूद स्वतंत्रता की लड़ाई जोरदार रूप में आरंभ हो गई। 1857 ई. से 1900 ई. के बीच पुन: भी वनवासियों, किसानों, धार्मिक संतों एवं शिल्पकारों ने संघर्ष जारी रखा व कई आंदोलन किए गए। इनमें 1859 ई.-1861 ई. का नील विरोध, 1869 ई.-1872 ई. का कूका आंदोलन, 1899 ई.-1900 ई. का बिरसा मुंडा का विरोध प्रमुख थे। इन तीनों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है
1. 1859 ई. – 60 ई. का नील विरोध – नील की यूरोप में विशेष मांग थी, इसलिए लालची ब्रिटिश व्यापारियों व जमींदारों ने बंगाल में किसानों से जबरन नील की खेती करवाई गई, जिससे त्रस्त होकर बंगाल के गाँव के किसान एकजुट हो गए तथा उन्होंने नीलहो (अंग्रेजी जमींदारों) के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। जिसे नील विद्रोह भी कहा जाता है। इन किसानों का कोई नेता नहीं था फिर भी इन्होंने अंग्रेजी जमींदारों के अत्याचारों का मिलकर मुकाबला किया। हर गाँव के बाहर एक नगाड़ा और डुगडुगी होती थी। नीलहों के लठैत गाँव में आते तो यह नगाड़ा और डुगडुगी बजाकर ग्रामवासी व आसपास के गाँव वाले इकट्ठा हो जाते थे। लॉर्ड कैनिंग इस विद्रोह को दबा पाने में असफल रहा। अंततः नील के विद्रोह को सफलता मिली तथा नील की खेती बंद हो गई।
2. कूका आंदोलन (1869 ई. – 72 ई.) – उदासी फकीर के शिष्य रामसिंह कूका के नेतृत्व में कूका आंदोलन हुआ। रामसिंह एक साधारण परिवार से संबंध रखने वाले व्यक्ति थे। उनके द्वारा स्थापित संप्रदाय कूका अथवा नामधारी सिक्ख संप्रदाय कहलाया। इस संप्रदाय के लोग जोर-जोर से कूक मारकर गाते थे इसलिए इनका नाम कूका पड़ा। इनके शिष्यों की संख्या तेजी से बढ़ी। रामसिंह ने खालसा को पुनर्जीवित करके अंग्रेजी साम्राज्यवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने का निश्चय किया। उन्होंने सारे पंजाब को 22 हिस्सों में बांट कर अलग-अलग अधिकारी नियुक्त किए। गौ-हत्या के विरुद्ध उन्होंने जबरदस्त अभियान चलाया। पंजाब के तीर्थ स्थलों के आसपास मौजूद बूचड़खानों को नष्ट करने में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई। कूकों का पहला संघर्ष अंग्रेजों से 1869 ई. में फिरोजपुर में हुआ। इसका उद्देश्य अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फेंकना था। 1872 ई. में कूका आंदोलन मलोध, पटियाला और कोटला में भी फैल गया। इसे दबाने का कार्य लुधियाना डिप्टी कमिश्नर कोदान को दिया गया। 68 कूका आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। कोदान ने 49 कूकों को तोप से उड़ा दिया तथा बाकी को अदालत में मुकद्दमा चलाकर मृत्युदंड दे दिया। राम सिंह को गिरफ्तार करके रंगून भेज दिया गया। वहीं 1885 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। कूकाओं ने सर्वप्रथम स्वदेशी कपड़े, खासकर गाढ़ा या खद्दर पहनकर स्वदेशी वस्तुओं के व्यापार एवं विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया।
3. बिरसा मुंडा का विरोध – मुंडा विरोध का नेतृत्व बिरसा ने किया। बिरसा रांची जिले के छोटे से गाँव चलकद के मुंडा थे। प्रारंभ में वे इसाई बने तथा उन्होंने ईसाई मिशनरी स्कूल में कुछ शिक्षा भी ग्रहण की लेकिन ईसाई धर्म से असंतुष्ट होकर वो पुन: मुंडा बन गए। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के शोषण एवं ईसाईयत के प्रचार के विरुद्ध मुंडा सरदारों ने विरोध किया। मुंडा सामूहिक खेती करते थे लेकिन अंग्रेजी शासन से यह परंपरा टूट गई जिससे मुंडा वनवासियों में असंतोष पनपा। मुंडा नेता बिरसा ने स्वयं को ईश्वर का अवतार घोषित किया तथा 1899 ई. में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष किया। मुंडा अक्सर गुप्त रूप से महारानी विक्टोरिया के पुतले बनाकर उन पर तीर-धनुष का अभ्यास करते थे तथा ब्रिटिश राज के स्थान पर मुंडाराज स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने कई स्थानों पर आक्रमण किए जिससे ब्रिटिश सरकार तमतमा गई तथा बिरसा को ढूंढने लगी। 3 फरवरी 1900 ई. को बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें रांची जेल में रखा गया। बिरसा व उनके 482 साथियों पर मुकद्दमा चलाया गया। 9 जून 1900 ई. को हैजे से जेल में ही बिरसा की मृत्यु हो गई। बिरसा मुंडा के तीन साथियों को मृत्युदंड, 44 को काला पानी और 47 को कारावास की सजा दी गई। सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने कलकत्ता के प्रमुख समाचार पत्रों में बिरसा मुंडा व उनके समर्थकों के समर्थन में लेख लिखे।
राष्ट्रवादियों के संघर्ष एवं आंदोलन –
उन्नीसवीं सदी में भारतीय धर्म एवं समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने के लिए कई समाज धर्म सुधार आंदोलन चले जैसे ब्रह्मसमाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन, बहिष्कृत हितकारिणी सभा, सिंह सभा इत्यादि। इन आंदोलनों से भारतीयों में आत्मसम्मान, स्वाभिमान, आत्म गौरव एवं आत्मबलिदान की भावनाएँ उत्पन्न हुई तथा अपने राष्ट्र, धर्म एवं संस्कृति के प्रति गर्व की भावना ने जन्म लिया जिससे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष और मुखर होने लगा। इसके फलस्वरूप बहुत सारे लोगों ने देश के लिए संघर्ष किया। राष्ट्रवादियों के संघर्ष एवं आंदोलनों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है
1. बाल गंगाधर तिलक – बाल गंगाधर तिलक एक निडर, साहसी, एक ऐसे नेता व पत्रकार थे जिनकी भाषा सरल, स्पष्ट एवं सीधी चोट करने वाली थी। उन्होंने 1881 ई में मराठी भाषा ‘केसरी’ और अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ नामक अखबारों का संपादन शुरू किया। 1896 ई. में उन्होंने ही विदेशी वस्तुओं की होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के कूका आंदोलन के अस्त्र का व्यापक प्रयोग शुरू किया। 27 जून 1898 ई. को चापेकर बंधुओं ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैंड की हत्या कर दी। रैंड की हत्या को लेकर तिलक पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने ये साजिश की तथा उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया गया। अदालत ने उन्हें 18 महीनें की सजा दी। भारतीय अखबारों ने इसकी कड़ी आलोचना की तथा रातों रात तिलक सारे भारत में जनप्रिय हो गए और उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि दी गई। 18 महीनों की सजा के बाद तिलक को जेल से रिहा कर दिया गया तथा पुनः 1908 ई. में उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा लगाकर 6 वर्ष की सजा दे दी गई।
2. बंग-भंग एवं स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन – साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्जन ने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को अपनाते हुए भारत की एक चौथाई आबादी के प्रदेश बंगाल को साम्प्रदायिकता के आधार पर पूर्वी व पश्चिमी बंगाल रूपी दो प्रांतों में बांट दिया जिसका उदारपंथियों व धार्मिक राष्ट्रवादियों ने जोरदार विरोध किया। स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का प्रारंभ हुआ। बंगाल में इस आंदोलन का नेतृत्व राष्ट्रवादी विपिन चंद्र पाल कर रहे थे तथा पंजाब में लाला लाजपत राय व अजीत सिंह ने इसे लोकप्रिय बनाया। राष्ट्रवादी स्वदेशी व बहिष्कार को पूरे देश में फैलाना चाहते थे। तिलक ने नारा लगाया ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा।’ 1907 ई. में सूरत में फूट पड़ गई। गरमपंथी स्वदेशी व बहिष्कार आंदोलन को केवल विदेशी कपड़े के ही बहिष्कार नहीं अपितु सरकारी विद्यालयों, अदालतों, नौकरियों, उपाधियों के बहिष्कार को भी इसमें शामिल करना चाहते थे तथा सरकारी संस्थानों के स्थान पर राष्ट्रीय संस्थानों, अंग्रेजी शिक्षा के स्थान पर राष्ट्रीय शिक्षा, सरकारी अदालतों के स्थान पर देशी पंचायतों के स्तर पर लेकर जाना चाहते थे। अंतत: ब्रिटिश सरकार झुकी तथा विभाजन को रद्द कर दिया गया।
3. होमरूल आंदोलन – संघर्षशील लोकमान्य तिलक छह वर्ष की सजा (मांडले) काटकर 1914 ई. में भारत पहुँचे तब प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918 ई.) शुरू हो चुका था। तिलक ने अनुभव किया भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन निराशा में घिरा हुआ है। उन्होंने होमरूल लीग का गठन करके एनी बेसेंट से मिलकर ‘होमरूल आंदोलन’ चलाया। शीघ्र ही ‘होमरूल आंदोलन’ महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य भारत, मद्रास, मुंबई, उत्तर भारत में तेजी से फैल गया। काफी गिरफ्तारियाँ दी गई। होमरूल आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने भावी राष्ट्रीय आंदोलन के लिए जुझारू योद्धाओं का एक विशाल संगठन तैयार किया। विश्वयुद्ध की समाप्ति तक आजादी की लड़ाई की एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो गई जिसने भविष्य में राष्ट्रीय संघर्ष को जुझारू एवं संघर्षशील बनाया। तिलक को वी. शैरोल ने ‘भारतीय अशांति का जनक’ करार दिया।
क्रांतिकारी आंदोलन (1894 ई.-1947 ई.) –
विवेकानंद, दयानंद के विचारों से प्रभावित होकर तथा तिलक व अरविंद घोष से प्रेरणा लेकर भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का जन्म हुआ तथा अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए ये क्रांतिकारी जान की बाजी लगाने में विश्वास रखते थे। बम, हत्याएँ, गोलाबारी के द्वारा अंग्रेजों को आतंकित करके भारत की पूर्ण स्वतंत्रता इनका लक्ष्य था। क्रांतिकारी गतिविधियों का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है
1. चापेकर बंधुओं द्वारा क्रांतिकारी घटना – 1897 ई. में पूना में प्लेग फैल गया। प्लेग से निपटने के लिए रैंड नामक अंग्रेज को प्लेग कमिश्नर नियुक्त किया गया। इस अंग्रेज ने पूना में लोगों के घरों तथा मंदिरों में बेरोकटोक प्रवेश कर आम जनता में असंतोष उत्पन्न कर दिया। दो भाई दामोदर चापेकर व बालकृष्ण चापेकर ने 22 जून को बदनाम रैंड की गोली मारकर हत्या कर दी। क्रांतिकारी संभवत: तिलक से प्रभावित थे, दोनों को पकड़कर मृत्युदंड दिया गया। तिलक को भी भड़काऊ भाषण व लेख लिखने के अपराध स्वरूप 18 महीने की सजा मिली।
2. महाराष्ट्र में क्रांतिकारी घटनाएँ – विनायक दामोदर सावरकर ने महाराष्ट्र में क्रांतिकारियों को संगठित करने के लिए यूरोप जाने से पूर्व ही मित्र मेला व अभिनव भारत जैसी संस्थाओं का निर्माण किया। इन संस्थाओं के माध्यम से कई क्रांतिकारी उत्पन्न हुए। 1909ई.-1910ई. में अभिनव भारत ने नासिक, अहमदाबाद, और सतारा में क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया।
3. बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन – बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन के जन्मदाता अरविंद घोष व बारिंद्र घोष थे। घोष बंधुओं ने ‘अनुशीलन समिति’ नामक संगठन का निर्माण किया तथा संध्या, युगांतर जैसी पत्रिकाओं व भवानी मंदिर जैसी पुस्तकों से क्रांतिकारी आंदोलनों को बल मिला। 1908 ई. में खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर के न्यायाधीश किंग्सफोर्ड को मारने के उद्देश्य से उसकी बग्गी पर बम फेंका जिसमें 2 महिलाओं की मृत्यु हुई। चाकी ने आत्महत्या कर ली, खुदीराम बोस को मृत्युदंड दिया गया। अरविंद घोष व बारिंद्र घोष पर अलीपुर षड्यंत्र केस में मुकद्दमा चला।
4. श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा विनायक दामोदर सावरकर – श्यामजी कृष्ण वर्मा पश्चिमी भारत के काठियावाड़ के निवासी थे। उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय से बैरिस्ट्री की शिक्षा ग्रहण की। 1905 ई. में वर्मा जी ने ‘भारत स्वशासन समिति’ का गठन किया जिसे प्राय: इंडिया हाउस कहा जाता था। उन्होंने एक समाचार पत्र ‘इंडियन सोशलॉजिस्ट’ शुरू किया तथा भारतीयों के लिए 1000-1000 रुपए की छह फैलोशिप भी शुरू की जिसकी वजह से शीघ्र ही इंडिया हाउस भारतीय क्रांतिकारियों का केंद्र बन गया। 1904 ई. में वीर सावरकर ने ‘अभिनव भारत’ नामक गुप्त संस्था की स्थापना की। शीघ्र ही पूरे महाराष्ट्र में गुप्त समितियों का जाल बिछ गया। इसके अतिरिक्त पूना, मुंबई, नासिक आदि स्थानों पर बम बनाने की फैक्ट्रियाँ स्थापित की गई। वीर सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर भी बड़े देशभक्त थे। उन्हें सजा दिलवाने में नासिक के डिप्टी कलेक्टर मिस्टर जैक्सन तथा भारत सचिव के मुख्य परामर्शदाता कर्जन वाइली का बड़ा हाथ था। इसलिए जुलाई 1909 ई. में अमृतसर में के एक नवयुवक ‘मदन लाल ढींगरा ने कर्जन वाइली को गोली मार दी। बाद में 16 अगस्त 1909 ई. को मदन लाल ढींगरा को फांसी की सजा दी गई।
5. गदर आंदोलन – उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में भारत से कई भारतीय धन कमाने के लिए व जीविका के साधन ढूंढते हुए अमेरिका, बर्मा, सिंगापुर, हांगकांग, कनाडा आदि जा पहुँचे। अमेरिका में ज्वाला सिंह, बसारण सिंह, सोहन सिंह भकना, केसर सिंह आदि ने खूब धन कमाया परंतु भारतीय होने के नाते विदेश में भी इनके साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता था। इसलिए अपने देशवासियों की पीड़ा को अनुभव करते “हुए उन्होंने यह निश्चय किया कि वह यहाँ विदेश में रहकर अपने भारतवर्ष को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करवाने का प्रयास करेंगे। इसलिए उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन चलाने का निश्चय किया। सर्वप्रथम 1913 ई. में अमेरिका व कनाडा के भारतीयों को संगठित करके एक ‘हिंदुस्तानी एसोसिएशन’ बना ली जिसे ‘गदर पार्टी’ कहा जाता था। गदर पार्टी के पहले अध्यक्ष सोहन सिंह भकाना व सचिव लाला हरदयाल बने। इस पार्टी का मुख्य उद्देश्य हर संभव प्रयास व गतिविधि के द्वारा ब्रिटिश शासन की भारत से समाप्ति था। इस पार्टी का मुख्यालय युगांतर आश्रम नामक स्थान पर था। धीरे-धीरे इसकी शाखाएँ विभिन्न भागों में खुल गई। नवंबर 1913 ई. में ‘गदर’ नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला गया जो हिंदी, मराठी, अंग्रेजी, उर्दू आदि विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित होने लगा। इस समाचार पत्र में ब्रिटिश शासन की वास्तविक तस्वीर भारतीयों के सामने पेश की गई तथा साथ ही नवयुवकों को क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने का आह्वान किया गया। मार्च 1914 ई. में लाला हरदयाल को गिरफ्तार करने का आदेश दिया गया। इसलिए वह अमेरिका छोड़कर स्विट्जरलैंड चले गए। उसके पश्चात् भगवान सिंह, करतार सिंह सराभा, रामचंद्र आदि नेताओं ने अपने प्रयासों से गदर आंदोलन जारी रहा।
6. कामागाटामारू घटना – गदर पार्टी के सदस्यों ने भारत में हथियारों की क्रांति लाने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों को जर्मन शस्त्रों के साथ तोसामारु नामक जहाज में भारत भेजा परंतु इसकी सूचना भारत में ब्रिटिश सरकार को पहले ही हो गई इसलिए भारत पहुँचने पर सभी व्यक्तियों को कैदी बनाकर कठोर मृत्युदंड दिए गए। इसी समय कनाडा की सरकार ने भारतीयों पर अनेक अनुचित प्रतिबंध लगा रखे थे इसलिए इन भारतीयों के सहयोग के लिए सिंगापुर के एक धनी भारतीय बाबा गुरुदत्त सिंह ने कामागाटामारू जहाज में 350 भारतीयों को लेकर कनाडा के लिए प्रस्थान किया। 23 मई 1914 ई. को जब यह जहाज कनाडा की बंदरगाह बैंकूवर पहुँचा तो कनाडा की सरकार ने इन्हें यहाँ उतरने की अनुमति नहीं दी। तत्पश्चात् यह जहाज भारत के लिए रवाना हो गया परंतु जब ब्रिटिश सरकार को इसका पता चला तो कलकत्ता पहुँचते ही सरकार ने बलपूर्वक इन यात्रियों को पंजाब में भेजने का प्रयास किया। कुछ यात्रियों ने बलपूर्वक कलकत्ता में प्रवेश करने की कोशिश की तो सरकार ने उन पर गोली चला दी। कामागाटामारू के निर्दोष व्यक्तियों पर गोली चलाए जाने के कारण भारतीयों में ब्रिटिश शासन के प्रति काफी रोष उत्पन्न हुआ।
7. काकोरी की घटना – 1919 ई. के जलियांवाला बाग हत्याकांड एवं असहयोग आंदोलन के स्थगन के बाद भारत के क्रांतिकारी संगठित होना शुरू हुए। इनके नेता थे राम प्रसाद बिस्मिल, योगेश चंद्र चटर्जी, शचींद्र नाथ सान्याल, चन्द्रशेखर आजाद व सुरेश चंद्र भट्टाचार्य। अक्टूबर 1924 ई. में इन क्रांतिकारी युवकों का कानपुर में एक सम्मेलन हुआ और “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” का गठन किया गया। इसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना था। संघर्ष करने, प्रचार करने, नौजवानों को अपने दल में मिलाने, प्रशिक्षित करने और हथियार जुटाने के लिए धन की जरूरत थी। इस उद्देश्य के लिए इस संगठन के 10 व्यक्तियों ने पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त 1925 ई. को लखनऊ के पास एक गांव काकोरी में ट्रेन को रोक कर खज़ाना लूट लिया। सरकार ने भारी संख्या में युवकों को गिरफ्तार किया गया। उन पर मुकद्दमा चलाया गया। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेंद्र लाहड़ी व अशफाक उल्ला खां को फांसी की सजा दी गई। चार को आजीवन कारावास देकर अंडमान भेज दिया। 17 अन्य लोगों को लंबी सजाएँ सुनाई गई।
8. साइमन कमीशन का विरोध – 1928 ई. में सात सदस्यों (सभी अंग्रेज) वाला एक कमीशन आया, जिसके प्रधान सर जॉन साइमन थे। इस कमीशन का सम्पूर्ण भारत में विरोध हुआ ‘साइमन वापस जाओ’ के नारों से सारा भारत गूँज उठा। 30 अक्टूबर 1928 ई. को लाहौर में साइमन कमीशन का विरोध करते हुये लाला लाजपत राय पर बर्बर लाठीचार्ज से उनकी मौत हो गई । राजगुरु व भगत सिंह ने सांडर्स को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया तथा लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया।
9. भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव की शहादत – जय गोपाल के मुखबिर बनने से सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह की संलिप्तता का केस शुरू हुआ। इसे ‘लाहौर षड्यंत्र’ केस कहते हैं। इसके बाद उन्हें लाहौर पेश किया गया। 10 जुलाई 1929 ई. को सांडर्स हत्याकांड का मुकद्दमा चला। 24 क्रांतिकारियों पर अभियोग चलाया गया। 6 फरार थे, 3 को छोड़ दिया गया था, 7 सरकारी गवाह बन गए, शेष 8 पर मुकद्दमा चला। यह मुकद्दमा मजिस्ट्रेट के पास से हटाकर 3 जजों के एक ट्रिब्यूनल के सामने गया। 7 अक्टूबर 1930 ई. को स्पेशल ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह व उसके साथियों को मौत की सजा सुना दी। फांसी की सजा रोकने के लिए पूरे देश में प्रदर्शन हुए। 23 मार्च 1931 ई. को शाम 7:00 बजे इन तीनों को फांसी लगा दी गई। जनता के विरोध के डर से सतलुज के किनारे इनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
10. आजाद हिंद फौज – 1938 ई. में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए सुभाष चंद्र बोस 1939 ई. में भी गांधी जी के उम्मीदवार के विरुद्ध कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए। बाद में वे देश छोड़ पेशावर, मास्को से बर्लिन जा पहुँचे, जहाँ हिटलर के दाहिने हाथ रिवनट्रॉप ने उनका स्वागत किया गया। सुभाष चंद्र बोस ने रास बिहारी बोस से मिलकर ‘आजाद हिंद फौज’ का पुनर्गठन किया। नेताजी ने ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया। फौज ने अराकान, कोहिमा व इम्फाल में संघर्ष किया इसी दौरान एक बड़ी घटना घटी। 18 अगस्त, 1945 ई. को एक हवाई जहाज दुर्घटना में माना जाता है कि सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गई, यद्यपि उनकी मौत की पुष्टि नहीं हो पाई है।
ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिंद फौज के कुछ अफसरों के विरुद्ध विश्वासघात के आरोप में मुकद्दमा चलाने की घोषणा की तो विरोध की लहर सारे देश में फैल गई। सारे देश में विशाल प्रदर्शन हुए। सरदार गुरबख्श सिंह ढिल्लों, प्रेम सहगल और शाहनवाज के ऊपर ब्रिटिश शासन ने राजद्रोह का मुकदमा चलाया तो संपूर्ण राष्ट्र में आन्दोलन भड़क उठे। कोर्ट मार्शल का मुकद्दमा लाल किले पर चलाया गया था। उनकी रिहाई की जोरदार आवाज लगभग सभी दलों ने उठाई। ‘दिल्ली चलो’ का नारा, ‘राष्ट्रीय गान’ के साथ-साथ ‘जय हिंद’ सारे देश में लोकप्रिय हो गए।
11. शाही नौसेना का संघर्ष – सन 1946 ई. में सेना में अशांति व शाही नौसेना का संघर्ष अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटनाएं थी, जिन्होंने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। जनवरी 1946 ई. में हवाई सैनिकों ने मुंबई में हड़ताल की। उनकी मांगे थी कि हवाई सेना में अंग्रेजों और भारतीयों में भेदभाव को दूर किया जाए। भारतीय हर क्षेत्र में बराबरी की मांग करते जा रहे थे। इसके बाद नौसेना का संघर्ष हुआ। दूसरे महायुद्ध से पहले भारतीय समुद्र तट की रक्षा करने वाले जंगी जहाजों को ब्रिटिश नौसेना से अलग करके रॉयल इंडियन नेवी का गठन हुआ था। इसके नाविक छोटे अफसर भारतीय थे लेकिन अधिकांश बड़े अफसर अंग्रेज थे। नौसेना के भारतीय सैनिकों को वे सैनिक सुविधाएँ नहीं दी जाती थीं जो ब्रिटिश नौसैनिकों को दी जाती थीं। फरवरी 1946 ई. में ‘तलवार’ नामक जहाज पर सैनिकों ने आंदोलन कर दिया। इनके नारे थे ‘जय हिंद’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘हिंदू-मुस्लिम एक हो’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो’।
अहिंसावादी आन्दोलन –
गांधी जी 1915 ई. में दक्षिण अफ्रीका से वापस आए और शीघ्र ही भारतीय राजनीति में सक्रिय हो गए। गांधी जी ने 1947 ई. तक भारत के अहिंसावादी आंदोलन का नेतृत्व किया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद रोलट एक्ट, जलियांवाला बाग नरसंहार जैसी परिस्थितियों में गांधी ने असहयोग आंदोलन चलाया। उन्होंने भारत सरकार के सभी मेडल व पुरस्कार लौटा दिए। उन्होंने सरकार द्वारा दी गई केसर-ए-हिंद की उपाधि भी वापस कर दी। इनका अनुसरण करते हुए सैकड़ों देशभक्तों ने अपनी उपाधियाँ व पदवियों को छोड़ दिया। लाला लाजपत राय, सी. आर. दास, मोतीलाल नेहरू, वल्ल्भ भाई पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे प्रसिद्ध वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी। बहुत से छात्रों ने सरकारी स्कूलों को छोड़ दिया और वे राष्ट्रीय स्कूलों में भर्ती हो गए। कार्यक्रम के अनुसार विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया, विदेशी कपड़े के स्थान पर खादी को अपनाया गया और चरखे का प्रचलन बढ़ गया। सरकार ने इस आंदोलन को दबाने के लिए दमन-चक्र का सहारा लिया। बड़े-बड़े नेताओं को बंदी बना लिया गया। लोगों पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए। कुछ ही महीनों में कैद किए हुए लोगों की संख्या तीस हजार के पार हो गई। सरकार ने इस आंदोलन को जितना दबाया, यह आंदोलन उतना ही जोर पकड़ता चला गया। 5 फरवरी 1922 ई. को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा के स्थान पर लोगों की उत्तेजित भीड़ ने एक पुलिस चौकी को आग लगा दी जिसमें एक थानेदार और 21 सिपाही जल कर मर गए। महात्मा गांधी ने इस घटना से दुःखी होकर असहयोग आंदोलन को स्थगित कर दिया।
1929 ई. में रावी के तट पर एक ऐतिहासिक अधिवेशन में गांधी जी ने पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा तथा इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ चलाने का निर्णय लिया गया आंदोलन शुरू करने से पहले गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के समक्ष अपनी 11 मांगों को रखा परंतु वायसराय लार्ड इर्विन ने इन मांगों के प्रति कोई उत्तर नहीं दिया। इसलिए 12 मार्च 1930 ई. को गांधी जी ने ऐतिहासिक सविनय अवज्ञा आंदोलन का आरम्भ दांडी यात्रा से किया। आरंभ में गांधी जी के साथ 78 अनुयायियों ने भाग लिया, परंतु धीरे-धीरे मार्ग में सैकड़ों लोगों ने उन्हें अपना समर्थन दिया। 24 दिन के पश्चात् 6 अप्रैल 1930 ई. को गांधी जी ने दांडी पहुँचकर समुद्र के पानी से नमक तैयार करके सविनय अवज्ञा आंदोलन आरम्भ किया। यह आंदोलन बहुत शीघ्र ही सारे देश में फैल गया। जनता ने इसके प्रति बहुत उत्साह दिखाया। प्रत्येक संभव स्थान पर नमक बनाया गया व अन्य कानूनों का उल्लंघन किया गया। ब्रिटिश सरकार को मजबूर होकर 05 मार्च 1931 ई. को ‘गांधी इर्विन समझौता’ करना पड़ा। समझौते के अनुसार गांधी जी दूसरे गोलमेज सम्मेलन मे भाग लेने के लिए लंदन गए तथा निराश होकर आंदोलन पुनः आरंभ करने की घोषणा कर दी। सरकार ने कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार करके कांग्रेस को ‘गैर कानूनी संस्था’ घोषित कर दिया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्जे मैकडोनाल्ड ने राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करने के लिये 16 अगस्त, 1932 ई. को ‘सांप्रदायिक निर्णय’ की घोषणा कर दी, जिसका मुख्य उद्देश्य हरिजनों व शेष हिंदुओं को अलग करना था। गांधी जी ने आमरण अनशन करके इसे विफल कर दिया।
ब्रिटिश सरकार के व्यवहार से तंग आकर कांग्रेस ने 8 अगस्त 1942 ई. को बंबई अधिवेशन में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास किया। भारत छोड़ो आंदोलन के प्रस्ताव के पास होने के अगले दिन ही कांग्रेस के मुख्य नेताओं जैसे गांधी जी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, अबुल कलाम आजाद, राजेंद्र प्रसाद, पट्टाभिसीतारमैया आदि नेताओं को बंदी बना लिया गया। इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन में वकीलों, अध्यापकों, व्यापारियों, डाक्टरों, पत्रकारों, मजदूरों, विद्यार्थियों व स्त्रियों ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया। विभिन्न नगरों में सभाएँ की गई एवं जुलूस निकाले गए। लगभग एक सप्ताह के लिए कामकाज पूरी तरह बंद रहा। कांग्रेस को एक बार फिर गैरकानूनी संस्था घोषित कर दिया गया।
अंग्रेजी सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए दमन की नीति का सहारा लिया। सरकार ने शांतिपूर्ण जुलूसों पर गोलियाँ चलाई व लाठीचार्ज किया। सरकारी सूत्रों के अनुसार 538 अवसरों पर निहत्थे लोगों पर पुलिस ने गोलियाँ चलाई। एक लाख से अधिक स्त्री-पुरुषों को बंदी बना लिया गया। प्रदर्शनकारियों पर भारी जुर्माने किए गए, देश में चारों और अराजकता और अशांति फैल गई। लोगों ने हिंसा का उत्तर हिंसा से दिया। कई सरकारी भवनों व पुलिस स्टेशनों को जला दिया गया, तार की लाइनें काट दी गईं। यह आंदोलन ‘अगस्त क्रांति‘ के नाम से जाना जाता है।
1857 ई. से पहले के किसान में नागरिक संघर्ष –
आंदोलन | नेता का नाम | वर्ष | क्षेत्र |
कौल | बुद्धो भगत | 1831 | झारखंड |
कूका | भगत जवाहर मल | 1860 | पंजाब |
खोंड | चक्र बिसोई | 1837 | उड़ीसा |
मुण्डा | बिरसा मुंडा | 1899-1900 | झारखंड |
संन्यासी | गिरी संप्रदाय | 1770 | बंगाल |
पाॅलीगरों | काट्टावाम्मन | 1801 | तमिलनाडु |
भील | दशरथ | 1820-25 | राजस्थान |
पागलपंथी | कर्मशाह व टीपू | 1840-50 | तमिलनाडु |
अहोम | गोमधर कुंवर | 1828 | असम |
खासी | राजा तिरथ सिंह | 1828-33 | असम |
1857 का एक परिचय –
केन्द्र | नेता |
दिल्ली | बहादुर शाह बख्त खाँ |
लखनऊ | बेगम हजरत महल |
इलाहाबाद | लियाकत अली |
झांसी, ग्वालियर | रानी लक्ष्मीबाई, तात्यां टोपे |
कानपुर | नाना साहब |
रेवाड़ी | राव तुलाराम |
कासन गांव | अलबेल सिंह, जियाराम |
झज्जर | नवाब अब्दुल रहमान खाँ |
बल्लभगढ़ | राजा नाहर सिंह |
पटना | पीरअली |
जगदीशपुर | कुंवर सिंह, अमर सिंह |
आरा | बंदे अली |