भारत पर विदेशी आक्रमण Class 10 इतिहास Chapter 6 Notes – भारत एवं विश्व HBSE Solution

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HBSE Class 10 इतिहास / History in hindi भारत पर विदेशी आक्रमण / Bharat per videshi akarman Notes for Haryana Board of chapter 6 in Bharat avam vishwa Solution.

भारत पर विदेशी आक्रमण Class 10 इतिहास Chapter 6 Notes


  • मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमण – आठवीं शताब्दी
  • महमूद गजनवी के आक्रमण – ग्यारहवीं शताब्दी
  • मुहम्मद गौरी के आक्रमण – बारहवीं शताब्दी
  • मंगोलों के आक्रमण – तेरहवीं तथा चौदहवीं शताब्दी
  • तैमूर के आक्रमण – चौदहवीं शताब्दी
  • बाबर के आक्रमण – सोलहवीं शताब्दी
  • नादिरशाह के आक्रमण – अठारहवीं शताब्दी
  • अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण – अठारहवीं शताब्दी

भारत प्राचीन काल से सभ्य, विकसित और उन्नत देश रहा है। भारत की गिनती दुनिया में सबसे अमीर व संपन्न देशों में होती थी। जिस कारण उसे ‘सोने की चिड़िया’ भी कहते थे। भारत अपनी समृद्धि व सोने की प्रचुरता के कारण विश्व में प्रसिद्ध था। जिस कारण विदेशी आक्रमणकारी भारत को लूटने के लिए भारत पर आक्रमण करते थे।

भारत पर विदेशी आक्रमण –

पश्चिम से भारत में प्रवेश करने के तीन मुख्य मार्ग थे।

  1. समुद्र मार्ग से पश्चिमी तट पर पहुँचना।
  2. उत्तर पश्चिम में खैबर, गोमल एवं बोलन के दरों का
  3. मकरान मरु प्रदेश का समतली भाग।

इन मार्गों से ही विदेशी भारत में दाखिल होते थे।

अरबों ने खैबर व बोलन दर्रे से भारत में घुसने का प्रयास किया लेकिन काबुल जाबुल प्रदेशों में भारतीयों की सतर्कता व किक्कान के लोगों की शूरवीरता के कारण अनेक वर्षों तक उन्हें सफलता नहीं मिली।

अरबों के प्रारम्भिक आक्रमण (636 ई. से 712 ई.) – अरबों ने भारत पर पहला आक्रमण 636 ई. में आधुनिक मुम्बई के निकट थाना नामक बंदरगाह पर जल मार्ग से किया लेकिन वे असफल रहे। इसके बाद भड़ौच व देबल पर अरबों ने आक्रमण किया लेकिन यहां भी उन्हें हार मिली।

अनेक खलीफाओं की योजना बनाने के बाद आखिरकार 660 ई. में अरबों ने खलीफा अबू के समय सिंध पर स्थल मार्ग से पहली बार हमला किया। इस हमले में अरब सेना को भारी नुकसान उठाना पड़ा। 661 से 680 ई. के बीच खलीफा मुआविया के समय सिंध पर छ: बार आक्रमण किए गए लेकिन सभी असफल रहे। 695 ई. में अल हज्जाज ईराक का गवर्नर बना। वह सिंध को जीतना चाहता था। उसने 708 ई. में सिंध को जीतने की योजना बनाई।

मोहम्मद बिन कासिम का आक्रमण (712 ई.) – गवर्नर अल हज्जाज़ को खलीफा वालिद से बार- बार फ़रियाद करने पर अनमने ढंग से सिंध पर आक्रमण करने के लिए आज्ञा भी मिल गई । युद्ध का तात्कालिक कारण बना सिंध के पास अरब व्यापारियों के साथ हुई लूटपाट की घटना।

लंका से कुछ व्यापारिक जहाज अरब लौट रहे थे लेकिन समुद्री डाकुओं ने उन्हें देबल के पास लूट लिया। लूटपाट करने वाले समुंद्री डाकू थे परन्तु इराक के गवर्नर हज्जाज ने सिंध के राजा दाहिर से क्षति पूर्ति की मांग की। दाहिर ने क्षति पूर्ति देने से मना कर दिया। परन्तु हज्जाज ने ताकत के नशे में राजा दाहिर को कमजोर जान कर आक्रमण किये लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा।

हज्जाज़ ने सबसे पहले सेनानायक उबैदुल्लाह को और फिर बुर्दल को दाहिर के राज्य पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राजा दाहिर ने सेनापति उबैदुल्लाह व बुड़ैल को हरा कर मौत के घाट उतार दिया। तब हज्जाज ने अपने भतीजे व दामाद मोहम्मद-बिन-कासिम को 712 ई. में सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा। मोहम्मद ने देबल पर आक्रमण कर दिया और उसे जीत लिया। यहाँ रहने वाले सभी वयस्क लोगों की हत्या कर दी गई। वहाँ के मंदिरों को तोड़ दिया गया। इसके बाद उसने आगे बढ़ते हुए सिंध नदी को पार किया। सिंध के अरोड़ में दोनों सेनाओं के बीच 20 जून 712 ई. को भयंकर युद्ध हुआ। दाहिर वीरता पूर्वक लड़ता हुआ मारा गया। उसकी पत्नी ने किले के भीतर से पंद्रह हजार सैनिकों के साथ अरबों पर हमला बोल दिया लेकिन सफल नहीं हूई। अपनी पवित्रता की रक्षा करने के लिए उसने ‘जौहर’ किया। दाहिर के पुत्र जैसिया ने संघर्ष जारी रखा। मोहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर की दोनों पुत्रियों सूर्या देवी व परमल देवी को बंदी बना लिया। उनको कासिम ने उपहार स्वरूप खलीफा के पास भेज दिया। वहाँ पहुँचने पर दोनों ने कूटनीति का प्रयोग कर कासिम को मृत्युदंड दिलवा दिया।

725 ई. में उन्होंने भारत पर पुनः आक्रमण किया लेकिन गुर्जर प्रतिहार शासकों ने उन्हें परास्त कर दिया।

महमूद गजनवी के आक्रमण – ग्यारहवीं शताब्दी में गज़नी में तुर्कों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली । तुर्क मध्य एशिया की एक बर्बर जाति थी जिसने इस्लाम धर्म अपना लिया था। गज़नी में एक तुर्क सरदार अल्पतगीन ने 962 ई. में अपना राज्य स्थापित किया। उनकी राजधानी वैहिंद थी।

986 ई. में विशाल सेना सहित जयपाल ने गज़नी पर आक्रमण कर दिया। लमगान के निकट दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ लेकिन जब युद्ध चल रहा था तो अचानक तूफान आने से जयपाल की सेना को भारी क्षति पहुंची। विवश होकर जयपाल को तुर्कों से संधि करनी पड़ी।

कुछ समय बाद जयपाल को सूचना मिली कि सुबुक्तगीन भारत पर आक्रमण करने वाला है। जयपाल ने विदेशी आक्रमण का सामना करने के लिए कालिंजर, कन्नौज व अजमेर के शासकों से सहायता मांगी। इन सभी शासकों ने तुर्कों के भारत पर आक्रमण को रोकने के लिए अपनी सेनाएँ भेज दी। लमगान नामक स्थान पर पुनः युद्ध हुआ लेकिन इस युद्ध में जयपाल के नेतृत्व करने वाली सेना हार गई।

सुबुक्तगीन की मृत्यु के बाद 997 ई. में उसका पुत्र महमूद गज़नी शासक बना। महमूद एक कट्टर मुसलमान शासक था। उसने इस्लाम का प्रसार करने व भारत की धन संपदा को लूटने के लिए भारत पर 17 आक्रमण किए। वह भारत में इस्लाम का प्रसार करके मुस्लिम जगत में प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने 1000 ई. से 1027 ई. के बीच भारत पर 17 आक्रमण किए।

1001 ई. में उसने जयपाल पर आक्रमण किया। इस युद्ध में जयपाल हार गया। जयपाल की मृत्यु के बाद उसका पुत्र आनंदपाल शासक बना। महमूद गजनवी ने भेरा, मुल्तान, नगरकोट पर भी आक्रमण किए तथा मन्दिर व मूर्तियां तोड़कर एवं बहुत-सा धन लूटकर गज़नी लौटा। महमूद गज़नवी ने हिंदुओं के पवित्र स्थल थानेश्वर पर आक्रमण किया। यहाँ चक्रस्वामी का एक बड़ा प्रसिद्ध मंदिर था। महमूद गजनवी ने मंदिर और मूर्ति को खंड खंड कर दिया।

महमूद गजनवी ने हिंदुओं के एक अन्य पवित्र स्थल मथुरा पर भी आक्रमण किया। यहाँ भी उसने भगवान केशव की मूर्ति को भी अपमानित किया।

महमूद गजनवी ने गुजरात स्थित सोमनाथ के मंदिर पर आक्रमण का निर्णय किया। यहाँ का विशाल मंदिर विश्व प्रसिद्ध था। इस मंदिर में भारी धनराशि, हीरे, जवाहरात थे। मंदिर की आय का स्रोत दस हजार गाँवों का राजस्व था। मंदिर में एक सोने की घंटी लगी थी जिसका वज़न कई मण था। भगवान सोमनाथ की मूर्ति पर बने छत्र पर भी हजारों बहुमूल्य रत्न जड़े थे। उसे हिन्दुओं के भारी प्रतिरोध के कारण सोमनाथ के मंदिर पर अधिकार करने में तीन दिन लगे। महमूद गजनवी द्वारा प्रतिरोध कर रहे अनेकों हिन्दुओं की हत्या कर दी गई। महमूद ने मन्दिर को लूटा तथा भगवान सोमनाथ की मूर्ति को गदा के प्रहार से तोड़ दिया। यहाँ से प्राप्त धन को महमूद ऊँटों पर लादकर गज़नी ले गया। गजनी लौटते समय सिंध के जाटों ने उसका रास्ता रोक लिया। लेकिन वह किसी तरह भारत से धन गज़नी ले जाने में सफल रहा।  1030 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

इन सभी घटनाओं के कारण हिंदुओं के मन में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा हो गई।

मुहम्मद गौरी के आक्रमण – गज़नी राज्य का स्थान गौर के राज्य ने ले लिया था। गौर के शासक मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. से 1206 ई. तक भारत पर आक्रमण किए। गौरी के भारत पर आक्रमणों के समय उत्तर भारत में तीन शक्तिशाली राजवंश गुजरात के चालुक्य (मूलराज द्वितीय एवं भीम द्वितीय), दिल्ली-अजमेर के चौहान (पृथ्वीराज तृतीय) तथा कन्नौज के गहड़वाल (जयचंद राठौर) थे। मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. में मुल्तान पर आक्रमण किया तथा उसे जीत लिया। इसके बाद उसने उच्च के दुर्ग पर कूटनीतिपूर्वक विश्वासघात से अधिकार कर लिया।

मुहम्मद गौरी की भारत में पहली पराजय 1178-79 ई. में गुजरात में हुई। उस समय गुजरात पर चालुक्य वंश के शासक मूलराज द्वितीय का शासन था। मुहम्मद गौरी ने दक्षिण राजपूताना होते हुए अन्हिलवाड़ा (पाटन) पर आक्रमण किया था। मूलराज द्वितीय एवं भीम द्वितीय की माँ नायिका देवी के नेतृत्व में अन्हिलवाड़ा की सेना ने आबू पर्वत के निकट कायाद्रां नामक स्थान पर मुहम्मद गौरी का सामना किया। मोहम्मद गौरी की सेना पूर्ण रूप से पराजित हुई। मुहम्मद गौरी किसी प्रकार से गुजरात से अपनी पराजित सेना सहित भाग निकला। यह मुहम्मद गौरी की भारत में पहली पराजय थी।

भारतीय राजाओं में मूलराज द्वितीय प्रथम शासक था जिसने सर्वप्रथम मुहम्मद गौरी को पराजित करके वापिस लौटाने पर मजबूर कर दिया।

उसने अब पंजाब की ओर से भारत पर आक्रमण की योजना बनाई। पंजाब क्षेत्र पर इस समय गजनी वंश के शासक खुसरो मलिक का शासन था। उसने खुसरो मलिक को 1186 ई. में हरा दिया। पंजाब पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो गया था। अब उसने दिल्ली पर अधिकार करने की योजना बनाई।

दिल्ली पर इस समय चौहान वंश के प्रतापी शासक पृथ्वीराज तृतीय की सत्ता थी। जब 1190 ई. में गौरी ने सरहिंद को जीत लिया तो पृथ्वीराज चौहान ने तराइन के मैदान में 1191 ई. में मोहम्मद गौरी को हरा दिया। 1192 ई. में तराइन का दूसरा युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद गौरी से हार गया।

यहाँ से आगे बढ़ते हुए मोहम्मद गौरी की सेनाओं ने 1193 ई. में मेरठ व अलीगढ़ (कोल) पर अधिकार कर लिया। 1194 ई. में मोहम्मद गौरी ने चंदावर के युद्ध में कन्नौज के शासक को भी हरा दिया।

गौरी के एक सेनानायक बख्तियार खलज़ी ने 1198 ई. में बंगाल की राजधानी नादिया पर आक्रमण किया जहाँ सेन वंश के शासक लक्ष्मण सिंह शासन करते थे। इस आक्रमण के समय बख्तियार खिलजी ने विश्व प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय को भी तहस-नहस कर दिया। यहाँ के भवनों सहित पुस्तकालय को भी आग लगा दी। खलजी ने यहाँ की जनता पर बड़े अत्याचार किए। 1206 ई. में मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद उसके एक दास कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में अपने स्वतंत्र राज्य की नींव रखी। यह राज्य बाद में दिल्ली सल्तनत के नाम से जाना गया।

मंगोलों के आक्रमण – तेरहवीं व चौदहवीं शताब्दियों में मंगोल शासकों ने आक्रमण किए। मंगोल मध्य एशिया की एक खानाबदोश जाति थी। इस जाति ने चंगेजखान के नेतृत्व में मध्य एशिया के बड़े भाग पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। 1241 ई. में मंगोलों ने लाहौर पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में ले लिया।

मंगोलों के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य लूटमार होता था। 1297 ई. में मंगोलों ने कादिर खान के नेतृत्व में आक्रमण किया। इस आक्रमण के दौरान उन्होंने सतलुज और व्यास नदियों तक के क्षेत्र में लूटमार की। इससे उन्हें बहुत धन प्राप्त हुआ। 1299 ई. में मंगोलों ने भारत पर एक बड़ा हमला किया। इस बार उन्होंने दिल्ली तक के प्रदेशों को लूटा। इसके चार वर्ष बाद 1303 ई. में तारगी के नेतृत्व में मंगोलों ने भारत पर पुनः आक्रमण किया तथा पंजाब व दिल्ली के क्षेत्रों में लूटपाट मचाई। भारत पर मंगोलों का अंतिम आक्रमण 1327 ई. में तारमशिरीन खान के नेतृत्व में किया गया।

मंगोलों के लगातार हो रहे आक्रमणों के कारण उत्तर पश्चिम का उपजाऊ क्षेत्र उजड़ गया। पंजाब की अर्थव्यवस्था बिगड़ गई।  उत्तर-पश्चिम का समृद्ध नगर लाहौर तो बर्बाद ही हो गया था।

तैमूर का आक्रमण – 1398 ई. में भारत पर समरकंद के शासक तैमूर ने आक्रमण किया। उस समय दिल्ली का सुल्तान नसीरुद्दीन मुहम्मद था। उसने तैमूर के आक्रमण को रोकने के लिए कुछ नहीं किया। वह स्वयं ही आक्रमण की सूचना मिलते ही दिल्ली छोड़कर भाग गया। तैमूर ने दिल्ली को खूब लूटा। हजारों स्त्रियों, पुरुषों व बच्चों को मौत के घाट उतार दिया। वह दिल्ली से भारी मात्रा में सोना, चाँदी, हीरे-जवाहरात लूटकर ले गया। बहुत से युद्धबंदी स्त्री, पुरुष व बच्चों को दास बनाकर मुस्लिमों को बेच दिया गया। पंजाब पर उसके प्रतिनिधि ने कई वर्षों तक शासन किया।

बाबर के आक्रमण – सोलहवीं शताब्दी में भारत पर आक्रमण करने वाला व्यक्ति ज़हिरूद्दीन मोहम्मद बाबर था। वह तैमूर का वंशज था। उसका पिता मध्य एशिया में स्थित फरगना का शासक था। पिता की मृत्यु के बाद वह अल्पायु में 1494 ई. में शासक बना लेकिन मध्य एशिया में उजबेगों की शक्ति के आगे उसकी एक न चली और अंत में वह 1504 ई. में काबुल का शासक बन बैठा। काबुल से वह भारत पर हमले की योजना बनाने लगा।

1519 ई. में उसने भारत के सीमावर्ती किले बाजौर पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इसके बाद उसने अपने दूसरे आक्रमण के दौरान पेशावर को जीत लिया। इसके बाद 1520 ई. में बाबर ने पंजाब के स्यालकोट पर आक्रमण किया लेकिन वह इससे आगे नहीं बढ़ सका। इसके बाद बाबर ने अपना चौथा हमला पंजाब पर किया। उसने पंजाब को जीत लिया।

बाबर का सबसे महत्त्वपूर्ण हमला दिल्ली की सल्तनत पर था । यहाँ का सुल्तान उस समय इब्राहिम लोदी था। वह एक अप्रिय शासक था। बाबर ने उसे 1526 ई. में पानीपत की प्रथम लड़ाई में हराकर मार दिया तथा दिल्ली की सल्तनत को समाप्त कर दिया। उसने मुगल राजवंश की नींव स्थापित कर दी। 1527 ई. में उसने राणा सांगा पर आक्रमण कर दिया। बाबर ने जेहाद का सहारा लेकर युद्ध जीत लिया।

बाबर को मुँह तोड़ जवाब देने के लिए अब राजपूत मेदिनीराय के आसपास एकत्र होने लगे। 1528 ई. में बाबर ने मेदिनीराय पर हमला कर दिया। दोनों सेनाओं के बीच चंदेरी में जनवरी 1528 ई. में भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन राजपूतों ने अपने प्राणों की बलि देने से पूर्व मुगल सेना से भयंकर प्रतिशोध लिया। अगले वर्ष 1529 ई. में बाबर ने घाघरा के युद्ध में अफगानों को हराकर बिहार पर भी अपनी सत्ता स्थापित कर ली।

नादिरशाह का आक्रमण – 1739 ई. में ईरान के शासक नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया। इस समय दिल्ली में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह का शासन था। वह अपना अधिकतर समय भोग-विलास और आमोद-प्रमोद में व्यतीत करता था। लोग उसे मुहम्मद शाह रंगीला कहते थे। वह नादिरशाह के आक्रमण से दिल्ली की रक्षा करने में असमर्थ रहा। उसकी सेना को नादिरशाह ने 24 फरवरी 1739 ई. में करनाल के युद्ध में हरा दिया। नादिरशाह लगभग दो मास दिल्ली में रहा और जब वह ईरान लौटा तो तीस करोड़ रुपये नकद, सोना, चाँदी, हीरे जवाहरात के अतिरिक्त दस हाथी, सात सौ घोड़े, दस हजार ऊँट, एक सौ तीस लेखपाल, दो सौ लोहार, तीन सौ राजमिस्त्री, सौ संगतराश (संगतराश : पत्थर गढ़ने वाला) और दो सौ बढ़ई अपने साथ ले गया। जाने से पहले वह मुगल बादशाह मुहम्मद शाह को पुन: भारत का सम्राट घोषित कर गया।

नादिरशाह भारत से प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा व मयूर सिंहासन लेकर ईरान वापस लौट गया। मयूर सिंहासन स्वर्ण व नवरत्न जड़ित मुगल बादशाहों का सिंहासन था जिसकी कीमत उस समय भी करोड़ो में थी । मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने दिल्ली लुट जाने के डर से उसे पंजाब का पूरा प्रांत दे दिया।

अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण – 1756 ई. में अब्दाली ने भारत पर आक्रमण कर दिया। उसने दिल्ली में लूट मचाई अब्दाली को रोकने के लिए भारत में मराठों की शक्ति उभर रही थी। मराठों ने अब्दाली के विश्वस्त लोगों को पंजाब से हटा दिया तथा अपने एक विश्वसनीय व्यक्ति अदीना बेग को पंजाब का गवर्नर बना दिया। अब्दाली को इससे बड़ा क्रोध आया। उसने पुनः भारत पर हमला कर दिया। मराठों ने उसका सामना किया।

दोनों सेनाओं के बीच 14 जनवरी 1761 ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई। इस युद्ध में मराठों की हार हुई। वह दिल्ली से वापिस जाते समय शाह आलम को मुगल बादशाह घोषित कर गया। इसके बाद 1767 ई. में उसने पुन: दिल्ली पर आक्रमण किया। अब्दाली ने भारत से बड़ा धन प्राप्त किया।

विदेशी आक्रमणों की प्रकृति – सातवीं सदी से अठारहवीं सदी के बीच हुए इन सभी विदेशी आक्रमणों की प्रमुख विशेषताएं निम्न थी :

  • ये सभी इस्लामी आक्रमण थे मंगोल आक्रमणों को छोड़कर।
  • अधिकतर आक्रमणकारियों ने साम्प्रदायिक उत्साह अथवा जेहाद का सहारा लिया।
  • लूटपाट और हत्याएं हुई।
  • इस्लाम का प्रसार इन आक्रमणों का मुख्य (जबरन धर्मांतरण) उद्देश्य था।
  • सभी आक्रमणकारियों को वीरता, साहस एवं शौर्य से ओतप्रोत भारतीय जनता के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।
  • आक्रमणकारी अनैतिक युद्धनीति का प्रयोग कर ही विजय प्राप्त करने में सफल हुए।
  • भारतीय हिन्दू शासकों ने युद्ध के समय भी अधिकतर उच्चतम नैतिक आदर्शों का पालन किया।
  • आक्रमणकारियों ने भारतीय ज्ञान परम्परा, संस्कृति के वाहक बड़े-बड़े प्रतिष्ठानों, सांस्कृतिक केन्द्रों एवं मंदिरों का विध्वंस किया।
  • तुर्कों-अरबों की सेना में अच्छी नस्ल के अरबी-तुर्की घोड़े थे।
  • भारतीय हिंदू शासकों की सेना में हाथियों की अधिकता से आक्रमण में तीव्रता कम होती थी।

भारतीय शासकों की भूलें —

  1. दाहिर ने मोहम्मद-बिन-कासिम की सेना पर तब आक्रमण नहीं किया जब वह अपनी सेना की थकान उतार रहा था तथा अपने बीमार घोड़ों का ईलाज कर रहा था।
  2. पृथ्वीराज तृतीय ने गौरी को तराईन के प्रथम युद्ध में हराने बाद वापिस जाने दिया।
  3. आनंदपाल ने महमूद पर तब आक्रमण नहीं किया जब वह ईलाक खान के साथ जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा था।
  4. इब्राहिम लोदी ने थकी हुई बाबर की मुगल सेना को सात दिन तक आराम करने तथा इस बीच खाइंया खोद लेने का समय दे दिया।
  5. उच्चतम गुप्तचर व्यवस्था (चाणक्य कालीन) अच्छी नहीं थी।
  6. भारतीय सेना में प्रशिक्षित तीरंदाजी की टुकड़ी नहीं थी जबकि तुर्कों की सेना में प्रशिक्षित तीरंदाजी की टुकड़िया थी।

विदेशी आक्रमणों के भारत पर पड़े प्रभाव –

भारत में विदेशी आक्रमणों के प्रभाव को दो भागों में बांटा जा सकता है –

  1. तत्कालीन प्रभाव
  2. दूरगामी प्रभाव

तत्कालीन प्रभाव – अरब व तुर्कों के आक्रमणों के निम्नलिखित तत्कालीन प्रभाव पड़े।

  1. इस्लाम का प्रसार – अरबों व तुर्कों में नया धार्मिक जोश था और उन्होंने इस्लाम को फैलाने के लिए ही भारत पर आक्रमण किया था।
  2. जन-धन की हानि – गज़नवी ने भारत पर 1000 ई. से 1025 ई. में अनेक बार आक्रमण किए। नगरकोट, कन्नौज, मथुरा और सोमनाथ से वह अपार सम्पदा ले जाने में सफल रहा। बहुत सारे लोगों को उसने मौत के घाट उतार दिया।
  3. कमज़ोर युद्ध नीति – तुर्क आक्रमण के समय भारतीयों की कमजोर युद्धनीति उजागर हुई। भारतीय शासक सेना में अधिकांश हाथियों का प्रयोग करते थे जबकि तुर्कों के पास अश्व सेना अधिक थी। भारतीयों का सैन्य संगठन कमजोर था।
  4. कला एवं साहित्य को आघात – गजनवी ने आक्रमणों में थानेश्वर, नगरकोट, मथुरा, कन्नौज, सोमनाथ में इमारतों, धर्मस्थलों और मन्दिरों को तोड़ा। वह अनेक उच्चकोटि के कलाकारों और शिल्पकारों को अपने साथ गज़नी ले गया और उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
  5. भारत में तुर्क सता की स्थापना – तुर्क आक्रमणों से भारत में तुर्क सता की स्थापना हुई। तराईन के दूसरे युद्ध के बाद तो उसने दिल्ली, कन्नौज, अजमेर, मथुरा और गुजरात पर अधिकार कर लिया।

दूरगामी प्रभाव – महमूद गजनवी और गौरी के सफलतापूर्वक अभियान में भारतीय समाज के जीवन के सभी क्षेत्रों में नए तत्वों को पैदा किया। इन नए तत्वों के दूरगामी प्रभाव समाज पर स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।

  1. भारत में इस्लामी राज्य की स्थापना –  तुर्क शासन की स्थापना के बाद अब सुल्तान सत्ता का सर्वेसर्वा बन गया। दिल्ली के सुल्तान की शक्ति पहले के भारतीय राजाओं से भिन्न और अधिक थी। सुल्तानों के अधीन जिन राज्य अथवा सल्तनत की स्थपना हुई उसकी प्रकृति इस्लामी राज्य की थी जिसमें उलेमाओं का प्रभाव था।
  2. सामन्ती प्रथा का पतन – तुर्कों के आक्रमण के बाद राजपूत कालीन सामन्ती व्यवस्था का पतन हो गया। सारा अधिकार सुल्तान के हाथ में केन्द्रित था। इससे इस काल में राजनीतिक और आर्थिक एकीकरण हुआ।
  3. इस्लामी स्थापत्य का विकास – तुर्क आक्रमण के प्रभाव से भारतीय स्थापत्य कला को नुकसान हुआ। ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ नामक मस्जिद का निर्माण इसी कला से हुआ। इस नई स्थापत्य कला में चूना मिश्रित नए मसालों का प्रयोग भवनों के निर्माण में हुआ।
  4. शिक्षा और भाषा पर प्रभाव – तुर्कों के आगमन से भारतीय शिक्षा केन्द्रों का ह्रास हुआ तथा शिक्षा के क्षेत्र में एक अलग प्रणाली की शुरुआत हुई जिसे मदरसा प्रणाली कहते हैं। यह शिक्षा मस्जिदों में दी जाती थी। इस्लाम में शिक्षक विद्यार्थी के घर जाकर भी शिक्षा प्रदान कर सकता था।

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