भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन Class 9 इतिहास Chapter 5 Notes – हमारा भारत IV HBSE Solution

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भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन Class 9 इतिहास Chapter 5 Notes


भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय आह्वानों, उत्तेजनाओं एवं प्रयत्नों से प्रेरित, विभिन्न राजनैतिक संगठनों द्वारा संचालित अहिंसावादी और सशस्त्र क्रान्तिकारी आंदोलन था, जिनका उद्देश्य, अंग्रेजी शासन को भारतीय उपमहाद्वीप से जड़ से उखाड़ फेंकना था। इस आंदोलन का आरम्भ 1857 ई. में हुई क्रांति से माना जाता है। भारत की स्वतंत्रता के लिए 1857 ई. से 1947 ई. के मध्य जितने भी प्रयत्न हुए उनमें स्वतंत्रता को संजोए क्रांतिकारियों और शहीदों की उपस्थिति सबसे अधिक प्रेरणादायी सिद्ध हुई। उन्होंने देश के नौजवानों के अंदर देश प्रेम जागृत किया, उन्हें देश की आजादी के लिए मरना सिखाया और इस तरह वे देश की आजादी की लड़ाई को शक्तिशाली बनाने में सफल हुए।

सन् 1919 ई. से 1947 ई. तक के क्रांतिकारी आंदोलन में राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाकुल्लाह खान, सचिन्द्रनाथ सान्याल, राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह, बटुकेश्वरदत्त, यशपाल, जतिनदास, भगवतीचरण वोहरा, दुर्गा भाभी, सूर्य सेन, उधम सिंह इत्यादि ने मुख्य भूमिका निभाई। इन क्रांतिकारियों ने विभिन्न संगठन स्थापित करके निम्नलिखित उद्देश्यों को सामने रखा :

  1. अखिल भारतीय स्तर पर क्रांति संगठन खड़ा करना।
  2. क्रांति संगठन को पंथनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान करना।
  3. समतावादी समाज की स्थापना करना।
  4. क्रांतिकारी आंदोलन को जन आंदोलन का स्वरूप प्रदान करना।
  5. महिला वर्ग को क्रांति संगठन में प्रमुख स्थान प्रदान करना।
  6. भारत को स्वतंत्र करवाना।

जलियाँवाला बाग नरसंहार – 1919 ई. में ‘रौलट अधिनियम’ के विरुद्ध पंजाब में सबसे अधिक रोष था। इस अधिनियम के अनुसार भारतीयों से वकील, अपील व दलील का अधिकार छीन लिया गया। इसलिए इस अधिनियम के विरोध में दिल्ली व पंजाब में कई स्थानों पर हड़तालें हुई। इसी कड़ी में बैशाखी के दिन 13 अप्रैल, 1919 ई. को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक विशाल जनसभा हुई, जिसमें बीस हजार के आसपास लोग एकत्रित हुए थे। जनरल डायर द्वारा की गई गोलाबारी से एक हजार से भी अधिक लोग मारे गए और तीन हजार से ज्यादा घायल हुए। निर्दोष लोगों का, जिनमें बच्चे व महिलाएँ भी शामिल थीं, जनसंहार किया गया, जो अमानवीय अत्याचारों का उदाहरण है। उधम सिंह व भगत सिंह, जो कि उस समय बालक ही थे, इस घटना ने उनको भी झकझोर दिया था।

असहयोग आंदोलन के स्थगन से युवाओं में निराशा – जलियाँवाला बाग से उत्पन्न आक्रोश के फलस्वरूप महात्मा गांधी ने 1920 ई. में ‘असहयोग आंदोलन’ आरम्भ किया। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों को किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं करना था। सरकारी कार्यालयों, विद्यालयों का त्याग किया गया, विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई। परंतु 1922 ई. की ‘चौरी-चौरा’ घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन स्थगित करने का निर्णय लिया, जिससे उत्साही युवाओं की आशाओं पर पानी फिर गया। जन आंदोलन की आंधी में उत्साहित होकर जिन युवाओं ने पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी थी, वे अब अनुभव कर रहे थे कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है। उनमें से अधिकतर ने राष्ट्रीय नेतृत्व की रणनीति पर प्रश्नचिह्न लगाना आरम्भ कर दिया। अहिंसक आंदोलन की विचारधारा से उनका विश्वास उठने लगा। इनमें से अधिकतर ने अब मान लिया कि केवल हिंसात्मक तरीकों से ही स्वतंत्रता प्राप्त की जा सकती है। उन्हें केवल अब नेतृत्व व मार्गदर्शन की आवश्यकता थी। आंदोलन स्थगित करने के कारण कांग्रेस की साख तेजी से गिरी। सन् 1921 ई. में जहां इनकी सदस्य संख्या लगभग एक करोड़ थी वहीं 1923 ई. तक आते-आते घटकर कुछ लाख ही रह गई। भगत सिंह जैसे असंख्य युवक महात्मा गांधी के एक वर्ष में स्वराज दिलाने का वचन पूरा न होने तथा असहयोग आंदोलन के स्थगन से हताश होकर पूरी तरह क्रांतिकारी आंदोलन की राह पर निकल पड़े।

हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ तथा काकोरी की घटना –

सबसे पहले उत्तर भारत के क्रांतिकारियों ने संगठित होना आरम्भ कर दिया। इनके नेता राम प्रसाद बिस्मिल, योगेश चंद्र चटर्जी, शचींद्रनाथ सान्याल व सुरेश चंद्र भट्टाचार्य थे। अक्टूबर 1924 ई. में इन क्रांतिकारियों का कानपुर में एक सम्मेलन हुआ जिसमें हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ का गठन किया गया। इसका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति के माध्यम से औपनिवेशिक सत्ता को उखाड़ फेंकना और एक संघीय गणतंत्र ‘संयुक्त राज्य भारत’ की स्थापना करना था। संघर्ष छेड़ने, प्रचार करने, युवाओं को अपने दल में मिलाने, प्रशिक्षित करने और हथियार जुटाने के लिए उन्हें धन की आवश्यकता थी। इस उद्देश्य के लिए इस संगठन के 10 व्यक्तियों ने पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में शाहजहाँपुर में एक बैठक की और अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई। 9 अगस्त, 1925 ई. को लखनऊ जिले के गांव काकोरी के रेलवे स्टेशन से छूटी 8-डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन को चेन खींच कर रोक लिया व अंग्रेजी सरकार का खजाना लूट लिया। सरकार इस घटना से बहुत कुपित हुई व भारी संख्या में युवकों को गिरफ्तार किया गया। उन पर मुकद्दमा चलाया गया। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, राजेंद्र लाहड़ी व अशफाकुल्लाह खाँ को फाँसी की सजा दी गई। चार को आजीवन कारावास देकर अंडमान भेज दिया। 17 अन्य लोगों को लंबी सजाएं सुनाई गई। चंद्रशेखर आजाद अंत समय तक पकड़े नहीं जा सके।

भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की शहादत –

काकोरी केस के पश्चात् उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को फिर से संगठित करने का बीड़ा चंद्रशेखर आजाद ने उठाया। भगवती चरण वोहरा, भगत सिंह, यशपाल, सुखदेव एवं जयचंद्र विद्यालंकार ने पहले से ही “पंजाब नौजवान भारत सभा” के संगठन के अंतर्गत पंजाब में एक सशक्त क्रांतिकारी आंदोलन की नींव रखी थी। कानपुर के विजय कुमार सिन्हा, बटुकेश्वर दत्त और अजय कुमार घोष, झांसी के भगवान दास, शिव वर्मा, सदाशिवराव, संयुक्त प्रांत एवं बिहार से जय गोपाल, कुंदनलाल, कमल नाथ तिवारी, महावीर सिंह, राजगुरु ने भी क्रांतिकारी गतिविधियाँ चालू रखी थी। इन सबने चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में काम करना स्वीकार कर लिया। क्रांतिकारी गतिविधियाँ अब भारत में तेज होने लगी थी।

1. हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ – 8-9 सितंबर, 1928 ई. को फिरोजशाह कोटला मैदान दिल्ली में क्रांतिकारियों की सभा हुई। यद्यपि चंद्रशेखर आजाद इसमें भाग नहीं ले सके पर उन्होंने संदेश भिजवाया कि जो कुछ सर्वसम्मति से पारित होगा, उसे वह स्वीकार करेंगे। इस बैठक में इस बात पर एक लंबी बहस हुई कि संगठन का नाम बदला जाए या नहीं क्योंकि कुछ क्रांतिकारी समाजवाद के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थे और इस क्रांतिकारी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य राजनीतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के साथ ही सामाजिक-आर्थिक ढांचे में भी पूर्णत: परिवर्तन करना था। इसके परिणामस्वरूप इस संगठन का नाम “हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ” कर दिया गया। चंद्रशेखर आजाद को इस दल का अध्यक्ष चुना गया।

2. लाला लाजपतराय की शहीदी तथा सांडर्स की हत्या – 30 अक्टूबर, 1928 ई. को लाहौर में साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन के समय लाला लाजपतराय पर बर्बर लाठीचार्ज से उनकी मौत ने युवा क्रांतिकारियों को एक बार फिर क्रांति की राह पकड़ने को विवश कर दिया। अतः तय हुआ कि लालाजी की हत्या के जिम्मेदार पुलिस अफसर को मार दिया जाए। हत्या के लिए चार व्यक्ति नियुक्त हुए जिनमें चंद्रशेखर आजाद, राजगुरु, भगत सिंह एवं जय गोपाल शामिल थे। 17 दिसंबर, 1928 ई. की शाम को लगभग 4:00 बजे ये लोग लाहौर पुलिस स्टेशन पहुँच गए, जैसे ही सांडर्स पंजाब सिविल सचिवालय से बाहर निकला, राजगुरु ने सांडर्स पर गोली चला दी, वह नीचे गिर गया। अब भगत सिंह आगे बढ़े तथा कई गोलियां सांडर्स पर चलाई। इसके बाद उन्होंने भाग निकलने की कोशिश की, इस पर हेड कांस्टेबल चानन सिंह ने उनका पीछा किया। चंद्रशेखर आजाद ने न चाहते हुए भी उसको गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया।  अंग्रेजी पुलिस चौकन्नी हो गई। भगत सिंह को लाहौर से कलकत्ता पहुंचाने में दुर्गा भाभी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। दुर्गावती वोहरा भगवती चरण वोहरा की पत्नी थी इसलिए सभी क्रांतिकारी उन्हें ‘दुर्गा भाभी’ कह कर बुलाते थे।

3. असेंबली में बम फेंकने की घटना – कलकत्ता में दुर्गा भाभी के साथ पहुँचे भगत सिंह की भेंट जतिन्द्रनाथ दास से हुई जिससे उन्होंने बम बनाने की विधि सीखी। कलकत्ता से वापस आकर भगत सिंह व उनके साथियों द्वारा आगरा व दिल्ली में बम बनाने की फैक्ट्रियाँ स्थापित की गई। शिव वर्मा ने सहारनपुर व सुखदेव ने लाहौर में बम फैक्ट्रियाँ स्थापित की। क्रांतिकारियों का अगला मुख्य कार्य केंन्द्रीय विधान परिषद हाल में बम गिराना था, 8 अप्रैल, 1929 ई. को जब ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ एवं ‘ औद्योगिक विवाद बिल’ पर बहस हो रही थी तो दर्शक गैलरी से भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने दो बम गिरा दिए। पूरे हाल में धुआं भर गया और भगदड़ मच गई। बम खाली जगह पर गिराए गए ताकि किसी को कोई नुकसान न पंहुचे। दोनों ने भागने का कोई प्रयास नहीं किया। दोनों वहीं खड़े रहे और पर्चे फेंकते रहे, उनमें लिखा था, ‘बहरों के कानों तक अपनी आवाज पहुँचाने के लिए ऊंचा धमाका करना पड़ता है।’ ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारे लगाए गए। उन्होंने खुद अपनी गिरफ्तारियां दी।

4. भगत सिंह पर मुकद्दमा – भगत सिंह को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया था। दिल्ली सेशन कोर्ट में इनका मुकद्दमा 7 मई, 1929 ई. को आरम्भ हुआ। कोर्ट में इन्होंने संयुक्त बयान दिया, जिसमें उन्होंने क्रांति के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला। इस घटना के बाद लार्ड इर्विन ने असेम्बली के दोनों सदनों के सामूहिक अधिवेशन में कहा कि “यह विद्रोह किसी व्यक्ति विशेष के खिलाफ नहीं, बल्कि सम्पूर्ण शासन व्यवस्था के विरुद्ध था।”

अदालत में भगत सिंह व उसके साथी क्रांतिकारियों के निर्भीक बयानों एवं विद्रोही रुख ने संपूर्ण देश का ध्यान आकर्षित किया। युवा क्रांतिकारी जो बयान देते थे, अगले दिन वह अखबारों में छपते थे। वे ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ के नारे लगाते, ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ तथा ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाने गुनगुनाते हुए अदालत में निडर एवं साहस से जाते थे। भगत सिंह का नाम देश के घर-घर में हर व्यक्ति की जुबान पर क्रांति का पर्याय बन चुका था। कांग्रेस की नीति में भी इन क्रांतिकारियों की गतिविधियों का प्रभाव तब देखने को मिला जब कांग्रेस ने अपने लाहौर वार्षिक अधिवेशन में दिसंबर 1929 ई. में ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग को अपना लक्ष्य घोषित किया तथा 26 जनवरी, 1930 ई. को आधी रात रावी नदी के तट पर तिरंगा फहराया। यह सब क्रांतिकारियों के बढ़ते प्रभाव का ही परिणाम था।

5. लाहौर की जेल में भूख हड़ताल – जज ने 12 जून, 1929 ई. को भगत सिंह को आजीवन कारावास की सजा सुना दी। इसी बीच पुलिस को क्रांतिकारियों द्वारा स्थापित बम फैक्ट्रियों का सुराग मिल गया। अतः पुलिस ने दिल्ली, सहारनपुर एवं लाहौर की बम फैक्ट्रियों पर धावा बोल दिया। अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए। जय गोपाल के सरकारी गवाह बनने से सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह की संलिप्तता का केस आरम्भ हुआ। इसे ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ कहते हैं। इसके बाद उन्हें लाहौर की अदालत में पेश करके उनके विरुद्ध मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे के दौरान इन क्रांतिकारियों ने कोर्ट को क्रांतिकारी दल की नीतियों, उद्देश्यों तथा कार्यक्रम के बारे में बताया। समाचार पत्रों के माध्यम से ये सब खबरें लोगों तक पहुंचने लगी। उन्होंने लगातार बयान देने शुरू किए, जिससे जनता में उनकी लोकप्रियता बढ़ी। जो अब तक क्रांतिकारियों की निंदा करते थे, अब वे प्रशंसा करने लगे।

इन क्रांतिकारियों ने जेल में मांग की, कि इन्हें साधारण कैदी न मानकर राजनैतिक कैदी माना जाए और वे सभी सुविधाएं दी जाएं जो राजनैतिक कैदियों को दी जाती हैं। इसके लिए उन्होंने जेल में अनशन शुरू कर दिया। तिरसठवें दिन यतिन दास शहीद हो गए। उनके पार्थिव शरीर को जब एक विशेष गाड़ी से लाहौर से कलकत्ता ले जाया गया तो रास्ते में कोई भी ऐसा स्टेशन नहीं था जहां शहीद को श्रद्धांजलि न दी गई हो। पूरा देश इनकी शहादत को प्रणाम कर रहा था। जेल में भगत सिंह व उनके साथियों ने सौ से भी अधिक दिनों तक अनशन किया।

लाहौर केस का निर्णय – 10 जुलाई, 1929 ई. को सांडर्स हत्याकांड का मुकद्दमा आरम्भ हुआ। चौबीस क्रांतिकारियों पर अभियोग चलाया गया। छः फरार थे, तीन को छोड़ दिया गया था, सात सरकारी गवाह बन गए, शेष आठ पर मुकद्दमा चला। यह मुकद्दमा मैजिस्ट्रेट के पास से हटाकर तीन जजों के एक ट्रिब्यूनल के सामने गया। भगत सिंह व उनके साथियों ने मुकद्दमे को गंभीरता से नहीं लिया। चंद्रशेखर आजाद व अन्य क्रांतिकारियों ने उन्हें छुड़वाने की योजना बनाई परन्तु सफल नहीं हुए। 7 अक्टूबर, 1930 ई. को स्पेशल ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह व उनके साथियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 121, 302, 46, 6 एफ, 120 (बी) के तहत मृत्युदंड की सजा सुना दी। फाँसी की सजा रोकने के लिए पूरे देश में प्रदर्शन होने लगे। मदनमोहन मालवीय ने मानवता के आधार पर इन्हें छोड़ने की अपील की। 5 मार्च, 1931 ई. को ‘गांधी-इर्विन समझौता’ हुआ। महात्मा गांधी की आलोचना हुई कि उन्होंने भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी से नहीं बचाया। अंत में फाँसी की तारीख निश्चित हुई। 23 मार्च, 1931 ई. को शाम 7:00 बजे इन तीनों को फाँसी दे दी गई। जनता के विरोध के डर से सतलुज नदी के किनारे चोरी-छिपे इनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया। इस दिन को हम ‘शहीदी दिवस’ के रूप में मनाते हैं, जो हमें इनके साहस व बलिदानों की याद दिलाता है। भगत सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि ‘भगत सिंह जिंदाबाद व इंकलाब जिंदाबाद का एक ही अर्थ है।’

चटगाँव शस्त्रागार की घटना –

बंगाल के क्रांतिकारी ‘युगान्तर’ एवं ‘अनुशीलन समिति’ जैसे क्रांतिकारी संगठनों के अन्तर्गत सक्रिय थे, 1924 ई. में गोपीनाथ साहा ने पुलिस कमिश्नर टेगार्ट की हत्या का असफल प्रयास किया। उसके बाद बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों में शिथिलता आ गई। 1930 ई. के प्रारंभ में सूर्यसेन ने पुनः क्रांतिकारी आंदोलन को सक्रिय किया। भारतीय क्रांतिकारी सूर्यसेन ने चटगाँव (बंगाल प्रेसीडेंसी, अब बांग्लादेश में) में पुलिस व सहायक बलों के शस्त्रागार पर छापा मार कर लूटने की योजना बनाई। 18 अप्रैल, 1930 ई. को रात 10 बजे योजना क्रियान्वित की गई। गणेश घोष की अगुवाई में क्रांतिकारियों के एक समूह ने पुलिस शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया। भारतीय रिपब्लिकन सेना, चटगाँव शाखा के नाम पर किए गए इस हमले में करीब 65 लोगों ने हिस्सा लिया था। इसके पीछे सूर्यसेन का मुख्य उद्देश्य मुख्य शस्त्रागार लूटने, टेलीग्राफ एवं टेलिफोन कार्यालय को नष्ट करने और यूरोपीय क्लब के सदस्यों, जिसमें से अधिकांश सरकारी या सैन्य अधिकारी थे, उन्हें बंधक बनाने की योजना थी। क्रांतिकारी गोला बारूद का पता लगाने में असफल रहे। परन्तु उसी रात उन्होंने पुलिस शस्त्रागार पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। एक अस्थायी क्रांतिकारी सरकार की घोषणा की और जल्दी ही चटगाँव छोड़ दिया। बाद में 16 फरवरी, 1933 ई. को सूर्यसेन को गिरफ्तार कर लिया गया और 12 जनवरी, 1934 ई. को उन्हें फांसी दे दी गई।

चन्द्रशेखर आजाद एवं उधम सिंह की शहीदी –

भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद चंद्रशेखर आजाद ने क्रान्तिकारी गतिविधियाँ जारी रखीं। फरवरी 1931 ई. में एक आदमी ने पुलिस को उनके बारे में सूचना दे दी। इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस ने उन्हें घेर लिया। वहाँ पुलिस के साथ उनकी मुठभेड़ हुई। चंद्रशेखर आजाद, आजाद ही रहना चाहते थे। वे अंग्रेजों के हाथ नहीं आना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आखिरी गोली खुद को मार ली और वीरगति को प्राप्त हुए। वे हमेशा कहते थे “दुश्मनों की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे।” उनकी मृत्यु के बाद क्रांतिकारी आंदोलन कमजोर पड़ने लगे। 1932 ई. के अंत तक उत्तर भारत व 1934 ई. के अंत तक बंगाल में भी क्रांतिकारी आंदोलन में शिथिलता आ गई। लेकिन एक क्रांतिकारी 21 वर्षों से अपने दिल में क्रांति की ज्वाला दबाए बैठा था, वो था उधम सिंह। उधम सिंह जलियांवाला बाग नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शी थे। उन्होंने इस नरसंहार का बदला लेने की शपथ ली तथा 1934 ई. में लंदन पहुंच गए। 13 मार्च, 1940 ई. को लंदन के कैक्सटन हॉल में आयोजित एक समारोह में माइकल ओ ड्वायर मुख्य वक्ता के रूप में उपस्थित थे। उधमसिंह ने गोली मारकर उसकी हत्या कर दी। इसके बाद उन पर मुकद्दमा चला तथा 31 जुलाई, 1940 ई. को उन्हें पैंटनविले जेल में फांसी दे दी गई। शहीद उधम सिंह की अस्थियां 1974 ई. में भारत लाई गई।

नौसेना का आंदोलन

प्रथम विश्व युद्ध के समय गदर पार्टी व अन्य क्रांतिकारियों ने तुर्की व जर्मनी की सहायता ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध लेनी चाही थी परन्तु वे सफल नहीं हुए। द्वितीय विश्व युद्ध (1939 ई.-1945 ई.) में इसी प्रकार के प्रयास, नेता सुभाष चंद्र बोस ने किए। सुभाष चंद्र बोस एवं आजाद हिंद फौज के विलक्षण कार्यों का भारतीय जनता पर अत्यंत गहरा प्रभाव पड़ा। ब्रिटिश सरकार ने ‘आजाद हिंद फौज’ के कुछ अफसरों के विरुद्ध ब्रिटिश शासन की वफादारी की शपथ तोड़ने और विश्वासघात करने के आरोप में मुकद्दमा चलाने की घोषणा की तो राष्ट्रवादी विरोध की लहर सारे देश में फैल गई। सारे देश में विशाल प्रदर्शन हुए।

‘आजाद हिंद फौज’ के आंदोलन का प्रभाव राष्ट्रीय आंदोलन पर तथा सेना पर भी पड़ा। सन् 1946 ई. में सेना में अशांति फैलने लगी थी। शाही नौसेना में आंदोलन की घटना इसका जीता जागता उदाहरण है जिसने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला कर रख दी। इस आंदोलन की स्वतः स्फूर्त शुरुआत 18 फरवरी, 1946 ई. को नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत ‘आई. एन. एस. तलवार’ से हुई। नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्ली अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया। वे सीधे तौर पर भारतीय सैनिकों के साथ अपमानजनक व्यवहार करते थे। ब्रिटिश अधिकारियों का जवाब था “भिखारियों को चुनने की छूट नहीं हो सकती।” नाविकों ने भूख हड़ताल कर दी। हड़ताल अगले दिन कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बन्दरगाह के 22 जहाजों तक फैल गई । यद्यपि यह बम्बई में आरम्भ हुआ परन्तु कराची से लेकर कलकत्ता तक पूरे ब्रिटिश भारत में इसे भरपूर समर्थन मिला। क्रांतिकारी नाविकों ने जहाज पर से यूनियन जैक के झण्डों को हटाकर वहां पर तिरंगा फहरा दिया। कुल मिलाकर 78 जलयानों, 20 स्थलीय ठिकानों एवं 20,000 नाविकों ने इसमें भाग लिया। जनवरी 1946 ई. में वायुसैनिकों ने भी बम्बई में हड़ताल शुरू कर दी। उनकी मांगें थी कि हवाई सेना में अंग्रेजों और भारतीयों में भेदभाव दूर किया जाए। इनके नारे थे ‘जय हिंद’, ‘इंकलाब जिंदाबाद’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’, ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो।’

वास्तव में अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय आजाद हिंद फौज के संघर्ष तथा नौसेना के आंदोलन के पश्चात सेना में उत्पन्न हुए आक्रोश के कारण ही लिया।

महत्वपूर्ण तिथियां :-

1. हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ का कानपुर में गठन – 1924 ई.

2. काकोरी की घटना – 9 अगस्त, 1925 ई.

3. सांडर्स की हत्या – 17 दिसम्बर, 1928 ई.

4. केंद्रीय असेम्बली में धमाका – 8 अप्रैल, 1929 ई.

5. चटगाँव शस्त्रागार पर हमला – 18 अप्रैल, 1930 ई.

6. चन्द्रशेखर आजाद की शहीदी – 27 फरवरी, 1931 ई.

7. सूर्यसेन की गिरफ्तारी – 16 फरवरी, 1933 ई.

8. क्रांतिकारी सूर्यसेन की शहीदी – 12 जनवरी, 1934 ई.

9. उधम सिंह की शहीदी – 31 जुलाई, 1940 ई.

10. नौसेना का सशस्त्र आंदोलन – 1946 ई.

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