यूरोपियन घुसपैठ तथा उनकी विस्तारवादी नीतियाँ Class 8 इतिहास Chapter 7 Notes – हमारा भारत III HBSE Solution

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HBSE Class 8 इतिहास / History in hindi यूरोपियन घुसपैठ तथा उनकी विस्तारवादी नीतियाँ / Europian Ghuspaith tatha unki vistarvadi nitiyan of chapter 7 notes in Hamara Bharat III Solution.

यूरोपियन घुसपैठ तथा उनकी विस्तारवादी नीतियाँ Class 8 इतिहास Chapter 7 Notes


यूरोपीय देशों में भारतीय सामान की आपूर्ति मुख्यत: लाल सागर और भूमध्य सागर के मार्ग से की जाती थी। थोड़ा बहुत व्यापार स्थल मार्ग से भी होता था जो अफगानिस्तान तथा ईरान से होकर गुजरता था। इस समय तक भारतीय व्यापार पर अरब व्यापारियों का ही एकाधिकार था। पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य में तुर्कों द्वारा पश्चिमी एशिया और पूर्वी यूरोप तथा मिस्र पर अधिकार कर लिया गया तथा इस मार्ग से होने वाले व्यापार में बाधाएं उत्पन्न करनी शुरू कर दी। इस प्रकार काफी समय से प्रचलित यह व्यापार मार्ग अवरुद्ध हो गया। यूरोपीय बाजारों में भारतीय सामान की माँग तथा इस व्यापार में अरबों के एकाधिकार को समाप्त करने के लिए एक नए और सुरक्षित व्यापार मार्ग की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।

नए व्यापारिक मार्ग की खोज के कार्य में पुर्तगालियों ने मार्गदर्शक का कार्य किया। पुर्तगाली राजकुमार हैनरी ने नाविकों को वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षित करने के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। उनके इस प्रयास से उत्साहित और प्रेरित नाविकों ने नए-नए मार्गों की खोज करना शुरू कर दिया था। इसी क्रम में बार्थोलोम्यूडियाज ने 1486-87 ई. में आशा अंतरीप तक के मार्ग को खोज निकाला। इटली के नाविक क्रिस्टोफर कोलंबस ने 1492 ई. में स्पेन के राजा की सहायता से भारत के लिए समुद्री मार्ग की खोज का प्रयास किया। कोलंबस भारत पहुंचने की बजाय उत्तरी अमेरिका के द्वीप वेस्ट इंडीज पहुंच गया। इसके बाद एक पुर्तगाली नाविक ‘वास्को-डी-गामा’ ने 1497 ई. में भारत की समुद्री यात्रा आरम्भ की तथा उत्तम आशा अंतरीप पार कर मोज़ाम्बिक पहुँचा। मलिंदी नामक अफ्रीकी बंदरगाह से एक गुजराती व्यापारी की सहायता से वह मई 1498 ई. को भारत के पश्चिमी तट पर स्थित कालीकट बंदरगाह पर पहुंचा।

सबसे पहले पुर्तगाली घुसपैठ : 1498 ई. में वास्को-डी-गामा द्वारा भारत आने के नए समुद्री मार्ग का पता लगाने के बाद सबसे पहले पुर्तगालियों ने ही भारत के साथ प्रत्यक्ष व्यापार करना शुरू किया। सन् 1500 ई. में पुर्तगालियों ने कोचीन (केरल) के पास अपनी फैक्टरी बनाई। वहां के शासक से फैक्टरी की सुरक्षा का भी इंतजाम करवा लिया क्योंकि अरब व्यापारी उसके खिलाफ थे। इसके बाद कालीकट और कन्नूर में भी पुर्तगाली फैक्टरियाँ बनाई गई। उस समय तक पुर्तगाली भारत में अकेली यूरोपीय व्यापारिक शक्ति थी। उन्होंने समुद्री जहाजों के बल पर समुद्री व्यापार पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया।  सन् 1510 ई. में पुर्तगालियों ने गोवा पर अपना अधिकार कर लिया तथा उसे अपना प्रशासनिक केंद्र बनाया। शीघ्र ही उन्होंने सूरत, दमन दीव, बसीन, सालसिट, बंबई (मुंबई), दाभोल, गोवा, कन्नूर, कालीकट, कोचीन, नागट्टम, मछलीपट्टनम, हुगली आदि स्थानों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया लेकिन जबरन धर्म परिवर्तन तथा भ्रष्ट आचरण के कारण शीघ्र ही ये पतन की ओर अग्रसर हो गए।

डच घुसपैठ : पुर्तगालियों के बाद भारत आने वाली दूसरी यूरोपीय शक्ति थी डच। डच सरकार ने विभिन्न डच कंपनियों के बीच शत्रुता और स्पर्धा समाप्त करने के लिए 1602 ई. में सभी कंपनियों को मिलाकर डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की। भारत में डचों द्वारा स्थापित बस्तियों पर एकाधिकार भी प्रदान कर दिया। इसके साथ-साथ उसे युद्ध लड़ने, संधियां करने तथा प्रदेश विजय करने और दुर्ग बनाने के अधिकार भी दे दिए गए। 1602 ई. में ही डचों ने पुर्तगाली बेड़े को हरा कर गरम मसालों के व्यापार पर अपना अधिकार कर लिया। शीघ्र ही उन्होंने पुलीकट, सूरत, चिन्सुरा, कोचीन, नागपट्टम, बालासोर, कासिम बाजार तथा बारानगर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर पुर्तगाली एकाधिकार को समाप्त कर दिया। अंग्रेज़ों के आगमन के बाद डचों का प्रभाव भी कम होता चला गया।

अंग्रेज़ों की घुसपैठ : 1578 ई. में फ्रांसिस ड्रेक नामक समुद्री लुटेरे ने लिस्बन जा रहे पुर्तगाली समुद्री जहाज को लूट लिया और इस लूट में मिले नक्शों से उन्हें भारत के समुद्री मार्ग की जानकारी मिली। 1588 ई. में अंग्रेज़ी जहाजी बेड़े ने स्पेन के शक्तिशाली समुद्री बेड़े आर्मेदा को नष्ट कर दिया और इस प्रकार समुद्री मार्ग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। 31 दिसम्बर 1600 ई. को ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई तथा ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ (प्रथम) द्वारा इसे भारत के साथ व्यापार करने का आज्ञा पत्र दे दिया गया। इसके बाद अंग्रेज़ों ने कप्तान हॉकिन्स और सर टॉमस रो के प्रयासों से भारत में व्यापार शुरू किया और यहां पर अपनी व्यापारिक फैक्टरियां स्थापित करनी शुरू की। इसी क्रम में अंग्रेजों ने 1611 ई. में मछलीपट्टनम में अपनी पहली व्यापारिक फैक्टरी स्थापित की। इसके बाद अंग्रेज़ों ने पहले से स्थापित पुर्तगालियों और डचों को पराजित कर सूरत, कासिम बाजार, विशाखापट्टनम, बालासोर, फोर्ट सेंट जॉर्ज आदि स्थानों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। ब्रिटेन के राजकुमार चार्ल्स द्वितीय की शादी पुर्तगाल के राजा की बेटी कैथरीन से हो गई और चार्ल्स द्वितीय को पुर्तगालियों से दहेज में बम्बई के सात द्वीप मिले। 1668 ई. में चार्ल्स द्वितीय ने 10 पौंड वार्षिक किराये पर बम्बई ईस्ट इंडिया कंपनी को किराये पर दे दिया जो आगे चलकर उनके व्यापार का प्रमुख केंद्र बना । इसके बाद अंग्रेजों ने बंगाल में सुतानाती, गोविंदपुर तथा कोलकाता नामक तीन गांवों की जमींदारी प्राप्त की तथा यहां पर फोर्ट विलियम नामक दुर्ग की स्थापना की।

डेनिश घुसपैठ : अपने पड़ोसियों ब्रिटेन, नीदरलैंड और पुर्तगाल के भारत के साथ व्यापार को देखकर डेनमार्क ने भी 1616 ई. में डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की तथा इस कंपनी ने 1620 ई. में तंजौर जिले में ट्रावनकौर में पहली डेनिश बस्ती की स्थापना की। इसके बाद इन्होंने बंगाल के सीरामपुर में अपनी दूसरी बस्ती स्थापित की जो कि भारत में इनकी व्यापारिक गतिविधियों का मुख्यालय बनी। डेनिश भारत में अपनी स्थिति को ज्यादा मजबूत नहीं कर सके तथा 1845 ई. में अपनी सारी बस्तियां ब्रिटिश सरकार को बेच कर यहां से चले गए।

सबसे बाद में फ्रांसीसी घुसपैठ : भारत के साथ व्यापार की दौड़ में फ्रांसीसी सबसे बाद में शामिल हुए थे। फ्रांसीसी सम्राट लुई चौदहवें के प्रयासों से 1664 ई. में फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई। सम्राट द्वारा इस कंपनी को उपनिवेश स्थापित करने, धर्म प्रचार करने तथा युद्ध व संधि करने के अधिकार प्रदान किये गए। इस कंपनी ने 1668 ई. में सूरत व 1669 ई. में मछलीपट्टनम में अपनी व्यापारिक फैक्टरियां स्थापित की। इसके बाद इन्होंने पांडिचेरी, माही, चंद्रनगर आदि स्थानों पर भी अपना आधिपत्य जमा लिया। अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए इन्होंने यहां के शासकों के आंतरिक मामलों में भी दखल देना शुरू कर दिया। इस प्रकार फ्रांसीसी अंग्रेज़ों के लिए सशक्त प्रतिद्वंद्वी बनते जा रहे थे।

अंग्रेज़ों का विस्तार और एकाधिकार

भारत में अंग्रेजों द्वारा अपने विस्तार व एकाधिकार को दो चरणों में पूरा किया गया :

1. यूरोपीयन शक्तियों से संघर्ष : पुर्तगालियों और डचों की शक्ति क्षीण होने पर भारत में अंग्रेज़ और फ्रांसीसीयों दो ही शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी रह गए थे। भारत के व्यापार पर एकाधिकार एवं भारतीय राजनीति में सर्वोच्चता प्राप्त करने के लिए दोनों में संघर्ष होना लाजमी था। दोनों शक्तियों में संघर्ष हुआ, जिसके निम्न कारण थे :

  • अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण व्यापारिक स्पर्धा थी दोनों की भारत के विदेशी व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने की मंशा थी।
  • अंग्रेज़ और फ्रांसीसी दोनों यूरोप में कट्टर शत्रु थे, इसलिए जब भी यूरोप में दोनों के बीच संघर्ष होता तो वे यहां भी एक दूसरे से उलझ पड़ते थे।
  • फ्रांसीसी नायक डुप्ले की महत्वाकांक्षा ने ब्रिटिश कंपनी को बेचैन कर दिया था। उसने पांडिचेरी की किलेबंदी शुरू कर दी तथा अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने पर भी जोर दिया। इसकी प्रतिक्रिया में अंग्रेजों द्वारा भी ऐसा ही किया गया और भारत में इन दो शक्तियों का संघर्ष अवश्यम्भावी हो गया।

2. स्थानीय शासकों से संघर्ष : यूरोपीय शक्तियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के बाद अंग्रेज़ों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारत के स्थानीय शासकों के साथ भी संघर्ष किया और भारतीय शासकों को भी अपने अधीन कर लिया। इसके लिए अंग्रेजों द्वारा कई प्रकार के हथकंडे अपनाए गए —

  • युद्धों द्वारा
  • सहायक संधि द्वारा
  • लैप्स की नीति द्वारा

1. यूरोपीयन शक्तियों से संघर्ष (एंग्लो फ्रांसीसी संघर्ष और कर्नाटक के युद्ध )

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई.) : ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार को लेकर यूरोप में फ्रांस और इंग्लैंड के बीच युद्ध हो रहा था। कर्नाटक का पहला युद्ध यूरोप के उसी युद्ध का विस्तार मात्र था। फ्रांसीसियों और अंग्रेज़ों के बीच 1746 में युद्ध आरंभ हो गया। अंग्रेज़ी नौसेना ने फ्रांसीसी जलपोत पकड़ लिए तो फ्रांसीसियों ने भी मद्रास को जल एवं स्थल दोनों ओर से घेरकर नियंत्रण में कर लिया। 1748 में ‘एक्स ला शैपल की संधि’ द्वारा यूरोप में दोनों देशों का युद्ध समाप्त हो गया जिसके बाद यहाँ भी दोनों शक्तियों के बीच युद्ध समाप्त हो गया और मद्रास अंग्रेज़ों को वापस लौटा दिया गया।

कर्नाटक का दूसरा युद्ध (1749-54 ई.) : कर्नाटक का दूसरा युद्ध हैदराबाद व कर्नाटक के राज सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण हुआ। एक पक्ष का समर्थन अंग्रेज़ कर रहे थे तो दूसरे पक्ष के समर्थन में फ्रांसीसी खड़े थे। प्रारंभ में फ्रांसीसियों की विजय हुई लेकिन बाद में ‘क्लाइव’ जैसे अनुभवी, योग्य एवं चतुर सेनानायकों के बल पर अंग्रेज़ विजयी रहे। 1754 में पांडिचेरी की संधि से दोनों पक्षों के बीच शांति स्थापित हुई तथा दोनों पक्षों ने एक दूसरे के विजित प्रदेश लौटा दिए और दोनों ही शक्तियों ने भारत में दुर्ग नहीं बनाने का आश्वासन दिया तथा भारतीय शासकों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का वचन भी दिया।

कर्नाटक का तीसरा युद्ध ( 1756-63 ई.) : 1756 ई. में यूरोप में अंग्रेज और फ्रांसीसियों के बीच सप्त-वर्षीय युद्ध शुरू हुआ तो भारत में भी दोनों शक्तियों के मध्य संघर्ष शुरू हो गया। फ्रांसीसियों ने त्रिचनापल्ली पर आक्रमण किया तो वहीं अंग्रेजों ने फ्रांसीसी बस्तियों बालासोर, पटना और कासिमबाजार पर अधिकार कर लिया। फ्रांस का कुशल सेनापति ‘काउंट डी लाली’ भी फ्रांसीसी साख को बचाने में सफल नहीं हो पाया और 1760 ई. में वांडीवाश के युद्ध में फ्रांसीसियों की निर्णायक हार हुई। 1763 ई. में ‘पेरिस की संधि’ द्वारा सप्त-वर्षीय युद्ध के समाप्त होने पर भारत में भी दोनों शक्तियों का संघर्ष समाप्त हो गया। फ्रांसीसियों को पांडिचेरी और चंद्रनगर वापस लौटा दिए गए, लेकिन अब वे न तो सेना ही रख सकते थे और न ही किलेबंदी कर सकते थे।

2. स्थानीय शासकों से संघर्ष

प्लासी की लड़ाई : 1757 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और बंगाल के नवयुवक नवाब सिराजुद्दौला के बीच बंगाल के प्लासी नामक स्थान पर यह लड़ाई लड़ी गई । यद्यपि नवाब की सेना अंग्रेज़ी सेना से बहुत बड़ी थी, परंतु अधिकांश सेना ने युद्ध में भाग ही नहीं लिया। सिराजुद्दौला के सेनानायकों में से मीर जाफर और राय दुर्लभ दोनों ने सिराजुद्दौला को धोखा दिया और युद्ध में भाग नहीं लिया। नवाब की सेना और क्लाइव की सेना के बीच हुई झड़प में नवाब के 500 सैनिक और कंपनी के 65 सैनिक मारे गए। यह लड़ाई नवाब की सैनिक दुर्बलता के कारण नहीं अपितु क्लाइव के षड्यंत्र और कूटनीति के कारण अंग्रेजों द्वारा जीती गई। इस युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बना दिया तथा उसने एक करोड़ रुपए व 24 परगने का क्षेत्र अंग्रेज़ों को उपहार में दे दिया। क्लाइव को निजी तौर पर 334000 पौंड की रिश्वत मिली। अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों के चलते मीर जाफर परेशान हो गया और अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्ति के प्रयास किए तो अंग्रेज़ों ने उसके स्थान पर उसके दामाद मीर कासिम को नवाब बना दिया।

बक्सर का युद्ध : 1760 ई. में मीर जाफर के स्थान पर मीर कासिम को बंगाल का नवाब बनाया गया किंतु मीर कासिम महत्वाकांक्षी था और वह अंग्रेज़ों के प्रभाव को ज्यादा दिन सहन नहीं कर सका। अंग्रेज़ों के प्रभुत्व से मुक्ति के लिए उसने अपनी राजधानी को मुर्शिदाबाद से बदलकर मुंगेर कर लिया। इससे नवाब और कंपनी के बीच तनाव उत्पन्न हुआ। तनाव के अधिक बढ़ने पर मीरकासिम ने भागकर अवध के नवाब शुजाऊदौला के यहां शरण ली। उस समय वहां पर मुगल सम्राट शाह आलम भी आया हुआ था तीनों ने मिलकर कंपनी की सेना से 1764 ई. में बिहार में बक्सर नामक स्थान पर युद्ध लड़ा। इसमें कंपनी की सेना ने तीनों की सम्मिलित सेनाओं को पराजित किया तथा इलाहाबाद की संधि के द्वारा अंग्रेज़ों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा से कर इकट्ठा करने का अधिकार प्राप्त कर लिया और बंगाल पर अंग्रेज़ों का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो गया।

आंग्ल मैसूर युद्ध : मैसूर का राज्य महान विजयनगर साम्राज्य का अंग था विजयनगर के पतन के बाद मैसूर के वाडियार वंश के राजाओं ने अपना विस्तार किया। अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में मैसूर में नंजराज एवं देवराज नामक दो मंत्रियों ने सत्ता पर कब्जा कर रखा था। यहाँ का राजा कृष्णराज कठपुतली मात्र था। ऐसे में हैदर अली नामक एक वीर एवं साहसी सेनानायक ने इन दोनों मंत्रियों की सत्ता समाप्त करके तथा वाडियार राजा को हटाकर मैसूर पर शासन करना शुरू कर दिया। अपनी विस्तारवादी नीति के कारण वह शीघ्र ही अंग्रेजों से उलझ गया। हैदर अली व उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने अंग्रेज़ों से मैसूर के चार युद्ध लड़े।

क) पहला युद्ध ( 1767-69 ई.) : यह युद्ध हैदर अली और ब्रिटिश कंपनी के बीच लड़ा गया जिसमें हैदर अली का पलड़ा भारी रहा।

ख) दूसरा युद्ध (1780-84 ई.) : पहले हैदर अली ने इस युद्ध का नेतृत्व किया, किंतु बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो जाने के बाद उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने इस युद्ध में मैसूर का नेतृत्व किया। यह युद्ध अनिर्णीत रहा।

ग) तीसरा युद्ध (1790-92 ई.) : इस युद्ध में टीपू सुल्तान बड़ी मुश्किल से अपनी स्वतंत्रता बचा पाने में सफल हुआ।

घ) चौथा युद्ध (1799 ई.) : इस युद्ध में टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हुआ और अंग्रेज़ों ने निर्णायक जीत हासिल की। इस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने मैसूर के आसपास के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया तथा वाडियार वंश के एक बालक को मैसूर का शासक बनाकर उसके साथ सहायक संधि कर ली ताकि समय आने पर वह बचे हुए राज्य पर भी अपना अधिकार कर ले। कुछ प्रदेश हैदराबाद के निज़ाम को भी दे दिए गए।

मराठों के साथ युद्ध : मराठे दक्षिण भारत में भारत के सभी राज्यों में से शक्तिशाली राजा के रूप में उभरे तथा दूसरी ओर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी यूरोपियन शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ बनकर उभरी। अंग्रेज़ों और मराठों में भारत की सत्ता प्राप्त करने के लिए तीन युद्ध लड़े गए :

क) पहला युद्ध ( 1785-92 ई.) : यह लगभग 7 वर्ष तक चला, लेकिन बिना किसी फैसले के समाप्त हो गया ।

ख) दूसरा युद्ध (1803-06 ई.) : नाना फड़नवीस की मृत्यु से पेशवा कमज़ोर हो चुका था और आपसी फूट तथा अंग्रेज़ों की कूटनीति के कारण इस युद्ध में पहले पेशवा उसके बाद सिंधिया, होल्कर, गायकवाड और भोंसले सभी पराजित हुए तथा कंपनी का विस्तार भारत के एक बड़े भू-भाग पर हो गया।

ग) तीसरा युद्ध (1817-18 ई.) : इस युद्ध में भी मराठे पराजित हुए। पूना को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला दिया गया। शेष मराठा राज्य छोटी-छोटी रियासतें बनकर रह गए और कंपनी के अधीन हो गए।

अन्य युद्ध (सिक्ख और गोरखा) : मराठों की पराजय के बाद अब उन्होंने उत्तर भारत की शक्ति सिक्खों को 1845-46 ई. तथा 1848-49 ई. में दो युद्धों में हराकर उन पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके पश्चात अंग्रेज़ों ने भारत के सीमावर्ती राज्यों को उचित – अनुचित तरीके अपनाकर अपने राज्य में मिला लिया। इस कड़ी में गोरखा और अफगानों का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय शामिल है।

सहायक संधि द्वारा –

1798 ई. से 1805 ई. तक भारत में कंपनी के गवर्नर जनरल रहे लार्ड वेलेजली ने सहायक संधि द्वारा अनेक भारतीय राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया। यह संधि ब्रिटिश कंपनी एवं देशी राज्यों के बीच होती थी। इसके अनुसार संधि स्वीकार करने वाले राज्य को कंपनी सैनिक सहायता देती थी, बदले में राज्य निश्चित धन कंपनी को देता था। इसकी प्रमुख शर्तें इस प्रकार थी:

  1. देशी राज्य की विदेश नीति पर कंपनी का अधिकार रहेगा।
  2. अंग्रेज़ों को छोड़कर किसी यूरोपियन को उस राज्य में स्थान नहीं दिया जाएगा।
  3. देशी राज्य को अपने राज्य में कंपनी की सेना रखनी होगी तथा उसका खर्च धन अथवा राज्य के हिस्से के रूप में कंपनी को देना होगा।
  4. देशी राज्य को राज्य में परामर्शदाता के रूप में अंग्रेज़ी रेजिडेंट रखना होगा।

इस सहायक संधि को सर्वप्रथम 1798 ई. में हैदराबाद के निज़ाम ने अपनाया, उसके बाद अवध, मैसूर, मराठों व कर्नाटक ने भी इस संधि को अपना लिया। इसे अपनाकर भारतीय राजा धीरे-धीरे अपना राज्य खो बैठे और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर ली।

लैप्स की नीति

1848 ई. में साम्राज्यवादी लॉर्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया। उसने अपने 8 वर्षीय शासन में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करने के लिए अनेक नीतियां अपनाई। उसने भारत में ब्रिटिश कंपनी के विस्तार के लिए ‘लैप्स की नीति’ का सहारा लिया। जिस समय में वह भारत आया उस समय भारत कई राजाओं के संतान नहीं थी और वह बच्चा गोद लेने की बात सोच रहे थे। डलहौजी ने अंग्रेज़ों के अधीन राजाओं को बच्चा गोद लेने के लिए कंपनी से अनुमति लेने का आदेश निकाला। वास्तविक रूप से इन राज्यों को अनुमति नहीं दी गई। इस प्रकार संतानहीन राज्यों जैसे सतारा, नागपुर, झांसी, संभलपुर, जयपुर तथा उदयपुर आदि को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया गया।

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