गौतम बुद्ध, महावीर और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का जीवन और शिक्षाएं Class 6 इतिहास Chapter 5 Notes – हमारा भारत I HBSE Solution

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गौतम बुद्ध, महावीर और जगद्गुरु आदि शंकराचार्य का जीवन और शिक्षाएं Class 6 इतिहास Chapter 5 Notes


छठी शताब्दी ई.पू. को भारत में सामाजिक बदलाव का काल कहा जाता है। उस समय के समाज में अनेक कुरीतियां आ गई थी। ऐसे समय में भारत में कई सम्प्रदायों का उदय हुआ । इन सम्प्रदायों में बौद्ध तथा जैन सर्वाधिक प्रसिद्ध थें।

गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। उनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म 567 ई.पू. वैशाख पूर्णिमा के दिन लुम्बिनी, नेपाल में हुआ था। उनके पिता शुद्धोधन एक राजा थे। उनकी माता का नाम महामाया था। उनके जन्म के सात दिन बाद माता का निधन हो गया था। उनका पालन पोषण महामाया की छोटी बहन प्रजापति गौतमी ने किया। इसलिए सिद्धार्थ को गौतम भी कहा जाता है। जब गौतम बुद्ध का जन्म समारोह आयोजित किया गया, तब उस समय के प्रसिद्ध भविष्य दृष्टा आसित ने एक भविष्यवाणी की, कि यह बच्चा या तो एक महान राजा बनेगा या एक महान पथ प्रदर्शक।

शिक्षा ग्रहण करने के बाद गौतम बुद्ध का विवाह मात्र 16 साल की आयु में राजकुमारी यशोधरा के साथ हुआ था। पिता द्वारा बनाए गए वैभवशाली महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहां उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ। परन्तु ये सब सिद्धार्थ को सांसारिक मोह-माया में बांध नहीं सके।

गृहत्याग

एक दिन नगर की ओर जाते हुए उन्हें चार अलग-अलग दृश्य दिखाई दिए।

  1. पहले दृश्य में उन्होंने एक वृद्ध पुरुष को देखा। सारथी से पूछने पर उन्हें बताया गया कि हर व्यक्ति वृद्ध होता है।
  2. दूसरे दृश्य में एक रोगी को देखने पर बताया गया कि बीमारियां भी होती रहती हैं।
  3. तीसरे दृश्य में एक शव यात्रा को देखने पर सारथी ने बताया कि प्रत्येक मनुष्य का मरण निश्चित है। इन दृश्यों को देखकर उन्हें लगा कि संसार में दुःखों के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
  4. चौथे दृश्य में एक साधु को देखा जो मस्ती में गाता जा रहा था। सारथी ने उसके बारे में बताया कि यह संसार को छोड़कर ज्ञान प्राप्ति में लगा हुआ है।

उन्होंने 29 वर्ष की आयु में आधी रात के समय अपनी पत्नी व पुत्र सहित सभी सुखों को छोड़कर ज्ञान प्राप्ति के लिए घर त्याग कर वनों की ओर प्रस्थान किया।

नाम सिद्धार्थ ( गौतम बुद्ध )
जन्म 567 ईसा पूर्व लुम्बिनी ( नेपाल )
पिता का नाम शुद्धोदन
माता का नाम महामाया
पालन पोषण मौसी प्रजापति गौतमी
सिद्धार्थ का विवाह राजकुमारी यशोधरा
पुत्र का नाम राहुल

ज्ञान की प्राप्ति

घर छोड़ने के बाद सिद्धार्थ राजगृह पहुंचे। वहां पर आचार्य अलार कलाम तथा उद्रक नामक दो विद्वानों से ज्ञान के सम्बन्ध में शिक्षा प्राप्त की, किन्तु उनके मन को सन्तुष्टि नहीं हुई। उसके बाद उन्होंने कठोर तपस्या करने का फैसला किया जिससे कि उनका शरीर काफी कमजोर हो गया। इस अनुभव ने उन्हें तपस्या को निरर्थक मानने पर मजबूर किया। इस समय सुजाता नामक कन्या से दूध ग्रहण कर तपस्या के मार्ग को छोड़ दिया। अब वे गया की ओर चल पड़े उस स्थान पर एक पीपल के पेड़ (महाबोधि वृक्ष) के नीचे ध्यान लगाया। 8 दिन की समाधि के पश्चात् 35 वर्ष की आयु में वैशाख मास की पूर्णिमा की रात्रि को उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई, इससे वे बौद्ध (ज्ञानी) अर्थात् ‘बुद्ध’ कहलाए। वह सर्वप्रथम बनारस के निकट सारनाथ पहुंचे तथा अपना पहला उपदेश अपने उन पांच साथियों को दिया जो गया में उनका साथ छोड़ गये थे। इस घटना को धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है।

  • महाबोधि वृक्ष बिहार राज्य के गया जिले में बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर में स्थित एक पीपल का वृक्ष है। इसी वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को बोध (ज्ञान) प्राप्त हुआ था।

महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं —

चार आर्य सत्य

  1. संसार दुखों का घर है।
  2. सभी दुःखों का कारण इच्छाएं हैं।
  3. इच्छाओं एवं तृष्णाओं पर नियंत्रण करके ही दुःखों से बचा जा सकता है।
  4. सांसारिक दुःखों को दूर करने के अष्टमार्ग हैं। इन्हें अष्टमार्ग या मध्यम मार्ग कहा गया है।

अष्टमार्ग

अष्टमार्ग को मध्यमार्ग का नाम भी दिया जाता है। बौद्ध धर्म का आधार अष्टमार्ग है इस मार्ग पर चलकर मनुष्य की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है। अष्ट मार्ग में 8 आदर्श बातें हैं जिन पर चलने से निर्वाण (ज्ञान) की प्राप्ति हो सकती है।

  1. सम्यक कर्म : मनुष्य के कर्म शुद्ध होने चाहिये।
  2. सम्यक विचार : सभी मनुष्यों के विचार सत्य होने चाहिये। उन्हें सांसारिक बुराइयों तथा व्यर्थ के रीति-रिवाजों से दूर रहना चाहिये।
  3. सम्यक जीविका : कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानिकारक व्यापार न करना।
  4. सम्यक प्रयास : अपने आप सुधरने की कोशिश करना ।
  5. सम्यक स्मृति : स्पष्ट ज्ञान से देखने की मानसिक योग्यता पाने की कोशिश करना।
  6. सम्यक ध्यान : मनुष्य को अपना ध्यान पवित्र तथा सादा जीवन व्यतीत करने में लगाना चाहिये।
  7. सम्यक विश्वास : मनुष्य को यह सच्चा विश्वास होना चाहिये कि इच्छाओं का त्याग करने से दुःखों का अन्त हो सकता है।
  8. सम्यक समाधि : निर्वाण पाना।

कर्म सिद्धांत में विश्वास

बुद्ध कहते थे कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। जैसे वह कार्य करता है वैसा ही वह फल भोगता है।

पुनर्जन्म

बुद्ध के अनुसार जब तक मनुष्य की तृष्णा तथा वासना समाप्त नहीं होती तब तक मनुष्य पुनः संसार में जन्म लेता है।

अहिंसा

महात्मा बुद्ध का विचार था कि मनुष्य को सभी जीवों अर्थात् मनुष्य, पशु, पक्षी तथा जीवजन्तु से प्रेम तथा सहानुभूति होनी चाहिये।

यज्ञ व बलि प्रथा में अविश्वास

महात्मा बुद्ध ने यज्ञ एवं बलि प्रथा को अंधविश्वास और ढोंग बताया था। उनका कथन था कि यज्ञों के साथ किसी व्यक्ति के कर्मों को नहीं बदला जा सकता।

वेदों व संस्कृत में अविश्वास

बुद्ध का मानना था कि धर्म ग्रंथों को केवल संस्कृत भाषा में पढ़ने से ही फल की प्राप्ति नहीं होती। उन्होंने अपना प्रचार लोक भाषा पाली में किया।

जाति प्रथा में अविश्वास

बुद्ध का मानना था कि अपने कर्मों के अनुसार मनुष्य छोटा या बड़ा हो सकता है न कि जन्म से।

बौद्ध धर्म का उदय ऐसे अवसर पर हुआ जब समाज में अनेक बुराइयां आ गई थीं। लोग वैदिक धर्म की कठोरता से ऊब चुके थे और किसी सरल धर्म की खोज में थे। इसी उचित अवसर पर महात्मा बुद्ध ने अपनी सरल शिक्षाओं के द्वारा भारतीय समाज को राहत प्रदान की। महात्मा बुद्ध की सरल शिक्षाओं से प्रभावित होकर काफी संख्या में लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया।

महावीर

जैन धर्म के संस्थापक महावीर स्वामी थे। महावीर स्वामी का मूल नाम वर्धमान था। भगवान महावीर का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली (बिहार) गणतंत्र के कुण्डग्राम में हुआ था। जैन धर्म के अनुसार पहले तीर्थकर ऋषभदेव थे तथा 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे। महावीर स्वामी की माता का नाम त्रिशला था। पिता का नाम सिद्धार्थ था। पत्नी का नाम यशोदा था। पुत्री का नाम प्रियदर्शना था। वर्धमान बचपन से बहुत वीर थे।

  • उन्होंने एक विशाल अजगर से अपने साथी के प्राण बचाये।
  • पुनः पागल हाथी को अपने वश में करके अपने मित्रों की जान बचाई।

अतः वर्धमान का नाम महावीर पड़ गया।

बचपन का नाम वर्धमान
जन्म 599 ई.पू. वैशाली ( बिहार ) के कुण्डग्राम में हुआ।
पिता का नाम सिद्धार्थ
माता का नाम त्रिशला
पत्नी का नाम यशोदा
पुत्री का नाम प्रियदर्शना या अनोजा

गृहत्याग व ज्ञान प्राप्ति

30 वर्ष की आयु में भाई नंदीवर्धन से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया। तत्पश्चात् उन्होंने तप करते हुए शरीर को कई तरह के कष्ट दिए। 12 वर्ष की निरंतर तपस्या के बाद जृम्भिक ग्राम (बिहार) में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक शाल वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ।

प्रारंभ में वे कैवलिन (कैवल्य) नाम से जाने गए तत्पश्चात् अपनी इंद्रियों पर विजय के कारण वे जिन (विजेता) और बाद में जैन कहलाए।

महावीर की शिक्षाएं

महावीर स्वामी की शिक्षाएं प्राकृत भाषा में थी ताकि लोग उन्हें आसानी से समझ सकें। महावीर स्वामी के उपदेश समाज में फैली उन बुराइयों का विरोध कर रहे थे जिनके कारण समाज के विकास में बाधा आ रही थी। उनकी मुख्य शिक्षाएं इस प्रकार हैं

त्रिरत्न : महावीर स्वामी के अनुसार अपने को पापों से बचाने के लिए तीन आदर्श बातों को जीवन में अपनाना चाहिए इन्हीं को त्रिरत्न कहा गया यह तीन रत्न थे –

  1. सच्ची श्रद्धा
  2. सच्चा ज्ञान
  3. सच्चा आचरण

पांच महाव्रत

महावीर स्वामी पांच महाव्रत पर बल देते थे तथा उनकी पालना करने को कहते थे ये महाव्रत हैं –

  • अहिंसा : अहिंसा प्रत्येक व्यक्ति का परम धर्म है किसी को भी मन से तथा तन से हिंसा नहीं करनी चाहिए।
  • चोरी न करना : मनुष्य को दूसरों की चीजें नहीं चुरानी चाहिए।
  • सत्य : महावीर स्वामी ने सदा सत्य बोलने पर बल दिया उन्होंने कहा ऐसी बातें न करो जिसमें कटुता हो ।
  • संग्रह न करना : व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक धन आदि का संग्रहण नहीं करना चाहिए।
  • ब्रह्मचर्य : मनुष्य को वासनाओं से दूर रहना चाहिए। सच्चा ब्रह्मचारी वही है जो न तो विषय वासना के बारे में सोचता है और न ही इस बारे में बात करता है।

व्रत और तपस्या

जैन धर्म में उपवास तथा तप पर बहुत अधिक बल दिया गया है जिससे बुरी प्रवृतियों का दमन होता है तथा मनुष्य कर्म के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

ईश्वर में अविश्वास

महावीर स्वामी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते थे। वह हिंदू धर्म के इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं करते थे कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है।

यज्ञ और बलि में अविश्वास

जैन धर्म में यज्ञ – बलि आदि का विरोध किया जाता है।

वेदों तथा संस्कृत की पवित्रता में अविश्वास

जैन धर्म के अनुसार वेद साधारण ग्रंथ है। उनके अनुसार वेदों तथा संस्कृत को पवित्र मानने की अवश्यकता नहीं है।

जाति प्रथा का विरोध

महावीर स्वामी जाति प्रथा में विश्वास नहीं रखते थे। उनका मानना था कि सभी जातियां समान हैं।

आत्मा के अस्तित्व में विश्वास

जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। उनके अनुसार आत्मा अमर है, आत्मा में ज्ञान है और यह सुख दुःख का अनुभव करती है।

पुनर्जन्म

महावीर स्वामी पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। महावीर स्वामी के अनुसार कर्म तथा पुनर्जन्म साथ साथ चलते हैं।

अठारह पाप

जैन धर्म में 18 प्रकार के पाप बताए गए हैं जो मनुष्य को पतन की आरे ले जाते हैं, यह 18 पाप हैं :

30 वर्ष लगातार प्रचार करने के बाद इनकी मृत्यु 527 ईसा पूर्व में राजगृह के पावा नामक स्थान पर हो गई। उस समय उनकी आयु 72 वर्ष की थी। उनकी मृत्यु के समय उनके अनुयायियों की संख्या हजारों में थी।

महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे। उन्होंने जैन धर्म को एक नई दिशा दी। उनके समय जैन धर्म बहुत लोकप्रिय हुआ। उनकी प्राकृत भाषा में दी गई सरल शिक्षाओं के कारण बड़ी संख्या में लोगों ने जैन धर्म को अपना लिया।

आदि गुरु शंकराचार्य

आदि शंकराचार्य का जन्म उस काल में हुआ जब बौद्ध और जैन जैसे अनेक मत थे। इन सभी ने सनातन धर्म के मूल आधार आश्रम व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था तथा पुरुषार्थों की आलोचना की। जिसके परिणामस्वरूप हिन्दू धर्म अवनति की तरफ अग्रसर हो रहा था।

जीवन परिचय

आदि शंकराचार्य का जन्म दक्षिण भारत के केरल राज्य के कालड़ी गांव में हुआ। इनके पिता का नाम शिवगुरु भट्ट और माता का नाम आर्यम्बा था। जब यह 3 वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। यह बड़े ही मेधावी और प्रतिभाशाली थे। 6 वर्ष की अवस्था में ही यह प्रकांड पंडित हो गए थे और 8 वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था।

माता ने उन्हें संन्यासी बनने की अनुमति नहीं दी थी, तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते हुए शंकराचार्य ने अपनी मां से कहा “मां मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो ये मगरमच्छ मुझे खा जाएगा।” इनकी माता ने इनको संन्यासी होने की आज्ञा दे दी, दूसरी ओर मगरमच्छ से भी इन्हें छुड़ा लिया। इस प्रकार यह 8 वर्ष की आयु में संन्यासी बन गए परन्तु माता ने इनसे आश्वासन लिया कि उनका अंतिम संस्कार यही करेंगे। उन्होंने इस आश्वासन को पूरा भी किया।

उन्होंने आरंभिक शिक्षा गुरु गोविंद भगवद्पाद से ली जिनका आश्रम नर्मदा नदी के तट पर ओंकारेश्वर स्थल पर था। 3 वर्ष तक वहां रहकर इन्होंने ब्रह्मविद्या प्राप्त की। उनकी असाधारण प्रतिभा से इनके गुरु चकित थे और इन्हें शिव का अवतार मानते थे। गुरु की आज्ञा से इन्होंने ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की और फिर काशी चले गए।

शिक्षाएं :

अद्वैत मत

शंकराचार्य से पहले भी अनेक वैदिक ऋषियों ने अद्वैतमत का सिद्धांत दिया है। इसमें जीव और ब्रह्म को एक ही माना गया है। इसे ही अद्वैतवाद कहा गया है। ‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या’ के अनुसार शरीर में व्याप्त आत्मा ही सत्य है जो भूत, वर्तमान एवं भविष्य में भी रही है।

भक्ति मार्ग

शंकराचार्य ने भक्ति का भी खूब प्रचार किया। उनका मानना था कि प्रेम और साधना से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है और सच्चा ज्ञान तो प्रेम है।

कर्म मार्ग

इनका कर्म में अटूट विश्वास था। अपनी बाल्यावस्था में ही संन्यास लेने के उपरान्त एक गृहस्थ की भांति अपनी माता का विधिवत अंतिम संस्कार किया।

संप्रदायों में एकता

उन्होंने हिंदू धर्म की सभी विचारधाराओं को एक करके 5 भागों में विभाजित किया जिनमें वैष्णव, शैव, सूर्य, शाक्त और गणपति संप्रदाय शामिल थे। उन्होंने इसे पंचदेव उपासना का नाम दिया उन्होंने योग की दृष्टि से इन पांच देवताओं का संबंध पंच भूतों अग्नि, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश से जोड़ दिया। विभिन्न संप्रदायों में विभाजित भारतीय जनता को एकता के सूत्र में बांध दिया।

योग साधना

उन्होंने योग साधना का भी काफी प्रचार किया जिनका प्रभाव गोरखनाथ, कबीर एवं नानक आदि संतों पर दिखाई देता है।

सन्यासियों का एकीकरण

आचार्य जी ने भारत में विभिन्न साधु संतों को भी 10 भागों में बांट दिया। जिनमें गिरि, पुरी, अरण्य, भारती, वन, पर्वत, सागर, तीर्थ, आश्रम और सरस्वती थे।

चार मठों की स्थापना

भारत के चारों कोनों में एक प्रकार के धर्म दुर्ग स्थापित किए थे जो इस प्रकार हैं :

  1. उत्तर भारत के बद्रीनाथ, केदारनाथ में स्थित ज्योतिर्मठ (उत्तराखंड)
  2. दक्षिण भारत के कर्नाटक में स्थित श्रृंगेरी मठ।
  3. पूर्वी भारत के जगन्नाथपुरी में स्थित गोवर्धन मठ। (उड़ीसा)
  4. पश्चिम भारत के द्वारका में स्थित शारदा मठ। (गुजरात)

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