गुप्तकाल : शासन, समाज एवं संस्कृति Class 6 इतिहास Chapter 9 Notes – हमारा भारत I HBSE Solution

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गुप्तकाल : शासन, समाज एवं संस्कृति Class 6 इतिहास Chapter 9 Notes


गुप्त वंश के राजाओं ने न केवल एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की अपितु उच्च कोटि का शासन प्रबंध भी स्थापित किया। इसकी जानकारी हमें चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा वर्णन, विशाखादत्त व कालिदास के नाटकों, विष्णु शर्मा के पंचतंत्र, हिन्दू धर्म ग्रंथ – स्मृतियां व पुराणों और इस काल में शिलालेखों, सिक्कों, मूर्तियों व अन्य पुरा अवशेषों से मिलती है।

गुप्त शासन व्यवस्था

गुप्त शासन व्यवस्था में केन्द्रीय, प्रांतीय तथा स्थानीय शासन के अतिरिक्त, आर्थिक व न्याय व्यवस्था पर भी उचित ध्यान दिया गया।

गुप्त काल को जानने के साधन

  • चीनी यात्री फाह्यान का यात्रा वर्णन
  • विशाखादत्त व कालिदास के नाटक
  • हिन्दू धर्म ग्रंथ-स्मृति, पुराण व अन्य धार्मिक ग्रंथ
  • अभिलेख, शिला लेख, सिक्के, मूर्तियां व अन्य प्राचीन अवशेष

केन्द्रीय शासन

राजा : इस काल में राजतंत्रीय शासन प्रणाली थी जिसमें सारी शक्तियां राजा के हाथ में होती थी । परन्तु वह प्रजा की भलाई में ही लगा रहता था। राजा निरंकुश होते हुए भी प्रजा की भलाई में कार्य करते थे। इसलिए प्रजा उनका सम्मान करती थी और देवता की तरह पूजा करती थी।

राजा अनेक उपाध्याय धारण करता था जैसे :- महाराजाधिराज, परम भट्ठारक, परमभागवत।

मंत्रिमण्डल : राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिमंडल का गठन किया गया था। एक मंत्री को कई विभाग भी दिए जाते थे। प्रशासन में राजकुमारों को शिक्षा देने के लिए उन्हें भी प्रशासनिक पद दिए जाते थे।

अधिकारीगण : राजा और मंत्रियों की सहायता के लिए योग्य अधिकारी रखे जाते थे। ये अधिकारी मुख्यतः सैनिक व्यवस्था, विदेश नीति, अभिलेख विभाग, वित्त विभाग, दान विभाग, पुलिस विभाग, राज महल की सुरक्षा का विभाग इत्यादि रखते थे। ये अधिकारी प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता करते थे। इनके अतिरिक्त कुमारामात्य भी होते थे जो राज परिवार से सम्बधित होते थे।

सैनिक प्रबन्ध : राजा प्रधान सेनापति होता था। गुप्त शासकों ने शक्तिशाली सेना तैयार की, जो मुख्यतः चार भागों में विभाजित थी।

सेना के चार अंग थे :

  1. थल सेना
  2. घुड़सवार सेना
  3. रथ सेना
  4. हाथी सेना

सेना का मुखिया महाबालाधिकृत होता था। हाथी सेना महापीलपति व घुड़सेना महाअश्वपति के अधीन थीं। सैनिकों को नकद वेतन मिलता था बाद में वेतन के बदले भू-क्षेत्र दिए जाने लगे जिससे ये लोग शक्तिशाली होने लगे।

पुलिस : पुलिस की भी कुशल व्यवस्था थी। इसका मुखिया दण्डपाशिक था। दण्ड व्यवस्था सामान्य थी। पुलिस के भय से चोरी, हत्या के अपराध बहुत कम होते थे। गुप्तचर भी काफी मददगार होते थे। पुलिस कर्मचारियों को चाट या भाट कहा जाता था और पहरेदार को रक्षिन् कहते थे।

न्याय प्रबन्ध : गुप्त साम्राज्य में न्याय प्रणाली काफी उत्तम थी। राजा को सर्वोच्च न्यायाधीश माना जाता था। उसके अधीन प्रांत, जिला तथा नगरों में न्यायालय थे। गांव में झगड़ों का समाधान पंचायत करती थी। अपराधियों को सामान्यतः आर्थिक दण्ड दिया जाता था। विद्रोह करने वाले या बार-बार अपराध करने वालों को अंग-भंग का दण्ड मिलता था। प्राण दण्ड बहुत कम दिया जाता था।

प्रांतीय प्रशासन

प्रशासन में कुशलता लाने के लिए राजाओं ने अपने साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में बाटा हुआ था जिन्हें ‘भुक्ति’ कहते थे। प्रांत का प्रशासक उपारिक कहलाता था और ये राजपरिवार से सम्बधित होते थे इन्हें स्थानीय, भोगपति, गोप्ता इत्यादि भी कहते थे। इनका कार्य राजाओं की आज्ञा का पालन करना होता था। अपने प्रांत में शांति बनाए रखना, सुरक्षा करना, कर एकत्रित करना, तथा प्रजा की भलाई करना शामिल था। इनकी सहायता के लिए भी अनेक अधिकारी होते थे।

स्थानीय प्रशासन

विषय (जिला) : प्रांतों को आगे विषयों (जिलों) में बांटा गया था। जिसके अध्यक्ष विषयपति होते थे। इनकी सहायता के लिए भी अनेक अधिकारी होते थे। जैसे श्रेष्ठी सार्थवाह कुलिक कायस्थ इत्यादि ।

नगर : विषयों को आगे नगर और ग्रामों में बांटा गया था। नगर का पदाधिकारी पुरपाल कहलाता था। जिसका कार्य नगर को साफ सुथरा बनाए रखना, स्वास्थ्य पर ध्यान देना, नगर से कर एकत्रित करना, नगर की सुरक्षा करना, रोशनी का प्रबन्ध करना इत्यादि शामिल था।

ग्राम : ग्राम का प्रबन्ध ग्रामपति के हाथ में होता था जिसे महतर भी कहते थे इसकी सहायता के लिए ग्रामिक, कुटम्बिन इत्यादि होते थे। जिनका कार्य ग्राम में शांति बनाए रखना, कर इकट्ठा करना, जमीन का लेखा-जोखा करना, सफाई रखना, झगड़ों का निपटारा करना इत्यादि होता था।

प्रशासनिक इकाई प्रशासनिक अधिकारी
साम्राज्य सम्राट
प्रान्त ( भुक्ति ) उपारिक
विषय ( जिला ) विषयपति
नगर ( शहर ) पुरपाल
ग्राम ( गांव ) ग्रामपति, महत्तर
विभाग मुखिया
सेना महाबालाधिकृत
हाथी सेना महापीलपति
घुड़सेना महाअश्वपति
पुलिस दण्डपाशिक
न्यायपालिका राजा

आय-व्यय का प्रबंध

राज्य की आय का मुख्य साधन भूमि कर था जो उपज का 1/6 भाग होता था। आय के अन्य साधनों में चुंगी कर, चरागाहों व वनों से मिलने वाला कर, नमक कर इत्यादि शामिल थे। अपराधियों पर आर्थिक दण्ड, विजित प्रदेशों व अन्य राजाओं से मिलने वाले उपहारों से भी आय होती थी। राष्ट्र के अंदर तथा बाहर व्यापार उन्नत था। उद्योगों से भी राज्य की आय होती थी।

राज्य का खर्च सेना की आवश्यकताएं, अधिकारियो को वेतन, राजमहल की आवश्यकताओं तथा प्रजा हित कार्यो पर होता था।

प्रजाहित कार्य

सिंचाई के लिए सौराष्ट्र (गुजरात) में गुप्त शासक स्कन्दगुप्त ने सुदर्शन झील का पुनर्निर्माण करवाया, यातायात के लिए सड़कों का निर्माण करवाया। प्राकृतिक आपदा में राजा प्रजा की सहायता करता था। गुप्त शासक सनातन संस्कृति को मानने वाले थे, परन्तु वे सभी मतों का सम्मान करते थे। उस काल में हिन्दूओं के अनेक मंदिर बने। बौद्ध मत की गुफाएं, चैत्य और मठों-विहारों का निर्माण हुआ।

सभ्यता एवं संस्कृति

सामाजिक जीवन: गुप्त काल में सामाजिक जीवन काफी सुखी और समृद्ध था। चीनी यात्री फाह्यान यहां के सामाजिक जीवन की प्रशंसा करता है। वह लिखता है कि यहां पर खान-पान की वस्तुएं काफी सस्ती हैं। यहां पर चोरी का कोई भय नहीं है। इस काल की सामाजिक विशेषताएं इस प्रकार हैं :

वर्ण व्यवस्था : उस काल का समाज चार वर्णों में विभक्त था।

वर्ण

1. ब्राह्मण – ब्राह्मणों का कार्य यज्ञ करना और कराना, पढ़ना और पढ़ाना तथा दान लेना और देना था।

2. क्षत्रिय – क्षत्रियों का कार्य साम्राज्य और समाज की सुरक्षा करना था।

3. वैश्य – कृषि का समस्त कार्यभार और व्यापारिक कार्य वैश्यों के लिए निधारित थे, इन्हें श्रेष्ठी, वणिक व सार्थवाह भी कहा जाता था।

4. शूद्र – शूद्रों का मुख्य कार्य मिट्टी, लकड़ी, चमड़े तथा धातुओं की वस्तुएं बनाना तथा कृषि कार्य में सहायता करना था।

आपात काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एक दूसरे के कार्य भी करते थे। उस काल में एक अंत्यज (चाण्डाल) जाति का भी उल्लेख मिलता है। जाति जंगली जानवरों का शिकार, शमशान घाट की रखवाली इत्यादि कार्य करते थे इन्हें समाज से बाहर रहना पड़ता था और इन्हें निम्न दृष्टि से देखा जाता था।

विवाह प्रथा : वैसे सामान्यतः मनुष्य अपने वर्ण में ही शादी करते थे। परन्तु अंतर्जातीय विवाहों के भी प्रमाण मिलते हैं ऊंची जाति के व्यक्ति द्वारा निम्न जाति की स्त्री से विवाह को अनुलोम विवाह कहते थे। निम्न जाति के व्यक्ति द्वारा उच्च जाति की स्त्री से विवाह को प्रतिलोम विवाह कहते थे। राजाओं में बहु -विवाह की प्रथा भी प्रचलन में थी ।

खान-पान : गुप्तकाल में अधिकांशतः जनता का भोजन शुद्ध और सात्विक था। लोग प्याज व लहसुन का भी प्रयोग नहीं करते थे। शाकाहारी भोजन में गेहूं, चावल, दूध, दही एवं फलों इत्यादि का प्रयोग होता था। मांस-मदिरा के प्रयोग को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था।

मनोरंजन के साधन : मनोरंजन के लिए संगीत जिसमें गाना, बजाना, नाचना तीनों का प्रचलन था। चौपड़ व शतरंज जैसे खेल होते थे, पशुओं की लड़ाई, रथ दौड व शिकार से भी मनोरंजन होता था नाटक व खेल-तमाशे भी मनोरंजन के प्रमुख साधन थे।

वस्त्र-आभूषण : उस काल में सूती और रेशमी कपड़े का प्रयोग होता था। पुरुष धोती-कुर्ता का प्रयोग करते थे और सिर पर पगड़ी धारण करते थे। विदेशी जातियां जैसे कुषाणों के प्रभाव से कोट-पजामा का प्रयोग भी बढ़ रहा था। स्त्रियां साड़ी से शरीर ढकती थी । पुरुष एवं स्त्रियां दोनों ही आभूषणों के शौकीन थे। स्त्रियां कानों में बालियां, मालाएं और हार, हाथों में कंगन, चूड़ियां, पैरों में पायल आदि पहनती थी। गले में विभिन्न प्रकार की मालाएं, हाथों में कड़े एवं अंगूठी पहनते थे। बालों को संवारने के भी कई तरीके थे।

स्त्रियों की स्थिति : इस काल में स्त्रियों की स्थिति में कुछ गिरावट आ गई थी और शिक्षा भी कम स्त्रियां ले पाती थी। केवल उच्च घराने की स्त्रियां ही शिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में प्रवीणता प्राप्त करती थी। वे कुशल शासिका, शिक्षिका और कला में निपुण थी। सती प्रथा का आरम्भ हो चुका था। विधवाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी।

आर्थिक जीवन

कृषि : इस काल में मुख्य कर्म कृषि ही था। वराहमिहिर ने वर्ष में तीन फसल लेने का उल्लेख किया है। जिनमें ठण्ड में (रबी), बरसात में (खरीफ) एवं साधारण समय में होने वाली फसलें थी। प्रमुख फसलें गेहूं, धान, ज्वार, ईख, बाजरा, मटर, दाल, तिल, सरसों, मसालें इत्यादि थी। सिंचाई के लिए वर्षा पर निर्भर थे परन्तु नहरों, तालाबों, झीलों, कुओं का भी प्रयोग किया जाता था। जंगलों से कीमती लकड़ी प्राप्त की जाती थी। जमीन पर व्यक्ति का अधिकार होता था। परन्तु पंचायत की आज्ञा के बिना वह इसे खरीद / बेच नहीं सकता था।

उद्योग-धंधे : कृषि के अतिरिक्त उद्योग-धंधे प्रमुख व्यवसाय था। कपड़े बुनना धातु के बर्तन बनाना, पत्थर को तराशना, मिट्टी के बर्तन बनाना, आभूषण बनाना, हाथी दांत, कीमती पत्थरों के आभूषण बनाना इत्यादि प्रमुख उद्योग थे।

व्यापार : उस काल में व्यापार में काफी उन्नत था। आंतरिक और बाह्य दोनों व्यापार होते थे। जल मार्ग और स्थल मार्ग से व्यापार होता था। नदियों के किनारे प्रमुख नगर स्थित थे जैसे पाटलिपुत्र, मथुरा, कौशाम्बी, वैशाली, ताम्रलिप्ति, विदिशा, उज्जयिनी, पैठन और भरूकच्छ इत्यादि। जिन देशों से व्यापार होता था, उनमें अरब, ईरान, मिस्र, रोम, चीन, पूर्वी द्वीपसमूह तथा अनेक यूरोपियन और अनेक अफ्रीकी देश प्रमुख हैं। उस काल में व्यापारियों, शिल्पियों के अपने-अपने संघ होते थे। ये श्रेणियां पैसे भी जमा करती थी और एक प्रकार से बैंक का कार्य होता था।

दक्षिण-पूर्वी देशों बर्मा, जावा, कम्बोज आदि में व्यापार के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ।

धार्मिक जीवन

हिन्दू संस्कृति : यह काल हिन्दू धर्म पुनरुत्थान का काल था । गुप्त वंश के राजा हिन्दू धर्म व संस्कृति के पोषक थे। इस संस्कृति के प्रसार में इन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी। हिन्दू संस्कृति के प्रमुख मत वैष्णव, शैव, देवी पूजा (शाक्त) तथा सूर्य मत के प्रमाण प्राप्त होते हैं।

विष्णु के दस अवतारों में वराह, राम, कृष्ण की मूर्तियां प्राप्त होती हैं। शिव की आराधना के भी प्रमाण मिलते हैं। शिव परिवार के सदस्यों और विभिन्न प्रतीक चिह्नों शिवलिंग, त्रिशूल, गणेश, कार्तिकेय, नन्दी की भी पूजा की जाती थी। शक्ति के प्रतीक देवी पूजा में लक्ष्मी, दुर्गा, पार्वती की भी पूजा होती थी। इनकी प्रतिमाएं विभिन्न भागों में पाई जाती हैं। सूर्य मन्दिरों के भी अवशेष मिलते हैं। मध्य प्रदेश के मंदसौर, ग्वालियर, इन्दौर आदि में सूर्य प्रतिमाएं मिलती हैं।

हिंदू संप्रदाय :-

  1. वैष्णव मत : इसमें विष्णु और उसके दस अवतारों की पूजा की जाती है 1. मत्स्य 2. कूर्म 3. वराह 4. नरसिंह 5. वामन 6. परशुराम 7. राम 8. कृष्ण 9. बुद्ध 10. कल्कि |
  2. शैव मत : शिव के प्रतीक शिवलिंग, पार्वती, कार्तिकेय, गणेश, नन्दी आदि की पूजा की जाती है।
  3. सौर मत : इसमें भगवान सूर्य की अराधना की जाती है।
  4. शाक्त मत : शक्ति की प्रतीक विभिन्न देवियों की पूजा की जाती है।

बौद्ध मत : फाह्यान ने अफगानिस्तान, कश्मीर, पंजाब, बंगाल, मथुरा में बौद्ध मत के प्रभाव का उल्लेख किया। इस काल में सारनाथ, अजन्ता, नागार्जुनकोंडा, एलोरा आदि स्थानों पर बौद्धकला मिलती है। नालंदा और वल्लभी जैसे विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। गुप्त सम्राट बौद्ध शिक्षण स्थानों को भी राजकीय सहायता देते थे।

जैन मत : हिन्दू सनातन संस्कृति और बौद्ध मत की भांति जैन मत में भी तीर्थकरों की मूर्तियों की पूजा मन्दिरों में होती थी। इस काल में जैन मत के श्वेताम्बर शाखा की सभाएं एक मथुरा में तथा दूसरी वल्लभी में आयोजित हुई। इस काल की प्रमुख विशेषता विभिन्न मतों के प्रति सहनशीलता है जिसके अनुसार विभिन्न मत साथ-साथ रहते हुए विकास करते थे। गुप्त शासकों द्वारा सभी मतों को समान माना जाता था।

  • जैन धर्म की दो मुख्य शाखाएँ हैं- दिगम्बर और श्वेतांबर।
  • श्वेतांबर शाखा के अनुयायी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।
  • दिगम्बर शाखा के अनुयायी निर्वस्त्र रहते हैं।

कलात्मक और वैज्ञानिक उन्नति

कलात्मक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में जितना विकास इस काल में हुआ इतना किसी भी समय में नहीं हुआ। इसी आधार पर कुछ इतिहासकार गुप्त काल को स्वर्ण युग मानते हैं क्योंकि इस काल में एक तरफ शान्ति और व्यवस्था स्थापित हुई और दूसरी ओर विभिन्न कला क्षेत्रों में उन्नति हुई। आर्थिक दृष्टि से देश काफी धनी बना और सोने के सिक्के प्रचलन में आए। इस काल के विभिन्न कलात्मक विकास को हम निम्न प्रकार से देख सकते हैं :

स्थापत्य कला : इस काल में अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ, जिनमें से कुछ अब भी बचे हुए हैं, इनमें देवगढ़ (झांसी) का दशावतार (विष्णु) मन्दिर, भीतरी गांव का दशावतार, भूमरा (मध्य प्रदेश) का शिव मन्दिर, नचना कुठार (मध्यप्रदेश) का पार्वती मन्दिर, तिगवा (मध्य प्रदेश) का वैष्णव मन्दिर । बौद्ध गया तथा सांची के मन्दिर इत्यादि । इन मन्दिरों की छत चपटी होती थी परन्तु बाद में इनके ऊपर शिखर निर्मित किए जाने लगे। प्रवेश द्वार के स्तम्भों और चौखटों पर कलाकृतियां उत्कीर्ण हैं। इस काल में बौद्धों के अनेक गुफाओं, विहारों, चैत्यों और स्तूपों का निर्माण हुआ। उदयगिरि की पहाड़ी में वैष्णव और शैवमत की गुफाओं में अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाई गई।

मूर्तिकला : इस काल में महात्मा बुद्ध, विष्णु, शिव एवं सूर्य आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां मिलती हैं, जो पत्थर, धातु या मिट्टी की बनी हुई हैं। मथुरा व अमरावती मूर्ति बनाने के प्रमुख केंद्र थे। यह कला पूर्णतया भारतीय थी। दूसरी विशेषता इनकी सरलता है। तीसरी विशेषता इनकी सुन्दरता है। इनमें वस्त्रों को इतनी कुशलता से बनाया है कि उनमें स्वाभाविक सौन्दर्य और मनोहरता झलकती है।

चित्रकला : गुप्त काल में चित्रकला के प्रमाण अजन्ता, एलोरा, बाघ आदि की गुफाओं में बने चित्र हैं। इन चित्रों ने गुप्त कला को अमर बना दिया है। इन चित्रों में पशु-पक्षी, फूल-पत्ती, नर-नारी आदि का बड़ा सजीव चित्रण मिलता है इन चित्रों से तत्कालीन वेशभूषा, केश विन्यास तथा अलंकार प्रसाधन को समझने में सुविधा होती है।

धातुकला : धातु को गलाना, ढालना और उसको आकार देने की उच्च कला उस काल में थी। महरौली (दिल्ली) में चन्द्रगुप्त द्वारा बनवाया गया लौह स्तम्भ इस कला का अद्भुत नमूना है इसे पिछले 1600 साल से आज तक तूफान, वर्षा और हवा के पश्चात भी जंग नहीं लगा।

बिहार से महात्मा बुद्ध की नालंदा से मिली कांसे की प्रतिमा आज भी हमें गर्व अनुभव कराती है। उस काल में सिक्के बनाने की कला भी बहुत विकसित थी। हमें सोने तथा चांदी के सिक्के प्राप्त होते हैं, जिन पर देवी-देवताओं और राजाओं के चित्रण मिलते हैं। संस्कृत भाषा में शासकों के नाम भी मिलते हैं।

साहित्य : गुप्त शासको ने संस्कृत भाषा को प्रोत्साहित किया। साहित्य के क्षेत्र में कालिदास इस काल के महान साहित्यकार थे। उस काल अन्य लेखक विशाखादत्त, भारवि, शूद्रक, अमर सिंह और दण्डिन थे। उस काल में पंचतन्त्र तथा हितोपदेश कहानी के संग्रह लिखे गए, जिनका संसार के अन्य भाषों में अनुवाद हो चुका है।

कालिदास की प्रमुख रचनाएं

  • अभिज्ञानशाकुन्तलम्
  • रघुवंश
  • मालविकाग्निमित्र
  • ऋतुसंहार
  • विक्रमोर्वशीयम्
  • मेघदूत
  • कुमारसम्भव

वैज्ञानिक उन्नति

विज्ञान के क्षेत्र में भी विशेषत: गणित, ज्योतिष तथा चिकित्सा में कई खोजें हुईं और ग्रंथ लिखे गए। इस काल के महान वैज्ञानिक आर्यभट्ट, वराहमिहिर तथा ब्रह्मगुप्त आदि थे।

गणित : आर्यभट्ट ने बीजगणित के सूत्र निकाले। पाई का शुद्ध मान बताया था। अक्षरों द्वारा अंक लिखने की प्रथा, अंकों का स्थानीय मान खोजा। इसी काल में शून्य और दशमलव प्रणाली का जन्म भी हुआ। ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मास्फुट सिद्धांत की रचना की । ब्रह्मगुप्त ने गणित, बीजगणित और रेखागणित के अनेक सिद्धान्त बनाए । गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भी इसने दिया।

खगोल : आर्यभट्ट ने पृथ्वी को गोल बताया। इसके धुरी पर घूमने तथा इसकी परिधि का मान तथा वर्ष का मान निकाला। वराहमिहिर ने वृहत्संहिता तथा ज्योतिष का ग्रंथ वृहत् जातक भी लिखा। भूगोल और वनस्पति विज्ञान के विषय में वराहमिहिर ने बहुत कुछ स्पष्ट किया।

चिकित्सा : इस क्षेत्र में चरक तथा सुश्रुत ने अपनी संहिताएं लिखीं। वाग्भट्ट ने अष्टांग संग्रह की रचना की। इसी काल हाथी तथा घोड़े की चिकित्सा पर हस्त्यायुर्वेद व अश्वशास्त्र लिखे गए।

तकनीक : महरौली का लौह स्तंभ, सुल्तानगंज तथा सारनाथ में तांबे की भगवान बुद्ध की प्रतिमाएं इसी काल में बनी।

शिक्षा

गुप्तकाल में शिक्षा अपनी चरम सीमा पर थी। इस समय नालंदा विश्वविद्यालय एवं उदयगिरी विश्वविद्यालय प्रमुख थे । उड़ीसा में उदयगिरी, रत्नागिरी, ललितगिरी को मिलाकर विशाल विश्वविद्यालय बनाया गया था, जो बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। यहां माधवपुर महाविहार का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त वल्लभी, पाटलिपुत्र, बनारस, मथुरा, उज्जैन, सारनाथ आदि स्थान भी शिक्षा के प्रमुख केंद्र थे। इनमें शिक्षा प्राप्त करने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों व विदेशों से भी विद्यार्थी आते थे। नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्त सम्राट कुमारगुप्त ने की थी। इस विश्वविद्यालय में प्रवेश करने के लिए एक प्रवेश परीक्षा होती थी। जिसे उत्तीर्ण करने पर ही विद्यार्थी को प्रवेश मिलता था। इसमें लगभग 10000 विद्यार्थी और 1500 के लगभग आचार्य पठन-पाठन का कार्य करते थे। यहां पर 3 मंजिला विशाल पुस्तकालय था। यहां पर भाषाएं, व्याकरण, धर्म, दर्शन, इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र, विज्ञान, कूटनीति इत्यादि। यहाँ पर 3 मंजिला विशाल पुस्तकालय था। यहा पर भाषाएं, व्याकरण, धर्म, दर्शन, इतिहास, विषय पढाये जाते थे। शिक्षा के इन महान केन्द्रों ने भी गुप्तकाल को स्वर्णकाल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

माइंड मैप

गुप्त काल को स्वर्ण युग क्यों मानते हैं

  • कुशल प्रशासन प्रबंध
  • विशाल साम्राज्य
  • उच्च सामाजिक व्यवस्था
  • वैज्ञानिक उन्नति
  • समृद्ध आर्थिक जीवन
  • शिक्षा के उच्च केंद्र
  • कला के क्षेत्र में उन्नति
  • धार्मिक सहनशीलता की नीति
  • व्यापार में उन्नति
  • विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रसार

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