गुप्तकाल : विजय एवं राज्य विस्तार Class 6 इतिहास Chapter 8 Notes – हमारा भारत I HBSE Solution

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गुप्तकाल : विजय एवं राज्य विस्तार Class 6 इतिहास Chapter 8 Notes


गुप्त साम्राज्य के मुख्य स्त्रोत

  • अभिलेख
    प्रयागराज (इलाहाबाद)
    सांची
  • भूमि संबंधित दस्तावेज
  • सिक्के
  • साहित्यिक रचनाएं
    फाह्यान
    कालिदास

मौर्य साम्राज्य के विघटन के पश्चात् उत्तरी भारत में कुषाणों और दक्षिण भारत में सातवाहनों का साम्राज्य स्थापित हो गया। ये दोनों साम्राज्य तीसरी शताब्दी ई० में समाप्त हो गये। कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद भारत में राजनीतिक अव्यवस्था फैल गई। इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर स्थानीय शासकों तथा सामन्तों ने अपने क्षेत्रों को छोटे-छोटे राज्यों के रूप में संगठित करना आरम्भ कर दिया। इसी समय में श्रीगुप्त ने मगध में गुप्त साम्राज्य की स्थापना की। उन्होंने ‘महाराज’ की उपाधि धारण करके सन् 280 ई. तक शासन किया।

श्रीगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उनके पुत्र घटोत्कच ने सन् 319 ई. तक शासन किया। उन्होंने पाटलिपुत्र तथा उसके आसपास के क्षेत्र से साम्राज्य की शुरुआत की, लेकिन इस साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक चन्द्रगुप्त प्रथम को माना जाता है। इस वंश के शासकों ने छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों को अपने अधीन करके भारतवर्ष को राजनीतिक सूत्र में बांधा और शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की। इस वंश के शासनकाल में हमारे देश ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की। देश का गौरव दूर-दूर तक फैला। भारतीय इतिहास में यह काल ‘स्वर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है। इस वंश के प्रमुख शासक थे चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, बुद्धगुप्त आदि ।

गुप्त वंश के प्रमुख शासक

1. चन्द्रगुप्त प्रथम

घटोत्कच के बाद चन्द्रगुप्त प्रथम शासक बने । उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। लिच्छवी वंश की राजकुमारी, कुमारदेवी से विवाह करके अपनी राजनीतिक स्थिति को सुदृढ़ बनाया। चन्द्रगुप्त प्रथम ने बंगाल, बिहार, अवध तथा प्रयागराज आदि। क्षेत्रों को अपने अधीन करके अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने सन् 335 ई. तक शासन किया। चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने जीवन काल में ही कुमारदेवी के पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था।

गुप्त सम्वत शुरू करने का श्रेय चंद्रगुप्त प्रथम को दिया जाता है।

2. समुद्रगुप्त

चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठे। वे निस्सन्देह एक महान विजेता थे। उन्होंने अपनी योग्यता तथा बाहुबल से गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया। प्रयागराज स्थित स्तम्भ लेख में उनकी ‘सैकड़ों युद्धों में भाग लेने में दक्ष’ कहकर प्रशंसा की गई है। उसने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। उसने कला व साहित्य की उन्नति में भी अभूतपूर्व योगदान दिया।

उनका विजय अभियान इस प्रकार है

उत्तर भारत की विजय

समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत पर दो बार आक्रमण किया था। प्रथम आक्रमण में तीन शासकों अच्युत, नागसेन तथा कोटकुलज को संयुक्त रूप से पराजित किया तथा उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। आक्रमण के पश्चात् समुद्रगुप्त दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने चले गए। उनकी इस अनुपस्थिति का लाभ उठाकर भारत नौ राजाओं ने समुद्रगुप्त के विरुद्ध संघ बनाने का निश्चय किया। इनमें रुद्रदेव का शासन बुन्देलखण्ड, अच्युत का बरेली, नागसेन का ग्वालियर, गणपति नाग का मथुरा, मातिल का बुलन्दशहर, चन्द्रवर्मन का बंगाल, बलवर्मा का असम, नन्दीनाग का मध्यभारत व नागदत्त का मध्यप्रदेश में था। समुद्रगुप्त ने इन सभी राजाओं को कौशाम्बी नामक स्थान पर पराजित कर दिया व इनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।

दक्षिण भारत की विजय

समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त उत्तर भारत के विजय अभियान के पश्चात् दक्षिण भारत पर विजय प्राप्त करने की योजना बनाई। इस विजय अभियान में उन्होंने 12 शासकों को पराजित किया। इस अभियान के लिए उन्हें चार हजार आठ सौ किलोमीटर की दूरी जगलों से होकर तय करनी पड़ी। समुद्रगुप्त ने अपनी कुशलता एवं उच्च कोटि की नेतृत्व क्षमता से अपने दक्षिण भारत की विजय अभियान को पूरा किया। समुद्रगुप्त द्वारा पराजित राजाओं व उनके राज्यों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है :

समुद्रगुप्त के अधीन राज्य

राजा राज्य क्षेत्र
महेन्द्र रायपुर सम्बलपुर, गंजम
व्याघ्रराज महाकांतार मध्य भारत का जंगली क्षेत्र
मण्टराज कौशल मध्य प्रदेश व उड़ीसा
महेन्द्रगिरी पिष्टपुर गोदावरी नदी क्षेत्र
स्वामीदत्त कोट्टर आंध्र प्रदेश क्षेत्र
राजा दमन एरंडेपल्ल कलिंग के दक्षिण का प्रदेश
विष्णुगोप कांची चेन्नई के आसपास का क्षेत्र
हस्तिवर्मन वेंगी कृष्णा का गोदावरी नदी का प्रदेश
नीलराज अवमुक्त कांची तथा वेंगी के मध्य का क्षेत्र
उग्रसेन पल्लक नेल्लोर का क्षेत्र
कुबेर देवराष्ट्र विशाखापट्टनम का क्षेत्र
धनंजय कुंतलपुर तोलुर व अकार्ट का क्षेत्र

दक्षिण भारत के उपरोक्त राजाओं द्वारा समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करने के पश्चात् उन्हें उनके राज्य वापिस कर दिए गए थे क्योंकि आधुनिक संचार संसाधनों के अभाव के कारण प्रत्यक्ष शासन संभव नहीं था।

विंध्य तथा आटविक राज्यों पर विजय

विंध्याचल प्रदेश में अनेक छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य थे। समुद्रगुप्त ने आक्रमण करके उन्हें पराजित किया व अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।

सीमान्त राज्यों पर विजय

विंध्य तथा आटविक राज्यों को जीतने के बाद समुद्रगुप्त ने अपने राज्य के पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाओं पर स्थित राज्यों को जीतने के लिए अभियान चलाया। इन राज्यों ने सरलता से उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी।

पश्चिमी सीमा पर स्थित विजयी किए गए नौ गणराज्य

राज्य क्षेत्र
मालव राजस्थान के प्रदेश
आर्जुनायन आगरा, अलवर में भरतपुर क्षेत्र
मद्रक रवि व चिनाब नदियों का मध्य भाग
प्रार्जुन राजपूताना, भिलसा व झांसी क्षेत्र
सनकानिक मध्य प्रदेश का नरसिंहपुर क्षेत्र
काक सांची के निकट क्षेत्र
खार्परिक मध्य प्रदेश का दमोह क्षेत्र
यौधेय पूर्वी पंजाब व साथ लगते उत्तर प्रदेश के क्षेत्र

पूर्वी सीमा पर स्थित जीते गए पांच राज्य

राज्य क्षेत्र
समतट बंगाल का समुद्रतटीय क्षेत्र
कामरुप असम
ड्वाक मध्य बंगाल क्षेत्र
नेपाल नेपाल के प्रदेश
कर्तृपुर करतारपुर, कुमाऊं, गढ़वाल व रूहेलखंड क्षेत्र

विदेशों से संबंध

समुद्रगुप्त की बढ़ती शक्ति से प्रभावित होकर अनेक विदेशी शासकों ने उनसे मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किए थे। इनमें कुषाण व शक शासकों के अतिरिक्त लंका, जावा, सुमात्रा तथा मलाया के शासक प्रमुख थे।

अश्वमेध यज्ञ

समुद्रगुप्त ने ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बनने के उद्देश्य से अश्वमेध यज्ञ किया। उसने अपने नाम के विभिन्न सिक्के जारी किए थे। समुद्रगुप्त एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी।

समुद्रगुप्त ने दर्शन, धर्म व राजनीति शास्त्र का गहन अध्ययन किया था। वह न केवल एक महान विजेता था। बल्कि एक योग्य, निष्पक्ष एवं न्यायप्रिय शासक भी था । उसे कला व साहित्य से बहुत प्रेम था। वह उच्च कोटि का विद्वान तथा कवि भी था। 375 ई. में उसकी मृत्यु हो गई थी। सौ युद्धों का विजेता समुद्रगुप्त इतना महत्वपूर्ण शासक था कि उसकी वीरता के कारण यूरोपियन इतिहासकार उसके नाम के साथ नेपोलियन का नाम जोड़ते हैं यद्यपि समुद्रगुप्त की उपलब्धियां उससे कहीं महान थी और वह नेपोलियन से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हुआ। इसलिए फ्रांसीसी शासक नेपोलियन को ‘फ्रांसीसी समुद्रगुप्त’ भी कहा जा सकता है।

3. चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र रामगुप्त शासक बना। 380 ई. में शकों से अपमान जनक सन्धि करने के कारण उसके छोटे भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उसकी हत्या कर दी थी और शासक बन कर गुप्त वंश के सिकुड़ते साम्राज्य को फिर से अपने पिता की तरह विस्तार देना शुरू किया था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विभिन्न शासकों से वैवाहिक संबंध स्थापित करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए युद्ध भी किए। इसी कारण उनकी ख्याति एक महान विजेता के रूप में दूर-दूर तक फैल गई थी।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की विजय

शकों एवं कुषाणों पर विजय

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने मालवा, गुजरात और काठियावाड़ क्षेत्रों में शकों एवं कुषाणों का दमन किया। उन्होंने वाकाटक नरेश की सहायता से 21 शक राजाओं पर आक्रमण किया। वह युद्ध लंबे समय तक चलता रहा। अन्त में शकों की पराजय हुई। शक शासक रुद्रसिंह तृतीय मारा गया था। इसी के साथ उन्होंने अवन्ती के कुषाणों का भी दमन किया था। इस विजय अभियान के परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य की सीमाएं अरब सागर को छूने लगी थीं। इस विजय अभियान के बाद उन्होंने ‘विक्रमादित्य’ (शूरवीरता का सूर्य) तथा ‘शकारि’ (शकों का नाश करने वाला) की उपाधि धारण की थी।

बंग के सरदारों का दमन

बंगाल में कुछ सामन्त एवं सरदारों ने विद्रोह कर दिया था । चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए यह असहनीय था। इसलिए उन्होंने बंगाल पर आक्रमण करके विद्रोही सरदारों का दमन किया और उस प्रदेश पर पुनः अधिकार किया।

शक मध्य एशिया के रहने वाले थे। पश्चिमी चीन की यूची जाति ने शकों को उनकी मातृभूमि मध्य एशिया से भगा दिया था। शक पहले दक्षिण अफगानिस्तान में बसे और बाद में उन्होंने वहां से धीरे-धीरे भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया।

बल्ख की विजय

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने सिन्धु नदी के आस पास के क्षेत्र में फैली वाहलिक जाति को पराजित किया। यह सात शाखाओं में फैली विदेशी जाति थी। उसने इनका दमन करके पंजाब के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया।

फाह्यान एक चीनी यात्री था। वह भारत में बौद्ध धर्म से संबन्धित ग्रंथों को प्राप्त करने तथा महात्मा बुद्ध के जीवन से संबन्धित स्थानों की यात्रा करने के उद्देश्य से भारत आया। वह भारत में 399-414 ई. तक रहा। उसने भारत के संबंध में ‘फो-कुओ-की’ नामक ग्रंथ लिखा।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने 380 ई. से 414 ई. तक शासन किया। इनके शासनकाल में भारत खूब समृद्ध हुआ । उसने अपने साम्राज्य का विस्तार दूर-दूर तक किया था। उसके समय में गुप्त साम्राज्य की सीमाएं उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से पश्चिम में अरब सागर तक फैली हुई थी। उन्होंने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि के साथ-साथ ‘सिंह विक्रम’, ‘सिंह चन्द्र’, ‘विक्रमांक देवराज’ आदि उपाधियाँ भी धारण की। उसने अश्वमेध यज्ञ भी करवाया।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य एक अच्छे विजेता होने के साथ-साथ अपने पिता की तरह ही कुशल शासन-प्रबन्धक भी थे। उसका शासन प्रबन्ध धर्मशास्त्रों पर आधारित और जन कल्याणकारी था। चीनी यात्री फाह्यान भी उसके ही शासनकाल में भारत आया था। कालिदास जैसे महान कवि उसके दरबार की शोभा बढ़ाते थे।

उसने अपने साम्राज्य को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली बनाने के लिए शक्तिशाली राज्यों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। उसने स्वयं नागवंश की राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया। कालान्तर में उसने वाकाटक राजा रुद्रदेव द्वितीय के साथ अपनी कन्या प्रभावती का विवाह किया तथा कुंतल राजा की पुत्री के साथ अपने पुत्र का विवाह किया। इन विवाह संबंधों के कारण उसकी ख्याति में वृद्धि हुई।

4. कुमारगुप्त

414 ई. में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का पुत्र कुमारगुप्त गद्दी पर बैठा। वह पट्टमहादेवी ध्रुवदेवी का पुत्र था। उसने ‘महेन्द्रादित्य’ की उपाधि धारण की तथा अश्वमेध यज्ञ भी किया। कुमारगुप्त का सौभाग्य था कि उसे कोई भी युद्ध नहीं लड़ना पड़ा। उसके शासन काल में शान्ति, स्थिरता तथा सुव्यवस्था बनी रही। उसने विभिन्न प्रकार के सोने-चांदी के सिक्के भी चलाए । कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य ने सन् 455 ई. तक शासन किया। उसके शासन के अन्तिम वर्षों में पुष्यभूतियों ने आक्रमण कर दिया था। लेकिन उसके पुत्र स्कन्दगुप्त ने उन्हें बुरी तरह पराजित कर दिया था।

5. स्कन्दगुप्त

कुमारगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। वह एक कुशल राजनीतिज्ञ तथा वीर योद्धा था। वह अपने पिता के शासन काल में ही पुष्यभूतियों के भयंकर विद्रोह को दबाकर अपनी वीरता का प्रमाण दे चुका था। उस के शासनकाल में संघर्षों की भरमार रही। उसकी सबसे अधिक परेशानी मध्य एशियाई बर्बर जाति हूण ने बढ़ाई। स्कन्दगुप्त ने अपने रण कौशल का परिचय देते हुए हूणों को करारी शिकस्त दी। अगले 50 वर्षों तक हूणों को भारत की सीमा से दूर रहे। इसके बाद, उसके छोटे चाचा गोविन्दगुप्त ने मालवा में किए गए विद्रोह को दबाया। उसने कुछ क्षेत्रों के सामन्ती विद्रोहों को भी आसानी से दबाया । हूणों को पराजित करने के बाद उन्होंने भितरी (गाजीपुर जिला) नामक गांव में विष्णु स्तम्भ भी बनवाया। स्कन्दगुप्त ने अपने शासन काल में सौराष्ट्र (काठियावाड़) में चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा बनवाई गई सुदर्शन झील की मरम्मत करवाई । प्रान्तीय गवर्नर पर्णदत्त ने स्कन्दगुप्त के आदेशानुसार इस झील का जीर्णोद्धार करवाया। उसके तट पर भगवान् विष्णु का मन्दिर बनवाया । स्कन्दगुप्त अपनी वीरता, जनकल्याण की भावना एवं चारित्रिक अच्छाई के लिए विख्यात था। उसकी तुलना धर्मराज युधिष्ठिर से करके ‘परहितकारी’ बतलाया गया है।

स्कन्दगुप्त की मृत्यु 467 ई. में हो गई। उसके पश्चात् के गुप्त शासकों में कोई भी ऐसा शासक नहीं था जो गुप्त साम्राज्य की एकता और अखण्डता को बनाए रख सके। जिसके कारण महान गुप्त साम्राज्य का पतन शुरू हो गया।

स्कन्दगुप्त के बाद कई शासक बने जैसे पुरुगुप्त, बुद्धगुप्त, नरसिंह गुप्त, कुमार गुप्त तृतीय तथा विष्णु गुप्त, भानु गुप्त आदि हुए परन्तु समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के बाहुबल से निर्मित गुप्त साम्राज्य गर्त में डूब गया।

हूण मध्य एशिया के बर्बर लोग थे। उन्होंने स्कन्दगुप्त के शासन काल में गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने हूणों को बुरी तरह से पराजित कर भगा दिया। तोरमाण और मिहिरकुल के नेतृत्व में हूण शक्ति अपनी चरम सीमा पर थी।

गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग

  • गुप्त काल को भारतीय इतिहास में स्वर्ण युग के रूप में जाना जाता है।
  • गुप्त शासकों ने साम्राज्य को विकास की ऊंचाइयों तक पहुंचाया। सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बांधा।
  • पूरे भारत में शान्ति एवं खुशहाली थी।
  • विदेशों से भारत के अच्छे संबंध थे।
  • गुप्त काल में भारत ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में अभूतपूर्व उन्नति की और पूरी दुनिया में भारत की समृद्धि का परचम लहराने लगा।
  • आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, वाग्भट्ट जैसे महान विज्ञानी गुप्त काल को विकास की चरम सीमा पर ले गए।
  • इस काल में भारतीय संस्कृति का विदेशों में प्रसार हुआ।
  • कृषक तथा साधारण जनता प्रसन्न थी। अपराध कम थे।
  • उस समय कला एवं संस्कृति के क्षेत्रों में भी अभूतपूर्व उन्नति हुई।

गुप्त साम्राज्य का पतन

स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद गुप्त साम्राज्य का पतन होने लगा। इसके पतन के कारण निम्नलिखित रहे :

  • प्रान्तीय गवर्नरों का विद्रोह केन्द्र (शासक) के कमजोर होने के कारण प्रान्तीय गवर्नर अपनी स्वतंत्रता के लिए विद्रोह कर देते थे। इन विद्रोहों को दबाने के लिए कोई उचित कदम नहीं उठाया गया। ये विद्रोह पतन के कारण बने।
  • कमजोर उत्तराधिकारी: स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद सभी गुप्त उत्तराधिकारी निर्बल सिद्ध हुए और उनसे विशाल साम्राज्य का संचालन सही नहीं हो सका।
  • आन्तरिक कलह : गुप्त वंश के उत्तराधिकारियों में स्कन्दगुप्त के बाद गद्दी पर बैठने के लिए आपसी झगड़े निरन्तर बढ़ने लगे। एक दूसरे को दुर्बल करने का प्रयास किया जाने लगा।
  • हूणों के आक्रमण : स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद हूणों के आक्रमण निरन्तर बढ़ गए जिससे आर्थिक हानि अधिक हो गई और ये आक्रमण साम्राज्य के पतन का कारण बने।
  • साम्राज्य का विशाल होना : उस समय संसाधनों की कमी थी और साम्राज्य का क्षेत्र विशाल था जिसके कारण सुरक्षा व्यवस्था सही समय पर सभी जगह उपलब्ध नहीं हो पा रही थी।
  • अन्य कारण : विदेशी आक्रमण, दण्ड-व्यवस्था का उचित प्रबन्ध न होना एवं उत्तराधिकार के नियमों का अभाव होने के कारण गुप्त साम्राज्य पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो गया और यह साम्राज्य पूर्णरूप से समाप्त हो गया।

इस प्रकार श्रीगुप्त द्वारा स्थापित छोटे से गुप्त साम्राज्य को चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त व स्कंदगुप्त जैसे योग्य वीर एवं महान शासकों ने अपनी योग्यता से अनेक विजयों के द्वारा विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया। भारत को उन्नति के लिए एक सूत्र में बांधने का विशेष श्रेय गुप्त वंश को प्राप्त है। शक्तिशाली गुप्त सम्राटों ने भारत का नाम विश्व में चमकाया। स्कंदगुप्त के बाद के सभी गुप्त शासक अयोग्य व कायर थे जिससे एकता व अखण्डता को धक्का लगा आंतरिक कलह व विद्रोह होने लगे। बार-बार विदेशी आक्रमण होने लगे जिससे यह विशाल साम्राज्य समाप्त हो गया।

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