HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Chapter 10 भारतरत्न मदनमोहन मालवीय Explain Solution

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भारतरत्न मदनमोहन मालवीय Class 10 Naitik Siksha Chapter 10 Explain


मरि जाऊँ माँगें नहीं अपने हित के काज।
पर कारज हित माँगिबे, मोहि न आवत लाज ।।

उपर्युक्त पंक्तियाँ महामना मदनमोहन मालवीय पर खरी उतरती हैं। वे लोगों के सामने झोली फैलाते थे और उनकी झोली कभी खाली नहीं रहती थी। इसलिए उन्हें भिक्षुक सम्राट कहा जाता था। यह निर्विवाद सत्य है कि दान में मिली राशि की एक पाई भी उन्होंने अपने ऊपर खर्च नहीं की और एक अद्भुत संस्था खड़ी कर दी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय। भारतीय संस्कृति की रक्षा व शिक्षा के प्रसार के क्षेत्र में यह उनका महानतम कार्य था।

सन 1885 में मदनमोहन कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए। अगले वर्ष कांग्रेस अधिवेशन में उन्होंने जोरदार भाषण दिया। पत्रकारिता से जुड़कर वे ‘हिन्दुस्तान’ ‘अभ्युदय’ व ‘लीडर पत्रों का सम्पादन करने लगे। कालाकांकर नरेश रामपालसिंह के विनम्र आग्रह पर न चाहते हुए भी, मदनमोहन मालवीय ने एल.एल.बी. की और उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। इस क्षेत्र में उनकी सबसे बड़ी सफलता चौरा चौरी काण्ड के अभियुक्तों को फाँसी की सजा से बचा लेने की थी। ये अपने मुकदमे दूसरे वकीलों को दे दिया करते ताकि उनको आगे बढ़ने के मौके मिलें ।

मदनमोहन मालवीय आधुनिक समय के भीष्म पितामह थे। आज का भारत उनसे प्रेरणा पा रहा है। मालवीय का मन बहुत बड़ा था, इसलिए उनको ‘महामना’ कहा जाता है। उनकी सेवाओं से तृप्त है माँ भारती व साधना से उर्वर है – भारतीय वातावरण। सच कहा जाए तो मालवीय में न मद था, न मोह। थी तो बस एक धुन एक लगन हिन्दी हिन्दू-हिन्दुस्तान की। उनकी यह धुन और लगन महाशक्ति बन गई। उनका ध्येय केवल और केवल जनहित था। आडम्बर से उन्हें चिढ़ थी।

बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना से पूर्व कुछ लोग व्यंग्य शैली में पूछते, ‘मालवीय जी, आपका खिलौना विश्वविद्यालय कब तक बन जाएगा?” उनकी बातों पर क्रोधित हुए बिना मालवीय सन्तोषजनक उत्तर देते। एक दिन उनकी मेहनत रंग लाई। 14 फरवरी 1916 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव रखी गई तो उन्हें चिढ़ाने वाले लोग ठगे से रह गए। शीघ्र ही इसकी गिनती देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में होने लगी। एक दीक्षान्त समारोह में विश्वविद्यालय के उद्देश्य बताते हुए उन्होंने कहा था- इस विश्वविद्यालय की स्थापना इसलिए की गई है कि यहाँ का प्रत्येक छात्र वीर पुरुष और प्रत्येक छात्रा वीर माता बने। सच्चरित्रता इसका मूल मन्त्र है और इसी से हमारी शोभा है। इस विद्यालय के द्वार सबके लिए खुले हैं।

बस फिर क्या था हर वर्ष हजारों छात्र इस संस्था से शिक्षित होकर निकलने लगे। सन 1919 से 1939 तक मालवीयजी स्वयं विश्वविद्यालय के कुलपति रहे विद्यार्थियों के प्रति उनका व्यवहार पिता के समान था। आर्थिक रूप से कमजोर छात्रों की उन्होंने सदा मदद की। वे प्रायः कहा करते- आर्थिक तंगी के कारण कोई छात्र शिक्षा से वंचित न रहने पाए। न जाने इन छात्रों में कितने शिवाजी महाराणा व अर्जुन छुपे हैं। वे यह भी कहते थे यदि हम संस्कृति को भूल जाएँगे तो जड़ से कट जाएँगे और यदि विज्ञान को नहीं समझेंगे तो पिछड़ जाएँगे। उन्होंने विज्ञान व संस्कृति को समान महत्त्व दिया।

स्त्री शिक्षा के विषय में मदनमोहन मालवीय के विचार स्पष्ट थे। उनके अनुसार, ‘स्त्री शिक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि स्त्रियाँ भावी सन्तान की माताएँ हैं। उनकी शिक्षा ऐसी हो, जो उनके व्यक्तित्व में प्राचीन तथा नवीन सभ्यता के गुणों का समन्वय कर सके।’

धार्मिक सहिष्णुता के विषय में पण्डित मदनमोहन ने ‘अभ्युदय’ पत्र में लिखा था, ‘भारत केवल हिन्दुओं का देश नहीं है। यह हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों का प्यारा जन्मस्थान है। हमें हिन्दू-मुसलमान होने की बजाय सच्चा भारतीय होना अनिवार्य है।”

राजनीतिक क्षेत्र में मदनमोहन मालवीय को काफी यश मिला। असहयोग आन्दोलन में वे जेल भी गए। दूसरी गोलमेज सभा में वे भारत के प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैंड गए। दो बार हिन्दू महासभा के प्रधान चुने गए। उन्होंने हिन्दी की प्रमुख संस्था हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की और कई बार इसके अध्यक्ष भी रहे।

पण्डित मदनमोहन अपनी संस्कृति को भूलकर अलग राह पर चलने की बात सोचते भी नहीं थे। वे अंग्रेजियत की बाढ़ को रोकते थे परन्तु विरोध करके नहीं बल्कि अपनी कार्यशैली व सोच से उनकी सोच हिमालय से भी ऊँची और समुद्र से भी गहरी थी। उनकी वाणी में अद्भुत मिठास था। उनके भाषण सुनकर श्रोता मन्त्रमुग्ध रह जाते थे। काम के समय वे स्वयं आगे आ जाते थे और कीर्ति के समय दूसरों को आगे कर देते थे। उनका मन्त्र था काम करो, गाथा मत गाओ।

मदनमोहन मालवीय निःसन्देह क्रान्तिकारी थे। आजादी के आन्दोलन के दौरान वे कांग्रेस के नरम व गरम दल के मध्य पुल का काम करते थे। उन्होंने केवल संस्थाएँ ही नहीं बनाई, लोगों को भी बनाया। पण्डित मदनमोहन जिस बात को ठीक समझते थे, उस पर टिके रहते थे। दूसरों की देखादेखी वे अपना मत स्थिर नहीं करते थे। वे अछूतों को दीक्षा देने, मन्दिरों में उनका प्रवेश कराने, कुओं तथा स्कूलों को उनके लिए खोल देने के पक्षपाती थे। वे जनता जर्नादन को देवतातुल्य मानते थे।

महाभारत, वेद व गीता उनके प्रिय ग्रन्थ थे, जो यात्राओं के समय भी साथ रखे जाते थे। सुबह-सायं दर्शन करने हेतु वे अपने माता-पिता के चित्र भी अपने साथ रखा करते। स्पष्ट है कि वे मातृ-पितृ भक्त थे। मालवीय के असाधारण व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था दुनिया के किसी भी गज से नापे, मालवीय जी को बहुत बड़ा पाएँगे।

इतना ही नहीं, मालवीय शुचिता की मूर्ति थे। वे सुबह-शाम सन्ध्या करते। नशीले पदार्थों से दूर रहते। पोशाक की दृष्टि से भी वे पूर्ण भारतीय थे। ये बातें सिद्ध करती हैं कि वे भारतीय संस्कृति से गहराई से जुड़े थे। उनकी सोच व कार्यशैली सबके लिए अनुकरणीय थी, है और रहेगी। 12 नवम्बर 1946 को यह महामानव सदा-सदा के लिए हमसे विदा हो गया। यह ठीक है कि हम महापुरुषों की मूर्तियाँ खड़ी करें, स्मारक बनाएँ परन्तु सबसे जरूरी है उनकी ज़िन्दगी से प्रेरणा लेकर देशहित के कार्य करें। भारतीयता के पोषक व शिक्षा प्रसारक देश रत्न मदनमोहन मालवीय के प्रति सिर बार-बार श्रद्धानत हो जाता है, जिसके फलस्वरूप भारत सरकार ने 2015 में उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किया।


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