Class 10 Hindi Naitik Siksha BSEH Solution for Chapter 11 नीतिपद Explain for Haryana board. CCL Chapter Provide Class 1th to 12th all Subjects Solution With Notes, Question Answer, Summary and Important Questions. Class 10 Hindi mcq, summary, Important Question Answer, Textual Question Answer, Word meaning, Vyakhya are available of नैतिक शिक्षा Book for HBSE.
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HBSE Class 10 Naitik Siksha Chapter 11 नीतिपद / Nitipad Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 10th Book Solution.
नीतिपद Class 10 Naitik Siksha Chapter 11 Explain
जो जग में साहित्य और संगीत कलादिक से है हीन ।
है पशु ही साक्षात् मनुज वह केवल सींग पूँछ से हीन ।।
घास न खाकर भी जीते हैं, जग में जो वे नर हतभाग्य
समझो इसे अन्य पशुओं का इस जग बीच परम सौभाग्य ।
शब्दार्थ – जग – संसार। कलादिक – कला आदि। हीन – के बिना। मनुज – मनुष्य। हतभाग्य – भाग्यहीन।
व्याख्या – जो व्यक्ति इस संसार में साहित्य, संगीत और कला आदि से रहित है वह मनुष्य साक्षात पशु के समान बिना सींग और पूंछ के होते हुए और घास न खाते हुए भी जीवित हैं। वह मनुष्य इस संसार में भाग्यहीन है। इस संसार में पशुओं के लिए यह परम सौभाग्य की बात है।
विद्या नर का श्रेष्ठ रूप है, छिपा हुआ धन परम अनूप।
विद्या भोग कीर्ति सुख देती, विद्या गुरुओं की गुरु रूप ।।
विद्या सबान्धव विदेश में विद्या ही है देव महान।
विद्या ही नृप पूज्य नहीं धन, विद्याहीन मनुज पशु जान ।।
शब्दार्थ – कीर्ति – यश। सबान्धव – संबंधी। नृप – राजा। पूज्य – पूजा। विद्याहीन – विद्या के बिना। मनुज – मनुष्य। पशु जान – पशु के समान दिखाई पड़ना।
व्याख्या – विद्या ही इंसान का श्रेष्ठ रूप होता है। विद्या ही छिपा हुआ परम धन होता है। विद्या का भोग ही सुख और यश देता है। विद्या गुरुओं का गुरु है। विदेश में विद्या ही संबंधी है। विद्या ही महान देवता है। राजाओं में विद्या की पूजा होती है धन की नहीं। विद्या के बिना मनुष्य पशु के समान दिखाई पड़ता है।
नीच पुरुष विघ्नों के भय से करते नहीं कार्य प्रारम्भ।
विघ्नों के आने पर मध्यम तज देते हैं कर आरम्भ ।।
पर विघ्नों के द्वारा ताड़ित होने पर भी बारम्बार ।
उत्तम जन प्रारब्ध कर्म को कभी न तजते किसी प्रकार ।।
शब्दार्थ – विघ्नों – मुसीबत। भय – डर। प्रारम्भ – आरंभ करना। मध्यम – मध्यम श्रेणी के लोग। तज – त्याग / छोड़। ताड़ित – सताए जाने पर। बारम्बार – लगातार। उत्तम जन – उत्तम श्रेणी के लोग। प्रारब्ध – प्रारंभ किया हुआ। कर्म – कार्य। तजते – त्यागते।
व्याख्या – नीच पुरुष मुसीबतों के डर से कार्य को आरंभ ही नहीं करते हैं। मध्यम श्रेणी के लोग कार्य को आरंभ तो करते हैं लेकिन मुसीबतों के आने पर उसे त्याग देते हैं। किंतु उत्तम श्रेणी के लोग प्रारंभ किए हुए कार्य को बार-बार मुसीबतों के आने पर भी अपने कार्य को नहीं त्यागते हैं।
जिसके पास जगत में धन है, है नर वही कुलीन महान।
पण्डित वही, शास्त्र का ज्ञाता, और वही सबसे गुणवान ।।
वही सुवक्ता, दर्शनीय अरु करते सब उसका विश्वास।
निश्चय ही जग में गुण सारे, कंचन में करते हैं वास ।।
शब्दार्थ – कुलीन – ऊंचे दर्जे के लोग। सुवक्ता – अच्छा बोलने वाला। दर्शनीय अरु – दर्शन करने योग्य। कंचन – धन। वास – निवास।
व्याख्या – इस संसार में जिसके पास धन है वही व्यक्ति कुलीन, पंडित, शास्त्रों का ज्ञाता और वही सबसे बड़ा गुणवान होता है। वही अच्छा बोलने वाला और दर्शन करने योग्य है। सभी उसका विश्वास करते हैं। निश्चित रूप से इस संसार में सभी प्रकार के गुण हैं और वह धन के अंदर ही निवास करते हैं।
धारण करना धैर्य विपद में, अरु उन्नति में क्षमा प्रदान ।
और सभा में वाक् चातुरी समरांगण में शौर्य महान ।।
यश में अभिरुचि और व्यसन है केवल शास्त्रों का अभ्यास ।
सदा महात्मा पुरुषों में ये करते गुण स्वभाव से वास ।।
शब्दार्थ – धैर्य – धीरज। विपद – विपत्ति। अरु – अपनी। वाक् – वाणी। चातुरी – चतुराई। समरांगण – युद्ध क्षेत्र। शौर्य – पराक्रम। अभिरुचि – इच्छा। वास – निवास।
व्याख्या – विपत्ति के समय धीरज रखना, अपनी उन्नति में क्षमा प्रदान करना, और सभा में वाणी की चतुराई, युद्ध में पराक्रम, यश में इच्छा, शास्त्र में व्यसन — यह गुण महात्मा लोगों के स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं।
गुरु-पद-गति शिर की शोभा है, और हाथ की शोभा दान।
सत्य वचन मुख की शोभा है, भुज दण्डों की शौर्य महान ।।
उर की शोभा स्वच्छ वृत्ति है, शास्त्र श्रवण कानों की दिव्य ।
सुजनों के ऐश्वर्य बिना भी है ये प्रिय ! आभूषण भव्य ।।
शब्दार्थ – गुरु-पद-गति – गुरु के चरण। शिर – सिर। मुख – मुंह। भुज दण्डों – दोनों भुजाएं। उर – हृदय। स्वच्छ वृत्ति – स्वच्छता। श्रवण – सुनना। सुजनों – अच्छे लोग।
व्याख्या – सिर की शोभा गुरु के चरणों में है। हाथ की शोभा दान से है। मुख की शोभा सच बोलने से है। दोनों भुजाओं की शोभा युद्ध में वीरता दिखाने से है। हृदय की शोभा स्वच्छता से है। कान की शोभा शास्त्र के सुनने से है। लोगों के पास ऐश्वर्या न होने पर भी यह सज्जनों के प्रिय आभूषण हैं।
पाप कर्म से सदा बचाता करता है हितकर उपदेश ।
गुह्य बात को सदा छिपाता, प्रगटाता है गुण सविशेष ।।
अरु विपत्ति में साथ न तजता, और समय पर देता द्रव्य ।।
सन्त पुरुष बतलाते हैं ये, श्रेष्ठ मित्र के लक्षण भव्य ।।
शब्दार्थ – हितकर – हितकारी। उपदेश – ज्ञान की बातें। गुह्य – कपटी। प्रगटाता – प्रकट करता। अरु – आपकी। तजता – छोड़ता। द्रव्य – तरल।
व्याख्या – हितकारी उपदेश हमें हमेशा पाप करने से बचाते हैं। कपटी व्यक्ति हमेशा अपनी बातों को छुपाता है लेकिन अपनी बातों को प्रकट करने का विशेष गुण उसके पास हैं। वह आपकी की विपत्ति में कभी भी साथ नहीं छोड़ता है और समय पर उसकी मदद करता है। संत पुरुष यह बात बताते हैं कि यही लक्षण आप के सबसे अच्छे मित्र के हैं।
चाहे नीति निपुण जन निन्दें, चाहे संस्तुति करें अपार ।
चाहे लक्ष्मी आवे अथवा चली जाय इच्छा अनुसार।।
चाहे मरण आज ही होवे या युगान्त में जाय शरीर।
किन्तु न्याय- पथ से पद भर भी, कभी न विचलित होते धीर ।।
शब्दार्थ – नीति निपुण – बुद्धिमान। जन – व्यक्ति। निन्दें – निंदा करें। संस्तुति – प्रशंसा। युगान्त – युगो तक। पथ – रास्ता। धीर – धैर्यशाली।
व्याख्या – चाहे बुद्धिमान व्यक्ति निंदा करें या बहुत प्रशंसा करें। उसकी इच्छा से चाहे लक्ष्मी आए या चली जाए, चाहे मृत्यु आज ही हो जाए या युगो तक यह शरीर जीवित रहे। किंतु न्याय के रास्ते से धैर्यशाली कभी भी विचलित नहीं होते हैं।
(भर्तृहरि द्वारा रचित नीतिशतक के श्लोकों का उक्त भावानुवाद कवि गोपाल गुप्त ने किया है।)