HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Chapter 14 मानवता की राह Explain Solution

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मानवता की राह Class 10 Naitik Siksha Chapter 14 Explain


भारतीय ऋषियों ने विश्व कल्याण की कामना करते हुए लिखा है

‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, 
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।’

अर्थात् सब सुखी हों, सब नीरोगी हों, सबका कल्याण हो, किसी को भी दुःख प्राप्त न हो। ऐसी पुनीत भावनाएँ भारतवर्ष में सदैव प्रवाहित होती रही हैं। वास्तव में दया और परोपकार के समान न कोई दूसरा धर्म है और न पुण्य।

हमारी संस्कृति में मानव मात्र के कल्याण की भावना निहित है। हम जो भी कार्य करते हैं. सदैव ‘बहुजनहिताय और बहुजनसुखाय की दृष्टि से करते हैं। यही संस्कृति भारतवर्ष की आदर्श संस्कृति है। इस संस्कृति की मूल भावना ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के पवित्र उद्देश्य पर आधारित है।

मानव समाज के लिए ही नहीं, अपितु विश्व के प्राणी वर्ग के लिए भी कुछ ऐसे अमूल्य एवं उपासना करने योग्य उपयोगी तत्त्व हैं, जो जीवन को पवित्र, संयमित और विकसित करने के लिए अनिवार्य साधन हैं। वे तत्त्व संख्या से तीन हैं- धर्म, दर्शन और नीति ।

जिस प्रकार जैनाचार्यों की दृष्टि में मुक्ति के लिए सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चरित्र का समन्वय अनिवार्य है, जिस प्रकार वैज्ञानिक मार्टिन्यू के मत से लौकिक सिद्धि के लिए विश्वास- विचार और आचार का समन्वय अत्यावश्यक है, जिस प्रकार श्रीकृष्ण की मान्यता में जीवन मुक्ति के लिए भक्ति-ज्ञान-कर्म का समन्वय अनिवार्य है, उसी प्रकार जीवन शुद्धि के लिए धर्म, दर्शन एवं नीति इन तीन तत्त्वों का समन्वय होना अनिवार्य है। नैतिकता के बिना मानव में मानवता त्रिकाल में भी सम्भव नहीं। नीति वाक्य प्रसिद्ध है

“जागा सो पाया, सोया सो खोया।”

मानवता ‘मानव’ होने का भाव है। मात्र मानव देह धारण कर लेने से ही मानवता की सिद्धि नहीं हो जाती, इसके लिए मानवीय सद्गुणों का वरण आवश्यक है. जिनसे मनुष्य की मनुष्यता प्रमाणित होती है। मानवता व्यक्ति की आदर्श आचार संहिता है। मनु ने धर्म के जिन दस लक्षणों का उल्लेख किया है वे आचारमूलक ही हैं। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु यही मानवता का मूल मन्त्र है।

मानवता हमारी आस्था की सच्चाई का प्रतीक है। जिन्होंने मानवता छोड़ दी, समझो कि उन्होंने सब कुछ त्याग दिया। मानवता ही हमें मशीन और रोबोट से अलग करती है क्योंकि इनमें भावनाएँ नहीं होती। इसलिए ये कुछ भी महसूस नहीं करते। यह मानवता ही है, जो हमारे भीतर कोमलता, नम्रता, तर्कसंगतता, शिष्टता और वफादारी के बीज बोती है।

अलग-अलग सन्दर्भों या जीवन स्थितियों के आधार पर मानवता कई रूपों में दृष्टिगोचर होती है। कहीं यह उत्सर्ग के रूप में, कहीं करुणा के रूप में, कहीं सेवा-भाव के रूप में तो कभी सहनशीलता के रूप में प्रस्फुटित होती है। व्यापक हित के लिए भगवान शंकर का विषपान करना, अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व से महात्मा बुद्ध द्वारा डाकू अंगुलिमाल को सदाचारी बना देना, महर्षि कर्वे द्वारा स्त्री शिक्षा की प्रेरणा देना, महात्मा गाँधी द्वारा अछूतोद्धार-आन्दोलन चलाना, बाबा आमटे द्वारा कुष्ठ रोगियों की सेवा करना ये सब मानवता की ही द्योतक चेष्टाएँ हैं। वस्तुतः मानवता परोपकार, संवेदनशीलता, सद्भावना मूल्यनिष्ठा आदि अनेक दिशाओं में विकसित होती है। ऋषि-मुनि मानवता को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। वे कहते थे कि ईश्वर की प्राप्ति का माध्यम है दया- ‘जीवे दया नामे रुचि अर्थात् व्यक्ति में जीव मात्र के प्रति दया तथा प्रभु के नाम स्मरण में रुचि होनी चाहिए।

मानवता की सच्ची कसौटी विपरीत परिस्थितियों में भी मानवता पर अडिग रहना ही है। केवल वाणी के स्तर पर मानवता का स्वाँग भरना एक कुचेष्टा है। मानवता कार्य रूप में परिणत होनी चाहिए। देश और जाति की रक्षा के लिए गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने पुत्रों की बलि चढ़ा दी। यही सच्ची मानवता है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी दबती नहीं अपितु अपनी अमोघ शक्ति के साथ प्रस्फुटित हो ही जाती है।

मानवता विश्व मंगल की प्रेरक शक्ति है, कभी-कभी इसका छद्म रूप भी दिखाई दे जाता है। जो वस्तुतः स्वार्थपूर्ति का साधन ही होता है। देश में ऐसे भी मनुष्य कम नहीं हैं, जो प्रान्तद्वेष, धर्मद्वेष, वर्णद्वेष और जातिद्वेष के कारण संगठित होकर एक साथ विचार नहीं करते. कार्य नहीं करते, वार्तालाप नहीं करते और विद्रोह को खड़ा करते हैं। इस प्रकार के मनुष्यों के प्रति यही नीतिवचन है

“संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्” ऋग्वेद 10/191/2

अर्थात् सभी बन्धु प्रेम से मिलकर चलें व बोलें और सभी ज्ञानी बनें। सब के मन में एक जैसे विचार हों। इस नीति व मानवीयता से देश के समाज के शासन के और घर के कार्य सफल होते हैं। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि मानव ज्यों-ज्यों धन का अर्जन करता जाता है, त्यों-त्यों तृष्णा बढ़ती चली जाती है, उसको सन्तोष नहीं होता। मानवता के गुण को पोषित करने हेतु सन्तोषी होना आवश्यक है। तभी आचार्य विद्यासागर भी यही नीति व्यक्त करते हैं—

“पेट भरो, पेटी मत भरो।”

मानवता के विकास में आनुवंशिकता तथा परिवेश दोनों की ही महती भूमिका रहती है। व्यक्ति चाहे तो अपने विवेक के सहयोग से निरन्तर अभ्यास करता हुआ आनुवंशिक न्यूनताओं पर भी विजय पा सकता है तथा परिवेश से भी सारगर्भित तत्त्वों को ग्रहण कर सकता है। राक्षस कुल में जन्म लेकर तथा राक्षसी परिवेश से घिरे रहकर भी विभीषण अपनी ‘मानवता’ को बचा सके थे अपने सतत सात्त्विक चिन्तन तथा अभ्यास के बल पर महापुरुषों का संसर्ग, उत्कृष्ट ग्रन्थों का अध्ययन-श्रवण, अर्चन -पूजन, चिन्तन-मनन आदि मानवता के पोषक उपादान हैं, इनके निरन्तर अभ्यास से मानवता का विकास किया जा सकता है। निःसन्देह दया, करुणा, सहानुभूति आदि गुण ही मनुष्य को सच्चा मानव बनाते हैं। दया रहित मानव के धार्मिक होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उर्दू के शायर ने सच ही कहा है —

“इबादत है दुखियों की इमदाद करना जो नाशाद हैं उनका दिल शाद करना
खुदा की नमाज़ और पूजा यही है जो बरबाद हों उनको आबाद करना।।”

हमारा मन उदारता, दया और करुणा से भरपूर होना चाहिए। ऐसी स्थिति में ही हम स्वयं को मानव कह सकते हैं। यदि समाज से दया की भावना का लोप हो जाता है तो मानवता रसातल में चली जाएगी। आज भी विश्वयुद्ध की विभीषिकाएँ संसार को श्मशान का रूप देने के लिए व्याकुल हैं। आज आवश्यकता है कि मानव स्वार्थ भावना का परित्याग करके ‘वसुधैव कुटुम्बकम्” के सिद्धान्त पर चले। मानवता का कल्याण इसी में है। जब तक जन-जन में इस मूल मन्त्र का प्रवेश नहीं होगा, तब तक मानव सुखी नहीं होगा। मानवता पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाने वाला अभियान है। यह ईसा नानक गाँधी कबीर-बुद्ध और महावीर का दिखाया दिव्य मार्ग है। आइए, मानवीय अस्तित्व को प्रमाणित करने वाली इस मानवता के प्रति समर्पित हों। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी के अनुसार —

यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे 
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।


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