HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Chapter 5 कर्मयोग की साधना Explain Solution

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HBSE Class 10 Naitik Siksha Chapter 5 कर्मयोग की साधना / karmyog ki sadhna Explain for Haryana Board of नैतिक शिक्षा Class 10th Book Solution.

कर्मयोग की साधना Class 10 Naitik Siksha Chapter 5 Explain


गीता ज्ञान का सूर्य है भक्तिरूपी मणि का भण्डार है। निष्काम कर्म का अगाध सागर है। गीता में ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म का जैसा तत्त्व रहस्य बतलाया गया है, वैसा किसी ग्रन्थ में एकत्र नहीं मिलता। आत्मा के उद्धार के लिए तो गीता सर्वोपरि ग्रन्थ ही, इसके सिवाय यह मनुष्य को सभी प्रकार की उन्नति का मार्ग दिखाने वाला ग्रन्थ भी है। फल, आसक्ति, अहंकार, ममता से रहित होकर संसार के हित के उद्देश्य से कर्तव्य कर्म करना गीता का उपदेश है।

मनुष्य दो तरह से सोचता है पहली बात, काम करूँगा और उसका फल भी पूरा लूँगा। दूसरी बात, फल नहीं तो काम भी नहीं। गीता का उपदेश है- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। अर्थात् काम करो किन्तु उसका फल भगवान पर छोड़ दो। फल की चिन्ता मत करो। काम करना अपने वश की बात है। उसे करने के लिए मनुष्य स्वतन्त्र है। मनचाहा काम, मनचाहे ढंग से करने की उसे पूरी स्वतन्त्रता है। चाहे तो न भी करे। परन्तु मनुष्य होने के नाते काम करते हुए ही जीना है।

फल पर मनुष्य का अधिकार नहीं है। व्यक्ति मनचाहा फल नहीं पा सकता। यह निश्चित है कि किए जा रहे काम का फल तो मिलेगा ही। वह जब मिलना है तब मिलेगा, जितना मिलना है उतना मिलेगा और जैसे मिलना है वैसे मिलेगा। तब चिन्ता किस बात की? फल मनचाहा हो भी सकता है और नहीं भी। इसलिए फल की चिन्ता न्यायकारी ईश्वर पर छोड़ देनी चाहिए।

सारा ध्यान कर्म पर लगाना चाहिए। फल मीठा होता है यह मान लिया गया; पर कर्म की मिठास भी कम नहीं होती। हाँ, उस मिठास की खोज करनी पड़ती है शुभ संकल्प जागे यह सौभाग्य की बात होती है। उस संकल्प को पूरा करने में जुटे यह गर्व की बात होती है।

कर्म का आनन्द फल प्राप्त होने के बाद आरम्भ होगा- यह मान लेना ठीक नहीं। कर्म का अपना सौन्दर्य होता है। जो लोग कर्म के सौन्दर्य और आनन्द से वंचित रह जाते हैं और फल न मिलने पर झींकने लगते हैं, उनका सारा श्रम निराशा को जन्म देने वाला बन जाता है। जीवन परमात्मा का वरदान है और इसको सजाने-सँवारने का साधन है- कर्म अर्थात् श्रम । किसी के विचार बहुत मंगलकारी हो सकते हैं पर उनकी सराहना तभी हो सकती है, जब वे कार्य का रूप लेते हैं। ऐसा न होने पर उन विचारों की स्थिति जीर्णम् अंगे सुभाषितम् वाली होगी।

कर्म की सारी प्रक्रिया में आनन्द लेने वाला व्यक्ति कर्म के पथ पर पहला कदम बढ़ाता है. तभी से प्रसन्नचित्त रहने लगता है। फल पाने की अवस्था तक पहुँचते-पहुँचते वह आनन्द के सागर में तैरने लगता है। वह कर्म को ही पूजा, आराधना और उपासना मानता है।

उसे इस बात की परवाह नहीं होती कि फल क्या मिलेगा? कब मिलेगा? कितना मिलेगा? फल प्राप्त न हो तो भी वह घाटे में नहीं रहता क्योंकि वह कर्म का पूरा आनन्द ले चुका होता है और यदि मनचाहा फल मिल जाता है तो कर्म का आनन्द दुगुना हो जाता है। कर्म का आनन्द लेना उसके व्यक्तित्व की विशेष शैली बन जाती है। सकाम कर्म करने पर कामना की पूर्ति न हो तो बड़ा कष्ट होता है। कामना पूरी हो जाए तो सुख भी मिलता है किन्तु कर्म करने में ही रुचि हो और फल की आशा छोड़ दें तो मनुष्य भवबन्धन से छूट जाता है।

जब कर्म की प्रक्रिया में ही आनन्द लेने का आभास हो जाता है तो समस्त शक्ति कर्म की कुशलता पर केन्द्रित हो जाती है। ऐसा व्यक्ति ‘कर्मयोगी’ के रूप में पहचाना जाता है। उसके व्यक्तित्व में नित्य निखार आने लगता है। वह हानि-लाभ, जय-पराजय, सुख-दुःख में समता कर पाता है। समता का भाव नहीं होगा तो विषमता होगी। विषमता सारे उद्वेगों की जड़ है। विषमता के रहते कर्मयोगी बनना सम्भव नहीं है। कर्मफल से मुक्ति नहीं होगी तो जन्म मरण का चक्र चलता रहेगा, मुक्ति प्राप्त नहीं होगी कर्मयोग की साधना कठिन नहीं है पर उसमें शिथिलता का कोई स्थान नहीं है। कर्म को सुन्दर से सुन्दर ढंग से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ बनाकर सम्पन्न करने वाला सौभाग्यशाली कर्ता होता है। ऐसे कर्मशीलों ने ही हमारे भारत को कर्मभूमि, यज्ञभूमि और योगभूमि बनाया है।

कर्म का विधान करने वाले वेद, यजुर्वेद में भी कहा गया है —

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः। – यजुर्वेद 40/2

इसका अर्थ है कि सौ वर्षों तक कर्म करते हुए ही मनुष्य जीवन जीने की अभिलाषा करे। प्रकृति का भी प्रत्येक अवयव कर्मरत दिखाई देता है। सूर्य हो या तारे, पवन हो या पानी; सब के सब कर्म करते हुए सृष्टि के क्रम को गतिशील रखने में सहायक हैं। ये प्राकृतिक उपादान हमें कर्म करने की प्रेरणा देते रहते हैं। कहा भी जाता है- कर्म ही पूजा है। कर्म का क्षेत्र इतना व्यापक है कि इसको एक छोटे दायरे में नहीं समेटा जा सकता। मानव सभ्यता के विकास की कहानी, कर्म की ही कहानी है। यदि मानव कर्म न करता तो उसके पास वह सब नहीं होता, जो आज वह पा चुका है। इसीलिए कर्म के प्रति रुचि जगाने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कर्मकुशलता को योग का पर्याय माना- ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ ।


गीता पाठ


तेरहवाँ अध्याय

गीता के 13वें अध्याय का नाम ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभाग योग है। इस अध्याय में 34 श्लोक है. जिन में ज्ञानपूर्वक प्रकृति, पुरुष का निरूपण एवं क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का विस्तारपूर्वक प्रतिपादन किया गया है। पहले श्लोक से 18वें श्लोकपर्यन्त क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के स्वरूप का निरूपण एवं 19वें श्लोक से 34वें श्लोकपर्यन्त प्रकृति, पुरुष के स्वभाव प्रभाव का निरूपण किया गया है। श्रीकृष्ण ने क्षेत्र (शरीर) व क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा) के ज्ञान को बताया है

क्षेत्रज्ञ चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।।13/2।।

हे अर्जुन! तू सब क्षेत्रों (शरीरों) में क्षेत्रज्ञ अर्थात् जीवात्मा मुझ को ही जान क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थात् विकाररहित प्रकृति का और पुरुष का जो तत्त्वरूपी ज्ञान है, वही वास्तविक ज्ञान है, ऐसा मेरा मत है। शरीर को क्षेत्र कहा गया है। शरीर अनेक हैं। उनमें पृथक् पृथक् जीवात्मा निवास करते हैं। पृथक-पृथक शरीरों में जीवात्मा हैं। वे वस्तुतः एक परमात्मा के ही रूप हैं। क्षेत्र की भिन्नता किन्तु क्षेत्रज्ञ की एकता- इस बात की जानकारी रखने वाले ज्ञानी हैं। क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ को समझते ही सभी प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं।

चौदहवाँ अध्याय

गीता के 14वें अध्याय का नाम ‘गुणत्रयविभागयोग है। इस अध्याय में 27 श्लोक हैं। जिन में प्रकृति के गुणों तथा भगवत्प्राप्ति के उपायों का निरूपण किया गया है। प्रथम श्लोक से चतुर्थ श्लोकपर्यन्त ज्ञान की महिमा का वर्णन करते हुए प्रकृति-पुरुष के सम्बन्ध से जगत् उत्पत्ति का निरूपण है। पाँचवें श्लोक से 18वें श्लोक तक प्रकृति के सत्त्व, रज, तम गुणों के स्वभाव तथा प्रभाव का विशद विवेचन है। 19वें श्लोक से 27वें श्लोक तक गुणातीत महापुरुष के स्वरूप का वर्णन करते हुए भगवत्प्राप्ति के उपायों का वर्णन किया है। भक्तियोग से भगवत्प्राप्ति के फल का निरूपण करते हुए कहा गया है

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
सगुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।।14/26।।

जो पुरुष बिना किसी विकार के भक्तिभाव से मुझे (ईश्वर को) भजता है, वह इन तीनों गुणों सत्त्व, रज और तम को लाँघकर ब्रह्म को प्राप्त होने के योग्य हो जाता है। केवल एक परमेश्वर को ही सर्वश्रेष्ठ माने, उसी को स्वामी परम आश्रय माने, सर्वस्व माने यह विकार रहित भाव से अनन्य प्रेम है। इस प्रेम में न स्वार्थ हो, न अभिमान। यह निर्दोष, पूर्ण और अटल हो। निष्काम भाव से प्रभु की आज्ञा मानकर कर्मरत रहें। सर्वान्तर्यामी ईश्वर के प्रति इस प्रकार समर्पित रहने वाला व्यक्ति प्रकृति के तीनों गुणों से प्रभावित नहीं होता। ऐसा साधक ब्रह्मज्ञान का अधिकारी हो जाता है।

पन्द्रहवाँ अध्याय

गीता के पन्द्रहवें अध्याय का नाम पुरुषोत्तम योग है। इस अध्याय में 20 श्लोक हैं, जिन में संसार वृक्ष का निरूपण, जीवात्मा आदि विषयों का वर्णन, परमेश्वर के स्वभाव, प्रभाव का वर्णन करते हुए भगवत्प्राप्ति के उपायों का निरूपण किया गया है। प्रथम श्लोक से छठे श्लोकपर्यन्त संसाररूपी वृक्ष का वर्णन, स्वरूप ज्ञान के फल का निरूपण तथा भगवत्प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। 7वें श्लोक से 11वें श्लोक तक जीवात्मा के स्वरूप एवं क्रियाओं का वर्णन है। 12वें श्लोक से 15वें श्लोक तक परमेश्वर के विभिन्न स्वरूपों का एवं उनके द्वारा प्रतिपादित कर्मों का निरूपण किया है। 16वें श्लोक से 20वें श्लोकपर्यन्त क्षर (शरीर) एवं अक्षर (जीवात्मा) और पुरुषोत्तम के स्वरूप का प्रतिपादन है। निष्काम, निर्द्वन्द्व व्यक्ति के द्वारा परमपद की प्राप्ति का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि

निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् । 115 / 5 ।।

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिसने आसक्तिरूपी दोष को जीत लिया है और जिनकी नित्यस्थिति परमात्मा के स्वरूप में है तथा जिनकी कामनाएँ पूरी तरह से नष्ट हो चुकी हैं, ऐसे ही सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परमपद को प्राप्त होते हैं। मानसिक शक्तियों के विकास से मान-सम्मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। मोह, अविवेक और 1 भ्रम का सूचक है। साधक मान और मोह से रहित हो उसे आसक्तिजनित दोषों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। वह नित्य परमात्मस्वरूप में लीन रहे, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वों से मुक्त रहे। मोहरहित, अज्ञानरहित व मुक्त पुरुष ही परम-पद को प्राप्त होते हैं। परमेश्वर की कृपा तो प्राणीमात्र पर रहती है। भक्त साधक ज्ञानी ध्यानी उसको विशेष रूप से प्रिय होते हैं।

कर्मभूमि सन्देश, कर्मयोग का नाम दे ।
अर्जुन को उपदेश, बना देवकीसुत दिया।
कायर मत बन पार्थ, नहीं मार्ग आर्यत्व का ।
छोड़ विचार अपार्थ, तज प्रमाद, तू युद्ध कर।
कुन्तीसुत का प्रश्न- अपनों से कैसे लडू?”
उत्तर देते कृष्ण-धर्मयुद्ध कर जयी बन।’
-डॉ. बद्रीप्रसाद पंचोली

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