HBSE Class 10 नैतिक शिक्षा Chapter 6 खूब लड़ी मर्दानी Explain Solution

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खूब लड़ी मर्दानी Class 10 Naitik Siksha Chapter 6 Explain


भारत को स्वतन्त्रता लम्बे संघर्षों के पश्चात् मिली। भारत को स्वतन्त्रता अहिंसक युद्ध से मिली या कि सशस्त्र क्रान्ति आन्दोलन से, यह विवाद उठाना व्यर्थ है। इस तथ्य (सत्य) को स्वीकार किया जा सकता है कि अहिंसावादियों और क्रान्तिकारियों का ध्येय एक था, उद्देश्य एक ही था – स्वतन्त्रता प्राप्ति । मार्ग भले ही अलग-अलग रहे हों। भारतवासियों के जिस विद्रोह को विप्लव, गदर, राजद्रोह कहकर जुल्मी शासकों ने कुचला, जुल्म के शिकार विद्रोहियों ने उसे ही स्वाधीनता संग्राम कहा । क्रान्ति का अर्थ देकर उसके लिए अपनी जान की बाजियाँ तक लगा दीं

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है ।

ये पंक्तियाँ अमर शहीद रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की भावना को ही व्यक्त नहीं करतीं बल्कि पूरे क्रान्तिकारी आन्दोलन का प्रतिनिधित्व करती हैं। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के बलिदानियों में जिन स्वतन्त्रता सेनानियों के नाम गिने जाते हैं, उनमें एक थीं- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ।

आज तक भूली न दुनिया, धार उस तलवार की।
याद है मर्दानगी उस देश प्रेमी नार की।
थी स्वयं दुर्गा, छबीली, हाथ में खप्पर लिए
वार जब उसने किया तो काट सौ-सौ सिर लिए।

लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर, 1835 को हुआ था। उनके पिता का नाम मोरोपन्त और माता का नाम भागीरथी था। लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मनुबाई था। स्नेह से सभी इन्हें ‘मनु’ नाम से सम्बोधित करते थे। मनुबाई जब तीन-चार वर्ष की हुई, तो उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया। मोरोपन्त का हृदय टूट गया। वह मनुबाई को लेकर बाजीराव पेशवा के दरबार में चले गए। उन दिनों पेशवा कानपुर जिले के बिठूर नामक स्थान पर रहते थे।

मनुबाई बिठूर में ही पलकर आठ-नौ वर्ष की हुई। पेशवा उन्हें प्रेम से ‘छबीली’ कहकर पुकारते थे। पेशवा के दत्तक पुत्र नानासाहब के साथ मनु ने बचपन में ही शस्त्र विद्या व घुड़सवारी का प्रशिक्षण ले लिया था। बाजीराव के प्रयत्न से ही केवल आठ वर्ष की उम्र में मनु का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव नेवालकर से हो गया। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। गंगाधर राव के पूर्वजों को झाँसी का राज्य राजा छत्रसाल की ओर से उपहार के रूप में मिला था। सन 1851 में सोलह वर्ष की आयु में लक्ष्मीबाई को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन वह ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सका। इस आघात को गंगाधर राव सहन नहीं कर सके और वे बीमार पड़ गए। उत्तराधिकारी के रूप में उन्होंने अपने सम्बन्धी वासुदेवराव के पुत्र आनन्द को गोद ले लिया और उसका नाम दामोदर राव रखा गया। 21 नवम्बर, 1853 को गंगाधर राव का स्वर्गवास हो गया।

अंग्रेज इसी ताक में बैठे थे कि किस तरह भारतीय राज्यों पर कब्जा किया जाए। इन्होंने उत्तराधिकारी के रूप में दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया और गंगाधर राव की लाखों की सम्पत्ति को अपने खजाने में जमा कर लिया। इस तरह 7 मार्च, 1857 को झाँसी को अंग्रेजी शासन में शामिल कर लिया गया। शासन व्यवस्था के लिए अंग्रेज प्रतिनिधि एलिस को नियुक्त किया गया।

उस समय वायसराय डलहौजी ने रानी लक्ष्मीबाई के लिए पाँच हजार रुपये मासिक पेंशन बहाल की और किला भी खाली करवा लिया। विधवा के लिए किए जाने वाले पारम्परिक ‘मुण्डन संस्कार के लिए काशी जाने की इजाजत नहीं दी। दामोदर राव के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए जमा दस लाख रुपयों में से बड़ी मुश्किल से एक लाख रुपये दिए। वह भी एक व्यापारी की ज़मानत पर। इस प्रकार रानी की अवस्था अपने ही भवन के पिंजरे में बन्द पक्षी के समान हो गई।

अंग्रेजों के अन्याय व अत्याचार का बदला लेने के लिए रानी लक्ष्मीबाई युद्ध की तैयारी में जुट गई। उन्होंने स्त्री सैनिकों की संख्या में वृद्धि की। ताँत्या टोपे ने रानी को सम्पूर्ण भारत मेंचलाई जा रही क्रान्ति की योजनाओं से अवगत कराया। रानी इसके लिए पहले से ही तैयार थी।

31 मई, 1857 का दिन स्वतन्त्रता संग्राम के लिए तय किया गया परन्तु निर्धारित समय से पहले 6 मई को बैरकपुर छावनी में विद्रोह की आग भड़क उठी।

रानी ने भी झांसी में विद्रोह का झण्डा खड़ा किया। उन्होंने सेना संगठित करके झाँसी के किले और खजाने पर अधिकार कर लिया। बहुत-से अंग्रेज मारे गए। जो बचे, उन्होंने झाँसी से भागकर अपनी जान बचाई। पर रानी कुछ ही दिनों तक झाँसी के किले में शान्ति से रह पाई। अंग्रेजों की एक बहुत बड़ी सेना ने झाँसी पहुँचकर किले को चारों ओर से घेर लिया। रानी ने बड़े साहस के साथ अंग्रेजी सेना का सामना किया। पर रानी के थोड़े से सैनिक अंग्रेजों की बड़ी सेना के सामने कब तक टिके रह सकते थे। ताँत्या टोपे रानी की सहायता करने के लिए चला, पर अंग्रेजी सेना ने बीच में ही उसको रोक लिया। आखिर रानी को विवश होकर किला छोड़ना पड़ा।

रात का समय था। रानी घोडे पर सवार हुई। उन्होंने अपनी पीठ पर अपने दत्तक पुत्र को बाँधा हुआ था। उनके मुँह में घोड़े की लगाम और दोनों हाथों में तलवार थी। उनके साथ कुछ चुने हुए सैनिक भी थे। किले के बाहर अंग्रेजी सेना खड़ी हुई थी। रानी बिजली की तरह किले से बाहर निकली और अंग्रेजी सेना को रौंदती हुई कालपी की ओर चल पड़ी। अंग्रेजी सेना ने रानी का पीछा किया पर रानी उनकी पकड़ से बाहर निकलकर कालपी के किले में जा पहुँची। किले में पहले से ही विद्रोही नेता मौजूद थे, जिनमें राव साहब मुख्य थे। उन्होंने रानी का स्वागत किया। कुछ दिनों बाद ताँत्या टोपे भी अपनी सेना लेकर कालपी जा पहुँचे।

अंग्रेजों को जब पता चला, तो उन्होंने बहुत बड़ी सेना लेकर कालपी के किले पर भी चढ़ाई कर दी। कई दिनों तक घमासान युद्ध हुआ, पर पासा उलटा पड़ा। रानी और उनके साथियों को कालपी छोड़नी पड़ी। वे ग्वालियर पहुँचे। ग्वालियर के राजा सयाजीराव शिंदे व उनके दीवान ने पहले ही अंग्रेज़ों के सामने घुटने टेक दिए थे परन्तु रानी ने वहाँ से अंग्रेजों को मार भगाया व ग्वालियर में राव साहब पेशवा ने अपना राजतिलक करवाया।

अंग्रेजों को जब यह पता चला तो ह्यूरोज विशाल सेना लेकर ग्वालियर आ पहुँचा। मुरार में उनकी मुठभेड तात्या टोपे से हुई। रानी और उनके साथियों ने बड़ी वीरता से अंग्रेजी सेना का सामना किया। रानी की तलवारबाजी व वीरता को देखकर अंग्रेज भी दंग रह गए। पर समय विपरीत था, इसलिए उनको पीछे हटना पड़ा। 18 जून को अंग्रेजों ने फिर से रानी को घेर लिया। रानी काशी और सुन्दर नाम की अपनी सहेलियों के साथ मिलकर जूझती रही। लक्ष्मीबाई की तलवार के सामने जब अंग्रेजों की एक न चली तो उन्होंने तोपों से हमला करना शुरू किया. जिससे रानी के घोड़े की एक टांग टूट गई। एक अंग्रेज़ सैनिक की बन्दूक से चली गोली रानी के पैरों के ऊपरी भाग में घुस गई, जिससे वह घायल हो गई। तभी एक अंग्रेज सैनिक ने तलवार से लक्ष्मीबाई के सिर पर वार किया, जिससे रानी के सिर का दाहिना भाग व एक आँख शरीर से अलग हो गए। घायल अवस्था में भी रानी ने एक अंग्रेज सैनिक को मौत के घाट उतार दिया। अब रानी ने रणचण्डी का रूप धारण कर लिया था। उसने चारों ओर तलवार घुमानी शुरू कर दी। अंग्रेज सैनिक पीछे हट गए। 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई आखिरी दम तक, अपने देश के लिए लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हो गई।

कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान लिखती हैं —

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी,
बुन्देले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी।

इन पंक्तियों के रूप में रानी लक्ष्मीबाई अमर हैं। एक अंग्रेज सज्जन मि. टेलर ने उनके विषय में लिखा ‘रानी अपने पद के योग्य धैर्य और निश्चय बुद्धि से काम करती थी ।


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